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Books - धर्म पथ

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देवत्व प्राप्ति का मार्ग है—धर्म

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First 15 17 Last
पुरुषार्थ चतुष्टय में सर्वाधिक प्रधान पुरुषार्थ जो मोक्ष प्राप्ति का साधन बताया गया है, धर्म है। धर्म शब्द की व्याख्या कई प्रकार से की जा सकती है। पहले शास्त्रों का प्रसंग लें, फिर आधुनिक चिंतन के परिप्रेक्ष्य में सोचें कि यह धर्म है क्या? क्या यह वही धर्म है, जिसके नाम पर निष्ठुर लोग एक दूसरे को मारते, परस्पर विद्वेष फैलाते नजर आते हैं? क्या धर्म उसे कहते हैं, जिसमें बहिरंग का कर्मकांड, वेश, विन्यास ही प्रमुख होता है, एवं आचरण, व्यक्तित्व परिष्कार की कोई आवश्यकता नहीं होती? क्या धर्म वह है जो व्यक्ति के अनैतिक आचरण की प्रेरणा देता है वे इसके लिए साक्षियां भगवत् सत्ता की देता है? क्या विशिष्ट पूजा घर में जाकर वैसा व्यवहार करना व मुंह चला लेना यही धर्म है? कर्म को प्रधानता न देते हुए समाज पर भारभूत बनकर अकर्मण्य बनते चले जाना ही क्या धर्म है? ये सारे प्रश्न, उत्तर मांगते हैं, क्योंकि धर्म शब्द को जितना अधिक तोड़ा-मरोड़ा व उसका दुरुपयोग किया गया है, उतना संभवतः और किसी के साथ नहीं हुआ है। यह समझ में नहीं आता कि धर्म जैसी शाश्वत, अनित्य सत्ता कभी खतरे में कैसे पड़ जाती है वह किसी की बलात् धर्म संबंधी मान्यताएं बदल देने पर परलोक में किसी के लिए स्थान सुरक्षित कैसे हो जाता है? इन सबका स्पष्टीकरण देने के लिए हमें धर्म के वास्तविक स्वरूप को भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में समझना होगा।

गीता भाष्य में आद्यशंकराचार्य कहते हैं—‘‘जो इस जगत की स्थिति का कारण एवं प्राणियों के अभ्युदय और मोक्ष का साक्षात हेतु है, श्रेय के अभिलाषी ब्राह्मणादि वर्ण और आश्रम वाले लोग जिसका आचरण करते हैं, उसका नाम धर्म है’’ (जगतः स्थितिकारणं प्राणिनां साक्षात् अभ्युदय निःश्रेयसहेतुः यः स धर्मो ब्राह्मणाद्यै वर्णिभि आश्रमिभिच श्रेयोर्थभिअनुष्ठयमानः)। इसका भावार्थ यह हुआ कि जिस परमसत्ता के बनाए नियमों के अनुरूप इस जगत का धारण पोषण हो रहा है, उसके अनुशासनों के अंतर्गत अपनी जीवनचर्या का निर्धारण धर्माचरण है, जो मनुष्य की आमूलचूल प्रगति का सर्वांगपूर्ण अभ्युदय तथा निःश्रेयस का निमित्त कारण है, वह धर्म है। प्रकृति के, विश्व-ब्रह्मांड के दायरे में रहकर सदाचरण द्वज्ञरा की गई प्रगति अभ्युदय कहलाती है तथा ब्रह्म की निःसीम सुखानुभूति को सीमा से परे प्राप्त होने वाली आत्मिक प्रगति को निःश्रेयस (नास्ति श्रेयान् यस्तात तत् निःश्रेयम्—जिससे बढ़कर उत्तम कोई फल न हो) कहते हैं। श्रेय पथ पर चलने वाले श्रेष्ठ चिंतन कर तदनुसार आचरण करने वाले ब्रह्मनिष्ठों के पथ पर चलना धर्म है। वस्तुतः आचरण में नितिमत्ता को उतारने की प्रेरणा देने वाला कारण तत्त्व धर्म है।

