धार्मिकता का पर्याय चरित्रनिष्ठा
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मनुष्य के समस्त क्रिया-कलापों, प्रयासों एवं उपक्रमों की पृष्ठभूमि में सुख-शांति का उद्देश्य निहित होता है। बल्कि यह कहना ही उपयुक्त होगा कि मानव-जीवन का अभीष्ट ही सुख प्राप्त करना है। वह जो कुछ भी कर रहा है, वह किसी न किसी रूप में इसी सुख को उपलब्ध करने के लिए कर रहा है। देखने में तो यहां तक आता है कि वह अनेक खतरे भी सुखोपभोग के लिए मोल लेता है।
सुख-शांति को प्राप्त करने की अभिलाषा उसकी एक विशिष्ट आकांक्षा कही जा सकती है। सुख-शांति की आवश्यकता के बीज उसके हृदय में स्वयं ही पाए जाते हैं। हृदय की उर्वरक भूमि में ही सुख-शांति की बेल पल्लवित एवं पुष्पित होती रहती है, इसे आत्मा की सहज स्वाभाविक जिज्ञासा भी कहा जा सकता है, क्योंकि आत्मा का उन्नयन सुख-शांति की अवस्था में ही संभव हो पाता है। आत्मा का परमात्मोन्मुख होना, अंश का अंशी से तादात्म्य होना भी इसी सुख-शांति की स्थिति में सहज होता है।
मानव-जीवन में व्यवस्था, संतुलन एवं संयम स्थापित करने के लिए भी सुख-शांति की महती आवश्यकता है, इनके अभाव में उसकी शक्तियां अस्त-व्यस्त रहकर क्षीण होती रहती हैं। शक्ति हीनता अपने आप में अभिशाप है। मानव-जीवन का परम लक्ष्य है, ईशोपलब्धि। जिस हेतु ईश्वर ने सर्वोत्कृष्ट स्वरूप प्रदान किया, उसमें मानव तब तक सफल नहीं हो पाता, जब तक कि वह संसार के बंधनों, मायाजालों, दुख, द्वंद्वों तथा शोक-संतापों की बेड़ियों से उन्मुक्त नहीं हो पाता।
जीवन में अपेक्षित उत्कर्ष अथवा आध्यात्मिक उत्थान के लिए मानसिक स्थैर्य, मस्तिष्कीय संतुलन एवं आत्माह्लाद की परम आवश्यकता होती है। अशांति की अवस्था में यह कदापि संभव नहीं हो पाती। मानसिक संघर्ष एवं मोह-माया में फंसा हुआ तथा संत्रस्त व्यक्ति, कामनाओं एवं वासनाओं से उन्मुक्त हुए बिना, लौकिक एवं पारलौकिक अभ्युदय किसी भी मूल्य पर नहीं कर सकता। किसी भी प्रकार के विकास हेतु शांतिपूर्ण मनःस्थिति अनिवार्य रूप से अपेक्षित है। ऐसा कोई संयोग नहीं है जिसका अंत में वियोग न होता हो, ऐसा कोई सुख-भोग नहीं है जिसके पीछे दुख-रोग संबद्ध न हो। संसार में पर्याप्त रूप से भटकने के उपरांत यही निष्कर्ष निकलता है कि विषय, भोग-वासना, तृष्णा, लोभ-मोह, की परिणति स्थाई सुख-शांति से निरंतर दूर करना ही है।
सुख-शांति का स्थिर निवास तो केवल उस एक परमात्मा में है, जो कण-कण में संव्याप्त है, मनुष्य में ईश्वर अंश अविनाशी आत्मतत्व के रूप में अवस्थित है और सचराचर सष्टि को अपनी विराट सत्ता द्वारा दीप्त करता है। दीप्त केवल परमात्मा है, उससे समस्त जगत ज्योतित हो रहा है।
मनुष्य के समस्त अतीत एवं वर्तमान के शोक-संतापों, माया-मोह, वासनाओं एवं तृष्णाओं की परिसमाप्ति उस समय होती है, जब वह परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करने में सफल हो जाता है।
