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Books - कर्मकाण्ड भास्कर

Media: TEXT
Language: HINDI
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॥ मरणोत्तर संस्कार॥

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॥ मरणोत्तर संस्कार॥

दिशा एवं प्रेरणा- भारतीय संस्कृति ने यह तथ्य घोषित किया है कि मृत्यु के साथ जीवन समाप्त नहीं होता, अनन्त जीवन शृङ्खला की एक कड़ी मृत्यु भी है, इसलिए संस्कारों के क्रम में जीव की उस स्थिति को भी बाँधा गया है। जब वह एक जन्म पूरा करके अगले जीवन की ओर उन्मुख होता है, कामना की जाती है कि सम्बन्धित जीवात्मा का अगला जीवन पिछले की अपेक्षा अधिक सुसंस्कारवान् बने। इस निमित्त जो कर्मकाण्ड किये जाते हैं, उनका लाभ जीवात्मा को क्रिया- कर्म करने वालों की श्रद्धा के माध्यम से ही मिलता है। इसलिए मरणोत्तर संस्कार को श्राद्धकर्म भी कहा जाता है।

यों श्राद्धकर्म का प्रारम्भ अस्थि विसर्जन के बाद से ही प्रारम्भ हो जाता है। कुछ लोग नित्य प्रातः तर्पण एवं सायंकाल मृतक द्वारा शरीर के त्याग के स्थान पर या पीपल के पेड़ के नीचे दीपक जलाने का क्रम चलाते रहते हैं।

मरणोत्तर संस्कार अन्त्येष्टि संस्कार के तेरहवें दिन किया जाता है। जिस दिन अन्त्येष्टि (दाह क्रिया) होती है, वह दिन भी गिन लिया जाता है। कहीं- कहीं बारहवें दिन की भी परिपाटी होती है। बहुत से क्षेत्रों में दसवें दिन शुद्धि दिवस मनाया जाता है, उस दिन मृतक के निकट सम्बन्धी क्षौर कर्म कराते हैं, घर की व्यापक सफाई- पुताई शुद्धि तक पूर्ण कर लेते हैं, जहाँ तेरहवीं ही मनायी जाती है, वहाँ यह सब कर्म श्राद्ध संस्कार के पूर्व कर लिये जाते हैं।

अन्त्येष्टि के १३वें दिन मरणोत्तर संस्कार किया जाता है। यह शोक- मोह की पूर्णाहुति का विधिवत् आयोजन है। मृत्यु के कारण घर में शोक- वियोग का वातावरण रहता है, बाहर के लोग भी संवेदना- सहानुभूति प्रकट करने आते हैं- यह क्रम तेरह दिन में पूरा हो जाना चाहिए, ताकि भावुकतावश शोक का वातावरण लम्बी अवधि तक न खिंचता जाए। कर्त्तव्यों की ओर पुनः ध्यान देना आरम्भ कर दिया जाए।

मृतक के शरीर से अशुद्ध कीटाणु निकलते हैं। इसलिए मृत्यु के उपरान्त घर की सफाई करनी चाहिए। दीवारों की पुताई, जमीन की धुलाई- लिपाई, वस्त्रों की गरम जल से धुलाई, वस्तुओं की घिसाई, रँगाई आदि का ऐसा क्रम बनाना पड़ता है कि कोई छूत का अंश न रहे। यह कार्य दस से १३ दिन की अवधि में पूरा हो जाना चाहिए।

तेरहवें दिन मरणोत्तर संस्कार की वैसी ही व्यवस्था की जाए, जैसी अन्य संस्कारों की होती है। आँगन में यज्ञ वेदी बनाकर पूजन तथा हवन के सारे उपकरण इकट्ठे किये जाएँ। मण्डप बनाने या सजावट करने की आवश्यकता नहीं है। जिस व्यक्ति ने दाह संस्कार किया हो, वही इस संस्कार का भी मुख्य कार्यकर्त्ता, यजमान बनेगा और वही दिवंगत आत्मा की शान्ति- सद्गति के लिए निर्धारित कर्मकाण्ड कराएगा।

श्राद्ध संस्कार मरणोत्तर के अतिरिक्त पितृपक्ष में अथवा देहावसान दिवस पर किये जाने वाले श्राद्ध के रूप में कराया जाता है। जीवात्माओं की शान्ति के लिए तीर्थों में भी श्राद्ध कर्म कराने का विधान है।

पूर्व व्यवस्था- श्राद्ध संस्कार के लिए सामान्य यज्ञ देव पूजन की सामग्री के अतिरिक्त नीचे लिखे अनुसार व्यवस्था बना लेनी चाहिए।
* तर्पण के लिए पात्र ऊँचे किनारे की थाली, परात, पीतल या स्टील की टैनियाँ (तसले, तगाड़ी के आकार के पात्र) जैसे उपयुक्त रहते हैं। एक पात्र जिसमें तर्पण किया जाए, दूसरा पात्र जिसमें जल अर्पित करते रहें। तर्पण पात्र में जल पूर्ति करते रहने के लिए कलश आदि पास ही रहे। इसके अतिरिक्त कुश, पावित्री, चावल, जौ, तिल थोड़ी- थोड़ी मात्रा में रखें।

* पिण्डदान के लिए लगभग एक पाव गुँथा हुआ जौ का आटा। जौ का आटा न मिल सके, तो गेहूँ के आटे में जौ, तिल मिलाकर गूँथ लिया जाए। पिण्ड स्थापन के लिए पत्तलें, केले के पत्ते आदि। पिण्डदान सिंचित करने के लिए दूध- दही, मधु थोड़ा- थोड़ा रहे।
* पंचबलि एवं नैवेद्य के लिए भोज्य पदार्थ। सामान्य भोज्य पदार्थ के साथ उर्द की दाल की टिकिया (बड़े) तथा दही इसके लिए विशेष रूप से रखने की परिपाटी है। पंचबलि अर्पित करने के लिए हरे पत्ते या पत्तल लें।

*  पूजन वेदी पर चित्र, कलश एवं दीपक के साथ एक छोटी ढेरी चावल की यम तथा तिल की पितृ आवाहन के लिए बना देनी चाहिए।
क्रम व्यवस्था- श्राद्ध संस्कार में देवपूजन एवं तर्पण के साथ पंचयज्ञ करने का विधान है। यह पंचयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ एवं मनुष्ययज्ञ है। इन्हें प्रतीक रूप में ‘बलिवैश्व देव’ की प्रक्रिया में भी कराने की परिपाटी है। वैसे पितृयज्ञ के लिए पिण्डदान, भूतयज्ञ के लिए पंचबलि, मनुष्य यज्ञ के लिए श्राद्ध सङ्कल्प का विधान है। देवयज्ञ के लिए सत्प्रवृत्ति संवर्धन- देवदक्षिणा सङ्कल्प तथा ब्रह्मयज्ञ के लिए गायत्री विनियोग किया जाता है। अन्त्येष्टि करने वाले को प्रधान यजमान के रूप में बिठाया जाता है। विशेष कृत्य उसी से कराये जाते हैं। अन्य सम्बन्धियों को भी स्वस्तिवाचन, यज्ञाहुति आदि में सम्मिलित किया जाना उपयोगी है।

