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Books - धर्म पथ

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धर्म के तीन प्रश्न

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परलोक सुधार के लिए मनुष्य नाना प्रकार के जप, तप, ध्यान, व्रत, उपवास, दान, कथा, तीर्थ आदि का अवलंबन करते हैं। भविष्य की चिंता करना मनुष्य का स्वभाव है, कल की आशा के आधार पर वह आज के कार्यों को आरंभ करता है, मृत्यु के उपरांत जिस लोक में जाना है, उस परलोक को अच्छा बनाने के लिए प्रयत्न करना स्वाभाविक ही है। फसल की आशा में किसान अपना बीज खेत में बिखेर देता है और छह महीने तक खेतों में कठोर परिश्रम करता रहता है, इसी प्रकार मनुष्य परलोक में सुख प्राप्त करने की इच्छा से अपना बहुत सा समय और धन लगाता है, कठोर साधनाएं करता है और तरह-तरह के नियमों का पालन करता हुआ विविध कर्मकांडों में लगा रहता है। छोटे से छोटा कार्य भी त्याग और परिश्रम के बिना पूरा नहीं होता, फिर परलोक सुख तो बिना तपस्या के प्राप्त हो ही कैसे सकता है? निस्संदेह किसी वस्तु की प्राप्ति का मार्ग प्रयत्न ही है, बिना प्रयत्न के प्राप्त की हुई वस्तुएं भोग करने के योग्य नहीं होती हैं, यदि उनका भोग किया भी जाता है तो न तो इस लोक में सुख-संतोष प्राप्त होता है और न परलोक में। सच्चाई यही है कि प्रयत्न से प्राप्त वस्तुओं का भोग करने से ही परलोक में सुख प्राप्त हो सकता है।

भारतवर्ष एक आध्यात्मिक देश है, इसकी विचारधारा में इहलोक की अपेक्षा परलोक को अधिक महत्व प्राप्त है। असहाय, अशिक्षित, अभावग्रस्त, दीन-हीन व्यक्ति भी अपने विश्वासों के आधार पर कुछ न कुछ परलोक साधना करते रहते हैं। सामूहिक रूप से हिसाब लगाया जाए तो भारतवासियों की एक पंचमांश शक्ति धर्म-साधना के लिए व्यय होती है। गणितज्ञों ने हिंदू जाति की धार्मिक अवस्था पर गहरी खोज की है और हिसाब लगाकर बताया है कि संध्या, पूजा, जप, कीर्तन, तीर्थयात्रा, कर्मकांड, संस्कार, मंदिर दर्शन, कथाश्रवण, शास्त्रपठन, धार्मिक शिक्षा के निमित्त सर्वसाधारण का बहुत सा समय खर्च होता है और साधु संत, पुरोहित, पुजारी, उपदेशक, धर्म-संस्थाओं तथा धर्म-स्थानों के कर्मचारी आदि का जो पूरा समय खर्च होता है, इस सारे समय को जोड़कर इसका औसत लगाया जाए तो हर एक छोटे-बड़े हिंदू के हिस्से में पौने तीन घंटे प्रतिदिन का समय आता है। निद्रावस्था को छोड़कर शेष समय का यह करीब पांचवां भाग है। इसी प्रकार उपरोक्त कार्यों एवं व्यक्तियों के ऊपर करीब दो अरब 96 करोड़ रुपया प्रतिवर्ष व्यय होता है। एक शब्द में यों कह सकते हैं कि हम लोग अपनी संपूर्ण शक्ति का पांचवां भाग धर्म के निमित्त इस समय भी लगाते हैं।

पंचमांश शक्ति बहुत बड़ी शक्ति है। इतनी शक्ति जर्मनी और रूस जैसे युद्धग्रस्त देशों को युद्ध में भी खर्च नहीं करनी पड़ रही है, परंतु हम लोग स्वेच्छा से खुशी-खुशी धर्म के निमित्त इतना बड़ा त्याग परलोक सुधार के लिए करते हैं। यह ठीक भी है धर्म के लिए परमार्थ के लिए, परलोक सुख के लिए इतना त्याग करना उचित ही है, हो सके तो इससे अधिक त्याग करना चाहिए।

