धर्म एक परिष्कृत दृष्टिकोण
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प्राचीन भारत में मनीषियों ने धर्म का अर्थ व्यापक माना है। संप्रदाय, मत, पंथ आदि संकीर्ण हैं। धर्म शब्द का दुरुपयोग इनके पर्याप्त रूप में नहीं होना चाहिए। ऋषियों-मुनियों ने वर्ग-संप्रदाय के भेदभाव के बिना प्राणिमात्र के कल्याण के निमित्त ज्ञान-विज्ञान का अन्वेषण किया। जब तप की अनुभूतियों से विश्व–मानव को लाभान्वित करने को सूत्र और मंत्रों की रचना की। वेद वेदांग इसका ज्वलंत प्रमाण हैं।
वेद को धार्मिक ग्रंथ माना जाता है। उसमें समग्र जीवन जीने की कला का वर्णन मिलता है। व्यक्तिगत ही नहीं, सामाजिक समस्याओं का समाधान है। आध्यात्मिक ही नहीं अपितु आर्थिक, राजनैतिक विषय भी हैं। शासन प्रणाली के प्रसंग में ‘‘साम्राज्यं भौज्यं स्वराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठयं राज्यम्’’ आदि ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लेख किया गया है।
आज लोग हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि को धर्म मानने लगे हैं। अतः इनसे भेदभाव रहित होना ‘धर्म निरपेक्षता’ कहलाता है। यह भ्रामक और गलत दृष्टिकोण है। मुस्लिम, यहूदी, मसीही आदि संप्रदाय हैं, धर्म नहीं। धर्म तो एकांगी पंथ-संप्रदायों से ऊपर है। संप्रदाय जल बिंदु के समान है।
धर्म समुद्र है। संप्रदायातीत जीवन ही मानवता का स्वरूप है। परंतु वर्तमान विश्व में जितनी विचारधाराएं जोरों पर फैल रही हैं, उनमें कृत्रिमता और अधूरा दर्शन है। कुछ एकांगी विचार प्रतिक्रियात्मक और कुछ नकली हैं। पूंजीवाद एकांगी विचार है। पूंजीवाद की प्रतिक्रिया स्वरूप साम्यवाद है। भारत में प्रचलित कुछ धार्मिक धारणाएं विदेशों में प्रचलित धर्म संबंधित विचारों की नकल हैं और कुछ तो अंग्रेजों में प्रचलित धारणाओं की नकल हैं, इस तरह के विचार किसी काल विशेष में प्रचलित थे जो उस समय के मुताबिक सही रहे होंगे लेकिन अब उनका कोई औचित्य नहीं है। ये थोड़े समय के बाद खत्म हो जाते हैं। इस युग की यही विडंबना है कि उद्योग और विज्ञान के विकास से हमारा दृष्टिकोण भौतिकतावादी और स्वार्थपरायण बन गया है। अनास्था और अविश्वास के कारण धार्मिक दर्शन के प्रति द्वंद्व, उत्पन्न हुआ। विद्या-विहीन शिक्षित और साधन-संपन्न लोग यह समझते हैं कि नए समाज के निर्माण की शक्ति धर्म में रही नहीं। धर्म-तत्त्व के प्रति अश्रद्धा और उपेक्षा इसी अज्ञान की उपज है।
यद्यपि विभिन्न मत-पंथ, संप्रदाय और वादों का प्रारंभ व्यक्तिगत तथा समष्टिगत भूलों को सुधारने की दृष्टि से होता है। व्यक्ति का कल्याण एवं सुंदर समाज का निर्माण ही सभी मतवादों का मुख्य उद्देश्य है, किंतु उनकी ममता व्यक्ति को पागल बना देती है। यही भ्रांति और मोह कहलाता है। हम भूल जाते हैं कि औषधि का सेवन आरोग्य के लिए है, ममता किंबा आसक्ति हेतु नहीं। सभी विचारों से स्वयं एवं समाज को सुंदर तथा आनंददायक बनाने की उपेक्षा की करते हैं।