धर्माचरण वस्तुतः वह उपाय है, वह सुमार्ग है, जिसके माध्यम से अक्षय-सुख-शांति प्रदायिनी, ब्राह्मी स्थिति सहज ही प्राप्त की जा सकती है। देशकाल एवं परिस्थिति के अनुरूप धर्माचरण करने वाला साधन निःसंदेह इस स्थिति को प्राप्त करने में अंततोगत्वा सफल हो जाता है। वस्तुतः धर्म ब्रह्म का सक्रिय स्वरूप है, जो धर्म ज्ञानी है, वह ब्रह्म ज्ञानी है। धर्म ज्ञान के द्वारा ब्रह्म ज्ञान सहज सुलभ हो जाता है। ब्राह्मी पद को प्राप्त करने के लिए प्राचीन ऋषि मनीषियों के अनुसार, मात्र धर्म धारण एवं धर्माचरण में निष्ठा आवश्यक थी और वे उसमें सफल हुए थे। धर्म निरत रहकर एवं विकार विरत होकर उन्होंने अपने आपको कर्मगति से अप्रभावित एवं दुख से परे बना लिया था। चंदन विषधरों से परिवेष्टित रहते हुए भी उनसे अप्रभावित रहता है। चंदन सदृश्य जीवन-दर्शन जिस ब्रह्मवेत्ता का होगा, वह सर्वत्र सुगंध एवं सुवास बिखेर कर स्वयं तो तर ही जाएगा, दूसरों को भी तार सकता है।
धर्म के संबंध में यह मान्यता फैली हुई है कि धर्म दुःसाध्य एवं दुर्बोध है। वस्तुतः यह धारणा भ्रममूलक है। धर्म सदृश्य ऋजु एवं सरल, सुखदायक तथा निरापद मार्ग इस संसार में और कुछ नहीं। वस्तुतः दुर्बल मनःस्थिति के लोग मानसिक दौर्बल्य के कारण ही उसे असाध्य एवं कष्टकारक समझते हैं। जितनी जिज्ञासा एवं आसक्ति उनकी विषय-वासनाओं की ओर है, यदि उतनी धर्म की ओर हो जाए, तो समस्त समस्याओं का समाधान करके हाथ लग जाए।
धर्म के दो स्वरूप हैं—एक आंतरिक, दूसरा बाह्य। एक को हम भावनात्मक कह सकते हैं तो दूसरे को क्रियात्मक। सदाचार धर्म का बाह्य स्वरूप है और सद्भाव उसका आंतरिक स्वरूप। सज्जनता, सादगी, सरलता, सहानुभूति, संवेदना दया, करुणा, न्याय, औचित्य, विवेक आदि वे दिव्य अनुभूतियां हैं, जिन्हें धर्म का भावनात्मक अथवा आभ्यांतरिक स्वरूप कहा जा सकता है। साथ ही श्रम, संयम, न्याय, सत्साहस आदि धर्म का क्रियात्मक अथवा बाह्य स्वरूप है। भावना यदि उपासना है तो क्रिया साधना है। सद्भाव और सत्कर्म को जब तक धन-ऋण विद्युत के समान संबद्ध नहीं करेंगे, तब तक प्रकाश संभव नहीं। ज्ञान, कर्म के अभाव में अपूर्ण है और कर्म ज्ञान के अभाव में अधूरा है। एतदर्थ इन दोनों के समन्वय से ही धर्माचरण में पूर्णता आती है। किसी व्यक्ति की दीन-हीन, असहाय स्थिति को देखकर यदि हमारे मन में सहानुभूति एवं संवेदना के भाव तो उत्पन्न होते हैं, किंतु उसकी सेवा एवं सहायता के पर्याप्त उपक्रम एवं उपचार नहीं किए गए तो धर्म का अपूर्ण आचरण माना जाएगा। इसी प्रकार यदि कोई असद्भावना, अहंकार प्रदर्शन एवं नामवरी के लिए किसी की सेवा, सहायता करता है, किन्तु दुखित पीड़ित जन के प्रति सच्ची सहानुभूति नहीं रहती तो, इस कार्य को भी धर्म का छद्म आचरण ही कहा जाएगा। वस्तुतः पूर्ण धर्म का आचरण भावना एवं क्रिया के समन्वय से ही संभव है। धार्मिक जन यदि वास्तव में धर्म लाभ प्राप्त करने की इच्छा करते हैं तो पूर्ण धर्म का आचरण परमावश्यक है।
धर्माचरण संपूर्ण मानवता के लिए मांगलिक निष्कर्ष है। मनुष्य अपने हृदय की निर्मल भावनाओं को यदि परिष्कृत और प्रसारित कर लेता है तो सुख-शांति उसकी सहचरी के रूप में अपने आप चली आती हैं। धर्म का संबंध मनुष्य की आस्था ईमान से है। ईमान यद्यपि धर्म का ही पर्याय है। ईमानदारी मनुष्य को ईश्वर के समीप पहुंचा देती है और बेईमानी नरक का द्वारा खोलती है। सुख का, परिस्थितियों का निर्माण ईमान एवं धर्म के प्रति आस्था निष्ठा द्वारा ही किया जा सकता है। धर्म की आत्मा मानव निष्ठा एवं आस्था पर टिकी हुई होती है। इसलिए सद्भाव एवं सत्कर्म के प्रति निष्ठा, श्रद्धा एवं आस्था ही मानव-जीवन के लक्ष्य ‘अक्षय सुख-शांति’ तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध हो सकती है।
