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Books - धर्म पथ

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धर्म कथा

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प्रत्येक छोटी सी वस्तु के पृष्ठ भाग में एक वृहत् भंडार होता है—बूंद के पीछे समुद्र, बीज के पीछे पेड़, पैसे के पीछे टकसाल। और यह सच्चाई भी है। इसे नकारा नहीं जा सकता है। जब यह सच्चाई है, तो फिर क्या हमारे जीवंत-जागृत जीवन को मानवीय गौरव-गरिमा के गुणों से परिपूर्ण करने वाले ज्ञान के पीछे कुछ नहीं है? किसी दुखित-पीड़ित व्यक्ति को देखकर अचानक जो करुणा-ममता की दिव्य ज्योति कभी-कभी हमारे अंतःकरण में देदीप्यमान हो उठती है क्या उसका सूर्य कोई नहीं है? समस्त मानवता को देवतुल्य, समस्त सृष्टि को स्वर्गमय बनाने की जो महान प्रेरणाएं हमारे हृदय में उदित होती रहती हैं क्या उनका महान भंडार कोई नहीं है? मनोजगत में जो तुच्छ से महान बनने और समस्त सृष्टि को सुंदरतम बनाने की प्रेरणाएं, अनुभूतियां प्रवाहित हो उठती हैं क्या उनका कोई आधार ही नहीं है? ऐसे ढेरों प्रश्न अनायास मानव-मन में कौंधते रहते हैं।

वास्तव में बात ऐसी नहीं है। ज्ञान की एक छोटी सी किरण के पीछे भी एक विशाल कल्पतरु, असीम भंडार, अक्षय समुद्र लहरा रहा है। यह हमारा जीवन उसी से धन्य हो रहा है, उसी से अपनी ऊर्जा प्राप्त कर रहा है। हमारे जीवन का ज्ञान न तो लावारिस है और न ही अनाथ या अनायास मिला हुआ है, बल्कि हमारे जीवन का ज्ञान और हमारा जीवन और जीवन के सारे क्रिया-कलाप एक नियम-बद्धता से संचालित हो रहे हैं और एक सत्ता से संचालित हो रहे हैं। वह सत्ता है ईश्वर। उसी को हमने ईश्वरीय ज्ञान के नाम से पुकारा है, उसी को ईश्वरीय ज्ञान कहा है और उसी को हमने धर्म कहा है। प्रत्येक आत्मा ईश्वरीय ज्ञान की ही एक नन्हीं किरण है, जो निरंतर ज्ञान के महासूर्य धर्म की ओर अग्रसर होने को लालायित रहती है। सृष्टि का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जीवन उसी महासूर्य की एक झलक पाने, थोड़ा सा भी पयपान करने की आशा लेकर ही धरा पर आया है और यही हमारे जीवन का भी सार है।

धर्म को शास्त्रीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो ‘धृ’ धातु में ‘मन’ कृदंत लगाकर ‘धर्म’ शब्द बना है। इसका अर्थ होता है—धारण किए जाने वाले, आचरण कि जाने योग्य। ‘धार्यते जनैरिति धर्मः’ मनुष्यों द्वारा जिसे आचरण में लाया जाए, वही धर्म कहलाता है। धर्म को धारण करने वाला, धर्म का अपने जीवन में आचरण करने वाला, धर्म के आधार पर अपने जीवन को जीने वाला व्यक्ति धार्मिक कहलाता है। इस दृष्टि से धर्म वह होगा जिसका आचरण करने से, जिसको धारण करने से मनुष्य-जीवन सुव्यवस्थित रूप से चलता रहे व जिसके अनुसार चलने से मनुष्य अपने निर्दिष्ट लक्ष्यानुसार जीवन निर्वाह करता हुआ अपने मनुष्य जीवन को सार्थक बनावे।

भगवान ने जब मनुष्य को बनाया तो उसकी मनुष्य मात्र से यह अपेक्षा थी कि अपना स्वयं का ऐसा मर्यादापूर्ण आदर्श जीवन बनाए जिससे स्वयं उसका जीवन तो सफल हो ही साथ ही जिस परिवार, जिस समाज व जिस युग में वह है उस परिवार, समाज व युग को भी अपने कृत्यों, अपने आचरणों से सुव्यवस्थित बनाए रख सके। इस दृष्टि से धर्म का लक्ष्य मनुष्य में शिवत्व का विकास करना है।

