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Books - धर्म पथ

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धर्म का स्वरूप

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धर्म वह वस्तु है जिसकी रक्षा करने से हमारी रक्षा होती है। धर्मो रक्षति रक्षितः का सिद्धांत ही सत्य है। मनुष्य बड़ा स्वार्थी जीव है, उसने हर दिशा में पहले यह देखा है कि इस कार्य को करने से मेरा कितना हित होगा, तत्पश्चात उस कार्य को आरंभ किया है। गाय, भैंस, घोड़े आदि की वह रक्षा करता है, क्योंकि बदले में वह भी मनुष्य की संपत्ति तथा तंदुरुस्ती की रक्षा करते हैं। बढ़ाते हैं। सियार, हिरन, लोमड़ी, भेड़िया, चीता, कछुआ आदि को आमतौर से नहीं पाला जाता है, क्योंकि इनकी रक्षा करने से मनुष्य की रक्षा नहीं होती। यही बात हर दिशा में है, व्यापार, विवाह, मित्रता, कुटुंब, पालन, विद्या-व्यायाम आदि को इसलिए उचित ठहराया गया है कि इनके द्वारा मनुष्य का हित साधन होता है, रक्षा होती है, सुख मिलता है। जिस कार्य से किसी अच्छे प्रतिफल की आशा नहीं होती, उसमें कोई दिलचस्पी नहीं लेता।

धर्म को मनुष्य ने बहुत बड़ी वस्तु माना है। छोटे मोटे सुखों का त्यागकर और कष्टों को अपनाकर भी वह धर्म के लिए प्रयत्नशील रहता है, क्योंकि लाखों वर्षों का अनुभव यह सिखाता है कि धर्म की रक्षा करने से अपनी रक्षा होती है। रक्षक, पहरेदार, चौकीदार, सैनिक आदि रक्षा करने वाले व्यक्तियों को पैसा खर्च करके भी अपने पास रखा करते हैं, क्योंकि यह बात अनुभव में आ चुकी है कि इनके द्वारा आने वाली आपत्तियों और हानियों से बचाव होता है।

यदि यह बात न होती तो कोई भी पहरेदारों को न रखता। इसी प्रकार धर्म को भलीभांति परख लिया गया है कि वह हमारी रक्षा करता है, इसीलिए लोग धर्म की रक्षा करना उचित समझते हैं। यदि उसमें यह गुण न होता तो कोई भी उसे स्वीकार नहीं करता। गौपालन, तुलसी स्थापना, गंगास्नान, तीर्थयात्रा, एकादशी व्रत, ब्रह्मचर्य आदि कार्यों को धर्म माना गया है। इस मान्यता से पहले परीक्षा कर ली गई है कि यह कार्य लाभदायक है या नहीं। गाय पालन से दूध, गोबर और बछड़े मिलते हैं। तुलसी अनेक रोगों को दूर करने वाली अमोद्य औषधि है। गंगा के जल में ऐसे रासायनिक तत्व पाए जाते हैं जो स्वास्थ्य सुधार के लिए उपयोगी हैं। तीर्थ यात्रा में देशाटन के अनुभव, सत्पुरुषों का सत्संग और वायु परिवर्तन होता है। एकादशी व्रत रखने से पंद्रह दिन का कब्ज पच जाता है। ब्रह्मचर्य से शरीर बलवान रहता है। इन प्रत्यक्ष लाभों की आकर्षण शक्ति ने ही मनुष्य को धर्म के साथ बांध रखा है, अन्यथा यह स्वार्थी जीव कब का धर्म को धता बता चुका होता।

जहां श्रेष्ठता होती है, वहां कुछ बुराईयां भी घुस जाती हैं। धर्म पालन को लोग बहुत ही महत्वपूर्ण समझते हैं और उसके लिए त्याग भी करते हैं यह देखकर स्वार्थपरता जो कि हर क्षेत्र में पाई जाती है जाग्रत हुई और अनुचित रूप से व्यक्तिगत लाभ उठाने के आडंबर रचे गए। धर्मगुरुओं में जहां अधिकांश श्रेष्ठ पुरुष थे और रक्षा करने वाले धर्म का उपदेश दिया करते थे, वहां कुछ ऐसे ओछे मनोवृत्ति के लोग भी गुरुओं में मिल गए जिन्होंने व्यक्तिगत लाभ की प्रेरणा से नकली बातों को भी धर्म में जोड़ दिया। कालांतर में वह असली और नकली बातें एक दूसरे के साथ मिलकर ऐसी शक्ल में आ गईं कि आज यह पहचानने में कठिनाई होती है कि हमारे सामने धर्म का जो स्वरूप उपस्थित है, उसमें कितनी बातें असली और कितनी नकली हैं?

