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Books - कर्मकाण्ड भास्कर

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॥ जलप्रसेचनम्॥

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॥ जलप्रसेचनम् ॥

अग्नि और जल का युग्म है। यज्ञ अग्नि और गायत्री जल है। इन्हें ज्ञान और कर्म भी कह सकते हैं। इस युग्म को-

(१) तेजस्विता- मधुरता
(२) पुरुषार्थ- सन्तोष
(३) उपार्जन- त्याग
(४) क्रान्ति- शान्ति  भी कह सकते हैं।
प्रोक्षणी पात्र (बिना हत्थे वाला चम्मच जैसा उपकरण) में पानी लेकर निम्न मन्त्रों से वेदी के बाहर चारों दिशाओं में डालें। भावना करें कि अग्नि के चारों ओर शीतलता का घेरा बना रहे हैं। जिसका परिणाम शान्तिदायी होगा।

ॐ अदितेऽनुमन्यस्व॥  (इति पूर्वे)
ॐ अनुमतेऽनुमन्यस्व॥  (इति पश्चिमे)
ॐ सरस्वत्यनुमन्यस्व॥ (इति उत्तरे)
ॐ देव सवितः प्रसुव यज्ञं, प्रसुव यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गन्धर्वः केतपूः, केतं नः पुनातु, वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु॥ (इति चतुर्दिक्षु)  - १.१.७

॥ आज्याहुतिः॥

सर्वप्रथम सात मन्त्रों से सात आहुतियाँ केवल घृत की दी जाती हैं। इन आहुतियों के साथ हवन सामग्री नहीं होमी जाती। घी पिघला हुआ रहे। स्रुवा को घी में डुबोने के बाद उसका पैंदा घृत पात्र के किनारे से पोंछ लेना चाहिए, ताकि घी जमीन पर न टपके। स्वाहा उच्चारण के साथ ही आहुति दी जाए। स्रुवा लौटाते समय घृत पात्र के समीप ही रखे हुए, जल भरे प्रणीता पात्र में बचे हुए घृत की एक बूँद टपका देनी चाहिए।

घृत का दूसरा नाम स्नेह है। स्नेह अर्थात् प्रेम, सहानुभूति, सेवा, संवेदना, दया, क्षमा, ममता, आत्मीयता, करुणा, उदारता, वात्सल्य जैसे सद्गुण इस प्रेम- अभिव्यक्ति के साथ जुड़े हुए हैं। निःस्वार्थ भाव से उच्च आदर्शों के साथ साधना सम्पन्न की जाती है, उसे दिव्य प्रेम कहते हैं। यह दिव्य प्रेम, स्नेह- घृत यदि यज्ञ- परमार्थ के साथ जोड़ दिया जाए, तो वह देवताओं को प्रसन्न करने वाला बन जाता है। वही शिक्षण इन सात घृत आहुतियों में है। सच्चे प्रेम पात्र सात ही हैं। इन सातों को ईश्वररूपी सूर्य की सात किरणें कह सकते हैं। यही ब्रह्म- आदित्य के सात अश्व हैं।

(१)  प्रजापति- परमेश्वर
(२)  इन्द्र- आत्मा
(३)  अग्नि- वैभव
(४)  सोम- शान्ति
(५)  भूः- शरीर
(६)  भुवः- मन
(७)  स्वः- अन्तःकरण।

इन सात देवताओं को सच्चे मन से प्यार करना चाहिए अर्थात् इनके परिष्कार, अभिवर्धन के लिए सतत प्रयत्न करना चाहिए। यही सब देवताओं को दी गई सात आहुतियों का प्रयोजन है।
१- ॐ प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये इदं न मम॥  - १८.२८
२- ॐ इन्द्राय स्वाहा। इदं इन्द्राय इदं न मम॥
३- ॐ अग्नये स्वाहा। इदं अग्नये इदं न मम॥
४- ॐ सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय इदं न मम॥  - २२.२७
५- ॐ भूः स्वाहा। इदं अग्नये इदं न मम॥
६- ॐ भुवः स्वाहा। इदं वायवे इदं न मम॥
७- ॐ स्वः स्वाहा। इदं सूर्याय इदं न मम॥ - गो.गृ.सू. १.८.१५