प्रारम्भ में षट्कर्म के बाद सङ्कल्प कराएँ। फिर रक्षाविधान तक के उपचार करा लिये जाते हैं। इसके बाद विशेष उपचार प्रारम्भ होते हैं।
प्रारम्भ में यम एवं पितृ आवाहन- पूजन करके तर्पण कराया जाता है। तर्पण के बाद क्रमशः ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ एवं मनुष्ययज्ञ कराएँ।
इन यज्ञों के बाद अग्नि स्थापना करके विधिवत् गायत्री यज्ञ कराएँ। विशेष आहुतियों के बाद स्विष्टकृत्, पूर्णाहुति आदि सम्पन्न कराते हुए समय की सीमा को देखते हुए यज्ञ का समापन संक्षेप या विस्तारपूर्वक कराएँ।

विसर्जन के पूर्व दो थालियों में भोजन सजाकर रखें। इनमें देवों और पितरों के लिए नैवेद्य अर्पित किया जाए। पितृ नैवेद्य की थाली में किसी मान्य वयोवृद्ध अथवा पुरोहित को भोजन करा दें और देव नैवेद्य किसी कन्या को जिमाया जाए। विर्सजन करने के पश्चात् पंचबलि के भाग यथास्थान पहुँचाने की व्यवस्था करें। पिण्ड नदी में विसर्जित करने या गौओं को खिलाने की परिपाटी है। इसके बाद निर्धारित क्रम से परिजनों, कन्या, ब्राह्मण आदि को भोजन कराएँ। रात्रि में संस्कार स्थल पर दीपक रखें।

॥ श्राद्धकर्म संकल्प॥

.....नामाहं...... नामकमृतात्मनः प्रेतत्वनिवृत्तिद्वारा अक्षय्यलोकावाप्तये स्वकर्त्तव्यपालनपूर्वकं पितृणाद् आनृण्यार्थं सर्वेषां पितृणां शान्तितुष्टिनिमित्तं पंचयज्ञसहितं श्राद्धकर्म अहं करिष्ये।

॥ यम देवता- पूजन॥

यम को मृत्यु का देवता कहा जाता है। यम नियन्त्रण करने वाले को तथा समय को भी कहते हैं। सृष्टि का सन्तुलन- नियन्त्रण बनाये रखने के लिए मृत्यु भी एक आवश्यक प्रक्रिया है। नियन्त्रण- सन्तुलन को बनाये रखने वाली काल की सीमा का स्मरण रखने से जीवन सन्तुलित, व्यवस्थित तथा प्रखर एवं प्रगतिशीलता बनाये रखने की प्रेरणा मिलती है।

क्रिया और भावना- पूजन की वेदी पर चावलों की एक ढेरी यम के प्रतीक रूप में रखें तथा मन्त्र के साथ उसका पूजन करें। यदि समय की कमी न हो, तो कई लोग मिलकर यम- स्तोत्र का पाठ भी करें। स्तुति करने का अर्थ है- उनके गुणों का स्मरण तथा अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करना।
हाथ में यव- अक्षत लेकर जीवन- मृत्यु चक्र का अनुशासन बनाये रखने वाले तन्त्र के अधिष्ठाता का आवाहन करें- पूजन करें। भावना करें कि यम का अनुशासन हम सबके लिए कल्याणकारी बने।

ॐ यमाय त्वा मखाय त्वा, सूर्यस्य त्वा तपसे। देवस्त्वा सविता मध्वानक्तु, पृथिव्याः स स्पृशस्पाहि। अर्चिरसि शोचिरसि तपोऽसि॥ - ३७.११
ॐ यमाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। ततो नमस्कारं करोमि॥
 
॥ यम स्तोत्र॥

ॐ नियमस्थः स्वयं यश्च, कुरुतेऽन्यान्नियन्त्रितान्। प्रहरिणे मर्यादानां, शमनाय तस्मै नमः॥ १॥
यस्य स्मृत्या विजानाति, भङ्गुरत्वं निजं नरः। प्रमादालस्यरहितो, बोधकाय नमोऽस्तु ते॥ २॥
विधाय धूलिशयनं, येनाहं मानिनां खलु। महतां चूर्णितो गर्वः, तस्मै नमोऽन्तकाय च॥ ३॥
यस्य प्रचण्डदण्डस्य, विधानेन हि त्रासिताः। हाहाकारं प्रकुर्वन्ति, दुष्टाः तस्मै नमो नमः॥ ४॥
कृपादृष्टिरनन्ता च, यस्य सत्कर्मकारिषु। पुरुषेषु नमस्तस्मै, यमाय पितृस्वामिने॥ ५॥
कर्मणां फलदानं हि, कार्यमेव यथोचितम्। पक्षपातो न कस्यापि, नमो यस्य यमाय च॥ ६॥
यस्य दण्डभयाद्रुद्धः, दुष्प्रवृत्तिकुकर्मकृत्। कृतान्ताय नमस्तस्मै, प्रदत्ते चेतनां सदा॥ ७॥
प्राधान्यं येन न्यायस्य, महत्त्वं कर्मणां सदा। मर्यादारक्षणं कर्त्रे, नमस्तस्मै यमाय च॥ ८॥
न्यायार्थं यस्य सर्वे तु, गच्छन्ति मरणोत्तरम्। शुभाशुभं फलं प्राप्तुं, नमस्तस्मै यमाय च॥ ९॥
सिंहासनाधिरूढोऽत्र, बलवानपि पापकृत्। यस्याग्रे कम्पते त्रासात्, तस्मै नमोऽन्तकाय च॥ १०॥

॥ पितृ- आवाहन- पूजन॥

इसके पश्चात् इस संस्कार के विशेष कृत्य आरम्भ किये जाएँ। कलश की प्रधान वेदी पर तिल की एक छोटी ढेरी लगाएँ, उसके ऊपर दीपक रखें। इस दीपक के आस- पास पुष्पों का घेरा, गुलदस्ता आदि से सजाएँ। छोटे- छोटे आटे के बने ऊपर की ओर बत्ती वाले घृतदीप भी किनारों पर सीमा रेखा की तरह लगा दें। उपस्थित लोग हाथ में अक्षत लेकर मृतात्मा के आवाहन की भावना करें और प्रधान दीपक की लौ में उसे प्रकाशित हुआ देखें। इस आवाहन का मन्त्र ॐ विश्वे देवास.. है। सामूहिक मन्त्रोच्चार के बाद हाथ में रखे चावल स्थापना की चौकी पर छोड़ दिये जाएँ। आवाहित पितृ का स्वागत- सम्मान षोडशोपचार या पंचोपचार पूजन द्वारा किया जाए।

ॐ विश्वेदेवास ऽ आगत, शृणुता म ऽ इम  हवम्। एदं बर्हिर्निषीदत। ॐ विश्वेदेवाः शृणुतेम œ हवं मे, ये अन्तरिक्षे यऽ उप द्यविष्ठ। ये अग्निजिह्वा उत वा यजत्रा, आसद्यास्मिन्बर्हिषि मादयध्वम्। - ७.३४,३३.५३
ॐ पितृभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।

॥ तर्पण॥

दिशा एवं प्रेरणा- आवाहन, पूजन, नमस्कार के उपरान्त तर्पण किया जाता है। जल में दूध, जौ, चावल, चन्दन डाल कर तर्पण कार्य में प्रयुक्त करते हैं। मिल सके, तो गङ्गा जल भी डाल देना चाहिए।

तृप्ति के लिए तर्पण किया जाता है। स्वर्गस्थ आत्माओं की तृप्ति किसी पदार्थ से, खाने- पहनने आदि की वस्तु से नहीं होती: क्योंकि स्थूल शरीर के लिए ही भौतिक उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। मरने के बाद स्थूल शरीर समाप्त होकर, केवल सूक्ष्म शरीर ही रह जाता है। सूक्ष्म शरीर को भूख- प्यास, सर्दी- गर्मी आदि की आवश्यकता नहीं रहती, उसकी तृप्ति का विषय कोई, खाद्य पदार्थ या हाड़- मांस वाले शरीर के लिए उपयुक्त उपकरण नहीं हो सकते। सूक्ष्म शरीर में विचारणा, चेतना और भावना की प्रधानता रहती है, इसलिए उसमें उत्कृष्ट भावनाओं से बना अन्तःकरण या वातावरण ही शान्तिदायक होता है।

