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Books - धर्म पथ

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Language: HINDI
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धर्म और शास्त्र का तुलनात्मक विवेचन

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वह समय चला गया जब शास्त्र शब्द से जो ग्रंथ संबोधित किए जाते थे, उन्हें किसी अलौकिक या ईश्वरीय शक्ति की देन कहकर उनके प्रति समाज में लोकोत्तर श्रद्धा का आविर्भाव किया जा सकता था। साधारणतः आज संसार में जितने शास्त्र ग्रंथ हैं उन्हें किसी न किसी मानव बुद्धि से ही उत्पन्न हुआ समझा जाता है। शास्त्र की ही एक उक्ति है कि शास्त्र को पुरुष उत्पन्न करते हैं, पुरुष को शास्त्र नहीं। शास्त्रों के संबंध में कहा जाता है कि उनमें मानवीय बुद्धि की गति नहीं है, किंतु यहां पर समस्या यह है कि यहां पर बुद्धि की गति है या वहां नहीं है, इस बात का निर्णय भी बुद्धि द्वारा ही किया जाता है। बुद्धि की कोई निश्चित सीमा नहीं है। यदि कहा जाए कि शास्त्रकार ऋषियों की बुद्धि हमारी बुद्धि से अच्छी थी तो इसका निर्णय भी हमारी अपनी बुद्धि ही करती है, विचार का खंडन भी विचार ही करता है। कहा गया है कि कोई अपनी छाया और बुद्धि को नहीं नाप सकता है इसलिए किसी के संबंध में निर्णय करने के लिए बुद्धि ही सर्वोपरि साधन है।

गीता में कहा गया है कि कार्य अकार्य का निर्णय करने के लिए शास्त्र प्रमाण हैं, किन्तु प्रश्न यह है कि किस शास्त्र द्वारा निर्णय किया जाए, किससे नहीं? प्रत्येक मत और विचारधारा के लिए अलग-अलग शास्त्र हैं। यहूदियों के लिए बाइबिल का पूर्वार्द्ध (ओल्डटेस्टामेन्ट) अपौरुषेय है तो ईसाईयों के लिए उसका उत्तरार्द्ध (न्यू टेस्टामेन्ट) ब्रह्मवाक्य है। जैनियों के लिए जैनागम सुत, बौद्धों के लिए त्रिपटिक और इसी प्रकार हिंदू आदि धर्मावलंबियों के लिए अपने धर्म ग्रंथ सर्वश्रेष्ठ हैं। हिंदुओं में फिर अनेक मत-मतांतर हैं, कोई वैदिक धर्मावलंबी है, तो कोई सनातनी। फिर वेदानुयायियों में बड़े मतभेद हैं, कोई ऋग्वेदी है, कोई अथर्ववेदी है, कोई सामवेदी है, तो कोई यजुर्वेदी है। यहां तक कि अन्य तीन अथर्ववेद को बहुत अपवित्र मानते हैं, और उसे वेदों की पंक्ति में से उठा दिया गया है, ऐसा वे मानते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद के अनुयायी सामवेद को भी अपवित्र मानते हैं, जबकि गीता में उसकी श्रेष्ठता दिखाने के लिए कहा गया है कि—वेदों में सामवेद मैं ही हूं। कहने का तात्पर्य यह है कि विभिन्न शास्त्रों के मत और विचारधारा इतनी परस्पर विरोधी है कि कौन मान्य है, कौन अमान्य, इसका निर्णय बुद्धि द्वारा ही किया जा सकता है। इसीलिए विभिन्न शास्त्रों में मत विशेष प्रतिपादित करते समय स्थान-स्थान पर बुद्धि को भी महत्व दिया गया है। गीता का द्वितीय अध्याय तो एकमात्र बुद्धि की महिमा से भरा हुआ है। अन्य स्थानों पर भी गीता में बुद्धि शब्द का प्रयोग केवल ‘आत्मा’ ‘अहं’ शब्दों को छोड़कर सबसे अधिक स्थानों पर किया गया है। गायत्री मंत्र में भी भगवान से शास्त्र नहीं मांगा गया है। वहां भी ‘भगवान मुझे सद्बुद्धि दें’ ऐसी प्रार्थना की गई है, क्योंकि सद्बुद्धि मिलने पर अनेक शास्त्रों का निर्माण किया जा सकता है।

‘शास्त्र’ के अंधानुयायियों की ओर से कहा जाता है कि शास्त्रों में जो परस्पर विरोध है, उसका निराकरण शास्त्रों की ही पद्धति से करके शास्त्रीय सिद्धांत का निर्णय करना चाहिए, किन्तु यह निर्णय भी तो मानव बुद्धि द्वारा ही किया जाएगा। महाभारत में एक स्थान पर कहा गया है:—

तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयोविभिन्नाः ।

नैकोऋषिर्यस्यमतं प्रमाणम् ।

धर्मस्यतत्त्वंनिहितं गुहायां,

महाजनो येन गतः स. पन्थाः ।।

अर्थात्—तर्क की कोई सीमा नहीं है, श्रुतियां (चिरकालीन परंपरा से सुनी हुई बात) अनेक प्रकार की और परस्पर विरोधी हैं, अतएव किसी भी ऋषि का वचन प्रमाण नहीं माना जा सकता। धर्म का तत्व तो मनुष्य के हृदय में (जहां से उसे बुद्धि की प्रेरणा मिलती है) छिपा हुआ है। महाजन (पूरे समाज का बहुमत) जिस मार्ग पर चले वही सच्चा मार्ग है। यहां महाजन का अर्थ महापुरुष इसलिए नहीं किया जा सकता कि ऊपर कहा गया है कि किसी भी ऋषि का वाक्य प्रमाण नहीं। क्या ऋषि भी महापुरुष नहीं होते? इसीलिए यहां महाजन का अर्थ समाज का बहुमत या जनता कहा गया है, जो आज की गुजराती भाषा में प्रयोग किया जाता है।

सारांश यह है कि कोई ग्रंथ कितना ही पूजनीय हो और उसकी कितनी भी प्रतिष्ठा बताई गई हो, जब उसमें विचार विरोध उत्पन्न होता है, तो अंत में निर्णय के लिए बुद्धि की ही शरण लेनी पड़ती है। बुद्धि शास्त्र से ऊपर है, क्योंकि बुद्धि शास्त्र का निर्माण करती है, शास्त्र बुद्धि का निर्माण नहीं करता। बुद्धिहीन के लिए शास्त्र का मूल्य उतना ही है, जितना अंधे के लिए दर्पण का। क्योंकि जिस प्रकार अंधा दर्पण में अपना मुंह नहीं देख सकता, उसी प्रकार बुद्धिहीन विवेक विचार से शास्त्र को पढ़ और जांच नहीं सकता।

जब बिना बुद्धि की कसौटी पर खरा उतरे कोई शास्त्र प्रमाण नहीं हो सकता है तो शास्त्रों में प्रतिपादित धर्म का भी बुद्धि की कसौटी पर खरा उतरना आवश्यक है। ‘‘महाजनों येन गतः स पन्थाः ।’’ के अनुसार आज के मानव समाज का यह निश्चित मत है कि जिससे समाज का कल्याण हो, मानवता का विकास हो, अच्छे ज्ञान और विज्ञान की उन्नति हो तथा संसार के समस्त जन-समुदाय को सुख मिले वही धर्म है। ऋषियों और शास्त्रकारों ने अपने-अपने समय और परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न शास्त्रों में धर्म का प्रतिपादन किया है। उन्होंने अपनी बुद्धि के अनुसार अनेक तत्व की बातों का चयन अपने ग्रंथों में किया है। उनमें से आज के समय और परिस्थितियों के अनुकूल, पात्र के अनुसार सामग्री निकालना और आवश्यकता के अनुसार उन्हें बदलना मनुष्य की बुद्धि का काम है।

परिस्थितियों और उपयोग के अनुसार ग्रहण किए जाने के कारण धर्म कोई एकांतिक, आत्यांतिक, अटल, अचल और अपरिवर्तनीय वस्तु नहीं है। ऊपर धर्म की जो लोकोपचारी परिभाषाएं बताई गई हैं। उनके अनुसार हम देखते हैं कि समाज के प्रत्येक सदस्य का धर्म एक नहीं हो सकता है। फौजी सिपाही का धर्म एक होगा तो किसान का दूसरा, अध्यापक का तीसरा और दुकानदार का चौथा होगा। एक ही आदमी का धर्म अच्छे दिनों में एक होगा तो बुरे दिनों में दूसरा। किस अवस्था में, किस व्यक्ति का क्या धर्म है, इसका निर्णय अच्छी बुद्धि द्वारा ही ठीक-ठीक किया जा सकता है। एक कथा है कि जब ऋषि लोग इस लोक से जाने लगे तो मनुष्यों ने उनसे पूछा कि अब हम लोगों को कठिनाई के समय सच्चा मार्ग कौन दिखाएगा? तब ऋषियों ने उनको तर्क दिया और कहा कि भविष्य में बुद्धि और विवेक ही तुम्हारा ऋषि होगा। इस कथा का यही तात्पर्य है कि युग परिस्थितियों के अनुसार अपनी बुद्धि द्वारा अपना कर्त्तव्य निश्चित करो। अंधविश्वास के साथ पुरानी परंपरा की लकीर पीटना छोड़ दो।

उपरोक्त व्याख्या के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि मानव-कल्याण के लिए समय-समय पर कवियों और आप्तपुरुषों ने जो सद्वाक्य संग्रहीत किए हैं, वे शास्त्र हैं, किन्तु प्रत्येक स्थिति में उन पर अमल करते समय हमें बुद्धि को ही प्रधानता देनी चाहिए। क्योंकि—
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किं ?
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