जिस दृष्टिकोण की गला फाड़-फाड़कर प्रशंसा की जाती है, यदि वह विश्व कल्याण हेतु जीवात्मा को सन्मार्ग पर चलाने में उपयोगी न बन सका तो उसका परिवर्तन स्वाभाविक है। प्रेम, सत्य और यथार्थ ही धर्म है। एकता और समता का मूल यही धार्मिक दृष्टिकोण है। धर्म का नया दृष्टिकोण सार्वभौम धर्म का प्रतिपादन करता है।
अनुपयोगी मत-वाद और सांप्रदायिकता, भेदभाव तथा पाखंड को अब भुलाकर धर्म के इस नए दृष्टिकोण को जीवन के व्यवहार में क्रियान्वित करना ही पड़ेगा, अन्यथा अधर्म, अनास्था, अभाव, दुर्भाव के कारण विविध समस्या जनित संकट समूची मानव सभ्यता के विनाश का चित्र प्रस्तुत कर देगा। हम जानते हैं कि मानवमात्र के अंतःकरण में धर्म का दैवी भाव भी विद्यमान है। प्रयोजन है, परम सत्य की अनुभूति का अमृत पिलाकर आत्म-परिचय कराने का, अखंड-ज्योति जलाकर सद्ज्ञान के अनुदान से सद्भाव का जागरण। जीवात्मा का ध्येय है, अनंत आनंद की प्राप्ति। ‘‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’’ में इसी अमरता की मांग है।
नदियां अपने आप में संतुष्ट होने से समुद्र की ओर दौड़ी चली जाती हैं। हवा को एक स्थान पर चैन नहीं। यह प्रतिक्रिया संसार के प्रत्येक परमाणु में चल रही है। किसी को भी अपने आप में संतोष नहीं मिलता। जड़ व चेतन सभी पूर्णता के लिए गतिवान हैं। अपने स्वत्व को किसी महान सत्ता में घुला देने के लिए सबके सब सतत् क्रियाशील दिखाई देते हैं।
ऐसी ही प्रक्रिया जीवात्मा की है। व्यष्टि में उसे अनंत आनंद की प्राप्ति नहीं। समष्टि की परमात्मा के पावन स्पर्श हेतु सेवा-भक्ति अनिवार्य है। आत्म-चिंतन की प्रवृत्ति से जीवन मरण के रहस्य का अनावरण होता है। उसे यह आभास मिलता है कि मानव को यहां वे सारी परिस्थितियां प्राप्त हैं जिनके सहारे सक्रिय होने पर वह अपनी विकास यात्रा आसानी से पूरी कर सकता है।
परमात्मा से प्रेम और आत्मीयता स्थापित करने का अच्छा तरीका यह है कि हम उसका अभ्यास परिजनों से प्रारंभ करें। संसार में सबके साथ सत्य का व्यवहार करें। न्याय रखें और सहिष्णुता बरतें। स्वार्थ की अहंवृत्ति का परित्याग कर परमार्थ के विशाल क्षेत्र में पदार्पण करें। इससे मनुष्य विराट की ओर अग्रसर होता है। यही नया दृष्टिकोण युग की अनिवार्य आवश्यकता है।
ऐसा धार्मिक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति हजारों, लाखों योनियों के बाद सौभाग्य से उपलब्ध मानव जीवन को, तुच्छ स्वार्थमय गौरखधंधों में ही दुरुपयोग करने की मूर्खता नहीं करेगा। यह प्रत्यक्ष है कि पशु-पक्षी की तुलना में ज्ञान या धर्म भावना के कारण ही वह श्रेष्ठ है।