परंतु इतना बड़ा व्यापार जिसमें पंचमांश शक्ति व्यय होती है, करने के साथ-साथ हमें यह भी विचार करना होगा कि जिस कार्य के लिए यह शक्ति खर्च की जा रही है, वह पूरा हो रहा है या नहीं? राज एक दीवार को चिंता है साथ-साथ वह इस की परीक्षा भी करता जाता है कि दीवार कहीं टेढ़ी-मेढ़ी तो नहीं हो रही है। व्यापारी लोग चिट्ठे बनाकर हिसाब लगाकर देखते रहते हैं कि व्यापार में लगाई गई पूंजी सुरक्षित है या नहीं? यदि व्यापारी को लाभ नजर नहीं आता बल्कि पूंजी डूबती दिखाई देती है तो वह तुरंत ही सावधान हो जाता है और अपनी गतिविधियां बदल देता है। हम लोग जो धर्म के कष्टसाध्य मार्ग पर चलने का साहस करते हैं, उस व्यापारी की बराबर तो बुद्धिमान अवश्य ही होने चाहिए। किंतु कितने दुःख की बात है कि हम पूंजी तो बराबर लगाते जाते हैं, परंतु यह विचार नहीं करते कि वह डूब रही है या इसका फल भी प्राप्त हो रहा है।

हर काम में सफलता-असफलता की कसौटियां हैं जिनके द्वारा यह जाना जाता है कि लाभ हो रहा है या घाटा पड़ रहा है। परलोक सुधार की भी एक कसौटी होती है वह यह कि ‘‘यह लोक सुधर रहा है या नहीं?’’ जिन कामों से यह लोक सुखमय बनता है, निस्संदेह उनसे परलोक भी सुधरेगा। जिन व्यक्तियों का यह जीवन अशांति, बेचैनी, अभाव की नरक यातनाओं में बीत रहा है, उसके लिए परलोक में स्वर्ग सुख की आशा करना बेकार है। जीवन एक वृक्ष है, जिसका फल परलोक कह सकते हैं। आम के वृक्ष पर आम ही लगेंगे, इसी प्रकार परलोक में वे ही आनंद भोगेंगे जिनका यह लोक आनंद दायक है। सुख, शांति, संतोष, प्रसन्नता और उल्लास के जो संस्कार मनुष्य इस जीवन में इकट्ठे करता है वे ही परलोक में प्रस्फुटित होकर स्वर्ग सुख का आनंद अनुभव कराते हैं। दिन भर मनुष्य जैसे काम करता है, रात को वैसे ही स्वप्न देखता है। जिसका जीवन आनंद से बीता है, उसे स्वर्ग का आनंद मिलेगा। जिसके अंतःकरण में अभाव, चिंता, तृष्णा, क्रोध की आग सुलगती रही है, जो तिरस्कार, अपमान, दीनता, दरिद्रता और दासता की चक्की में जीवन भर पिसता रहा है, उसको इस लोक में भी नरक है और परलोक में वही मिलेगा। जिसके घर खीर है, उसे ही बाहर भी खीर खाने को मिलेगी। जिसके घर में अन्न के लाले हैं, उसे बाहर भी उपवास करने पड़ेंगे। जो इस जीवन में नरक भोग रहा है, उसका परलोक में स्वर्ग की आशा करना शेखचिल्ली के झूठे सपने देखने के समान है।

धर्म कार्यों में अपनी पंचमांश शक्ति को व्यय करने के साथ-साथ हमें यह भी देखना होगा कि इस महान त्याग का हमारे लौकिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है? किस सीमा तक हमारी शारीरिक, मानसिक और सामाजिक शक्तियां विकसित होती हैं? हमारे आनंद और सुख-संतोष में कितनी वृद्धि होती है? इन कसौटियों पर कसकर ही यह परीक्षा की जा सकती है कि हमारी परलोक साधना सच्ची है या झूठी है। जिस बाग के पौधे सूख-सूख कर मुरझाए जा रहे हैं, उससे फलों की भारी फसल प्राप्त होने की आशा कोई मूर्ख ही कर सकता है। इसी प्रकार जिन लोगों की शारीरिक, मानसिक और सामाजिक दशा छिन्न-भिन्न हो रही है उनके लिए इंद्र का सिंहासन खाली पड़ा होगा। धर्म कोई अंधा कुआं नहीं है, जिसमें चाहे जितना डालते जाओ, पर कुछ फल ही दृष्टिगोचर न हो। धर्म प्रयत्न को ऐसा फिक्स डिपॉजिट या सेविंग सार्टीफिकेट समझा जाता है, जिसका भुगतान मृत्यु उपरांत होगा, परन्तु यह ठीक नहीं। असल में धर्म प्रयत्न एक व्यापार है जिसमें उसी दिन से लाभ होना आरंभ हो जाता है।