सुख-शांति को प्राप्त करने की अभिलाषा उसकी एक विशिष्ट आकांक्षा कही जा सकती है। सुख-शांति की आवश्यकता के बीज उसके हृदय में स्वयं ही पाए जाते हैं। हृदय की उर्वरक भूमि में ही सुख-शांति की बेल पल्लवित एवं पुष्पित होती रहती है, इसे आत्मा की सहज स्वाभाविक जिज्ञासा भी कहा जा सकता है, क्योंकि आत्मा का उन्नयन सुख-शांति की अवस्था में ही संभव हो पाता है। आत्मा का परमात्मोन्मुख होना, अंश का अंशी से तादात्म्य होना भी इसी सुख-शांति की स्थिति में सहज होता है।
मानव-जीवन में व्यवस्था, संतुलन एवं संयम स्थापित करने के लिए भी सुख-शांति की महती आवश्यकता है, इनके अभाव में उसकी शक्तियां अस्त-व्यस्त रहकर क्षीण होती रहती हैं। शक्ति हीनता अपने आप में अभिशाप है। मानव-जीवन का परम लक्ष्य है, ईशोपलब्धि। जिस हेतु ईश्वर ने सर्वोत्कृष्ट स्वरूप प्रदान किया, उसमें मानव तब तक सफल नहीं हो पाता, जब तक कि वह संसार के बंधनों, मायाजालों, दुख, द्वंद्वों तथा शोक-संतापों की बेड़ियों से उन्मुक्त नहीं हो पाता।
जीवन में अपेक्षित उत्कर्ष अथवा आध्यात्मिक उत्थान के लिए मानसिक स्थैर्य, मस्तिष्कीय संतुलन एवं आत्माह्लाद की परम आवश्यकता होती है। अशांति की अवस्था में यह कदापि संभव नहीं हो पाती। मानसिक संघर्ष एवं मोह-माया में फंसा हुआ तथा संत्रस्त व्यक्ति, कामनाओं एवं वासनाओं से उन्मुक्त हुए बिना, लौकिक एवं पारलौकिक अभ्युदय किसी भी मूल्य पर नहीं कर सकता। किसी भी प्रकार के विकास हेतु शांतिपूर्ण मनःस्थिति अनिवार्य रूप से अपेक्षित है। ऐसा कोई संयोग नहीं है जिसका अंत में वियोग न होता हो, ऐसा कोई सुख-भोग नहीं है जिसके पीछे दुख-रोग संबद्ध न हो। संसार में पर्याप्त रूप से भटकने के उपरांत यही निष्कर्ष निकलता है कि विषय, भोग-वासना, तृष्णा, लोभ-मोह, की परिणति स्थाई सुख-शांति से निरंतर दूर करना ही है।
सुख-शांति का स्थिर निवास तो केवल उस एक परमात्मा में है, जो कण-कण में संव्याप्त है, मनुष्य में ईश्वर अंश अविनाशी आत्मतत्व के रूप में अवस्थित है और सचराचर सष्टि को अपनी विराट सत्ता द्वारा दीप्त करता है। दीप्त केवल परमात्मा है, उससे समस्त जगत ज्योतित हो रहा है।
मनुष्य के समस्त अतीत एवं वर्तमान के शोक-संतापों, माया-मोह, वासनाओं एवं तृष्णाओं की परिसमाप्ति उस समय होती है, जब वह परमात्मा से तादात्म्य स्थापित करने में सफल हो जाता है।
धर्माचरण वस्तुतः वह उपाय है, वह सुमार्ग है, जिसके माध्यम से अक्षय-सुख-शांति प्रदायिनी, ब्राह्मी स्थिति सहज ही प्राप्त की जा सकती है। देशकाल एवं परिस्थिति के अनुरूप धर्माचरण करने वाला साधन निःसंदेह इस स्थिति को प्राप्त करने में अंततोगत्वा सफल हो जाता है। वस्तुतः धर्म ब्रह्म का सक्रिय स्वरूप है, जो धर्म ज्ञानी है, वह ब्रह्म ज्ञानी है। धर्म ज्ञान के द्वारा ब्रह्म ज्ञान सहज सुलभ हो जाता है। ब्राह्मी पद को प्राप्त करने के लिए प्राचीन ऋषि मनीषियों के अनुसार, मात्र धर्म धारण एवं धर्माचरण में निष्ठा आवश्यक थी और वे उसमें सफल हुए थे। धर्म निरत रहकर एवं विकार विरत होकर उन्होंने अपने आपको कर्मगति से अप्रभावित एवं दुख से परे बना लिया था। चंदन विषधरों से परिवेष्टित रहते हुए भी उनसे अप्रभावित रहता है। चंदन सदृश्य जीवन-दर्शन जिस ब्रह्मवेत्ता का होगा, वह सर्वत्र सुगंध एवं सुवास बिखेर कर स्वयं तो तर ही जाएगा, दूसरों को भी तार सकता है।