स्वामी विवेकानंद ने ‘राजयोग की टीका’ नामक पुस्तक में बताया है कि धर्म का लक्ष्य मनुष्य में देवत्व या ईश्वरत्व की उपलब्धि ही है। धरती का हर मनुष्य इस तरह का आचरण करे कि उसका जीवन सुव्यवस्थित, सुनियोजित बना रहे, वह अपने कर्त्तव्य पथ पर चलता रहे, धर्म के विपरीत आचरण, व्यवहार न करे, तो वह देवत्व तक स्वयमेव पहुंच सकता है। मनुष्य का विकास एवं अभ्युदय तो धर्म का ‘व्यष्टि परक’ तत्व है। धर्म का समष्टिपरक स्वरूप भी निर्धारित है। यदि हर मनुष्य धर्म द्वारा निर्धारित रीति से आचरण करे, अस्तेय, अपरिग्रह, अहिंसा जैसे सद्गुणों को अपने जीवन में अंगीकृत कर ले तो मनुष्य का यह व्यष्टि परक गुण ही समष्टिपरक हो जाता है। जब सब मनुष्य धर्मानुकूल आचरण करने लगेंगे तो फिर कहीं कोई धर्म विपरीत आचरण न होने से ‘‘यही धर्म’’ समष्टिपरक बन जाएगा। इसीलिए तो हमारे ऋषि-मुनियों की यह मान्यता रही है कि यदि व्यक्ति सुधर जाए तो समाज भी बदल जाए। व्यक्ति से ही समाज बनता है, व्यष्टि से ही समष्टि बनती है, अतः यदि हर व्यक्ति अपने आपको धर्मनिष्ठ बना ले तो पूरा समाज व युग भी धर्मनिष्ठ बन ही जाएगा। यही धर्म का लक्ष्य भी है—व्यष्टि रूप में मनुष्य देवतुल्य बने व समष्टि रूप में यह धरती ही स्वर्ग बन जाए।

इस दृष्टि से शायद स्वयं धर्म को भी लोक या प्रजा की रक्षा करने वाला माना गया है। ध्रियते लोकोऽनेन, धरति लोकं वा अर्थात—जो लोक अथवा प्रजा को धारण करता है, अर्थात लोक या प्रजा की स्थिति की रक्षा करने वाला तत्व है, वह धर्म है। धर्म के इस तरह दो रूप हैं। प्रथम यह है कि धर्म मनुष्य को धारण करने, आचरण करने, व्यवहार में लाने का तत्व है, यह धर्म का ‘मानवाचार’ का रूप है। धर्म का दूसरा रूप है ‘सामाजिक’। अपने दूसरे रूप में धर्म सामाजिक स्थिति का आधार बनता है। व्यष्टि रूप में यदि धर्म को मानव मात्र ने अंगीकृत किया व अपना व्यक्तिगत जीवन धर्मानुरूप बनाया तो समष्टि रूप में यही धर्माचरण ऐसी सामाजिक स्थिति का निर्माण करता है कि जिससे मनुष्य का सामाजिक, सांस्कृतिक स्वरूप व्यवस्थित बना रहता है व पूरा समाज ही ऐसा बन जाता है जहां एक के लिए सब व सबके लिए एक का भाव व्याप्त रहता है। धर्म के इसी स्वरूप को राजनैतिक व आर्थिक क्षेत्र में समता, समानता, समाजवाद के नाम से सुना जाता है। किसी समय विशेष व समाज-विशेष में धर्म की मान्यताएं-मर्यादाएं, नैतिक मूल्य निर्धारित हो जाने पर यदि समाज के सभी घटक उसका पालन करने लगेंगे तो फिर धर्म पूरे समाज की रक्षा भी करेगा ही, क्योंकि समाज के किसी एक अंग पर विपत्ति आ पड़ने पर दूसरे घटक इसकी विपत्ति को दूर करना अपना धर्म ही मानते हैं। इसी तरह समाज के कमजोर वर्ग को समुन्नत करने, विकसित करने के लिए विकसित वर्ग के प्रयास ‘‘धर्म कर्त्तव्य’’ मानकर ही किए जाते हैं। समाज या राष्ट्र पर या इसके किसी वर्ग पर कोई प्राकृतिक प्रकोप आ जाने पर दूसरे वर्ग के लोग अपनी धार्मिक भावना के वशीभूत होकर ही तो कर्त्तव्य प्रेरित होते हैं कि अपने समाज के अन्य भाईयों के कष्ट निवारणार्थ कुछ त्याग करें। इसी दृष्टि से धर्म का यह स्वरूप सर्वमान्य है कि धर्म प्रजा की व समाज की रक्षा करता है।