जो व्यक्ति को, समाज को, जन-सामान्य को धारण करे, उसे धर्म कहते हैं। धर्म शब्द के मुख्य अर्थ तीन अवलंबन देने वाला। किन्हें धारण करने वाला? किन्हीं संरक्षण देने वाला? संपूर्ण जगत को। यहां रहने वाले जीवधारियों को। इस प्रकार सारी विश्व मानवता के लिए धर्म एक ही हुआ। जिसके मार्गदर्शन, संरक्षण में जिसके छाया तले सभी प्रकार की विचारधाराएं समान रूप से पोषण पाती रहें, पारस्परिक कोई विग्रह न हो, वह धर्म शाश्वत है व एक ही है। देव संस्कृति इस संबंध में हमारा मार्गदर्शन आज की सांप्रदायिक विद्वेष भरी परिस्थितियों में समुचित रीति-नीति से करती हुई कहती है कि वही धर्म कहलाने योग्य है जो सहिष्णु हो, जिसकी मर्यादा अनुशासन का अवलंबन सब लें, जो नीतिमत्ता पर आधारित हो तथा जो सबके समान संरक्षण उत्पन्न करता हो। इस प्रकार ‘‘धारयते लोकम् इति धर्मः’’ की उक्ति पर आज की परिस्थितियों में कौन सा ऐसा धर्म है, इसका निर्णय आसानी से किया जा सकता है, व तदनुसार मानव धर्म का निर्धारण मानव-मात्र के लिए किया जा सकता है।

धर्म की परिभाषा बड़े विराट व्यापक रूप में समझी जानी चाहिए, क्योंकि इसी पर समग्र विश्व-मानवता की आचार संहिता अवलंबित है। धर्म व संप्रदाय में अंतर है। धर्म एक शाश्वत नीतिदर्शन का नाम है, जो मूलतः संवेदना की धुरी पर जन्म लेता है, जबकि संप्रदाय एक मान्यता विशेष का, एक मार्ग का नाम है जिसे मानते हुए जिसका अवलंबन लेते हुए व्यक्ति एक चरम लक्ष्य को प्राप्त होता है। देव संस्कृति ने धर्म को इसी अर्थ में लिया। यही कारण है कि इसके गर्भ में सभी मत-संप्रदाय, मत-मतांतर, मान्यताएं पनपते, विकसित होते चले गए। धर्म का प्रथम अंग है, नीति विज्ञान। नैतिकता पर आधारित एक ऐसा अनुशासन जो व्यक्ति की चेतना में संवेदना को जन्म दे, उसे अंकुरित, पोषित होने हेतु समुचित वातावरण प्रदान करे। सच्चा धर्म वही है जो व्यक्ति को नैतिकता के अनुशासन में बांधता है। संभवतः इसी कारण ऋषियों ने कहा—धर्मान्न प्रमदितव्यम्—अर्थात—धर्म में प्रमाद या असावधानी नहीं बरतनी चाहिए। आधुनिक सभ्यताएं नैतिक बंधनों से परे धर्म रहित अर्थ व काम की प्राप्ति उपार्जन हेतु प्रेरित करती हैं। मन की पैशाचिक दासता को स्वीकारने की प्रेरणा देती हैं। परिणाम सामने है। प्रत्यक्षतः या लौकिक जीवन में जो रोग, दुर्बलताएं, दुख, अशांति, पारस्परिक विग्रह नजर आ रहे हैं, वह सब इसी कारण पनपे हैं। मनु कहते हैं—‘‘परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्म वर्जितौ’’ अर्थात—मनुष्य को ऐसे अर्थ और काम का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए जो कि धर्म से रहित हो। इस प्रकार धर्म का अर्थ हुआ संवेदनामूलक नीतिमत्ता। धर्म का द्वितीय अंग है—आस्तिकता प्रधान तत्व-दर्शन। मानव-जीवन में पारस्परिक सामंजस्य एवं अनिवार्य घनिष्ठता स्थापित करने वाला तर्कसम्मत विवेचन। वास्तव में धर्म से ही मनुष्य को ऊंचा उठाने वाली, दुर्बलताओं से मुक्ति दिलाने वाली श्रेष्ठ व उदात्त भावनाओं का उदय होता है। प्रतिभा जागरण का मूल केंद्र यही है। आध्यात्मिक ऊर्जा जगाकर व्यक्ति को श्रेष्ठता के पथ पर पहुंचाने वाली विधा है यह। वेदों का ऋषि धर्म के इस उदात्त व व्यापक रूप की व्याख्या करते हुए मानव मात्र के शुभ की कामना की अभिव्यक्ति इस प्रकार करता है—

