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Books - धर्म पथ

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Language: HINDI
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धर्मो हि परमो लोके धर्मे सत्यं प्रतिष्ठतम्

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First 8 10 Last
दर्शन क्षेत्र में इतनी अधिक विभिन्नताएं हैं कि उन्हें एक सूत्र में बांधा जाना कठिन है। प्राचीन काल में षड्दर्शन थे। इसके उपरांत तो उनके अनेकानेक नाती-पोते निकल पड़े। अद्वैत, द्वेत और त्रैत की मान्यताएं उभरीं। जैन और बौद्ध दर्शन भी सशक्त थे। चार्वाक दर्शन था तो नास्तिकतावादी पर दलीलें उसकी भी ऐसी ईश्वर परक थीं कि जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।

पाश्चात्य दर्शन की अलग श्रृंखला विनिर्मित हुई। उनके आरंभ और प्रौढ़काल धूमधाम भरे रहे। पीछे नए दर्शनों ने उनका स्थान ग्रहण किया तो फिर पुरानों में वृद्धता आई, पर जीवित वे भी रहे। इस प्रकार अब तक की खोजों में उनकी संख्या सौ के करीब पहुंच चुकी है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपने ‘‘दर्शन-दिग्दर्शन’’ ग्रंथ में इसी छोटी सीमा में उनमें से अधिकांश पर प्रकाश डाला है। यों संप्रदाय के पीछे अपने-अपने दर्शन हैं। वे मात्र कर्मकांड नहीं हैं, उनके पीछे ऐसे प्रतिपादन भी हैं, जिन्हें दर्शन का नाम दिया जा सकता है। आर्य समाज की अपनी मान्यताएं थीं, तो कबीर पंथियों की अपनी। इन सब संप्रदाय मिश्रित-लिखित और अलिखित दर्शनों की गणना की जाए तो वे एक हजार से ऊपर पहुंचती हैं।

भक्तिवाद उन सबमें अनोखा है। उसमें भगवानों से लेकर देवताओं तक को अपना स्नेह प्रदर्शित करके वशवर्ती बनाने और अंगुलियों पर नचाने का प्रावधान है। इन दर्शनों की वृद्धि के साथ-साथ उनके अनुयायियों की कट्टरता भी बढ़ी। वे अपने को सही और दूसरे सभी को गलत मानते थे। फलतः टकराव होना भी स्वाभाविक था। अपने सिवाय सभी झूठे हैं। झूठों को दबाना चाहिए। इस अत्युत्साह ने कलह के बीज बोए। मनोमालिन्य बढ़कर वैमनस्य तक पहुंचा। अपनी हठ के आगे अन्यान्यों को सिर झुकाने के लिए विवश करने की प्रथा चल पड़ी और संसार भर में इस आधार पर भारी रक्तपात हुए। मारने वाले अपने को धर्म सेवक और मरने वाले अपने को शहीद मानने लगे। उनकी भी अपने-अपने ढंग से पूजा होने लगी। एक ने दूसरे से बढ़कर अपने-अपने मान्य लोगों और देवताओं के स्मारक बनाए। इससे चिढ़ को और भी अधिक प्रोत्साहन मिला और लगा कि प्रचलित दर्शन किसी समस्या का समाधान नहीं करते वरन कलह-विद्वेष के बीज बोते हैं।

यह जानना अति कठिन है कि इतनी अधिक मान्यताओं में से कौन सही है? कौन गलत? ऐसा निर्णय तो निष्पक्ष लोगों की एक ऐसी सभा ही कर सकती है जिसका निर्णय मानने के लिए सभी बाध्य हों, पर मनुष्यों की वर्तमान स्थिति में ऐसा पंच निर्णय भी कठिन है, क्योंकि कोई भी अपनी मान्यता से पीछे हटने को तैयार नहीं। सभी को अपने पूर्ववर्तियों का प्रतिपादन, प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। कोई अपनी हेठी क्यों कराए? अपनी नाक सबसे ऊंची क्यों न रखे? ऐसी दशा में किसी सर्वमान्य निष्कर्ष की आशा रखना, दुराशा मात्र ही है।