इस दृश्य संसार में स्थूलशरीर वाले को जिस प्रकार इन्द्रिय भोग, वासना, तृष्णा एवं अहङ्कार की पूर्ति में सुख मिलता है, उसी प्रकार पितरों का सूक्ष्म शरीर शुभ कर्मों से उत्पन्न सुगन्ध का रसास्वादन करते हुए तृप्ति का अनुभव करता है। उसकी प्रसन्नता तथा आकांक्षा का केन्द्र बिन्दु श्रद्धा है। श्रद्धा भरे वातावरण के सान्निध्य में पितर अपनी अशान्ति खोकर आनन्द का अनुभव करते हैं, श्रद्धा ही इनकी भूख है, इसी से उन्हें तृप्ति होती है। इसलिए पितरों की प्रसन्नता के लिए श्रद्धा एवं तर्पण किये जाते हैं। इन क्रियाओं का विधि- विधान इतना सरल एवं इतने कम खर्च का है कि निर्धन से निर्धन व्यक्ति भी उसे आसानी से सम्पन्न कर सकता है।

तर्पण में प्रधानतया जल का ही प्रयोग होता है। उसे थोड़ा सुगन्धित एवं परिपुष्ट बनाने के लिए जौ, तिल, चावल, दूध, फूल जैसी दो- चार मांगलिक वस्तुएँ डाली जाती हैं। कुशाओं के सहारे जौ की छोटी- सी अञ्जलि मन्त्रोच्चारपूर्वक डालने मात्र से पितर तृप्त हो जाते हैं; किन्तु इस क्रिया के साथ आवश्यक श्रद्धा, कृतज्ञता, सद्भावना, प्रेम, शुभकामना का समन्वय अवश्य होना चाहिए। यदि श्रद्धाञ्जलि इन भावनाओं के साथ की गयी है, तो तर्पण का उद्देश्य पूरा हो जायेगा, पितरों को आवश्यक तृप्ति मिलेगी; किन्तु यदि इस प्रकार की कोई श्रद्धा भावना तर्पण करने वाले के मन में नहीं होती और केवल लकीर पीटने के लिए मात्र पानी इधर- उधर फैलाया जाता है, तो इतने भर से कोई विशेष प्रयोजन पूर्ण न होगा, इसलिए इन पितृ- कर्मों के करने वाले यह ध्यान रखें कि इन छोटे- छोटे क्रिया- कृत्यों को करने के साथ- साथ दिवंगत आत्माओं के उपकारों का स्मरण करें, उनके सद्गुणों तथा सत्कर्मों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करें। कृतज्ञता तथा सम्मान की भावना उनके प्रति रखें और यह अनुभव करें कि यह जलांजलि जैसे अकिंचन उपकरणों के साथ, अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करते हुए स्वर्गीय आत्माओं के चरणों पर अपनी सद्भावना के पुष्प चढ़ा रहा हूँ। इस प्रकार की भावनाएँ जितनी ही प्रबल होंगी, पितरों को उतनी ही अधिक तृप्ति मिलेगी।

जिस पितर का स्वर्गवास हुआ है, उसके किये हुए उपकारों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना, उसके अधूरे छोड़े हुए पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व को पूरा करने में तत्पर होना तथा अपने व्यक्तित्व एवं वातावरण को मंगलमय ढाँचे में ढालना मरणोत्तर संस्कार का प्रधान प्रयोजन है। गृह शुद्धि, सूतक निवृत्ति का उद्देश्य भी इसी निमित्त की जाती है, किन्तु तर्पण में केवल इन्हीं एक पितर के लिए नहीं; बल्कि पूर्व काल में गुजरे हुए अपने परिवार, माता के परिवार, दादी के परिवार के तीन- तीन पीढ़ी के पितरों की तृप्ति का भी आयोजन किया जाता है। इतना ही नहीं इस पृथ्वी पर अवतरित हुए सभी महान् पुरुषों की आत्मा के प्रति इस अवसर पर श्रद्धा व्यक्त करते हुए अपनी सद्भावना के द्वारा तृप्त करने का प्रयत्न किया जाता है।
तर्पण को छः भागों में विभक्त किया गया है- १- देव, २- ऋषि- तर्पण, ३- दिव्य- मानव, ४- दिव्य- पितृ, ५- यम- तर्पण और ६- मनुष्य- पितृ। सभी तर्पण नीचे लिखे क्रम से किये जाते हैं।

॥ देव तर्पणम्॥

देव शक्तियाँ ईश्वर की वे महान् विभूतियाँ हैं, जो मानव- कल्याण में सदा निःस्वार्थ भाव से प्रयत्नरत हैं। जल, वायु, सूर्य, अग्नि, चन्द्र, विद्युत् तथा अवतारी ईश्वर अंगो की मुक्त आत्माएँ एवं विद्या, बुद्धि, शक्ति, प्रतिभा, करुणा, दया, प्रसन्नता, पवित्रता जैसी सत्प्रवृत्तियाँ सभी देव शक्तियों में आती हैं। यद्यपि ये दिखाई नहीं देतीं, तो भी इनके अनन्त उपकार हैं। यदि इनका लाभ न मिले, तो मनुष्य के लिए जीवित रह सकना भी सम्भव न हो। इनके प्रति कृतज्ञता की भावना व्यक्त करने के लिए यह देव- तर्पण किया जाता है।

यजमान दोनों हाथों की अनामिका अँगुलियों में पवित्री धारण करें।
ॐ आगच्छन्तु महाभागाः, विश्वेदेवा महाबलाः।
ये तर्पणेऽत्र विहिताः, सावधाना भवन्तु ते॥

जल में चावल डालें। कुश- मोटक सीधे ही लें। यज्ञोपवीत सव्य (बायें कन्धे पर) सामान्य स्थिति में रखें। तर्पण के समय अञ्जलि में जल भरकर सभी अँगुलियों के अग्र भाग के सहारे अर्पित करें। इसे देवतीर्थ मुद्रा कहते हैं। प्रत्येक देवशक्ति के लिए एक- एक अञ्जलि जल डालें। पूर्वाभिमुख होकर देते चलें।

ॐ ब्रह्मादयो देवाः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलांजलीन्। ॐ ब्रह्मा तृप्यताम्।
ॐ विष्णुस्तृप्यताम्।                                   ॐ रुद्रस्तृप्यताम्।
ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम्।                                ॐ देवास्तृप्यन्ताम्।
ॐ छन्दांसि तृप्यन्ताम्।                                ॐ वेदास्तृप्यन्ताम्।
ॐ ऋषयस्तृप्यन्ताम्।                                  ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम्।
ॐ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम्।                                  ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम्।
ॐ संवत्सरः सावयवस्तृप्यन्ताम्।                  ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम्।
ॐ अप्सरसस्तृप्यन्ताम्।                              ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम्।
ॐ नागास्तृप्यन्ताम्।                                    ॐ सागरास्तृप्यन्ताम्।
ॐ पर्वतास्तृप्यन्ताम्।                                  ॐ सरितस्तृप्यन्ताम्।
ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम्।                                ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम्।
ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम्।                                 ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम्।
ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम्।                                 ॐ भूतानि तृप्यन्ताम्।
ॐ पशवस्तृप्यन्ताम्।                                   ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम्।
ॐ ओषधयस्तृप्यन्ताम्।                              ॐ भूतग्राम चतुर्विधस्तृप्यताम्।