धर्म के इन दो तत्वों—मानवाचरण एवं समाज रक्षण को दृष्टि में रखते हुए ही धर्म की धारणा निश्चित रहती है। धारणा से अर्थ ‘वह व्यवहार-जीवन पद्धति, मर्यादा, आचारसंहिता है’ जो धर्म स्वरूप मानी जावे तथा तदनुरूप ही उसका आचरण मनुष्य मात्र करे। इस दृष्टि से धर्म के प्रति समाज की जो ‘‘धारणा’’ निश्चित हो, वह ऐसी हो जो व्यक्तित्व परिष्कार, व्यक्ति कल्याण के साथ ही सामाजिक परिप्रेक्ष्य में भी अनुकूल हो। यहां धर्म का अर्थ अपने जीवन निर्वाह के उद्देश्य से किया जाने वाला किसी प्रकार का श्रम ‘धर्म’ नहीं माना जा सकता है। दस्यु जीवन बिताने वाले वाल्मीकि अपने परिवार के सदस्यों का पालन करने के लिए लूटपाट करने को ही ‘धर्म’ समझते थे। एक बार उन्होंने धन के लालच में सप्तऋषियों को पकड़ लिया। सप्तऋषियों ने पूछा—‘‘भाई असहाय लोगों को इस तरह मारना, लूटना तो पाप है, तुम यह सब क्यों करते हो?’’ इस पर वाल्मीकि ने उत्तर दिया—‘‘यह तो मेरी जीविका है, अपने वृद्ध माता-पिता, पत्नी व संतान का पालन-पोषण करना है, मैं इनके प्रति अपने कर्त्तव्य-निर्वाह हेतु ही इस कार्य को करता हूं, यह तो मेरा धर्म है, जो मुझे करना ही पड़ता है। भला अपने पर आश्रित लोगों का पालन-पोषण करना क्या पाप है?’’ इस पर सप्तऋषियों ने समझाया—‘‘अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए दूसरों के हितों को हनन करना, अपना पेट भरने के लिए दूसरों को भूखों मारना, तड़पाना, अपनी पारिवारिक सुख-समृद्धि के लिए दूसरे परिवारों को कष्ट व असुविधा में डालना, बिना श्रम किए दूसरों का श्रमार्जित धन छीनकर उसका उपभोग करना धर्म नहीं माना जा सकता है।’’ वाल्मीकि को बात समझ में आई, वे सोचने लगे कि यह तो ठीक है कि वे मनुष्यों को मारकर, उनकी सम्पत्ति को छीनकर अपने आश्रितों का पेट भर रहे हैं, परंतु इससे दूसरों का उत्पीड़न होता है। कोई भी ऐसा कार्य जिससे दूसरों को पीड़ा होती हो, दूसरों के प्रति अन्याय होता हो, धर्म नहीं माना जा सकता। इस प्रकार की अनुभूति ने वाल्मीकि को दस्यु से महर्षि बना दिया। ‘धर्म’ का तत्व जब उनके जीवन में प्रविष्ट हुआ तो स्वयं उनका व्यक्तिगत परिष्कार तो हुआ ही साथ ही समाज की भी रक्षा हुई कि जो वाल्मीकि दस्यु रूप में समाज का उत्पीड़न करते थे, वे ही ‘धर्म’ का साक्षात्कार कर, धर्म को अंगीकृत कर करोड़ों मनुष्यों के मार्गदर्शक बन गए।