धर्म एक खेती है, जिसके दिन-दिन बढ़ते हुए हरे-भरे पौधों को हर कोई नित्य आंखों से देखता रह सकता है। सच्चा धर्म नकद धर्म है, उसमें इस हाथ दे, उस हाथ ले की कहावत अक्षरशः चरितार्थ होती है। जो बंदूक एक मील तक गोली फेंक सकती है वह दस गज के निशाने को क्यों न मारेगी? जिस बत्ती से पांच सौ कदम तक प्रकाश होता है उससे बीस कदम पर प्रकाश क्यों न होगा? जो धर्म-साधना परलोक तक में सुख दे सकती है वह इस लोक में संतोषजनक परिस्थिति उत्पन्न क्यों न करेंगी? वह करेगी और अवश्य करेगी। यदि न करे तो समझना चाहिए कि यहां असत्य है, पाखंड है, भ्रम है, अज्ञान है। सत्य ऐसा सुगंधित पुष्प है, जिसकी गंध दूर-दूर तक फैलती है, पर पास में तो और भी अधिक रहती है। धर्म से परलोक सुधरता है, पर यह लोक तो निश्चय ही सुधरता है। यदि न सुधरे तो उस कार्यप्रणाली को चाहे कुछ भी क्यों न कहा जाए पर, उसे धर्म तो निश्चय ही नहीं कहा जा सकता।

हम देखते हैं कि पंचमांश शक्ति का व्यय करते हुए भी हम लोग सब प्रकार दीन-हीन हो रहे हैं, लाखों की संख्या में हम भूख से तड़प-तड़प कर मरते हैं, बीमारियां हमें चबैने की तरह चबाए जा रही हैं, गरीबी में हम संसार भर से बढ़े-चढ़े हैं, शिक्षा दस प्रतिशत भी नहीं, वैयक्तिक जीवनों में कलह और क्लेश की प्रधानता है, भ्रम और अज्ञान के भूत हमारे कंठ से चिपक गए हैं। चाहे वैयक्तिक दृष्टि से विचार कीजिए, चाहे सामूहिक दृष्टि से, चाहे एक औसत हिंदू को देखिए या सारी हिंदू जाति पर दृष्टिपात कीजिए, उसका लौकिक जीवन बहुत ही पिछड़ा हुआ, दुखी और दीन-हीन दिखाई देगा। क्या इन्हें स्वर्ग प्राप्त होगा? मुक्ति मिलेगी? ईश्वर के दर्शन होंगे? इससे बड़ा आश्चर्य और क्या होगा कि रोटी के प्रश्न को न सुलझा सकने वाले लोग कुबेर की समता प्राप्त करने का स्वप्न देखें। सामाजिक और राजनीतिक दासताओं से भी जो छुटकारा न पा सके वे मुक्तिपद पाने की कल्पना में मस्त रहें। यह कल्पनाएं जिस कार्य प्रणाली के आधार पर कर रहें हैं, वह ऐसी है कि उसके द्वारा हमारी गरीबी-बेकारी, अशिक्षा, बीमारी, अल्पायु, दुर्बलता, कलह, क्लेश, कटुता, कायरता तक न हट सकी, फिर कैसे आशा की जाए कि इन धार्मिक क्रिया-पद्धतियों द्वारा हमारा परलोक सुधर जाएगा?