इस असली नकली के सम्मिश्रण के कारण परिस्थिति ऐसी बन गई है कि धर्म के नाम पर जो कार्य किए जाते हैं, उनमें से बहुत से पुण्य और बहुत से पाप होते हैं। आज नकली की मात्रा असली से अधिक हो गई है, इसलिए धर्म के नाम पर जो कुछ किया जाता है उसमें पुण्य का भाग कम और पाप का अधिक होता है। धर्म के निमित्त जो कुछ जमा करते हैं, वह फूटे पैंदे के घड़े में होकर नीचे वह जाता है। फलतः अपनी संपूर्ण शक्ति का पांचवां हिस्सा धर्म के लिए खर्च करते हुए भी कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, लाभ के बदले उल्टी हानि दिखाई पड़ती है।

धर्म के नाम पर पलने वाले व्यक्ति और धर्म के नाम पर चलने वाले संस्थानों के कार्यों पर जब हम गंभीर दृष्टिपात करते हैं तो उनके द्वारा उन्नति की बजाय अवनति के तत्व अधिक दिखाई पड़ते हैं। धर्म जिनकी घर-गृहस्थी का पूरा-पूरा खर्च चलाता है, उनसे यह भी आशा करता है कि बदले में वे लोकहित की साधना करें। जनता जिन लोगों का पेट पालती है, जिनके जीवन की रक्षा करती है उनके लिए भी उचित है कि बदले में जनता की रक्षा का कार्य करें, यही तो धर्म है। नौकरी और दान में यह अंतर है कि नौकर तो जितने पैसे लेता है, उतना ही काम करके छुट्टी पा जाता है, परंतु दान लेने वालों की जिम्मेदारी अनेक गुनी है, क्योंकि उसने पैसे के अतिरिक्त श्रद्धा को भी प्राप्त किया है, इसलिए उसे नौकरी की अपेक्षा कई गुना अधिक काम करके धर्म की मर्यादा की रक्षा करनी है। इसी प्रकार धर्म के नाम पर चलने वाली संस्थाओं का कर्त्तव्य है कि यजमानों के हित साधने के लिए प्राप्त पैसे की अपेक्षा अनेक गुना काम करके दिखावें, परंतु हम देखते हैं कि धर्म के नाम पर कसे जाने के उपरांत खरे नहीं उतरते। नकली कामों का फल भी नकली ही होगा।

इस युग की शिकायत है कि ‘‘हमारी पंचमांस शक्ति को धर्म खा जाता है, परंतु बदले में झूठी कल्पनाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं देता।’’ इस शिकायत के उत्तर में हमारा कथन है कि आप जिसको अपनी शक्तियां सौंप रहे हैं वह धर्म नहीं है, क्योंकि धर्म एक प्रकार की उर्वरा भूमि है जिसमें बोया हुआ बीज कई गुना होकर लौटता है। धर्म में नकद होने की विशेषता है। इस हाथ लेकर उस हाथ देने का उसमें स्वाभाविक गुण है जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी अवश्यमेव रक्षा करता है। यदि किसी प्रकार का प्रत्युपकार प्राप्त न हो तो समझना चाहिए यह नकली चीज है, जिसमें न तो गर्मी हो, न चमक वह अग्नि नहीं कही जा सकती है। इसी प्रकार रक्षा करने पर भी जो न तो सुख में वृद्धि करता है और न आपत्तियों से रक्षा करता है, वह धर्म नहीं है। यदि हम वास्तविक धर्म की उपासना करते होते तो आज पतित, पराधीन, क्षुधार्त, बीमार, बेकार और तरह-तरह से दीन-हीन न होते। धर्म के साधक की यह दुर्गति तीन काल में भी नहीं होती। बहुत कुछ खोने के पश्चात, बहुत ठोकरें खाने के पश्चात अब हमें होश में आना होगा और उस वास्तविक धर्म को ढूंढ़ना होगा जिसकी शरण में जाने से मनुष्य की सब प्रकार की आधि-व्याधि मिट जाती है, सब प्रकार के क्लेश-कष्टों से छुटकारा मिल जाता है।

धर्म और अधर्म की व्याख्या करते हुए पंचाध्यायी में एक बहुत महत्वपूर्ण श्लोक कहा गया है—

शक्तिः पुणं पुण्यं फलं सम्पदः सुखम् ।

अतोहि चयनं शक्तेर्यतो धर्म सुखावहः ।।

शक्ति पुण्य है, पुण्य का फल वैभव है और वैभव से सुख प्राप्त होता है। इसलिए निश्चित से शक्ति का संचय सुखकारक धर्म माना गया है।

