
अन्य पर्वों के प्रारूप
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भारत के प्रमुख पर्व- त्यौहारों को प्रेरणाप्रद ढंग से मनाने का विधि- विधान प्रस्तुत किया गया; परन्तु कुछ ऐसे पर्व- त्यौहार और हैं, जो क्षेत्र विशेष एवं वर्ग विशेष में प्रचलित हैं, जैसे क्षेत्र विशेष के पर्व हैं, महाराष्ट्र का गणपति उत्सव, बिहार का सूर्यषष्ठी, दक्षिण का पोंगल आदि और वर्ग विशेष के पर्व हैं, शिल्पकार- इञ्जीनियर का विश्वकर्मा पूजन, सिन्धी समाज का झूले लाल जयन्ती, अग्रवाल समाज का अग्रसेन महाराज का पूजन- उत्सव आदि। इन पर्व, त्यौहारों को भी मनाने का आग्रह रहता है। इनकी रूपरेखा यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। सर्वप्रथम पर्वों की सामान्य रूपरेखा के आधार पर उसकी तैयारी कर ली जाए और प्रधान देवता की प्रतिमा, चित्र आदि जो भी उपलब्ध हो, उसे पूजावेदी पर भली प्रकार से सजा दिया जाए।
कर्मकाण्ड का स्वरूप- सर्वप्रथम जिसका पर्व या जयन्ती मनाई जा रही हो, उसके सम्बन्ध में संक्षिप्त भावभरी भूमिका प्रस्तुत की जाए। तदुपरान्त षट्कर्म, तिलक, कलावा, कलशपूजन, स्वस्तिवाचन, सर्वदेव नमस्कार करें। सर्वदेव नमस्कार में जहाँ ‘एतत्कर्म प्रधान श्री गायत्री देव्यै नमः’ आता है। वहाँ श्री गायत्री देव्यै के स्थान पर अभीष्ट प्रमुख देवता का भी नामोल्लेख किया जाए, यथा- श्री सूर्याय, श्री विश्वकर्मणे आदि। इसके बाद प्रधान देवता तथा उनके सहयोगी सखा और आयुध आदि जिसे आवश्यक समझें, उनका आवाहन निम्नांकित शब्दावली में किया जाए- ॐ श्री गणपतये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।’ यही शब्दावली सभी के लिए रहेगी। गणपतये के स्थान पर विश्वकर्मणे, सूर्याय आदि का प्रयोग किया जा सकता है। आवाहन के बाद संक्षिप्त अथवा पुरुषसूक्त से षोडशोपचार पूजन किया जाए। इसके बाद यज्ञ या दीपयज्ञ सम्पन्न करें और अन्त में क्षमाप्रार्थना, साष्टांग नमस्कार, देवदक्षिणा, सङ्कल्प के साथ मन्त्र पुष्पाञ्जलि समर्पित करते हुए कार्यक्रम पूर्ण किया जाए। जयघोष, प्रसाद वितरण के साथ उत्सव विशेष की महिमा प्रकट करने वाले गीत- भजन प्रस्तुत किये जा सकते हैं।
॥ आशीर्वचन॥
मन्त्रार्थाः सफलाः सन्तु, पूर्णाः सन्तु मनोरथाः। शत्रुभ्यो भयनाशोऽस्तु, मित्राणामुदयस्तव॥ १॥
श्रीर्वर्चस्वमायुष्यमारोग्यम्, आविधात्पवमानं महीयते। धान्यं धनं पशुं बहुपुण्यलाभं, शतसंवत्सरं दीर्घमायुः॥ २॥
आयुर्द्रोणसुते श्रियो दशरथे, शत्रुक्षयो राघवे, ऐश्वर्यं नहुषे गतिश्च पवने, मानं च दुर्योधने।
शौर्यं शान्तनवे बलं हलधरे, सत्यं च कुन्तीसुते, विज्ञानं विदुरे भवन्तु भवतः, कीर्तिश्च नारायणे॥ ३॥
