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Books - धर्म पथ

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धर्म जीवन की दिशा

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वैसे तो सृष्टि की हर वस्तु का उसका अपना धर्म है। सूर्य का धर्म प्रकाश प्रदान करना है तो चंद्रमा का धर्म शीतलता प्रदान करना है, पर जड़-जंगम में संव्याप्त इस धर्म से हटकर एक धर्म और है, जो मानव-चेतना के स्तर को छूता है। वस्तुतः मानव धर्म की जब चर्चा होती है तब धर्म एक विशिष्ट परिवेश में सामने आता है। वैसे चेतना तो अन्य प्राणियों में भी है, पर उस धर्म का संबंध मानव चेतना से ही विशेष रूप में है। इस धर्म भावना ने ही मानव को मानव संज्ञा से विभूषित कराया है।

‘धर्म निरपेक्ष’ शब्द में एक भ्रांति प्रवेश कर गई। धर्म को मजहब, संप्रदाय का पर्यायवाची मान लिया गया है। परिणामतः धर्म शब्द की गरिमा संदिग्ध हो गई है। जहां हर मानव को धार्मिक कहलाने में गर्व का अनुभव करना चाहिए, वहां धार्मिक कहलाना संकोच का विषय बन गया है, आशंका का हेतु बन गया है।

वस्तुतः धर्म जीवन की वह रीति-नीति है, जो कि मनुष्य को मानव बनाकर खड़ा कर देती है। धर्म धारण करने की वस्तु है, तभी धर्म मानवीय तत्वों के संरक्षण में कुछ महत्वपूर्ण अनुदान दे सकता है। इसलिए सृष्टि निर्माण में मानवी चेतना के प्रादुर्भाव के साथ ही साथ कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य की भावना ने सामाजिक प्राणी मानव के सामने धर्म का रूप प्रस्तुत कर दिया। धर्म भावना ईश्वरवादी दृष्टिकोण से भी ऊंची है। रूस जैसा अनीश्वरवादी राष्ट्र भी अधार्मिक होकर जी नहीं सकता, क्योंकि मानव मात्र के कल्याण के लिए जो कुछ भी संभव हो सकता है, वह सब मानव धर्म की सीमाओं में रहकर ही।

मनुष्य का धर्म यही है कि वह अपने बाह्य व्यवहार एवं आंतरिक वृत्तियों का परिशोधन कर अपने मूल रूप को जीवन में व्यक्त करे। यही शुद्ध स्वरूप ज्ञान ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ श्रेष्ठतम भावनाओं को स्फुरित कर लोकमंगल को सहज साध्य बना सकता है।

स्थूल-स्तर पर हम धर्म को दो रूपों में देख सकते हैं। एक वह रूप जो देश, काल, पात्र के अनुरूप आचार संहिता प्रस्तुत करता है और आवश्यकता अनुसार यथोचित परिवर्तन के साथ लोकमंगल की दिशाएं सक्रिय बनाता रहता है। धर्म का यही रूप देश, काल, पात्र सापेक्ष होता है। जिस देश में जलाभाव हो वहां सप्ताह में एक बार नहाना भी धार्मिक कृत्य हो सकता है और जहां प्रकृति ने हर दिशा में जल राशि बिखरा रखी हो, वहां स्वास्थ्य संरक्षण के लिए प्रतिदिन स्नान करना धार्मिक कृत्य होगा ही। गरमी में जो वस्त्र काल-धर्म के प्रतीक होंगे, वे शीत ऋतु में नहीं। इसी प्रकार पात्रानुसार धर्म-आचरण अपने आप में एक तथ्य ही है।

निरंतर मांसभक्षण पर ही जीवित रहने वाले व्यक्तियों से मांसाहार छुड़ाने का कार्य असंभव सा लगता है। धर्म का दूसरा रूप धर्म के मूल तत्वों से संबंधित है जो शाश्वत है, अपरिवर्तनीय है। यह है मानव की आध्यात्मिक शक्तियों का उस चरम बिंदु तक विकास जहां धरती पर स्वर्ग और मनुष्य में देवत्व का अवतरण हो जाता है। अर्थात मानव का बाह्य आचरण एवं आंतरिक विचारणा मानव मात्र के कल्याण की दिशा में उन्मुख हो जाते हैं। धर्म का यह स्वरूप सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सर्वजनीन होता है। यहीं आकर मनुष्य ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की उदात्त भावना स्थली पर बिहार करने लगता है। धर्म के इस शाश्वत स्वरूप को कौन नकार सकता है? बेईमान भी ईमानदार साथी चाहता है, विश्वासघाती भी विश्वासपात्र मित्र चाहता है, आचरणहीन पति-पत्नी भी आचरणवान पत्नी-पति चाहते हैं। इन्हीं सर्वमान्य विभूतियों का विकास धर्म का मूल स्वरूप है, पावन उद्देश्य है। यह धर्म वर्तमान को ही सब कुछ मानकर नहीं चलता, अपितु अतीत और आगत को वर्तमान के श्रेष्ठतम आचारों की श्रृंखला से जोड़ता चलता है। यही उसकी शाश्वतता है।

