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Books - धर्म पथ

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धर्म- एक शास्त्रीय दृष्टिकोण

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‘सच्चिदानंद’ परमपिता परमात्मा के अनेक संबोधनों में से एक संबोधन है।  ‘सच्चिदानंद’ शब्द सत्+चित्+आनंद, इन तीन शब्दों की परस्पर संधि होने से बना है। ये तीनों शब्द परमात्मा के तीन गुणों के प्रतीक हैं, सत् उसे कहते हैं जो आदिकाल से लेकर अनंतकाल तक विद्यमान रहता है। कभी नष्ट नहीं होता। यथा हम जल को ही लें। पानी आदि काल से लेकर आज तक उपलब्ध है और अनंतकाल तक उपलब्ध रहने की संभावना है। यद्यपि पानी का ठोस रूप बर्फ और वायु रूप भाप होता है, जो रूप परिवर्तन का द्योतक है। इन्हीं तीनों रूपों में पानी आदि से लेकर अब तक विद्यमान है। आदि से लेकर अद्यतन चली आ रही प्रवाहमय धारा को ही सनातन कहते हैं। जगत में विद्यमान प्रत्येक वस्तु की एक विशेषता होती है। उसका अपना स्वभाव होता है। उसका अपना गुण होता है। वस्तु की इसी विशेषता, स्वभाव या गुण को ही धर्म कहते हैं। उदाहरणार्थ पानी का गुण या स्वभाव शीतलता प्रदान करना या सृष्टि के प्राणिमात्र की प्यास बुझाना है। इसी प्रकार अग्नि का गुण ताप और प्रकाश प्रदान करना है। सरिता का स्वभाव सतत् प्रवाहित रहना है। पक्षियों का स्वभाव सतत् चहकते, फुदकते, उड़ते हुए आनंदित होते रहना है। पशुओं का भी स्वभाव चौकड़ी भरते हुए मस्ती भरे जीवन का आनंद उठाना है। केवल मनुष्य के संपर्क में आने वाले पशु-पक्षी ही, जो मनुष्य की अधीनता का जीवन जीते हैं, उन्हें पराधीनता के कारण आनंदमय जीवन से वंचित रह जाना पड़ता है और दुःखी जीवन जीने के लिए विवश होना पड़ता है। इसी प्रकार मनुष्य का एकमात्र धर्म आनंद ही है। वह सदा आनंद प्राप्ति की दिशा में ही उन्मुख रहता है। यह बात दूसरी है कि परिस्थिति की पराधीनता के कारण उसे आनंद रहित जीवन जीने के लिए विवश होना पड़ता है, परंतु सतत् उसकी चिंतन की धारा दुःख से त्राण पाकर आनंद प्राप्ति की ओर ही प्रवाहित रहती है। मनुष्य समाज के तत्वान्वेषी ऋषि, मुनि, संत, महात्मा, विचारक, चिंतक आदि जितने भी महापुरुष हो गए हैं तथा जिन्होंने धर्म शास्त्रों का प्रणयन किया है, उन सभी ने एक स्वर से दुःख से त्राण पाने का उपाय और सुख प्राप्ति का मार्ग धर्म ही बताया है। सुख प्राप्ति के मार्ग को ही धर्म कहा गया है। व्यक्तिगत सुख के मार्ग को व्यक्ति का धर्म, परिवार को सुखी बनाने वाले मार्ग को कुटुंब का धर्म, जिससे समाज को सुख मिले उसे सामाजिक धर्म, जिससे राष्ट्र खुशहाल हो उसे राष्ट्र का धर्म, जिससे विश्व सुखी हो, उसे सार्वभौम धर्म और जिससे प्राणिमात्र सुख की अनुभूति करें, ऐसे धर्म को सनातन धर्म कहा गया है। यों तो धर्म संस्कृत भाषा का एक शब्द है जिसकी शाब्दिक उत्पत्ति ‘धृञ्’=‘धारणे’ धातु से हुई है। महर्षि व्यास जी ने धर्म की परिभाषा इस प्रकार की है—

धारणाद्धर्मधर्ममित्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः ।

सत्स्याद्धारणसंयुक्तं सधर्मइतिनिश्चयः ।।

अर्थात्—धारण करने से इसका नाम धर्म है। धर्म ही प्रजा को धारण करता है। वही निश्चय ही धर्म है। महामुनि कणाद ने कहा है:—

