
॥ गायत्री स्तवनम्॥
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॥ गायत्री स्तवनम् ॥
इस स्तवन (आ०हृ०स्तो०) में गायत्री महामन्त्र के अधिष्ठाता सविता देवता की प्रार्थना है। इसे अग्नि का अभिवन्दन, अभिनन्दन भी कह सकते हैं। सभी लोग हाथ जोड़कर स्तवन की मूल भावना को हृदयङ्गम करें। हर टेक में कहा गया है- ‘वह वरण करने योग्य सविता देवता हमें पवित्र करें।’ दिव्यता- पवित्रता के संचार की पुलकन का अनुभव करते चलें।
यन्मण्डलं दीप्तिकरं विशालं, रत्नप्रभं तीव्रमनादिरूपम्।
दारिद्र्य- दुःखक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ १॥
शुभ ज्योति के पुञ्ज, अनादि, अनुपम। ब्रह्माण्ड व्यापी आलोक कर्त्ता।
दारिद्र्य, दुःख भय से मुक्त कर दो। पावन बना दो हे देव सविता॥ १॥
यन्मण्डलं देवगणैः सुपूजितं, विप्रैः स्तुतं मानवमुक्तिकोविदम्।
तं देवदेवं प्रणमामि भर्गं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ २॥
ऋषि देवताओं से नित्य पूजित। हे भर्ग! भव बन्धन मुक्ति कर्त्ता।
स्वीकार कर लो वन्दन हमारा। पावन बना दो हे देव सविता॥ २॥
यन्मण्डलं ज्ञानघनं त्वगम्यं, त्रैलोक्यपूज्यं त्रिगुणात्मरूपम्।
समस्त- तेजोमय, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ ३॥
हे ज्ञान के घन, त्रैलोक्य पूजित। पावन गुणों के विस्तार कर्त्ता।
समस्त प्रतिभा के आदि- कारण। पावन बना दो हे देव सविता॥ ३॥
यन्मण्डलं गूढमतिप्रबोधं, धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानाम्।
यत् सर्वपापक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ ४॥
हे गूढ़ अन्तःकरण में विराजित। तुम दोष- पापादि संहार कर्त्ता।
शुभ धर्म का बोध हमको करा दो। पावन बना दो हे देव सविता॥ ४॥
यन्मण्डलं व्याधिविनाशदक्षं, यदृग्- यजुः सामसु सम्प्रगीतम्।
प्रकाशितं येन च भूर्भुवः स्वः, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥ ५॥
हे व्याधि- नाशक, हे पुष्टि दाता। ऋग्, साम, यजु वेद संचार कर्त्ता।
हे भूर्भुवः स्वः में स्व प्रकाशित। पावन बना दो हे देव सविता॥ ५॥
यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण- सिद्धसङ्घाः।
यद्योगिनो योगजुषां च सङ्घाः, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥ ६॥
सब वेदविद्, चारण, सिद्ध योगी। जिसके सदा से हैं गान कर्त्ता।
हे सिद्ध सन्तों के लक्ष्य शाश्वत्। पावन बना दो हे देव सविता॥ ६॥
यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं, ज्योतिश्च कुर्यादिह मर्त्यलोके।
यत्काल- कालादिमनादिरूपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ ७॥
हे विश्व मानव से आदि पूजित। नश्वर जगत् में शुभ ज्योति कर्त्ता।
हे काल के काल- अनादि ईश्वर। पावन बना दो हे देव सविता॥ ७॥
यन्मण्डलं विष्णुचतुर्मुखास्यं, यदक्षरं पापहरं जनानाम्।
यत्कालकल्पक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ॥ ८॥
हे विष्णु ब्रह्मादि द्वारा प्रचारित। हे भक्त पालक, हे पाप हर्त्ता।
हे काल- कल्पादि के आदि स्वामी। पावन बना दो हे देव सविता ॥ ८॥
यन्मण्डलं विश्वसृजां प्रसिद्धं, उत्पत्ति- रक्षा प्रलयप्रगल्भम्।
यस्मिन् जगत्संहरतेऽखिलं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ ९॥
हे विश्व मण्डल के आदि कारण। उत्पत्ति- पालन कर्त्ता।
होता तुम्हीं में लय यह जगत् सब। पावन बना दो हे देव सविता॥ ९॥
यन्मण्डलं सर्वगतस्य विष्णोः, आत्मा परंधाम विशुद्धतत्त्वम्।
सूक्ष्मान्तरैर्योगपथानुगम्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ १०॥
हे सर्वव्यापी, प्रेरक नियन्ता। विशुद्ध आत्मा, कल्याण कर्त्ता।
शुभ योग पथ पर हमको चलाओ। पावन बना दो हे देव सविता॥ १०॥