लक्ष्मीररुन्धतीचैव, कुरुतां स्वस्ति तेऽनघ। असितो देवलश्चैव, विश्वामित्रस्तथाङ्गिराः॥ ४॥
स्वस्ति तेऽद्य प्रयच्छन्तु, कार्तिकेयश्च षण्मुखः। विवस्वान्भगवान् स्वस्ति, करोतु तव सर्वशः॥ ५॥
ब्रह्माणी चैव गायत्री, सावित्री श्रीरुमासती। अरुन्धत्यनसूया च, तव सन्तु फलप्रदाः॥ ६॥
ब्रह्माविष्णुश्च रुद्रश्च, सूर्यादिसकलग्रहाः। सौभाग्यं ते प्रयच्छन्तु, वेदमन्त्राश्च कल्पकाः॥ ७॥
कर्मकाण्ड का स्वरूप- सर्वप्रथम जिसका पर्व या जयन्ती मनाई जा रही हो, उसके सम्बन्ध में संक्षिप्त भावभरी भूमिका प्रस्तुत की जाए। तदुपरान्त षट्कर्म, तिलक, कलावा, कलशपूजन, स्वस्तिवाचन, सर्वदेव नमस्कार करें। सर्वदेव नमस्कार में जहाँ ‘एतत्कर्म प्रधान श्री गायत्री देव्यै नमः’ आता है। वहाँ श्री गायत्री देव्यै के स्थान पर अभीष्ट प्रमुख देवता का भी नामोल्लेख किया जाए, यथा- श्री सूर्याय, श्री विश्वकर्मणे आदि। इसके बाद प्रधान देवता तथा उनके सहयोगी सखा और आयुध आदि जिसे आवश्यक समझें, उनका आवाहन निम्नांकित शब्दावली में किया जाए- ॐ श्री गणपतये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।’ यही शब्दावली सभी के लिए रहेगी। गणपतये के स्थान पर विश्वकर्मणे, सूर्याय आदि का प्रयोग किया जा सकता है। आवाहन के बाद संक्षिप्त अथवा पुरुषसूक्त से षोडशोपचार पूजन किया जाए। इसके बाद यज्ञ या दीपयज्ञ सम्पन्न करें और अन्त में क्षमाप्रार्थना, साष्टांग नमस्कार, देवदक्षिणा, सङ्कल्प के साथ मन्त्र पुष्पाञ्जलि समर्पित करते हुए कार्यक्रम पूर्ण किया जाए। जयघोष, प्रसाद वितरण के साथ उत्सव विशेष की महिमा प्रकट करने वाले गीत- भजन प्रस्तुत किये जा सकते हैं।
॥ आशीर्वचन॥
मन्त्रार्थाः सफलाः सन्तु, पूर्णाः सन्तु मनोरथाः। शत्रुभ्यो भयनाशोऽस्तु, मित्राणामुदयस्तव॥ १॥
श्रीर्वर्चस्वमायुष्यमारोग्यम्, आविधात्पवमानं महीयते। धान्यं धनं पशुं बहुपुण्यलाभं, शतसंवत्सरं दीर्घमायुः॥ २॥
आयुर्द्रोणसुते श्रियो दशरथे, शत्रुक्षयो राघवे, ऐश्वर्यं नहुषे गतिश्च पवने, मानं च दुर्योधने।
शौर्यं शान्तनवे बलं हलधरे, सत्यं च कुन्तीसुते, विज्ञानं विदुरे भवन्तु भवतः, कीर्तिश्च नारायणे॥ ३॥
लक्ष्मीररुन्धतीचैव, कुरुतां स्वस्ति तेऽनघ। असितो देवलश्चैव, विश्वामित्रस्तथाङ्गिराः॥ ४॥
स्वस्ति तेऽद्य प्रयच्छन्तु, कार्तिकेयश्च षण्मुखः। विवस्वान्भगवान् स्वस्ति, करोतु तव सर्वशः॥ ५॥
ब्रह्माणी चैव गायत्री, सावित्री श्रीरुमासती। अरुन्धत्यनसूया च, तव सन्तु फलप्रदाः॥ ६॥
ब्रह्माविष्णुश्च रुद्रश्च, सूर्यादिसकलग्रहाः। सौभाग्यं ते प्रयच्छन्तु, वेदमन्त्राश्च कल्पकाः॥ ७॥