॥ गायत्रीमन्त्राहुतिः॥

गायत्री मन्त्र की जितनी आहुतियाँ देनी हों, उसी अनुपात से सामग्री, घी, समिधा आदि की व्यवस्था पहले से ही कर लेनी चाहिए। मध्यमा और अनामिका अँगुलियों पर सामग्री रखी जाए। अँगूठे का सहारा देकर उसे आगे खिसकाने का प्रयोजन पूरा करना चाहिए। आहुति देने वाले सभी लोग साथ- साथ थोड़ा आगे हाथ बढ़ाकर आहुतियाँ डालें, जिससे सामग्री अग्नि में ही गिरे, इधर- उधर न बिखरे। आहुति एक साथ छोड़ें और हथेली ऊपर की दिशा में ही रहे।

आहुति डालने के बाद ‘इदं गायत्र्यै इदं न मम’ का उच्चारण किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि यह यज्ञानुष्ठान पुण्य- परमार्थ अपने स्वार्थ साधन के लिए नहीं, लोकमंगल के लिए किया गया है। जिस प्रकार अति सम्माननीय अतिथि को प्रेमपूर्वक भोजन परोसा जाता है, उसी प्रकार श्रद्धा- भक्ति और सम्मान की भावना के साथ अग्निदेव के मुख में आहुति दी जानी चाहिए, लोक कल्याण के लिए श्रम, तप, त्याग किया जा रहा है। जैसे अग्नि के स्पर्श से लकड़ी अग्नि रूप हो जाती है, उसी तरह यज्ञ पुरुष के सान्निध्य में आकर आहुति देते हुए जीवन को यज्ञमय बनाने का प्रयास किया जा रहा है। इन भावनाओं के साथ आहुतियाँ दी जानी चाहिए। गायत्री मन्त्र से २४ आहुतियाँ देनी चाहिए। समयानुसार संख्या को न्यूनाधिक किया जा सकता है।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि,
धियो यो नः प्रचोदयात्, स्वाहा। इदं गायत्र्यै इदं न मम॥  - ३६.३

नोट- आवश्यकतानुसार (जन्मदिन, विवाह दिन आदि पर) दीर्घ जीवन, उज्ज्वल भविष्य एवं सर्वतोभावेन कल्याण के लिए तीन बार या पाँच बार महामृत्युञ्जय मन्त्र से आहुति प्रदान की जा सकती है।

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे, सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्, मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्, स्वाहा॥
इदं महामृत्युञ्जयाय इदं न मम॥  - ३.६०

॥ स्विष्टकृत्होमः॥

यह प्रायश्चित्त आहुति भी कहलाती है। आहुतियों में जो कुछ भूल रही हो, उसकी पूर्ति के लिए यज्ञाग्नि के लिए नैवेद्य समर्पण के रूप में यह कृत्य किया जाता है। स्विष्टकृत् आहुति में मिष्टान्न समर्पित किया जाता है। मिष्टान्न का सङ्केत है सर्वाङ्गीण मधुरता। वाणी से मधुर- वचन, व्यवहार में मधुर शिष्टाचार, मन में सबके लिए मधुर संवेदनाएँ, हँसता- हँसाता हलका- फुलका मधुर स्वभाव यह मधुर मिष्टान्न का प्रतीक देवताओं के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है। अपना व्यक्तित्व मधुरतायुक्त विशेषताओं से ढला हुआ हो। हम मधुर बनकर भगवान् की सेवा में प्रस्तुत होते हैं। यह स्विष्टकृत् आहुति का प्रयोजन है।

स्रुचि (चम्मच जैसा, लम्बी डण्डी वाला काष्ठपात्र) में मिष्टान्न और घी भरकर इसे केवल घी होमने वाला ही देता है। आरम्भ और अन्त में कुछ विशेष कृत्य घृत होमने वाले व्यक्ति को करने पड़ते हैं। यह सब वह अपने अन्य साथियों के प्रतिनिधि के रूप में करता है। स्विष्टकृत् आहुति अपने स्थान पर बैठे हुए करें।

ॐ यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं, यद्वान्यूनमिहाकरम्। अग्निष्टत् स्विष्टकृद् विद्यात्सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे। अग्नये स्विष्टकृते सुुहुतहुते, सर्वप्रायश्चित्ताहुुतीनां कामानां, समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा। इदं अग्नये स्विष्टकृते इदं न मम॥   - आश्व. गृ.सू. १.१०