यन्मण्डलं ब्रह्मविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण- सिद्धसङ्घाः।
यन्मण्डलं वेदविदः स्मरन्ति, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ ११॥
हे ब्रह्मनिष्ठों से आदि पूजित। वेदज्ञ जिसके गुणगान कर्त्ता।
सद्भावना हम सबमें जगा दो। पावन बना दो हे देव सविता॥ ११॥
यन्मण्डलं वेद- विदोपगीतं, यद्योगिनां योगपथानुगम्यम्।
तत्सर्ववेदं प्रणमामि दिव्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥ १२॥
हे योगियों के शुभ मार्गदर्शक। सद्ज्ञान के आदि संचारकर्त्ता।
प्रणिपात स्वीकार लो हम सभी का। पावन बना दो हे देव सविता॥ १२॥
॥ अग्नि प्रदीपनम् ॥
जलती हुई प्रदीप्त अग्नि में ही आहुति दी जाती है। पंखे से हवा करके समिधाओं में सुलगती हुई अग्नि को प्रदीप्त करते हैं। धुएँ वाली अधजली आग में आहुतियाँ नहीं दी जातीं।
जीवन दीप्तिमान्, ज्वलनशील, प्रचण्ड, प्रखर और प्रकाशमान जिया जाना चाहिए, चाहे थोड़े ही दिन का क्यों न हो। धुआँ निकालती हुई आग एक वर्ष जले, इसकी अपेक्षा एक क्षण का प्रकाशयुक्त ज्वलन अच्छा। अपनी प्रसुप्त शक्तियों को जाग्रत् करने की प्रेरणा इस अग्नि प्रदीपन में है।
ॐ उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि, त्वमिष्टा पूर्ते स œ सृजेथामयं च। अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन्, विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत। -१५.५४, १८.६१
॥ समिधाधानम्॥
यज्ञपुरुष अग्निदेव के प्रकट होने पर पतली छोटी चार समिधाएँ घी में डुबोकर एक- एक करके चार मन्त्रों के साथ चार बार में समर्पित की जाएँ।
ये चार समिधाएँ चार तथ्यों को स्मरण करने के लिए अग्निदेव की साक्षी में चढ़ाई जाती हैं।
(१) ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास की व्यवस्था को पूर्ण करना।
(२) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को प्राप्त करा सकने वाला जीवनक्रम अपनाना।
(३) साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा- इन चारों का अवलम्बन।
(४) शरीरबल, मनोबल, आत्मबल, ब्रह्मबल- इन चारों विभूतियों के लिए प्रबल- पुरुषार्थ।
इन चारों उपलब्धियों को यज्ञ- रूप बनाना, यज्ञ के लिए समर्पित करना चार समिधाओं का प्रयोजन है। इस लक्ष्य को चार समिधाओं द्वारा स्मृतिपटल पर अङ्कित किया जाता है। स्नेहसिक्त, चिकना, लचीला, सरल अपना व्यक्तित्व हो, यह प्रेरणा प्राप्त करने के लिए स्नेह- घृत में डुबोकर चार समिधाएँ अर्पित की जाती हैं। भावना की जाए कि घृतयुक्त समिधाओं में जिस प्रकार अग्नि प्रदीप्त होती है, उसी प्रकार उपर्युक्त क्षमताएँ अपने सङ्कल्प और देव अनुग्रह के संयोग से साधकों को प्राप्त हो रही हैं।
समिधाधान वह करता है, जो घी की आहुति देने के लिए मध्य में बैठता है। जल प्रसेचन तथा आज्याहुति की सात घृत आहुतियाँ भी वही देता है।
१- ॐ अयन्त इध्म आत्मा, जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व। चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया, पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन, अन्नाद्येन समेधय स्वाहा। इदं अग्नये
जातवेदसे इदं न मम। - आश्व०गृ०सू० १.१०
२- ॐ समिधाऽग्निं दुवस्यत, घृतैर्बोधयतातिथिम्। आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा। इदं अग्नये इदं न मम॥
३- ॐ सुसमिद्धाय शोचिषे, घृतं तीव्र जुहोतन। अग्नये जातवेदसे स्वाहा। इदं अग्नये जातवेदसे इदं न मम॥
४- ॐ तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो, घृतेन वर्धयामसि। बृहच्छोचा यविष्ठ्य स्वाहा। इदं अग्नये अङ्गिरसे इदं न मम॥ - ३.१.३