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Books - कर्मकाण्ड भास्कर

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॥ दीपपूजनम्॥

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॥ दीपपूजनम् ॥
कलश के साथ दीपक भी पूजा- वेदी पर रखा जाता है। इसे सर्वव्यापी चेतना का प्रतीक मानकर पूजना चाहिए। वैज्ञानिक भी यह स्वीकार करने लगे हैं कि मूलतः चेतना से पदार्थ बना है, पदार्थ से चेतना नहीं। उस महाचेतन ज्योतिरूप, परम प्रकाश का पूजन- आराधन दीपक के माध्यम से करें।

ॐ अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा। सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा। अग्निर्वर्च्चो ज्योतिर्वर्च्चः स्वाहा। सूर्यो वर्च्चो ज्योतिर्वर्च्चः स्वाहा। ज्योतिः सूर्य्यः सूर्य्यो ज्योतिः स्वाहा।      -३.९ 
॥ देवावाहनम्॥

देव शक्तियाँ- आदि शक्ति की, परब्रह्म की विभिन्न धाराएँ हैं। शरीर एक है, उसमें रक्त परिभ्रमण संस्थान, पाचन संस्थान, वायु संचार संस्थान, विचार संस्थान आदि अनेक संस्थान हैं। वे सब स्वतन्त्र हैं और आपस में जुड़े हुए भी। इसी प्रकार सृष्टि सन्तुलन व्यवस्था के लिए इस विराट् सत्ता की विभिन्न चेतन धाराएँ विभिन्न उत्तरदायित्व सँभालती हैं। उन्हें ही देव शक्तियाँ कहा जाता है। ईश्वरेच्छा, दिव्य योजना के अनुरूप हर कार्य में उनका सहयोग अपेक्षित भी है और वह प्राप्त भी होता है। इसलिए सत्कार्यों में देव शक्तियों के आवाहन पूजन का विधि- विधान सम्मिलित रहता है। साधकों के पुरुषार्थ के साथ वह दिव्य सहयोग भी जुड़ सके, इसके लिए श्रद्धा भाव युक्त देव पूजन किया जाता है।

सभी उपस्थित जनों से निवेदन किया जाए कि वे पूजा में सम्मिलित रहें। पूजन कृत्य भले ही एक प्रतिनिधि करें, परन्तु देवों की प्रसन्नता सबकी भावना के संयोग के बिना नहीं पायी जा सकती है। ‘भावे हि विद्यते देवाः तस्माद् भावो हि कारणम्’ के अनुसार भाव संयोग से ही पूजन में शक्ति आती है। सबका ध्यान आकर्षित करते हुए उन्हें भाव सूत्र में बाँधकर पूजन क्रम चलाया जाए। हर देवशक्ति का भाव चित्रण करके मन्त्र बोलें। मन्त्र के साथ पूजा करें, सभी भावनापूर्वक आवाहन, ध्यान एवं नमस्कार करते रहें।

यहाँ प्रत्येक मन्त्र के पूर्व उससे सम्बद्ध देवशक्ति का स्वरूप एवं महत्त्व समझाया गया है और अन्त में आवाहन- स्थापन का निवेदन किया गया है। बड़े यज्ञों में इस क्रम को चलाने से वातावरण अधिक प्रखर और भावभरा बनता है। यदि संक्षिप्त आयोजन है, तो उसमें संक्षिप्त हवन पद्धति के ढंग से केवल मन्त्र बोलते हुए आगे बढ़ा जा सकता है। समय और परिस्थितियाँ देखते हुए विस्तार या संक्षिप्तीकरण का निर्णय विवेकपूर्वक कर लेना चाहिए।
गुरु- परमात्मा की दिव्य चेतना का वह अंश जो साधकों का मार्गदर्शन और सहयोग करने के लिए व्यक्त होता है।

ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः।
गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः               ॥ १॥
अखण्डमण्डलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः           ॥ २॥   - गु०गी० ४३,४५
मातृवत् लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका।
नमोऽस्तु गुरुसत्तायै, श्रद्धा- प्रज्ञायुता च या    ॥ ३॥

ॐ श्री गुरवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।

गायत्री- वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता- सद्ज्ञान, सद्भाव की अधिष्ठात्री सृष्टि की आदिकारण मातेश्वरी।

ॐ आयातु वरदे देवि! त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि।
गायत्रिच्छन्दसां मातः, ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते     ॥ ४॥   - सं०प्र० 
ॐ श्री गायत्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। ततो नमस्कारं करोमि।

ॐ स्तुता मया वरदा वेदमाता, प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्। आयुः प्राणं प्रजां पशुं, कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्। मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्।    
     - अथर्व० १९.७१.१ 
गणेश- विवेक के प्रतीक, विघ्नविनाशक प्रथम पूज्य—

ॐ अभीप्सितार्थसिद्ध्यर्थं, पूजितो यः सुरासुरैः।
सर्वविघ्नहरस्तस्मै, गणाधिपतये नमः         ॥ ५॥ 
गौरी- श्रद्धा, निर्विकारिता, पवित्रता की प्रतीक मातृशक्ति—

सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये, शिवे सर्वार्थसाधिके! 
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि, नारायणि! नमोऽस्तु ते ॥ ६॥
हरि— हृदयस्थ सत्प्रेरणा के स्रोत खोलने वाले करुणानिधान—

शुक्लाम्बरधरं देवं, शशिवर्णं चतुर्भुजम्। 
प्रसन्नवदनं ध्यायेत्, सर्वविघ्नोपशान्तये॥ ७॥ - (स्कन्द०अव०६३.६२)