यतोऽभ्युदय निश्श्रेयससिद्धि स धर्मः ।

अर्थात्—जिससे इस लोक और परलोक दोनों स्थानों पर सुख मिले, वही धर्म है।

आधार उसे कहते हैं, जिसके सहारे कुछ स्थिर रह सके, कुछ टिक सके। हम चारों ओर जो गगनचुंबी इमारत देखते हैं, उनके आधार नींव के पत्थर होते हैं, इसी पर वे स्थिर हैं। इसी पर वे टिके हुए हैं। प्रत्येक पदार्थ किसी न किसी आधार पर ही अवस्थित है। यहां तक कि ग्रह, नक्षत्र, तारे जो अंतरिक्ष में शून्य में अवस्थित प्रतीत होते हैं, वे भी एक दूसरे की आकर्षण शक्ति को आधार बनाए हुए हैं। आधार रहित कुछ भी नहीं है। बिना आधार के सनातन धर्म भी नहीं है। सनातन धर्म का अपना एक मजबूत आधार है, जिसके ऊपर उसकी भित्ति हजारों वर्षों से मजबूती से खड़ी हुई है। वह आधार क्या है? वह आधार है:—सर्वभूत हितरेताः । इसे दूसरे शब्दों में ऐसा भी कह सकते हैं कि सृष्टि के संपूर्ण जड़-चेतन में अपनी आत्मा का दर्शन करना। अपने समान ही सबको मानना। जैसा कि यजुर्वेद में कहा गया है—

यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेयेवानुपश्यति ।

सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न वि चिकित्सति ।।

—यजुर्वेद 40 मंत्र 6

इसी बात को एक अन्य ऋषि ने इस प्रकार कहा है—

नतत्परस्यसंदध्यात्प्रतिकूलंयदाऽऽत्मनः ।

एषसंक्षेपतोधमः कामादन्यः प्रवर्तते ।।

अर्थात्—जो कार्य अपने विरुद्ध जंचता हो, दुःखद मालूम होता हो, उसे दूसरों के साथ भी मत करो। संक्षेप में यही धर्म है।

श्रीमद्भागवतकार ने भी ईश्वर की प्रसन्नता के लिए कहा है कि हृदय में से सब भूतों के प्रति दया होना तथा यदृच्छं लाभ से संतुष्ट रहना।

दमया सर्वभूतेषु संतुष्टया येन केन वा ।

भगवान कृष्ण कहते हैं—

अहमुच्चाववचैर्द्रव्यैः क्रिययोत्पन्नयाऽनधे ।

नैव तुष्येऽर्चितोऽर्चायां भूतग्रामावमानिनः ।।

अर्थात्—जो दूसरे प्राणियों को कष्ट देता है, वह सब प्रकार की सामग्रियों से विधिपूर्वक मेरा अत्यंत भजन पूजन भी करे तो भी मैं उन पर संतुष्ट नहीं होता।

मनुस्मृति में मनु महाराज ने कहा है:—

धर्म शनै संचिनुयाद्वल्मीकमिव पुत्तिकाः ।

परलोकसहायर्थं सर्व भूतान्यपीडयन् ।।

अर्थात—जैसे दीमक बांबी को बनाती है वैसे सब प्राणियों को कष्ट न देकर परलोक के लिए धर्म संग्रह करें।

महर्षि व्यास ने कहा है—

श्रूयतां धर्म सर्वस्व, श्रुत्वाचैवधार्यताम् ।

आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।।

अर्थात्—धर्म का सार सुनो। सुनो और धारण करो। अपने को जो अच्छा न लगे, वह दूसरों के साथ व्यवहार न करो।

सर्वभूत दया ही हमारे सनातन धर्म का आधार है। सब प्राणियों को आत्मवत् मानना ही धर्म का उच्चतम आदर्श है, आधार है। इन्हीं सब कारणों से ही हमारे यहां धर्म पालन का निर्देश पग-पग पर दिया गया है। जिससे हम अपने आधार को, अपने आदर्श को कभी भी न भूल सकें। जैसा कहा गया है:—

नामुत्र सहायर्थं पिता माता च तिष्ठति ।

न पुत्रदारा न ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलम् ।।

अर्थात—परलोक में न माता, न पिता, न पुत्र, न स्त्री और न संबंधी सहायक होते हैं। केवल धर्म ही सहायक होता है।

चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चले जीवितयौवने ।

चला चलेति संसारे, धर्म एकोहिनिश्चलः ।।

अर्थात—लक्ष्मी चलायमान है और जीवन चलायमान है। इस चराचर जगत में केवल धर्म ही अचल है। सनातन धर्म कोई मजहब या संप्रदाय नहीं है जो परस्पर शत्रुता के बीज बो देवे। इस धर्म का आधार अत्यंत मजबूत है जो हमें आत्मवत् सर्वभूतेषु का पाठ पढ़ाता है। यही वह धर्म है जो वसुधैव कुटुम्बकम की ऊंची शिक्षा देता है। यही वह धर्म है जो आत्मानंद और परमानंद की प्राप्ति कराता है। यही वह धर्म है जो विश्वजनीन है। इसी धर्म से विश्व मानव कल्याण को प्राप्त होगा। धर्म का यह एक पक्ष हुआ। दूसरा पक्ष है, अवांछनीयता, अनाचार, असुरता को निरस्त करना।