धर्म के विषय में ऐसी ही भ्रांत धारणा अर्जुन को भी थी। अर्जुन ने तो यहां तक कह दिया था कि यदि वह युद्ध में अपना मामा, चाचा, श्वसुर, गुरु, गुरुभाई को मारेगा तो उसका आचरण धर्म विपरीत हो जाएगा। अर्जुन की धर्म के प्रति यह धारणा उसके मोह का परिणाम थी, परंतु श्रीकृष्ण ने उसकी धर्म, के प्रति इस धारणा को अनुपयुक्त बताते हुए धर्म का सही स्वरूप बताया तथा उस समय की परिस्थिति में युद्ध करने को ही ‘धर्म’ निरूपित किया। हर मनुष्य अर्जुन की तरह ही सत और असत वृत्तियों में से किसी एक का वरण करने के लिए प्रायः किंकर्त्तव्यविमूढ़ ही रहता है, मनुष्य की असद्वृत्तियां बलवती होती हैं, वे मनुष्य को असत कार्य करने के लिए लालायित व आकृष्ट करती रहती हैं, किंतु भगवान कृष्ण रूपी विवेक से हम सत-असत, उचित-अनुचित का निर्धारण कर धर्म-तत्व का निर्धारण कर धर्ममान्य सद्वृत्ति को ही स्वीकार करते हैं। भगवान कृष्ण का ‘‘यदा यदा हि धर्मस्य’’ का वचन भी यही संकेत देता है कि अर्जुन की तरह जब मनुष्य सत्-असत् का निर्णय नहीं कर पाता, मोहवश अधर्म को ही धर्म मान बैठता है, भ्रमवश अनुचित को ही उचित समझने लगता है तो फिर उसका कार्य धर्म की परिधि में नहीं रहता, उसका कार्य न तो उसके अभ्युदय—कल्याण में ही सहायक होता है और न उसके कार्यों से, उसके चिंतन से सामाजिक व्यवस्था ही सुरक्षित रहती है, अर्थात् उस समय धर्म के प्रति मनुष्य की धारणा-विचारणा गलत हो जाने से धर्म से होने वाले लाभ नहीं मिलते व इस तरह धर्म के प्रति विषाक्त धारणा बनाकर जो आचरण किया जाता है, वह भी ‘श्रेय’ न हो होकर ‘प्रेय’ ही अधिक रहता है। अतः धर्म की यह एक प्रकार से क्षति ही हुई।

श्रीकृष्ण ने धर्म संस्थापनार्थ यही बात कही है कि जब-जब ऐसी स्थिति होती है तब-तब मनुष्य यदि अपने विवेक का उपयोग करे, अपनी ऋतंभरा प्रज्ञा का उपयोग कर उचित-अनुचित का निर्धारण करे, तो धर्म की तथा धर्म को ध्येय मानकर किए जाने वाले आचरण की उपयोगिता ‘व्यक्ति-परिष्कार व समाज-व्यवस्था’ भी बनी रहेगी। धर्म मानव समाज और संस्कृति का मूलाधार है। इसी आधारभूत तत्व के अनुसार संसार का शुभ व कल्याण टिका हुआ है। विश्व का कल्याण व मानव मात्र का शुभ धर्म-वेष्टित आचरणों में ही निहित है। अपने इस सार्वभौम स्वरूप के कारण सारे विश्व का धर्म तो एक ही है, जिसे विश्व धर्म, मानव धर्म कुछ भी संज्ञा दी जा सकती है। सामान्यतया धर्म के इस सार्वभौम स्वरूप की असीमता को न समझ, मनुष्यों ने धर्म को अनेक संप्रदायों, जातियों, वर्गों द्वारा पालन की जाने वाली उपासना-पद्धति, पूजा-पद्धति, कर्मकांडों के प्रकार आदि की विविधता के कारण इन संप्रदायों को ही धर्म मान लिया है। वास्तव में धर्म तो एक ही है। धर्म के लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए जो अलग-अलग पद्धतियां प्रचलित हैं, वे धर्म नहीं वरन संप्रदाय हैं। धर्म मानो महासागर है और संप्रदाय नदियां हैं, जो विभिन्न स्थानों दिशाओं से आकर इस महासागर में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विलीन हो जाती हैं। यदि इन नदियों को ही भ्रमवश कोई सागर मान बैठे व अपने सागर होने की महत्ता का ही ढिंढोरा पीटने लगे, तो पीटने पर नदी सागर तो बन नहीं सकती है, धर्म का तो एक ही लक्ष्य है, और वह है—सत्य, शिव, और सुंदर अर्थात ऐसे आचरण जो सत्य हों, शुभ हों, कल्याणकारक हों, तथा सुंदर हों।