धर्म के इस दृष्टिकोण के फलस्वरूप जीवन आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर प्रगति करता है। सड़ी-गली रूढ़ियों और परंपराओं के बंधन से मुक्ति मिलती है। स्थितप्रज्ञ और परमहंस की स्थिति से परम सुख-शांति पाता है। इस प्रकार अभ्युदय निःश्रेयस की सिद्धिदायक विश्वात्मा के विराट रूप की ज्ञान, कर्म, उपासना ही अभिनव धार्मिक दर्शन का मूल स्वरूप है।
वेद को धार्मिक ग्रंथ माना जाता है। उसमें समग्र जीवन जीने की कला का वर्णन मिलता है। व्यक्तिगत ही नहीं, सामाजिक समस्याओं का समाधान है। आध्यात्मिक ही नहीं अपितु आर्थिक, राजनैतिक विषय भी हैं। शासन प्रणाली के प्रसंग में ‘‘साम्राज्यं भौज्यं स्वराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठयं राज्यम्’’ आदि ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लेख किया गया है।
आज लोग हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि को धर्म मानने लगे हैं। अतः इनसे भेदभाव रहित होना ‘धर्म निरपेक्षता’ कहलाता है। यह भ्रामक और गलत दृष्टिकोण है। मुस्लिम, यहूदी, मसीही आदि संप्रदाय हैं, धर्म नहीं। धर्म तो एकांगी पंथ-संप्रदायों से ऊपर है। संप्रदाय जल बिंदु के समान है।
धर्म समुद्र है। संप्रदायातीत जीवन ही मानवता का स्वरूप है। परंतु वर्तमान विश्व में जितनी विचारधाराएं जोरों पर फैल रही हैं, उनमें कृत्रिमता और अधूरा दर्शन है। कुछ एकांगी विचार प्रतिक्रियात्मक और कुछ नकली हैं। पूंजीवाद एकांगी विचार है। पूंजीवाद की प्रतिक्रिया स्वरूप साम्यवाद है। भारत में प्रचलित कुछ धार्मिक धारणाएं विदेशों में प्रचलित धर्म संबंधित विचारों की नकल हैं और कुछ तो अंग्रेजों में प्रचलित धारणाओं की नकल हैं, इस तरह के विचार किसी काल विशेष में प्रचलित थे जो उस समय के मुताबिक सही रहे होंगे लेकिन अब उनका कोई औचित्य नहीं है। ये थोड़े समय के बाद खत्म हो जाते हैं। इस युग की यही विडंबना है कि उद्योग और विज्ञान के विकास से हमारा दृष्टिकोण भौतिकतावादी और स्वार्थपरायण बन गया है। अनास्था और अविश्वास के कारण धार्मिक दर्शन के प्रति द्वंद्व, उत्पन्न हुआ। विद्या-विहीन शिक्षित और साधन-संपन्न लोग यह समझते हैं कि नए समाज के निर्माण की शक्ति धर्म में रही नहीं। धर्म-तत्त्व के प्रति अश्रद्धा और उपेक्षा इसी अज्ञान की उपज है।
यद्यपि विभिन्न मत-पंथ, संप्रदाय और वादों का प्रारंभ व्यक्तिगत तथा समष्टिगत भूलों को सुधारने की दृष्टि से होता है। व्यक्ति का कल्याण एवं सुंदर समाज का निर्माण ही सभी मतवादों का मुख्य उद्देश्य है, किंतु उनकी ममता व्यक्ति को पागल बना देती है। यही भ्रांति और मोह कहलाता है। हम भूल जाते हैं कि औषधि का सेवन आरोग्य के लिए है, ममता किंबा आसक्ति हेतु नहीं। सभी विचारों से स्वयं एवं समाज को सुंदर तथा आनंददायक बनाने की उपेक्षा की करते हैं।