ये वा सहस्रदक्षिणांस्तांश्चिदेवापि गच्छतात् ।

जो संग्रामों में लड़ने वाले हैं, जो शूरवीरता से शरीर को त्यागने वाले हैं और जिन्होंने सहस्रों दक्षिणाएं दी हैं, तू उनको भी प्राप्त हो।

स्वधर्मापि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।

धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्ययत्क्षत्रियस्य न विद्यते ।।

—गीता

स्व धर्म को समझकर भी तुझे हिचकिचाना उचित नहीं है, क्योंकि धर्म युद्ध की अपेक्षा क्षत्रिय के लिए और कुछ अधिक श्रेयस्कर नहीं हो सकता है।

यदृच्छया चोपपन्न स्वर्गद्वारमपावृतम् ।

सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ।।

—गीता

हे पार्थ! यों तो अपने आप प्राप्त हुआ और मानों स्वर्ग का द्वार ही खुल गया हो, ऐसा युद्ध तो भाग्यशाली क्षत्रियों को ही मिलता है।

यस्तु प्राणान् परित्यज्य प्रविशेदुद्यतायुधः ।

संग्राममग्निप्रतिमं पतंग इव निर्भयः ।

स्वर्गमाविशते ज्ञात्वा योधस्य गति निश्चयम् ।।

जो अपने प्राणों की चिंता को छोड़कर पतंग की भांति निर्भय हो हाथ में हथियार उठाए अग्नि के समान विनाशकारी संग्राम में प्रवेश कर जाता है और योद्धा को मिलने वाली निश्चित गति को जानकर उत्साहपूर्वक जूझता है, वह स्वर्ग लोक में जाता है।

सलिलादुत्थितोवह्निर्येनव्याप्तंचराचरम् ।

दधीचिस्यास्थितो वज्रंकृतंदानवसूदनम् ।।

—महाभारत

पानी से आग पैदा हुई जो सारे जगत को व्याप्त कर रही है। दधीचि की हड्डी से सारे दानवों का नाशक वज्र बनाया गया।

भगवान् के सभी अवतार धर्म स्थापना और अधर्म का नाश करने के लिए हुए हैं। दुर्गा का अवतार तो विशेषतया असुरता से जूझने के लिए ही हुआ।

इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति ।

तदा तदातीर्यहिं करिष्याम्यारिसंरक्षयम् ।।

—सप्तशती

जब-जब दानव प्रकृति वाले जोर पकड़ कर सृष्टि कार्य (सामाजिक प्रगति) में रोड़ा अटकाएंगे, तभी मैं प्रकट होकर उनका नाश करूंगी।

भारतीय धर्म और संस्कृति की जननी गायत्री है। उसे ब्रह्मवर्चस् भी कहते हैं। उसमें ब्रह्मज्ञान और ब्रह्मतेज दोनों का समावेश है। उन दोनों ही तत्वों की उपासना करने वाला ब्रह्मतेज संपन्न हो जाता है। इस तथ्य को शतपथ ब्राह्मण में इस प्रकार कहा गया है:—

तेजो वै ब्रह्मवर्चसं गायत्री । तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्वी भवति ।।

—शतपथ

अर्थात—गायत्री ही तेज और ब्रह्मवर्चस् स्वरूप है। उसका सदैव अनुष्ठान करने से तेजस्वी और ब्रह्मवर्चस्वी बनता है।

सत्प्रवृत्तियों का प्रसार एवं प्रतिष्ठापन एवं दुष्प्रवृत्तियों का निष्कासन, विनाश ही धर्म का मूल उद्देश्य है। इस तथ्य को जो समाज जितना हृदयंगम कर तदनुरूप जीवन शैली में इनका समावेश करेगा, वह उतना ही शसक्त, समुन्नत और शालीन बनेगा। यदि वह इस परिवर्तन के लिए तैयार नहीं होता तो उसे भी विज्ञान की टेढ़ी आंख का कोपभाजन बनने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। आधारविहीन धर्म थोड़ी देर ठहर सकता है, विज्ञान की कठोर तर्कशक्ति के आगे उसका यथार्थ स्वरूप ही टिक पाएगा।
धर्म एक महान तथ्य और जीवन चेतना का यथार्थ विज्ञान है। उसके बाह्याभ्यंतर दोनों ही स्वरूप व्यक्ति और समाज दोनों के लिए कल्याणकारी होते हैं। ऐसे महान तत्व को दिमागी फितूर नहीं अपितु श्रद्धा के रूप में देखा, परखा और धारण किया जाना चाहिए।
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धर्म पथ
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