॥ ऋषि तर्पण॥

दूसरा तर्पण ऋषियों के लिए है। व्यास, वसिष्ठ, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, नारद, चरक, सुश्रुत, पाणिनि, दधीचि आदि ऋषियों के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति ऋषि तर्पण द्वारा की जाती है। ऋषियों को भी देवताओं की तरह देवतीर्थ से एक- एक अञ्जलि जल दिया जाता है।
ॐ मरीच्यादि दशऋषयः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलांजलीन्। ॐ मरीचिस्तृप्यताम्।ॐ अत्रिस्तृप्यताम्।
ॐ अङ्गिरास्तृप्यताम्। ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम्।
ॐ पुलहस्तृप्यताम्। ॐ क्रतुस्तृप्यताम्।
ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम्। ॐ प्रचेतास्तृप्यताम्।
ॐ भृगुस्तृप्यताम्। ॐ नारदस्तृप्यताम्।

॥ दिव्य- मनुष्य तर्पण॥

तीसरा तर्पण दिव्य मानवों के लिए है। जो पूर्ण रूप से समस्त जीवन को लोक कल्याण के लिए अर्पित नहीं कर सकें; पर अपना, अपने परिजनों का भरण- पोषण करते हुए लोकमंगल के लिए अधिकाधिक त्याग- बलिदान
करते रहे, वे दिव्य मानव हैं। राजा हरिश्चन्द्र, रन्तिदेव, शिवि, जनक, पाण्डव, शिवाजी, प्रताप, भामाशाह, तिलक जैसे महापुरुष इसी श्रेणी में आते हैं।
दिव्य मनुष्य तर्पण उत्तराभिमुख किया जाता है। जल में जौ डालें। जनेऊ कण्ठ की माला की तरह रखें। कुश हाथों में आड़े कर लें। कुशों के मध्य भाग से जल दिया जाता है। अञ्जलि में जल भरकर कनिष्ठा (छोटी उँगली) की जड़ के पास से जल छोड़ें, इसे प्राजापत्य तीर्थ मुद्रा कहते हैं। प्रत्येक सम्बोधन के साथ दो- दो अञ्जलि जल दें-
ॐ सनकादयः दिव्यमानवाः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलांजलीन्। ॐ सनकस्तृप्यताम्॥ २॥
ॐ सनन्दनस्तृप्यताम्॥ २॥ ॐ सनातनस्तृप्यताम्॥ २॥ ॐ कपिलस्तृप्यताम्॥ २॥
ॐ आसुरिस्तृप्यताम्॥ २॥ ॐ वोढुस्तृप्यताम्॥ २॥ ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम्॥ २॥

॥ दिव्य- पितृ

चौथा तर्पण दिव्य पितरों के लिए है। जो कोई लोकसेवा एवं तपश्चर्या तो नहीं कर सके, पर अपना चरित्र हर दृष्टि से आदर्श बनाये रहे, उस पर किसी तरह की आँच न आने दी। अनुकरण, परम्परा एवं प्रतिष्ठा की सम्पत्ति पीछे वालों के लिए छोड़ गये। ऐसे लोग भी मानव मात्र के लिए वन्दनीय हैं, उनका तर्पण भी ऋषि एवं दिव्य मानवों की तरह ही श्रद्धापूर्वक करना चाहिए।

इसके लिए दक्षिणाभिमुख हों। वामजानु (बायाँ घुटना मोड़कर बैठें) जनेऊ अपसव्य (दाहिने कन्धे पर सामान्य से उलटी स्थिति में) रखें। कुशा दुहरे कर लें। जल में तिल डालें। अञ्जलि में जल लेकर दाहिने हाथ के अँगूठे के सहारे जल गिराएँ। इसे पितृ तीर्थ मुद्रा कहते हैं। प्रत्येक पितृ को तीन- तीन अञ्जलि जल दें।

ॐ कव्यवाडादयो दिव्यपितरः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलांजलीन्। ॐ कव्यवाडानलस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ ॐ सोमस्तृप्यताम्, इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥
ॐ यमस्तृप्यताम्, इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ ॐ अर्यमा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ ॐ अग्निष्वात्ताः पितरस्तृप्यन्ताम्। इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तेभ्यः स्वधा नमः॥ ३॥ ॐ सोमपाः पितरस्तृप्यन्ताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तेभ्यः स्वधा नमः॥ ३॥ ॐ बर्हिषदः पितरस्तृप्यन्ताम्। इदं सतिलं जलं (गंगाजलं वा) तेभ्यः स्वधा नमः॥ ३॥

॥ यम तर्पण॥

यम नियन्त्रण- कर्त्ता शक्तियों को कहते हैं। जन्म- मरण की व्यवस्था करने वाली शक्ति को यम कहते हैं। मृत्यु को स्मरण रखें, मरने के समय पश्चात्ताप न करना पड़े, इसका ध्यान रखें और उसी प्रकार की अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करें, तो समझना चाहिए कि यम को प्रसन्न करने वाला तर्पण किया जा रहा है। राज्य शासन को भी यम कहते हैं। अपने शासन को परिपुष्ट एवं स्वस्थ बनाने के लिए प्रत्येक नागरिक को, जो कर्त्तव्य पालन करता है, उसका स्मरण भी यम तर्पण द्वारा किया जाता है। अपने इन्द्रिय निग्रहकर्त्ता एवं कुमार्ग पर चलने से रोकने वाले विवेक को यम कहते हैं। इसे भी निरन्तर पुष्ट करते चलना हर भावनाशील व्यक्ति का कर्त्तव्य है। इन कर्त्तव्यों की स्मृति यम- तर्पण द्वारा की जाती है। दिव्य पितृ तर्पण की तरह पितृतीर्थ से तीन- तीन अञ्जलि जल यमों को भी दिया जाता है।

ॐ यमादिचतुर्दशदेवाः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलांजलीन्। ॐ यमाय नमः॥ ३॥ ॐ धर्मराजाय नमः॥ ३॥ ॐ मृत्यवे नमः॥ ३॥ ॐ अन्तकाय नमः॥ ३॥ ॐ वैवस्वताय नमः॥ ३॥ ॐ कालाय नमः॥ ३॥

ॐ सर्वभूतक्षयाय नमः॥ ३॥ ॐ औदुम्बराय नमः॥ ३॥ ॐ दध्नाय नमः॥ ३॥ ॐ नीलाय नमः॥ ३॥ ॐ परमेष्ठिने नमः॥ ३॥ ॐ वृकोदराय नमः॥ ३॥ ॐ चित्राय नमः॥ ३॥ ॐ चित्रगुप्ताय नमः॥ ३॥ तत्पश्चात् निम्न मन्त्रों से यम देवता को नमस्कार करें-
ॐ यमाय धर्मराजाय, मृत्यवे चान्तकाय च।
वैवस्वताय कालाय, सर्वभूतक्षयाय च॥
औदुम्बराय दध्नाय, नीलाय परमेष्ठिने।
वृकोदराय चित्राय, चित्रगुप्ताय वै नमः॥

॥ मनुष्य- पितृ- तर्पण॥

इसके बाद अपने परिवार से सम्बन्धित दिवंगत नर- नारियों का क्रम आता है। १- पिता, बाबा, परबाबा, माता, दादी, परदादी। २- नाना, परनाना, बूढ़े परनाना, नानी, परनानी, बूढ़ी परनानी। ३- पत्नी, पुत्र, पुत्री, चाचा, ताऊ, मामा, भाई, बुआ, मौसी, बहिन, सास, ससुर, गुरु, गुरुपत्नी, शिष्य, मित्र आदि। यह तीन वंशावलियाँ तर्पण के लिए हैं। पहले स्वगोत्र तर्पण किया जाता है।