सर्वदा सर्वकार्येषु, नास्ति तेषाममङ्गलम्।
येषां हृदिस्थो भगवान्, मङ्गलायतनो हरिः॥ ८॥
सप्तदेव — सप्तलोकों एवं सप्तद्वीपा वसुन्धरा का सन्तुलन रखने वाली सात महाशक्तियों का युग्म—

विनायकं गुरुं भानुं, ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान्।
सरस्वतीं प्रणौम्यादौ, शान्तिकार्यार्थसिद्धये॥ ९॥ 
पुण्डरीकाक्ष— कमल जैसी निर्विकार, निर्दोष भावना एवं अन्तर्दृष्टि देने वाले भक्तवत्सल—

मङ्गलं भगवान् विष्णुः, मङ्गलं गरुडध्वजः। 
मङ्गलं पुण्डरीकाक्षो, मङ्गलायतनो हरिः॥ १०॥ 
ब्रह्मा— सृष्टिकर्त्ता, निर्माण की क्षमता के आदि स्रोत—

त्वं वै चतुर्मुखो ब्रह्मा, सत्यलोकपितामहः। 
आगच्छ मण्डले चास्मिन्, मम सर्वार्थसिद्धये॥ ११॥ 
विष्णु— पालन करने वाले, साधनों को सार्थक बनाने वाले प्रभु—

शान्ताकारं भुजगशयनं, पद्मनाभं सुरेशं, 
विश्वाधारं गगनसदृशं, मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं, योगिभिर्ध्यानगम्यं,
वन्दे विष्णुं भवभयहरं, सर्वलोकैकनाथम्॥ १२॥ 
शिव— परिवर्तन, अनुशासन के सूत्रधार, कल्याण के दाता—

वन्दे देवमुमापतिं सुरगुरुं, वन्दे जगत्कारणम्, 
वन्दे पन्नगभूषणं मृगधरं, वन्दे पशूनाम्पतिम्।
वन्दे सूर्यशशाङ्कवह्निनयनं, वन्दे मुकुन्दप्रियम् ,
वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं, वन्दे शिवं शङ्करम् ॥ १३॥
त्र्यम्बक— बन्धन- मृत्यु से ऊपर उठाकर मुक्ति प्रदात्री सत्ता—

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे, सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्, मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्॥ १४॥ -यजु० ३.६० 
दुर्गा—सङ्गठन, सहकार, सत्साहस आदि की अधिष्ठात्री मातृशक्ति—

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः, 
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या,
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥ १५॥ 
सरस्वती— अज्ञान, नीरसता हटाने वाली, ज्ञान- कला की देवी माँ—

शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमाम्, आद्यां जगद्व्यापिनीम्, 
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां, जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं, पद्मासने संस्थिताम्,
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं, बुद्धिप्रदां शारदाम्॥ १६॥ 
लक्ष्मी— साधनों तथा धन- वैभव की अधिष्ठात्री माँ—

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, सुवर्णां हेममालिनीम्। 
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो मऽआवह॥ १७॥ 
काली— अकल्याणकारी वृत्तियों का संहार करने में समर्थ चेतना—

कालिकां तु कलातीतां, कल्याणहृदयां शिवाम्। 
कल्याणजननीं नित्यं, कल्याणीं पूजयाम्यहम्॥ १८॥ 
गंगा— अपवित्रता एवं पापवृत्तियों का हरण तथा शमन करने वाली दिव्यधारा—

विष्णुपादाब्जसम्भूते, गङ्गे त्रिपथगामिनि। 
धर्मद्रवेति विख्याते, पापं मे हर जाह्नवि ॥ १९॥ 
तीर्थ— मानवी अन्तःकरण में सत्प्रवृत्तियों, सदिच्छाओं का बीजारोपण एवं विकास करने में समर्थ दिव्य प्रवाह—

पुष्करादीनि तीर्थानि, गङ्गाद्याः सरितस्तथा। 
आगच्छन्तु पवित्राणि, पूजाकाले सदा मम॥ २०॥ 
नवग्रह— विश्व की जड़- चेतन प्रकृति में तालमेल, सूत्रबद्धता प्रदान करने वाली सामर्थ्यों के प्रतीक—

ब्रह्मामुरारिस्त्रिपुरान्तकारी, भानुः शशीभूमिसुतो बुधश्च। 
गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः, सर्वेग्रहाः शान्तिकरा भवन्तु ॥ २१॥ 
षोडशमातृका— अन्तरङ्ग एवं अन्तरिक्ष में विद्यमान १६ कल्याणकारी शक्तियों का युग्म—

गौरी पद्मा शची मेधा, सावित्री विजया जया। 
देवसेना स्वधा स्वाहा, मातरो लोकमातरः ॥ २२॥
धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिः, आत्मनः कुलदेवता।
गणेशेनाधिका ह्येता, वृद्धौ पूज्याश्च षोडश॥ २३॥ 
सप्तमातृका— सात महाशक्तियाँ, जिनका नियोजन मंगल कार्यों में करने से वे माता की तरह संरक्षण देती हैं—

कीर्तिर्लक्ष्मीर्धृतिर्मेधा, सिद्धिः प्रज्ञा सरस्वती। 
माङ्गल्येषु प्रपूज्याश्च, सप्तैता दिव्यमातरः॥ २४॥ 
वास्तुदेव— वस्तुओं में अदृश्य रूप से सन्निहित चेतनाशक्ति—

नागपृष्ठसमारूढं, शूलहस्तं महाबलम्।
पातालनायकं देवं, वास्तुदेवं नमाम्यहम्॥ २५॥ 
क्षेत्रपाल— विभिन्न क्षेत्रों में देवत्व का संचार करने वाली सूक्ष्म सत्ता—

क्षेत्रपालान्नमस्यामि, सर्वारिष्टनिवारकान्। 
अस्य यागस्य सिद्ध्यर्थं, पूजयाराधितान् मया॥ २६॥



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