नीति, न्याय, विवेक, तर्क, तथ्य, प्रमाण के आधार पर ऐसी आचार संहिता तो बन सकती है, जो मानवी गरिमा के अनुरूप हो, उसे मानव धर्म कहा भी जा सकता है। वैसे यह अधिक उचित है कि झगड़े की जड़ इन धर्म संप्रदायों से पृथक धर्म उस सार्वजनीन सार्वभौम निर्धारण को आचारसंहिता जैसा नाम दिया जाए। वह हर देश के, हर मत-संप्रदाय के लोगों पर समान रूप से लागू होती हो।

जब तक वैसा संभव नहीं हो, तब तक एक मध्यवर्ती मार्ग निकल सकता है कि अपनी-अपनी मान्यताओं को अपने तथा अपने समकक्षी लोगों तक ही सीमित रखा जाए। दूसरों को न तो चुनौती दी जाए और न उन्हें अपना मत बदलने को बाधित किया जाए। अपनी मान्यता अपने तक ही सीमित रहने दी जाए। उसे खंडन, मंडन के स्तर तक न पहुंचने दिया जाए और न कलह या विद्वेष का निमित्त कारण बनने दिया जाए। इसे सर्वदर्शन या सर्वधर्म समन्वय तो नहीं कहा जा सकता है, पर उसे सहिष्णुता समझा जा सकता है। एक-दूसरे को सहन करना सीखें और अपनी विचारणा को अपने तक ही सीमित रखें।

नीति-नियम ऐसे हों कि जिन पर चलने के लिए दूसरों को बाधित किया जा सकता है। चोरी, उठाईगीरी, लूट, अपहरण, हत्या, डकैती, व्यभिचार, धोखाधड़ी आदि को सभी देशों में अपराध ठहराया गया है। अपराधी प्रवृत्ति को रोका जाना चाहिए।

सदाचरण को प्रोत्साहित करने वाले ऐसे दर्शन को मान्यता दी जानी चाहिए जो सर्व-साधारण के हित में पड़ता हो और जिसमें अनीति पर बंधन लगाया जाता हो। धर्म और अधर्म का अभिप्राय वस्तुतः औचित्य और अनौचित्य से है, न कि किसी धर्म या संप्रदाय विशेष की मान्यताओं से है। नीति पालन और पालन कराने भर का औचित्य है। दर्शन का समान हो सकना कठिन है। सब संप्रदायों का एकीकरण भी आज के वातावरण में कठिन है। यह भी नहीं हो सकता है कि थोड़ी-थोड़ी सब में से लेकर एक संयुक्त दर्शन बनाया जाए। इतनी समझदारी, उदारता एवं यथार्थवादिता अपनाने के लिए लोग सहमत हो सकें, ऐसी विचारशीलता का युग आने में अभी देर है।

ऐसी दशा में अनेकांतवाद की जैन मान्यता का अन्य धर्मावलंबियों द्वारा अपनाएं जाने का भी मन होना चाहिए। उस प्रतिपादन में यही कहा गया है कि अपने से भिन्न मान्यताओं के संबंध में यह मत रखा जाए कि संभव है, वह भी ठीक हो।

अपना मत अपने लिए कितना ही उपयुक्त क्यों न प्रतीत हो पर उसे दूसरों पर थोपने के लिए बाधित नहीं किया जा सकता। हम अपनी बात कहें तो पर दूसरों को झूठा ठहराने का प्रयत्न न करें। यही अनेकांतवाद है। साम्यवाद की मान्यता भी इसी से मिलती-जुलती है। एक परिवार के कई सदस्य होते हैं। उनके खाने, पहनने के सामान अलग-अलग हो सकते हैं। इस मतभेद के कारण न तो कोई झगड़ता है, न अपनी रुचि को दूसरों पर थोपने का प्रयत्न करता है। जब ऐसे छुटपुट मतभेद उपेक्षा में डाल दिए जाते हैं तो कोई कारण नहीं है कि दार्शनिक, सांप्रदायिक मान्यताओं के संबंध में वैसी ही छूट क्यों न दी जाए। इसी सहिष्णुता का नाम है, अनेकांतवाद। इसी को अपनाने से मतभेदों के रहते हुए भी शांतिपूर्वक रहा जा सकता है।

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