हमें बुद्धिमान व्यापारी की तरह विचार करना होगा कि जिस धर्म के नाम पर हम अपनी शक्ति का, समय और धन का पांचवां हिस्सा खर्च कर रहे हैं, वह वास्तव में धर्म है भी या नहीं? शास्त्र कहते हैं कि—‘‘धर्मो रक्षति रक्षतः’’ जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। हम पंचमांश शक्ति द्वारा धर्म की रक्षा कर रहे हैं। इतनी बड़ी शक्ति इस धरती पर किसी भी देश या जाति द्वारा धर्म के लिए खर्च नहीं की जा रही है। दो आना प्रतिदिन की औसत आमदनी के जमाने में भी हम लोग जितना त्याग करते हैं, उतना कोई संपन्न देश भी नहीं कर पाता। इतना होते हुए भी संसार की अन्य जातियां इस पृथ्वी पर भी स्वर्ग भोग रही हैं और हम लोगों के सामने जिस पर भगवान के दस अवतार हुए उस परम पवित्र रत्नगर्भा, शस्य–श्यामला भूमि में भी नरक उपस्थित है। हम—धर्म के लिए बहुत कुछ कर रहे हैं, नाम जप, अखंड कीर्तन, संकीर्तन, यज्ञ, हवन, कथा, वार्ता, व्रत, उपवास, पूजापत्री, दान-दक्षिणा, साधु-सेवा, ब्रह्मभोज, श्राद्ध, तर्पण, तिलक छाप, कंठी-जनेऊ, गौ ग्रास, तीर्थ यात्रा, प्रार्थना, प्रदक्षिणा सभी कुछ तो जारी है, फिर धर्म हमारे लिए कुछ नहीं करता। छप्पन लाख पेशेवर और उससे दूने चौगुने अर्ध पेशेवर व्यक्ति धर्म के नाम पर जीवन लगाए हुए हैं, परंतु धर्म बदले में कुछ नहीं देता है।

ईश्वर के रहने के लिए आलीशान, राजमहलों को मात देने वाले मंदिर बनवाए गए हैं, भोग के लिए लाखों रुपया प्रतिदिन खर्च किए जाते हैं, टहल-चाकरी की राजा-महाराजाओं से बढ़िया व्यवस्था है, इस पर भी ईश्वर हमारी ओर कुछ ध्यान नहीं देता, उल्टी अनेकानेक आधि-व्याधियों का प्रकोप बढ़ता जाता है। यह समस्या ऐसी कठोर और कर्कश है कि बलात् हमारा ध्यान अपनी ओर खींचती है और इस प्रश्न पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की चुनौती देती है कि हम बुद्धिमान व्यापारी की तरह सोचें कि जिस उद्देश्य के लिए अपनी शक्ति का सर्वोत्तम अंश खर्च किया जा रहा है वह पूरा होता है या नहीं? जिस व्यापार में पूंजी लगाई जा रही है उसमें सफलता मिलती है या नहीं? धर्म जीवन का मेरुदंड है, खासतौर से हिंदू जाति का तो वह प्राण ही है। यदि धर्म के स्थान पर हम अधर्म की पूजा कर रहे हैं तो समझना चाहिए कि अपनी रक्तवाहिनी धमनियों का मुंह खोलकर शरीर का सारा रक्त निष्प्रयोजन और अनुचित स्थान पर बहाए दे रहे हैं। यह स्थिति घातक है, खासतौर से आज की दीन-हीन दशा में तो और भी अधिक प्राणघातक है। यदि हमारी वैयक्तिक और सामूहिक शक्तियों का व्यय अनुचित एवं अनावश्यक मार्ग में हो रहा है तो हममें से हर एक का कर्त्तव्य है कि उपेक्षा एवं अधूरे मन के साथ नहीं, वरन् पूरी-पूरी जिम्मेदारी, गंभीरता और विवेकशीलता के साथ यह विचार करें कि क्या धर्म का यही वास्तविक रूप है जिसके लिए हिंदू जाति आज अपनी पंचमांश शक्ति व्यय कर रही है?

यदि यह नहीं है तो धर्म का वह सच्चा स्वरूप क्या है? जिसको अपनाने से तुरंत ही धर्मसेवी शारीरिक, मानसिक और सामाजिक उन्नति दृष्टिगोचर हो? जिससे यह लोक सुधरेगा, वही धर्म परलोक को भी सुधारेगा। ऐसे धर्म का सर्वसाधारण को परिचय और विश्वास कैसे कराया जा सकता है? यह प्रश्न विचारणीय है।

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