जिस दृष्टिकोण की गला फाड़-फाड़कर प्रशंसा की जाती है, यदि वह विश्व कल्याण हेतु जीवात्मा को सन्मार्ग पर चलाने में उपयोगी न बन सका तो उसका परिवर्तन स्वाभाविक है। प्रेम, सत्य और यथार्थ ही धर्म है। एकता और समता का मूल यही धार्मिक दृष्टिकोण है। धर्म का नया दृष्टिकोण सार्वभौम धर्म का प्रतिपादन करता है।
अनुपयोगी मत-वाद और सांप्रदायिकता, भेदभाव तथा पाखंड को अब भुलाकर धर्म के इस नए दृष्टिकोण को जीवन के व्यवहार में क्रियान्वित करना ही पड़ेगा, अन्यथा अधर्म, अनास्था, अभाव, दुर्भाव के कारण विविध समस्या जनित संकट समूची मानव सभ्यता के विनाश का चित्र प्रस्तुत कर देगा। हम जानते हैं कि मानवमात्र के अंतःकरण में धर्म का दैवी भाव भी विद्यमान है। प्रयोजन है, परम सत्य की अनुभूति का अमृत पिलाकर आत्म-परिचय कराने का, अखंड-ज्योति जलाकर सद्ज्ञान के अनुदान से सद्भाव का जागरण। जीवात्मा का ध्येय है, अनंत आनंद की प्राप्ति। ‘‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’’ में इसी अमरता की मांग है।
नदियां अपने आप में संतुष्ट होने से समुद्र की ओर दौड़ी चली जाती हैं। हवा को एक स्थान पर चैन नहीं। यह प्रतिक्रिया संसार के प्रत्येक परमाणु में चल रही है। किसी को भी अपने आप में संतोष नहीं मिलता। जड़ व चेतन सभी पूर्णता के लिए गतिवान हैं। अपने स्वत्व को किसी महान सत्ता में घुला देने के लिए सबके सब सतत् क्रियाशील दिखाई देते हैं।
ऐसी ही प्रक्रिया जीवात्मा की है। व्यष्टि में उसे अनंत आनंद की प्राप्ति नहीं। समष्टि की परमात्मा के पावन स्पर्श हेतु सेवा-भक्ति अनिवार्य है। आत्म-चिंतन की प्रवृत्ति से जीवन मरण के रहस्य का अनावरण होता है। उसे यह आभास मिलता है कि मानव को यहां वे सारी परिस्थितियां प्राप्त हैं जिनके सहारे सक्रिय होने पर वह अपनी विकास यात्रा आसानी से पूरी कर सकता है।
परमात्मा से प्रेम और आत्मीयता स्थापित करने का अच्छा तरीका यह है कि हम उसका अभ्यास परिजनों से प्रारंभ करें। संसार में सबके साथ सत्य का व्यवहार करें। न्याय रखें और सहिष्णुता बरतें। स्वार्थ की अहंवृत्ति का परित्याग कर परमार्थ के विशाल क्षेत्र में पदार्पण करें। इससे मनुष्य विराट की ओर अग्रसर होता है। यही नया दृष्टिकोण युग की अनिवार्य आवश्यकता है।
ऐसा धार्मिक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति हजारों, लाखों योनियों के बाद सौभाग्य से उपलब्ध मानव जीवन को, तुच्छ स्वार्थमय गौरखधंधों में ही दुरुपयोग करने की मूर्खता नहीं करेगा। यह प्रत्यक्ष है कि पशु-पक्षी की तुलना में ज्ञान या धर्म भावना के कारण ही वह श्रेष्ठ है।
धर्म के इस दृष्टिकोण के फलस्वरूप जीवन आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर प्रगति करता है। सड़ी-गली रूढ़ियों और परंपराओं के बंधन से मुक्ति मिलती है। स्थितप्रज्ञ और परमहंस की स्थिति से परम सुख-शांति पाता है। इस प्रकार अभ्युदय निःश्रेयस की सिद्धिदायक विश्वात्मा के विराट रूप की ज्ञान, कर्म, उपासना ही अभिनव धार्मिक दर्शन का मूल स्वरूप है।