लेकिन दुर्भाग्य से मानव धर्म के मूल तत्व भी देश, काल, पात्र की संकुचित सीमाओं में बंधकर सांप्रदायिक संकट का कारण बना दिए गए हैं। हम यह भूल जाते हैं कि सृष्टि के प्रारंभ में मानवीय चेतना में उद्भूत ईश्वरीय प्रेरणाजन्य ज्ञान की पुस्तक ‘ऋग्वेद’ को एक से चार क्यों होना पड़ा? वैदिककालीन जीवन क्रम के बीच बुद्ध और महावीर को क्यों अवतरित होना पड़ा? इसी क्रम की बढ़ती श्रृंखला में आचार्य शंकर को धर्म विजय के लिए प्रयाण क्यों करना पड़ा? इन सारे प्रश्नों के उत्तर देश, काल, पात्र की आवश्यकता के परिवेश में सहज ही दिए जा सकते हैं, सब ही श्रद्धा से सम्मानित किए जा सकते हैं, पर हमने विवेक को तिलांजलि दे मानव धर्म को मजहब एवं संप्रदाय के शिकंजे में फंसने दिया और अनिष्टकर स्थिति पैदा करते चले गए।

सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय के संदेशवाहक मानव धर्म को हमने स्थूल धार्मिक क्रिया-कलापों की अपनी-अपनी सीमाओं में बांधकर, धर्म की इतिश्री मान ली और अपनी सहज धार्मिक वृत्ति को थोथी संतुष्टि देकर, धर्म आचरण से मुख मोड़ लिया। वस्तुतः धर्म का और नैतिकता का कितना घनिष्ठ संबंध है, इसे हम न समझ सके। हमने धर्मक्षेत्र और कर्मक्षेत्र को अलग-अलग करके मानव जीवन को खंडित करके रख दिया है। हमारी इस धर्म की सत्ता ने जहां हमसे निर्दयतापूर्वक पशुबलि तक करवा डाली, वहां हमारे आत्मबल को निर्बल बनाकर दया के नाम पर अन्याय अनाचार के सामने समर्पण करने का आदी बना दिया।

ऐसी ही निर्बल-दया ग्रसित अर्जुन के कठोर कर्त्तव्य से विमुख होने पर योगीराज श्रीकृष्ण ने ‘‘अश्रुपूर्णा कुलेक्षणम्’’ एवं ‘‘विषीदन्तम्’’ की आकुल-व्याकुल मनःस्थिति की भर्त्सना करते हुए ‘‘कृपया परमाविष्टः’’ की हीन वृत्ति को पाप बताया है। वास्तविक मानव धर्म नैतिक बनने की प्रेरणा देता है, साहसी बनने की स्फुरणा देता है, तभी हम गीता का उपदेश सुनने की अपेक्षा किसी द्रोपदी के चीरहरण की रक्षा में सन्नद्ध हो सकते हैं। धार्मिकताजन्य इसी नैतिक साहस में मानव कल्याण के लिए उत्सर्ग कर सकने की क्षमता है, मानवीय एकता की महत्ता है।

ऐसे मानव धर्म के प्रचार-प्रसार एवं पुनः स्थापना के लिए ‘‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः’’ के गुणों से परिवेष्टित आत्मबल को जंगलों, गुफाओं, कुटियों, मंदिरों से बाहर निकाल कर खेतों, खलिहानों, कल-कारखानों, कार्यालयों, न्यायालयों, झोपड़ियों, महलों में लाना होगा, और उसे मानवीय पीड़ाओं का अनुभव कराना होगा, तब कहीं वेदना से पीड़ित आत्मबल लोकमंगल के लिए ‘भर्तृहरि’ के कथन को साकार करने का साहस जुटा सकेगा। ‘‘चाहे नीति-निपुण लोग निंदा करें या प्रशंसा, चाहे लक्ष्मी आए या जहां उसकी इच्छा हो वहां चली जाए, मृत्यु आज हो या सौ वर्ष बाद, धीर पुरुष तो वह है जो न्याय के पथ से तनिक भी विचलित नहीं होता।’’
समस्त आत्माओं की पीड़ा अनुभव कर उनके यथा सामर्थ्य त्राण हेतु अथक पुरुषार्थ ही मानव धर्म है। ऐसा धर्म हमारे बिखरे व्यक्तित्व को सुसंगठित करता है, हमारी संपूर्ण आत्मस्थ-शक्तियों का सर्वांगीण विकास करता है। हमें शिव से शिवत्व की ओर ले जाता है और हमारी सर्वशक्तिमत्ता की अनुभूति करा हमें नर से नारायण बना देता है। फिर मजहब, संप्रदाय, पंथ सब अपने सीमित ‘स्व’ को इस धर्म के ‘स्व’ को समर्पित कर अभिन्न हो जाते हैं, अद्वैत हो जाते हैं और लोकमंगल मानव जीवन में सहज साधक हो जाता है, परम आराध्य हो जाता है। धर्म की इस उदात्त पृष्ठभूमि पर आते ही नास्तिकता अपने ही अस्तित्व को नकारने लग जाती हैं, क्योंकि नास्तिकता ईश्वर पर अविश्वास नहीं अपितु स्वयं पर ही अविश्वास है।
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