..... गोत्रोत्पन्नाः अस्मत् पितरः आगच्छन्तु गृह्णन्तु एतान् जलांजलीन्। अस्मत्पिता (पिता) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्पितामहः (दादा) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो रुद्ररूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्प्रपितामहः (परदादा) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो आदित्यरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मन्माता (माता) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा गायत्रीरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्पितामही (दादी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा सावित्रीरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्प्रपितामही (परदादी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा लक्ष्मीरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्सापत्नमाता (सौतेली माँ) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥
॥ द्वितीय गोत्र तर्पण॥
इसके बाद द्वितीय गोत्र मातामह आदि का तर्पण करें। यहाँ यह भी पहले की भाँति निम्नलिखित वाक्यों को तीन- तीन बार पढ़कर तिल सहित जल की तीन- तीन अंजलियाँ पितृतीर्थ से दें यथा-

अस्मन्मातामहः (नाना) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्प्रमातामहः (परनाना) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो रुद्ररूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मद्वृद्धप्रमातामहः (बूढ़े परनाना) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो आदित्यरूपस्तृप्यतां। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मन्मातामही (नानी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा लक्ष्मीरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्प्रमातामही (परनानी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा रुद्ररूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मद्वृद्धप्रमातामही (बूढ़ी परनानी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा आदित्यरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥३॥

॥ इतर तर्पण॥

जिनको आवश्यक है, केवल उन्हीं के लिए तर्पण कराया जाए-

अस्मत्पत्नी अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्सुतः (बेटा) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्कन्या (बेटी) अमुकी देवी दा अमुकसगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्पितृव्यः (चाचा या ताऊ) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मन्मातुलः (मामा) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मद्भ्राता (अपना भाई) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्सापत्नभ्राता (सौतेला भाई) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वुसरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्पितृभगिनी (बुआ) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मान्मातृभगिनी (मौसी) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मदात्मभगिनी (अपनी बहिन) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्सापत्नभगिनी (सौतेली बहिन) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः ॥ ३॥ अस्मत् श्वशुरः (श्वसुर) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत् श्वशुरपत्नी (सास) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मद्गुरु अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मद् आचार्यपत्नी अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा वसुरूपा तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत् शिष्यः अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मत्सखा (मित्र) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मद् आप्तपुरुषः (सम्मानीय पुरुष) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥ अस्मद् पतिः अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः॥ ३॥
निम्न मन्त्र से पूर्व विधि से प्राणिमात्र की तुष्टि के लिए जल धार छोड़ें-

ॐ देवासुरास्तथा यक्षा, नागा गन्धर्वराक्षसाः। पिशाचा गुह्यकाः सिद्धाः, कूष्माण्डास्तरवः खगाः॥
जलेचरा भूनिलया, वाय्वाधाराश्च जन्तवः। प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु, मद्दत्तेनाम्बुनाखिलाः॥
नरकेषु समस्तेषु, यातनासुु च ये स्थिताः। तेषामाप्यायनायैतद्, दीयते सलिलं मया॥
ये बान्धवाऽबान्धवा वा, येऽन्यजन्मनि बान्धवाः। ते सर्वे तृप्तिमायान्तु, ये चास्मत्तोयकांक्षिणः।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं, देवर्षिपितृमानवाः। तृप्यन्तु पितरः सर्वे, मातृमातामहादयः॥
अतीतकुलकोटीनां, सप्तद्वीपनिवासिनाम्। आब्रह्मभुवनाल्लोकाद्, इदमस्तु तिलोदकम्।
ये बान्धवाऽबान्धवा वा, येऽन्यजन्मनि बान्धवाः। ते सर्वे तृप्तिमायान्तु, मया दत्तेन वारिणा॥

॥ वस्त्र- निष्पीडन॥

शुद्ध वस्त्र जल में डुबोएँ और बाहर लाकर मन्त्र को पढ़ते हुए अपसव्य भाव से अपने बायें भाग में भूमि पर उस वस्त्र को निचोड़ें (यदि घर में किसी मृत पुरुष का वार्षिक श्राद्ध कर्म हो, तो वस्त्र- निष्पीड़न नहीं करना चाहिए।)
ॐ ये के चास्मत्कुले जाता, अपुत्रा गोत्रिणो मृताः।
ते गृह्णन्तु मया दत्तम्, वस्त्रनिष्पीडनोदकम्॥

॥ भीष्म तर्पण॥

अन्त में भीष्म तर्पण किया जाता है। ऐसे परमार्थ परायण महामानव, जिन्होंने उच्च उद्देश्यों के लिए अपना वंश चलाने का मोह नहीं किया, भीष्म उनके प्रतिनिधि माने गये हैं, ऐसी सभी श्रेष्ठात्माओं को जलदान दें-
ॐ वैयाघ्रपदगोत्राय, सांकृतिप्रवराय च ।। गंगापुत्राय भीष्माय, प्रदास्येऽहं तिलोदकम्॥ अपुत्राय ददाम्येतत्, सलिलं भीष्मवर्मणे ॥

॥ देवार्घ्यदान॥

भीष्म तर्पण के बाद सव्य होकर पूर्व दिशा में मुख करें। नीचे लिखे मन्त्रों से देवार्घ्यदान करें। अञ्जलि में जल भरकर प्रत्येक मन्त्र के साथ जलधार अँगुलियों के अग्रभाग से चढ़ाएँ और नमस्कार करें। भावना करें कि अपनी भावश्रद्धा को इन असीम शक्तियों में होमते हुए आन्तरिक विकास की भूमिका बना रहे। प्रथम अर्घ्य सृष्टि निर्माता ब्रह्मा को-

ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्, विसीमतः सुरुचो वेनऽ आवः।
स बुन्ध्याऽ उपमाऽ अस्य विष्ठाः, सतश्च योनिमसतश्च विवः। ॐ ब्रह्मणे नमः॥ - १३.३
दूसरा अर्घ्य पोषणकर्त्ता भगवान् विष्णु को-
ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे, त्रेधा निदधे पदम्। समूढमस्य पा œ सुरे स्वाहा॥ ॐ विष्णवे नमः॥ - ५.१५
तीसरा अर्घ्य अनुशासन- परिवर्तन के नियन्ता शिव रुद्र महादेव को-
ॐ नमस्ते रुद्र मन्यवऽ, उतो तऽ इषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः॥ ॐ रुद्राय नमः॥ -१६.१
चौथा अर्घ्य भूमण्डल के चेतना- केन्द्र सवितादेव सूर्य को-
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥ ॐ सवित्रे नमः॥ -३.३५
पाँचवाँ अर्घ्य प्रकृति का सन्तुलन बनाये रखने वाले देव- मित्र के लिए-
ॐ मित्रस्य चर्षणीधृतो, ऽवो देवस्य सानसि।
द्युम्नं चित्रश्रवस्तमम्॥ ॐ मित्राय नमः॥ - ११.६२
छठवाँ अर्घ्य तर्पण के माध्यम से वरुणदेव के लिए-
ॐ इमं मे वरुण श्रुधी, हवमद्या च मृडय। त्वामवस्युराचके। ॐ वरुणाय नमः। - २१.१ 