ध्रुवां भूमि पृथ्वीं धर्मणाधृताम् ।

शिवां स्थोनामनु चरेम विश्वहा ।।

अर्थात—यह ध्रुव और अचल भूमि, यह पृथ्वी जो धर्म द्वारा धारण की गई है, हम उस पर शिव सुखदायिनी भूमि पर विश्वांत विचरण करें।

ऋग्वेद में ऋषि कहते हैं—सुगां ऋतस्य पंथा, अर्थात—धर्म का मार्ग मानव को सुख देता है, दुख से मुक्त करता है। कितनी व्यापक अर्थ वाली भावना वैदिक संस्कृति में धर्म के प्रति व्यक्त की गई है। ऋग्वेद में ऋतु ऐसी विश्व व्यवस्था संबंधी धारणा है, जिसमें सार्वभौम प्रतिमानों द्वारा धर्म की परिपूर्ण व्याख्या तत्त्व-दर्शन के परिप्रेक्ष्य में की गई है।

धर्म का तृतीय अंग है—अनगढ़ मानव को देवमानव बनाने वाला। उसे सही दिशा देने वाला एक गहन विज्ञान, जिसे हम अध्यात्म नाम से जानते हैं, धर्म को अध्यात्म से कभी अलग नहीं किया जा सकता। जो प्रयास-प्रयत्न मनुष्य को अंतर्मुखी होने की प्रेरणा दे वह धर्म है, जो बहिर्मुखी बनाए उसे भोगवादी बनाकर उसके व्यक्तित्व को विखंडित कर दे, वह अधर्म है। बहिर्मुखता मनुष्य को व समग्र समाज को असंयम की ओर, विनाश की ओर ले जाती है तथा अंतर्मुखता संयम, शांति, प्रेम तथा परम लक्ष्य की ओर। विभिन्न कर्मकांडों द्वारा देव संस्कृति में यही प्रयोग मनुष्य को सिखाया जाता है कि एकाग्रता के चरमलक्ष्य की ओर, अंतर्मुखता की ओर बढ़ने का। जिस समाज में जितने अधिक अंतर्मुखी वृत्ति के व्यक्ति होंगे, वह समाज उनकी एकाग्रता से प्राप्त शक्ति से उतना ही लाभान्वित होगा। वह उतना ही अधिक टिकाऊ बनेगा। भारतीय संस्कृति इस कसौटी पर पूरी तरह खरी उतरती है।

वस्तुतः मानव की संवेदनशीलता का विकास ही धर्म है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि धर्म के नाम पर आज हम सब ओठों से बुदबुदाने वाले कर्मकांड मात्र का प्रयोग करते हैं, जबकि धर्म व्यक्तित्व परिष्कार की व उस माध्यम से उसके सारे समाज पर पड़ने वाले प्रभाव की विधा का नाम है। एक सच्चा धार्मिक व्यक्ति चलती-फिरती संस्था है।

तैत्तिरीय आरण्यक मैं धर्म को संपूर्ण जगत का आधार कहा गया है—‘‘धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा।’’ सारा समाज इसी अनुशासन पर टिका हुआ है। समाज के मानक दंड मानवीय मूल्यों का पतन होने पर उसका विनाश सुनिश्चित है। धर्म प्रधान पुरुषार्थ व्यक्ति, समाज, राष्ट्र व संस्कृति के सर्वांगीण अभ्युदय का निमित्त कारण बनता है, इसमें किसी प्रकार का संशय किसी भी विचारक को नहीं है।