धर्म के संबंध में यह मान्यता फैली हुई है कि धर्म दुःसाध्य एवं दुर्बोध है। वस्तुतः यह धारणा भ्रममूलक है। धर्म सदृश्य ऋजु एवं सरल, सुखदायक तथा निरापद मार्ग इस संसार में और कुछ नहीं। वस्तुतः दुर्बल मनःस्थिति के लोग मानसिक दौर्बल्य के कारण ही उसे असाध्य एवं कष्टकारक समझते हैं। जितनी जिज्ञासा एवं आसक्ति उनकी विषय-वासनाओं की ओर है, यदि उतनी धर्म की ओर हो जाए, तो समस्त समस्याओं का समाधान करके हाथ लग जाए।
धर्म के दो स्वरूप हैं—एक आंतरिक, दूसरा बाह्य। एक को हम भावनात्मक कह सकते हैं तो दूसरे को क्रियात्मक। सदाचार धर्म का बाह्य स्वरूप है और सद्भाव उसका आंतरिक स्वरूप। सज्जनता, सादगी, सरलता, सहानुभूति, संवेदना दया, करुणा, न्याय, औचित्य, विवेक आदि वे दिव्य अनुभूतियां हैं, जिन्हें धर्म का भावनात्मक अथवा आभ्यांतरिक स्वरूप कहा जा सकता है। साथ ही श्रम, संयम, न्याय, सत्साहस आदि धर्म का क्रियात्मक अथवा बाह्य स्वरूप है। भावना यदि उपासना है तो क्रिया साधना है। सद्भाव और सत्कर्म को जब तक धन-ऋण विद्युत के समान संबद्ध नहीं करेंगे, तब तक प्रकाश संभव नहीं। ज्ञान, कर्म के अभाव में अपूर्ण है और कर्म ज्ञान के अभाव में अधूरा है। एतदर्थ इन दोनों के समन्वय से ही धर्माचरण में पूर्णता आती है। किसी व्यक्ति की दीन-हीन, असहाय स्थिति को देखकर यदि हमारे मन में सहानुभूति एवं संवेदना के भाव तो उत्पन्न होते हैं, किंतु उसकी सेवा एवं सहायता के पर्याप्त उपक्रम एवं उपचार नहीं किए गए तो धर्म का अपूर्ण आचरण माना जाएगा। इसी प्रकार यदि कोई असद्भावना, अहंकार प्रदर्शन एवं नामवरी के लिए किसी की सेवा, सहायता करता है, किन्तु दुखित पीड़ित जन के प्रति सच्ची सहानुभूति नहीं रहती तो, इस कार्य को भी धर्म का छद्म आचरण ही कहा जाएगा। वस्तुतः पूर्ण धर्म का आचरण भावना एवं क्रिया के समन्वय से ही संभव है। धार्मिक जन यदि वास्तव में धर्म लाभ प्राप्त करने की इच्छा करते हैं तो पूर्ण धर्म का आचरण परमावश्यक है।
धर्माचरण संपूर्ण मानवता के लिए मांगलिक निष्कर्ष है। मनुष्य अपने हृदय की निर्मल भावनाओं को यदि परिष्कृत और प्रसारित कर लेता है तो सुख-शांति उसकी सहचरी के रूप में अपने आप चली आती हैं। धर्म का संबंध मनुष्य की आस्था ईमान से है। ईमान यद्यपि धर्म का ही पर्याय है। ईमानदारी मनुष्य को ईश्वर के समीप पहुंचा देती है और बेईमानी नरक का द्वारा खोलती है। सुख का, परिस्थितियों का निर्माण ईमान एवं धर्म के प्रति आस्था निष्ठा द्वारा ही किया जा सकता है। धर्म की आत्मा मानव निष्ठा एवं आस्था पर टिकी हुई होती है। इसलिए सद्भाव एवं सत्कर्म के प्रति निष्ठा, श्रद्धा एवं आस्था ही मानव-जीवन के लक्ष्य ‘अक्षय सुख-शांति’ तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध हो सकती है।



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