॥ नमस्कार॥

अब खड़े होकर पूर्व की ओर से दिग्देवताओं को क्रमशः निर्दिष्ट दिशाओं में नमस्कार करें-
‘ॐ इन्द्राय नमः’ प्राच्यै॥  ‘ॐ अग्नये नमः’ आग्नेय्यै।
‘ॐ यमाय नमः’ दक्षिणायै॥  ‘ॐ निऋर्तये नमः’ नैऋर्त्यै॥
‘ॐ वरुणाय नमः’ पश्चिमायै॥  ‘ॐ वायवे नमः’ वायव्यै॥
‘ॐ सोमाय नमः’ उदीच्यै॥  ‘ॐ ईशानाय नमः’ ऐशान्यै॥
‘ॐ ब्रह्मणे नमः’ ऊर्ध्वायै॥   ‘ॐ अनन्ताय नमः’ अधरायै॥

इसके बाद जल में नमस्कार करें-

ॐ ब्रह्मणे नमः। ॐ अग्नये नमः। ॐ पृथिव्यै नमः।
ॐ ओषधिभ्यो नमः। ॐ वाचे नमः। ॐ वाचस्पतये नमः। ॐ महद्भ्यो नमः। ॐ विष्णवे नमः। ॐ अद्भ्यो नमः।
ॐ अपाम्पतये नमः। ॐ वरुणाय नमः।

॥ सूर्योपस्थान॥

मस्तक और हाथ गीले करें। सूर्य की ओर मुख करके हथेलियाँ कन्धे से ऊपर करके सूर्य की ओर करें। सूर्यनारायण का ध्यान करते हुए मन्त्र पाठ करें। अन्त में नमस्कार करें और मस्तक- मुख आदि पर हाथ फेरें।
ॐ अदृश्य केतवो, विरश्मयो जनाँ२अनु। भ्राजन्तो अग्नयो यथा। उपयामगृहीतोऽसि, सूर्याय त्वा भ्राजायैष ते, योनिः सूर्याय त्वा भ्राजाय। सूर्य भ्राजिष्ठ भ्राजिष्ठस्त्वं, देवेष्वसि भ्राजिष्ठोऽहं मनुष्येषु भूयासम्॥ -८.४०

॥ मुखमार्जन- स्वतर्पण॥

मन्त्र के साथ यजमान अपना मुख धोये, आचमन करे। भावना करें कि अपनी काया में स्थित जीवात्मा की तुष्टि के लिए भी प्रयास करेंगे।
ॐ संवर्चसा पयसा सन्तनूभिः, अगन्महि मनसा स  शिवेन। त्वष्टा सुदत्रो विदधातु रायः, अनुमार्ष्टु तन्वो यद्विलिष्टम्॥ -२.२४
तर्पण के बाद पंच यज्ञ का क्रम चलाया जाता है।

॥ ब्रह्मयज्ञ॥

ब्रह्मयज्ञ में गायत्री विनियोग होता है। मरणोत्तर संस्कार के संदर्भ में एकत्रित सभी कुटुम्बी- हितैषी परिजन एक साथ बैठें। मृतात्मा के स्नेह- उपकारों का स्मरण करें। उसकी शान्ति- सद्गति की कामना व्यक्त करते हुए सभी लोग भावनापूर्वक पाँच मिनट गायत्री मन्त्र का मानसिक जप करें, अन्त में अपने जप का पुण्य मृतात्मा के कल्याणार्थ अर्पित करने का भाव करें- यह न्यूनतम है। यदि सम्भव हो, तो शुद्धि दिवस के बाद त्रयोदशी तक भावनाशील परिजन मिल- जुलकर गायत्री जप का एक लघु अनुष्ठान पूरा कर लें। ब्रह्मयज्ञ को उसकी पूर्णाहुति मानें। सङ्कल्प बोलें-

................ नामाहं............ नाम्नः प्रेतत्वनिवृत्तिद्वारा, ब्रह्मलोकावाप्तये........ परिमाणं गायत्री महामन्त्रानुष्ठानपुण्यं श्रद्धापूर्वकम् अहं समर्पयिष्ये।
॥ देवयज्ञ॥
देवयज्ञ में देवप्रवृत्तियों का पोषण किया जाए। दुष्प्रवृत्तियों के त्याग और सत्प्रवृत्तियों के अभ्यास का उपक्रम अपनाने से देवशक्तियाँ तुष्ट होती हैं, देववृत्तियाँ पुष्ट होती हैं। श्राद्ध के समय संस्कार करने वाले प्रमुख परिजन सहित उपस्थित सभी परिजनों को इस यज्ञ में यथाशक्ति भाग लेना चाहिए। अपने स्वभाव के साथ जुड़ी दुष्प्रवृत्तियों को सदैव के लिए या किसी अवधि तक के लिए छोड़ने, परमार्थपरक गतिविधियों को अपनाने का सङ्कल्प कर लिया जाए, उसका पुण्य मृतात्मा के हितार्थ अर्पित किया जाए। सङ्कल्प-
........ नामाहं...... नामकमृतात्मनः देवगतिप्रदानार्थं.... दिनानि यावत् मासपर्यन्तं- वर्षपर्यन्तं.... दुष्प्रवृत्त्युन्मूलनैः ..... सत्प्रवृत्तिसंधारणैः जायमानं पुण्यं मृतात्मनः समुत्कर्षणाय श्रद्धापूर्वकं अहं समर्पयिष्ये।
 
॥ पितृयज्ञ॥

पिण्डदान का कृत्य पितृयज्ञ के अन्तर्गत किया जाता है। जिस प्रकार तर्पण में जल के माध्यम से अपनी श्रद्धा व्यक्त की जाती है, उसी प्रकार हविष्यान्न के माध्यम से अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति की जानी चाहिए। मरणोत्तर संस्कार में १२ पिण्डदान किये जाते हैं- जौ या गेहूँ के आटे में तिल, शहद, घृत, दूध मिलाकर लगभग पचास- पचास ग्राम आटे के पिण्ड बनाकर एक पत्तल पर रख लेने चाहिए। सङ्कल्प के बाद एक- एक करके यह पिण्ड जिस पर रखे जा सकें, ऐसी एक पत्तल समीप ही रख लेनी चाहिए।

छः तर्पण जिनके लिए किये गये थे, उनमें से प्रत्येक वर्ग के लिए एक- एक पिण्ड है। सातवाँ पिण्ड मृतात्मा के लिए है। अन्य पाँच पिण्ड उन मृतात्माओं के लिए हैं, जो पुत्रादि रहित हैं, अग्निदग्ध हैं, इस या किसी जन्म के बन्धु हैं, उच्छिन्न कुल, वंश वाले हैं, उन सबके निमित्त ये पाँच पिण्ड समर्पित हैं। ये बारहों पिण्ड पक्षियों के लिए अथवा गाय के लिए किसी उपयुक्त स्थान पर रख दिये जाते हैं। मछलियों को चुगाये जा सकते हैं। पिण्ड रखने के निमित्त कुश बिछाते हुए निम्न मन्त्र बोलें।

ॐ कुशोऽसि कुश पुत्रोऽसि, ब्रह्मणा निर्मितः पुरा।
त्वय्यर्चितेऽर्चितः सोऽस्तु, यस्याहं नाम कीर्तये।