सारे विश्व के मनुष्यों की उत्पत्ति द्वारा मानव के रूप में एक प्राणी भगवान ने बनाया है। अतः उसके धर्म अनेक नहीं हो सकते। विश्व में दो या पांच या दस धर्म हैं, यह एक भ्रांति है। अनादि सनातन वैदिक धर्म ही मानव धर्म है, यह प्रागैतिहासिक कालीन विश्व मान्य सत्य है। बाद में देश, काल, पात्र के अनुसार महापुरुषों ने धर्म के किसी विशेष अंग को कहीं प्रचलित किया और कालांतर में वह मत धर्म कहा जाने लगा। धर्म के विभिन्न अंगों में पारस्परिक विग्रह या विद्वेष कैसा? सत्य, अहिंसा, आस्तेय, ब्रह्मचर्य, त्याग आदि सार्वभौम धर्म हैं, किसी महामानव ने किसी पर बल दिया है, किसी ने दूसरे पर। तात्कालिक समाज की जो विकृतियां थीं, उन्हें मिटाने हेतु जिस साधन पर बल देना आवश्यक माना गया, उसे उन्होंने प्रमुखता दी। किसी ने यह नहीं कहा कि हम नूतन धर्म का सृजन कर रहे हैं। यह तो मानवीय दंभ है, जो शाश्वत धर्म को संप्रदायों का रूप देकर उन्हें परस्पर लड़वाकर समाज के पतन का कारण बनता है। इस संकट का निवारण तभी संभव है जब धर्म का शाश्वत स्वरूप सभी को हृदयंगम कराया जा सके।

मानव-मात्र के लिए श्रेष्ठता के पथ पर बढ़ने में सहायक धर्मोत्पत्ति के दस साधन मनु महाराज ने बताए हैं, उन्हें धर्म के दस लक्षण भी कहा जाता है—

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।

अर्थात—धृति (धैर्य, संतोष, आत्मावलंबन), क्षमा (औचित्य के प्रति उदारता), दम (मनःसंयम), अस्तेय (न्यायपूर्ण जीवन), इन्द्रिय निग्रह (विषयों के अधोगामी प्रवाह को रोकना), धी (विवेक बुद्धि), विद्या  (आत्मज्ञान पारलौकिक फल वाले सत्कर्मों में प्रवृत्ति), सत्य (मन, वचन, कर्म से व्यक्ति का शुद्ध होना व प्रिय सत्य बोलना), अक्रोध (मानसिक समस्वरता, आत्म-नियंत्रण, आवेश में न आना)—ये दस लक्षण धर्म में बताए गए हैं। व्यावहारिक अध्यात्म की दृष्टि से कितने सही व परिष्कृत व्यक्तित्व हेतु अनिवार्य ये सद्गुण हैं। किसी भी सभ्यता मान्यता मानने वाले को इस संबंध में भ्रम नहीं होना चाहिए। कुछ धर्म सामान्य धर्म होते हैं, कुछ विशेष। दान सामान्य धर्म हैं, परंतु रोगी ऐसे पदार्थ आकर मांगे जो उसे नुकसान करेंगे तो उस समय इसे वह पदार्थ न देना विशेष धर्म है। इसी प्रकार आततायी को क्षमा कर देना अहिंसा नहीं कायरता है। फोड़े पर चीरा लगाना चिकित्सक का विशेष धर्म है, हिंसा नहीं।
इस प्रकार धर्म का सदैव, देश, काल, परिस्थिति व औचित्य के साथ देखकर उसका निर्धारण किया जाना चाहिए। आपद्धर्म केवल आपत्तिकाल तक के लिए होता है और वह भी उतने ही अंश में जितने अंश में आपत्तिकाल चल रहा हो। मरणासन्न रोगी को वैद्य ने लहसुन दे दिया तो जरूरी नहीं कि अच्छा होने पर भी लहसुन उसका खाद्य हो जाए। युग धर्म वह है जो उस समय काल के लिए किया जाने योग्य कर्त्तव्य है। स्वतंत्रता संग्राम में देश के लिए लड़ना युग धर्म था तो आज देव संस्कृति का तत्त्वज्ञान घर-घर पहुंचाना आस्था संकट से जूझना, पीड़ित मानवता की सेवा युग धर्म है।
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