धर्म के इस लक्ष्य की उपलब्धि के लिए विभिन्न मार्ग-पूजा, उपासना, अनुष्ठान आदि की व्यवस्था विभिन्न संप्रदायों में प्रचलित रहती है। इनमें से किसी संप्रदाय में कोई पद्धति विशेष अधिक प्रभावशाली प्रतीत होती है, किसी में कम। इसी से हम इन पद्धतियों के प्रभावी होने न होने को यह मान लेते हैं मानों अमुक धर्म अमुक से श्रेष्ठ अथवा निम्नतर है। वास्तव में धर्म तो अपने स्थान पर स्थिर, अटल, शाश्वत है, उस तक पहुंचने के मार्ग अपेक्षाकृत सुविधाजनक अथवा कष्टप्रद हो सकते हैं, परंतु उनके कारण ‘धर्म’ प्रभावित नहीं होता। धर्म के प्रति एक भ्रांति इसके अंग्रेजी के अनुवाद ने उत्पन्न कर दी, अंग्रेजी में धर्म को ‘रिलीजन’ कहा गया है, वास्तव में रिलीजन शब्द से जो ध्वनि निकलती है, उससे संकीर्णता का आभास होता है। धर्म जब से ‘रिलीजन’ माना जाने लगा है तब से इसका अर्थ यही लगाया जाने लगा है कि यह एक विशेष प्रकार की पूजा-आराधना पद्धति में आस्था-विश्वास रखने वाला तथा विशेष प्रकार के मार्ग पर यंत्रवत चलने वाला संप्रदाय विशेष है। वास्तव में रिलीजन शब्द का अर्थ एक विश्वास और पूजा विधि है। किसी समुदाय विशेष के सिद्धांतों में विश्वास करना तथा उस संप्रदाय द्वारा निर्दिष्ट कुछ विशेष पूजा अनुष्ठान आदि का पालन करना ही पश्चिम की दृष्टि में धार्मिक कहे जाने वाले व्यक्ति के लिए पर्याप्त है। रिलीजन शब्द से एक ऐसे संकुचित व अपूर्ण भाव का बोध होता है कि उसमें धर्म तत्व समाहित नहीं होता। धर्म का अनिवार्य तत्व उसकी उदारता, महानता सार्वभौम सत्ता में निहित है, जबकि ‘रिलीजन’ में इस तरह के भाव प्रकट नहीं होते।
धर्म एक अपरिवर्तनशील शाश्वत सत्ता है। धर्म सार्वभौम शक्ति है, जिसका लक्ष्य ही—‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया’’ है। धर्म एक ऐसी सत्ता है, जिसकी शक्ति व सत्ता असीम है। वह राजसत्ता से कई गुना अधिक व्यापक व शक्तिमान है। अपने छोटे से भौगोलिक क्षेत्र में निश्चिंत परिधि में ही राजसत्ता काम करती है, परंतु धर्मसत्ता का कर्मक्षेत्र समूचा विश्व है और इसकी शक्ति अपरिमेय है। विश्व का हर मानव इस धर्म सत्ता की प्रजा है और हम मानव स्वयं ही शासक भी है। धर्म सत्ता का कार्यक्षेत्र न केवल मानव मात्र के स्थूल शरीर तक ही है वरन उसके मन, चिंतन, स्वभाव, गुण व उसकी आत्मा तक विस्तृत है। यदि हर मनुष्य इस सत्ता के अधीन अपने को संबद्ध कर ले, इस सत्ता के अनुशासन में रहकर अपना गुण, कर्म, स्वभाव बना ले तो वह स्वयं सत्तामय हो जाए।
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