॥ पिण्ड समर्पण प्रार्थना॥

पिण्ड तैयार करके रखें, हाथ जोड़कर पिण्ड समर्पण के भाव सहित नीचे लिखे मन्त्र बोले जाएँ-
ॐ आब्रह्मणो ये पितृवंशजाता, मातुस्तथा वंशभवा मदीयाः। वंशद्वये ये मम दासभूता, भृत्यास्तथैवाश्रितसेवकाश्च॥
मित्राणि शिष्याः पशवश्च वृक्षाः, दृष्टाश्च स्पृष्टाश्च कृतोपकाराः। जन्मान्तरे ये मम संगताश्च, तेषां स्वधा पिण्डमहं ददामि॥
॥ पिण्डदान॥
पिण्ड दाहिने हाथ में लिया जाए। मन्त्र के साथ पितृतीर्थ मुद्रा से दक्षिणाभिमुख होकर पिण्ड किसी थाली या पत्तल में क्रमशः स्थापित करें-
१- प्रथम पिण्ड देवताओं के निमित्त-
ॐ उदीरतामवर उत्परास, ऽउन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः। असुं यऽईयुरवृका ऋतज्ञाः, ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु। -१९.४९
२- दूसरा पिण्ड ऋषियों के निमित्त-
ॐ अङ्गिरसो नः पितरो नवग्वा, अथर्वाणो भृगवः सोम्यासः। तेषां वय œ सुमतौ यज्ञियानाम्,अपि भद्रे सौमनसे स्याम॥ -१९.५०
३- तीसरा पिण्ड दिव्य मानवों के निमित्त-
ॐ आयन्तु नः पितरः सोम्यासः, अग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः। अस्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तः, अधिबु्रवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्॥ -१९.५८
४- चौथा पिण्ड दिव्य पितरों के निमित्त-
ॐ ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं, पयः कीलालं परिस्रुतम्। स्वधास्थ तर्पयत मे पितृन्॥ -२.३४
५- पाँचवाँ पिण्ड यम के निमित्त-
ॐ पितृव्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः, पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः, प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। अक्षन्पितरोऽमीमदन्त, पितरोऽतीतृपन्त पितरः, पितरः शुन्धध्वम्॥ -१९.३६
६- छठवाँ पिण्ड मनुष्य- पितरों के निमित्त-
ॐ ये चेह पितरो ये च नेह, याँश्च विद्म याँ २ उ च न प्रविद्म। त्वं वेत्थ यति ते जातवेदः, स्वधाभिर्यज्ञ œ सुकृतं जुषस्व॥ -१९.६७
७- सातवाँ पिण्ड मृतात्मा के निमित्त-
ॐ नमो वः पितरो रसाय, नमो वः पितरः शोषाय, नमो वः पितरो जीवाय, नमो वः पितरः स्वधायै, नमो वः पितरो घोराय, नमो वः पितरो मन्यवे, नमो वः पितरः पितरो, नमो वो गृहान्नः पितरो, दत्त सतो वः पितरो देष्मैतद्वः, पितरो वासऽआधत्त। -२.३२
८- आठवाँ पिण्ड पुत्रदार रहितों के निमित्त-
ॐ पितृवंशे मृता ये च, मातृवंशे तथैव च। गुरुश्वसुरबन्धूनाम्, ये चान्ये बान्धवाः स्मृताः॥
ये मे कुले लुप्तपिण्डाः, पुत्रदारविवर्जिताः। तेषां पिण्डो मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
९- नौवाँ पिण्ड उच्छिन्न कुलवंश वालों के निमित्त-
ॐ उच्छिन्नकुलवंशानां, येषां दाता कुले नहि। धर्मपिण्डो मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
१०- दसवाँ पिण्ड गर्भपात से मर जाने वालों के निमित्त- ॐ विरूपा आमगर्भाश्च, ज्ञाताज्ञाताः कुले मम। तेषां पिण्डो मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
११- ग्यारहवाँ पिण्ड इस जन्म या अन्य जन्म के बन्धुओं के निमित्त-
ॐ अग्निदग्धाश्च ये जीवा, ये प्रदग्धाः कुले मम। भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु, धर्मपिण्डं ददाम्यहम्॥
१२- बारहवाँ पिण्ड इस जन्म या अन्य जन्म के बन्धुओं के निमित्त-
ॐ ये बान्धवाऽ बान्धवा वा, ये ऽन्यजन्मनि बान्धवाः। तेषां पिण्डो मया दत्तो, ह्यक्षय्यमुपतिष्ठतु॥
यदि तीर्थ श्राद्ध में, पितृपक्ष में से एक से अधिक पितरों की शान्ति के लिए पिण्ड अर्पित करने हों, तो नीचे लिखे वाक्य में पितरों के नाम- गोत्र आदि जोड़ते हुए वाञ्छित संख्या में पिण्डदान किये जा सकते हैं।

...........गोत्रस्य अस्मद् ....... नाम्नो, अक्षयतृप्त्यर्थं इदं पिण्डं तस्मै स्वधा॥

पिण्ड समर्पण के बाद पिण्डों पर क्रमशः दूध, दही और मधु चढ़ाकर पितरों से तृप्ति की प्रार्थना की जाती है।
१- निम्न मन्त्र पढ़ते हुए पिण्ड पर दूध चढ़ाएँ-
ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधीषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्। -१८.३६
पिण्डदाता निम्नांकित मन्त्रांश को दुहराएँ-
ॐ दुग्धम्। दुग्धम्। दुग्धम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्॥
२- निम्नांकित मन्त्र से पिण्ड पर दही चढ़ाएँ-
ॐ दधिक्राव्णो ऽअकारिषं, जिष्णोरश्वस्य वाजिनः। सुरभि नो मुखाकरत्प्रण, आयु œ षि तारिषत्। -२३.३२
पिण्डदाता निम्नांकित मन्त्रांश दुहराएँ-
ॐ दधि। दधि। दधि। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्।
३- नीचे लिखे मन्त्रों साथ पिण्डों पर शहद चढ़ाएँ-
ॐ मधुवाताऽऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः। ॐ मधु नक्तमुतोषसो, मधुमत्पार्थिवœ रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता। ॐ मधुमान्नो वनस्पतिः, मधुमाँ२ऽ अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः। -१३.२७- २९
पिण्डदानकर्त्ता निम्नाङ्कित मन्त्रांश को दुहराएँ-
ॐ मधु। मधु। मधु। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्। तृप्यध्वम्।

॥ भूतयज्ञ- पंचबलि॥

भूतयज्ञ के निमित्त पंचबलि प्रक्रिया की जाती है। विभिन्न योनियों में संव्याप्त जीव चेतना की तुष्टि हेतु भूतयज्ञ किया जाता है। अलग- अलग पत्तों या एक ही बड़ी पत्तल पर, पाँच स्थानों पर भोज्य पदार्थ रखे जाते हैं। उर्द- दाल की टिकिया तथा दही इसके लिए रखा जाता है। पाँचों भाग रखें। क्रमशः मन्त्र बोलते हुए एक- एक भाग पर अक्षत छोड़कर बलि समर्पित करें।
१- गोबलि- पवित्रता की प्रतीक गऊ के निमित्त-
ॐ सौरभेय्यः सर्वहिताः, पवित्राः पुण्यराशयः।
प्रतिगृह्णन्तु मे ग्रासं, गावस्त्रैलोक्यमातरः॥ इदं गोभ्यः इदं न मम।
२- कुक्कुरबलि- कर्त्तव्यनिष्ठा के प्रतीक श्वान के निमित्त-
ॐ द्वौ श्वानौ श्यामशबलौ, वैवस्वतकुलोद्भवौ।
ताभ्यामन्नं प्रदास्यामि, स्यातामेतावहिंसकौ॥
इदं श्वभ्यां इदं न मम॥
३- काकबलि- मलीनता निवारक काक के निमित्त-
ॐ ऐन्द्रवारुणवायव्या, याम्या वै नैऋर्तास्तथा।
वायसाः प्रतिगृह्णन्तु , भूमौ पिण्डं मयोज्झितम्।