उपरोक्त श्लोक में सच्चे धर्म का असली मर्म खोलकर रख दिया गया है। जिससे अपनी और अपने समाज की शक्ति बढ़ती है, वह धर्म है। विद्या, स्वास्थ्य, धन, प्रतिष्ठा, पवित्रता, संगठन, सच्चरित्रता यह सात महाबल माने गए हैं, जिन कार्यों से इन सात मार्गों में अपनी या अपने समाज की उन्नति होती हो, धर्म साधना के निमित्त उन्हीं कार्यों को करना—अपनाना चाहिए। स्वयं इन सातों बलों को अपने पास एकत्रित करने के लिए धर्म-कर्त्तव्य समझ कर सदैव प्रयत्न करते रहना चाहिए और महा संपत्तियां दूसरों को भी प्राप्त हों, इसके लिए परोपकार भावना के साथ उद्योग करना चाहिए। ऐसी सभा-संस्थाओं का स्थापन, संचालन और सहयोग करना चाहिए जो स्वास्थ्य की उन्नति करती हों, जिनके द्वारा ज्ञान की वृद्धि होती हो, आर्थिक दशा सुधारती हो, गंदगी, मलीनता, कुरुचि हटती हो, मेल ऐक्य, भ्रातृभाव बढ़ता हो, तथा सद्गुणों में सदाचार में न्याय में उन्नति होती हो। बलों की वृद्धि करना ही धर्म-साधना का प्रधान कार्य है। धर्म का गुण रक्षा करना माना गया है। इसलिए वे ही कार्य धर्म ठहराए जा सकते हैं जिनके द्वारा हमारा व्यक्तिगत और सामूहिक बल बढ़ता हो, उन्नति होती हो, सुख बढ़ता हो और आत्म-रक्षा की क्षमता प्राप्त होती हो।

जो व्यक्ति उपरोक्त प्रकार के कामों में जितने परिश्रम और लगन के साथ जुटे हुए हों, उन्हें उतना ही बड़ा धर्मात्मा मानना चाहिए। इसी तरह के व्यक्तियों को और कार्यों को बढ़ाने के लिए अपना प्रभाव, समय और पैसा लगाना चाहिए।

वास्तविक धर्म यही है, इसी मर्यादा में वे लोग भी आ जाते हैं जो किसी विपत्ति में फंस गए हैं, अपाहिज, असमर्थ, बालक, वृद्ध आदि ऐसे लोग जो अपनी शक्ति से अपना जीवनयापन स्वयं नहीं कर सकते तथा ऐसे लोग जो आकस्मिक विपत्ति में पड़ गए हैं, जैसे बाढ़, अकाल, अग्निकांड, चोट, दुर्घटना, रोग, अन्याय आदि के सताए हुए। इन असमर्थों और पीड़ितों की सहायता करना भी मनुष्य का कर्त्तव्य है, ऐसे कर्त्तव्यपालन को दयाधर्म कहते हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि अपनी उदारता से कहीं निठल्ले, बदमाश और ढोंगियों को सहायता न मिलती हो ऐसे लोगों की सहायता करना उनके निठल्लेपन, बदमाशी और ढोंग को और अधिक प्रोत्साहन देना है, जो कि एक प्रकार का पाप ही है। ऐसी सहायता देने वाले को उल्टा पाप लगता है। भिक्षा एवं दान के ऊपर जीवन-निर्वाह करने का अधिकार अपाहिजों और लोकसेवी व्यक्तियों को है, पीड़ितों को उतनी मात्रा में सहायता लेने का हक है जिससे वे फिर अपने पांवों पर खड़े हो जावें। इसके अतिरिक्त और किसी को भी न भिक्षा लेनी चाहिए और न देनी चाहिए। ईश्वर भजन व्यक्तिगत आवश्यकता है, जैसे भोजन करना, पानी पीना, स्नान करना आदि। कोई आदमी इसलिए भिक्षा नहीं मांगता है कि मैं भोजन करता हूं, पानी पीता हूं, शौच जाता हूं, यह तो हर आदमी के दैनिक कर्त्तव्य हैं, जिन्हें करने के लिए किसी पर अहसान जताने की या धर्मात्मा बनने की जरूरत नहीं पड़ती। कोई व्यक्ति अधिक समय तक भजन करता है, अधिक ईश्वरभक्त है तो यह इसकी व्यक्तिगत महत्ता है, उसका अपना निजी लाभ है। निजी लाभ को स्वर्ग मुक्ति को कमाने में लगे हुए व्यक्ति दान भिक्षा की आशा क्यों करें?
हमें सच्चे धर्म को पहचानने की और उसी की रक्षा करने की आवश्यकता है, जिससे हमारी रक्षा भी हो। अज्ञान और आडंबर के पर्दे को हटाकर हमें भगवान, सत्य के दर्शन करने चाहिए। सत्य का अवलंबन करने में ही धर्म है और धर्म के ऊपर ही हमारी वैयक्तिक एवं सामूहिक उन्नति तथा रक्षा निर्भर है। अपनी पंचमांश शक्ति का जिस दिन हम सच्चे धर्म के लिए उपयोग करने लगेंगे उसी दिन से हमारे सौभाग्य सूर्य का उदय होना आरंभ हो जाएगा।
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