इदं वायसेभ्यः इदं न मम॥

४- देवादिबलि- देवत्व संवर्धक शक्तियों के निमित्त-
ॐ देवाः मनुष्याः पशवो वयांसि, सिद्धाः सयक्षोरगदैत्यसंघाः।
प्रेताः पिशाचास्तरवः समस्ता, ये चान्नमिच्छन्ति मया प्रदत्तम्॥ इदं अन्नं देवादिभ्यः इदं न मम।
५- पिपीलिकादिबलि- श्रमनिष्ठा एवं सामूहिकता की प्रतीक चींटियों के निमित्त-
ॐ पिपीलिकाः कीटपतङ्गकाद्याः, बुभुक्षिताः कर्मनिबन्धबद्धाः।
तेषां हि तृप्त्यर्थमिदं मयान्नं, तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु॥ इदं अन्नं पिपीलिकादिभ्यः इदं न मम।
बाद में गोबलि गऊ को, कुक्कुरबलि श्वान को, काकबलि पक्षियों को, देवबलि कन्या को तथा पिपीलिकादिबलि चींटी आदि को खिला दिया जाए।
॥ मनुष्ययज्ञ -श्राद्ध संकल्प॥

इसके अन्तर्गत दान का विधान है। दिवंगत आत्मा ने उत्तराधिकार में जो छोड़ा है, उसमें से उतना अंश ही स्वीकार करना चाहिए, जो पीछे वाले बिना कमाऊ बालकों या स्त्रियों के निर्वाह के लिए अनिवार्य हो- कमाऊ सन्तान को उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। दिवंगत आत्मा के अन्य अहसान ही इतने हैं कि उन्हें अनेक जन्मों तक चुकाना पड़ेगा, फिर नया ऋण भारी ब्याज सहित चुकाने के लिए क्यों सिर पर लादा जाए। असमर्थ स्थिति में अभिभावकों की सेवा स्वीकार करना उचित था, पर जब वयस्क और कमाऊ हो गये, तो फिर उसे लेकर ‘हराम- खाऊ’ मुफ्तखोरों में अपनी गणना क्यों कराई जाए?

पूर्वजों के छोड़े हुए धन में कुछ अपनी ओर से श्रद्धाञ्जलि मिलाकर उनकी आत्मा के कल्याण के लिए दान कर देना चाहिए, यही सच्चा श्राद्ध है। पानी का तर्पण और आटे की गोली का पिण्डदान पर्याप्त नहीं, वह क्रिया कृत्य तो मात्र प्रतीक हैं। श्रद्धा की वास्तविक परीक्षा उस श्राद्ध में है कि पूर्वजों की कमाई को उन्हीं की सद्गति के लिए, सत्कर्मों के लिए दान रूप में समाज को वापस कर दिया जाए। अपनी कमाई का जो सदुपयोग, मोह या लोभवश स्वर्गीय आत्मा नहीं कर सकी थी, उस कमी की पूर्ति उसके उत्तराधिकारियों को कर देनी चाहिए।

प्राचीनकाल में ब्राह्मण का व्यक्तित्व एक समग्र संस्था का प्रतिरूप था। उन्हें जो दिया जाता था, उसमें से न्यूनतम निर्वाह लेकर शेष को समाज की सत्प्रवृत्तियों में खर्च करते थे। अपना निर्वाह भी इसलिए लेते थे कि उन्हें निरन्तर परमार्थ प्रयोजनों में ही लगा रहना पड़ता था। आज वैसे ब्राह्मण नहीं हैं, इसलिए उनका ब्रह्मभोज भी साँप के चले जाने पर लकीर पीटने की तरह है। दोस्तों- रिश्तेदारों को मृत्यु के उपलक्ष्य में दावत खिलाना मूर्खता और उनका खाना निर्लज्जता है, इसलिए मृतकभोज की विडम्बना में न फँसकर श्राद्धधन परमार्थ प्रयोजन के लिए लगा देना चाहिए, जिससे जनमानस में सद्ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न हो और वे कल्याणकारी सत्पथ पर चलने की प्रेरणा प्राप्त करें, यही सच्चा श्राद्ध है।

कन्या भोजन, दीन- अपाहिज, अनाथों को जरूरत की चीजें देना, इस प्रक्रिया के प्रतीकात्मक उपचार हैं। इसके लिए तथा लोक हितकारी पारमार्थिक कार्यों के लिए दिये जाने वाले दान की घोषणा श्राद्ध सङ्कल्प के साथ की जानी चाहिए।

॥ संकल्प॥

नामाहं........... नामकमृतात्मनः शान्ति- सद्गति लोकोपयोगिकार्यार्थं.......... परिमाणे धनदानस्य कन्याभोजनस्य वा श्रद्धापूर्वकं संकल्पम् अहं करिष्ये॥
संकल्प के बाद निम्न मन्त्र बोलते हुए अक्षत- पुष्प देव वेदी पर चढ़ाएँ।
ॐ उशन्तस्त्वा निधीमहि, उशन्तः समिधीमहि। उशन्नुशतऽ आ वह, पितृन्हविषेऽअत्तवे॥ ॐ दक्षिणामारोह त्रिष्टुप् त्वाऽवतु बृहत्साम, पंचदशस्तोमो ग्रीष्मऽऋतुः क्षत्रं द्रविणम्॥ - १९.७०, १०.११
पंचयज्ञ पूरे करने के बाद अग्नि स्थापना करके गायत्री यज्ञ सम्पन्न करें, फिर नीचे लिखे मन्त्र से ३ विशेष आहुतियाँ दें।
ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे, महाकालाय धीमहि। तन्नो यमः प्रचोदयात् स्वाहा। इदं यमाय इदं न मम॥ -य०गा०
इसके बाद स्विष्टकृत्- पूर्णाहुति आदि करते हुए समापन करें। विसर्जन के पूर्व पितरों तथा देवशक्तियों के लिए भोज्य पदार्थ थाली में सजाकर नैवेद्य अर्पित करें, फिर क्रमशः क्षमा- प्रार्थना, पिण्ड विसर्जन, पितृ विसर्जन तथा देव विसर्जन करें।

॥ विसर्जन॥

पिण्ड विसर्जन- नीचे लिखे मन्त्र के साथ पिण्डों पर जल सिंचित करें।
ॐ देवा गातुविदो गातुं, वित्त्वा गातुमित। मनसस्पत ऽ इमं देव, यज्ञ स्वाहा वाते धाः॥ -८.२१
पितृ विसर्जन- पितरों का विसर्जन तिलाक्षत छोड़ते हुए करें। ॐ यान्तु पितृगणाः सर्वे, यतः स्थानादुपागताः।
सर्वे ते हृष्टमनसः, सर्वान् कामान् ददतु मे॥ ये लोकाः दानशीलानां, ये लोकाः पुण्यकर्मणाम्।
सम्पूर्णान् सर्वभोगैस्तु, तान् व्रजध्वं सुपुष्कलान्॥ इहास्माकं शिवं शान्तिः, आयुरारोग्यसम्पदः।
वृद्धिः सन्तानवर्गस्य, जायतामुत्तरोत्तरा॥ देव विसर्जन- अन्त में पुष्पाक्षत छोड़ते हुए देव विसर्जन करें।
ॐ यान्तु देवगणाः सर्वे, पूजामादाय मामकीम्। इष्ट कामसमृद्ध्यर्थं, पुनरागमनाय च॥
***

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