॥ देवदक्षिणा- पूर्णाहुतिः॥

मनुष्य की गरिमा इस बात में है कि जो श्रेष्ठ सङ्कल्प करे, उसे पूर्णता तक पहुँचाए। मनुष्य अपूर्ण है। उसे अपनी पूर्णता के लिए प्रयत्न करना चाहिए। यज्ञीय जीवन में रुचि रखने वाले आदर्शवादी को अग्नि की साक्षी में यह व्रत लेना चाहिए कि पूर्णता की दिशा में निरन्तर अग्रसर रहेंगे और लक्ष्य को प्राप्त करके ही चैन लेंगे। मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह पशुता की ओर न बढ़े, हीन प्रवृत्तियों से बचे तथा देवत्व की दिशा में बढ़े। यज्ञ से देवत्व की प्राप्ति होती है। यज्ञ से उत्पन्न ऊर्जा का, यज्ञ भगवान् के आशीर्वाद का उपयोग हीन प्रवृत्तियों के विनाश के लिए करना चाहिए। इसके लिए अपने किसी दोष- दुर्गुण के त्याग तथा किसी सद्गुण को अपनाने का सङ्कल्प मन में करना चाहिए। देवशक्तियाँ श्रेष्ठ संकल्पों को पूरा करने के लिए विशेष आशीर्वाद एवं शक्ति प्रदान करती हैं। पूर्णाहुति के साथ देव शक्तियों के सामने अपने सुनिश्चित सङ्कल्प घोषित करते हुए उनकी पूर्ति की प्रार्थना सहित पूर्णाहुति सम्पन्न करनी चाहिए।

देव दक्षिणा के सन्दर्भ में छोड़े जाने वाले दोषों एवं अपनाये जाने योग्य गुणों, नियमों का उल्लेख समय एवं परिस्थितियों के अनुसार किया जा सकता है। उनकी सूची आगे दी गयी है।

सब लोग खड़े हों। सबके हाथ में एक- एक चुटकी सामग्री हो। घृत होमने वाले स्रुचि में सुपारी अथवा नारियल का गोला तथा घृत लें, स्वाहा के साथ आहुति दें।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं, पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ पूर्णादर्वि परापत, सुपूर्णा पुनरापत।
वस्नेव विक्रीणा वहा, इषमूर्ज शतक्रतो स्वाहा॥
ॐ सर्वं वै पूर्ण स्वाहा॥    -बृह. उ. ५.१.१; यजु. ३.४९

॥ वसोर्धारा॥

घृत की अन्तिम बड़ी आहुति वसोर्धारा अर्थात् स्नेह- सौजन्य। प्रारम्भ में घृत की सात आहुतियाँ दी थीं। उस प्रारम्भ का अन्त और भी बढ़ा- चढ़ा होना चाहिए। वसोर्धारा में घृत की अविच्छिन्न धारा टपकाई जाती है और अधिक घृत होमा जाता है। कार्य के प्रारम्भ में जितना उत्साह एवं त्याग हो, अन्त में उससे भी अधिक होना चाहिए। अक्सर शुभ कार्यों के प्रारम्भ में सब लोग बहुत साहस, उत्साह दिखाते हैं; पर पीछे ठण्डे पड़ जाते हैं। मनस्वी लोगों की नीति दूसरी ही है। वे यदि धर्म मार्ग पर कदम बढ़ा देते हैं, तो हर कदम पर अधिक तेजी का परिचय देते हैं और अन्ततः उसी में- याज्ञिक कर्म में तन्मय हो जाते हैं। भावना करें कि यज्ञ भगवान् सत्कृत्यों में अविरल स्नेह की धार चढ़ाने की प्रवृत्ति और क्षमता हमें प्रदान करें।

ॐ वसोः पवित्रमसि शतधारं , वसो पवित्रमसि सहस्रधारम्।
देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः, पवित्रेण शतधारेण सुप्वा, कामधुक्षः स्वाहा।  - १.३

॥ नीराजनम् - आरती॥

आरती उतारने का तात्पर्य है कि यज्ञ भगवान् का सम्मान, परमार्थ परायणता का ज्ञान प्रकाश दसों दिशाओं में फैले, सर्वत्र उसी का शंख बजे, घण्टा- निनाद सुनाई पड़े और हर धर्मप्रेमी इस प्रयोजन के लिए उठ खड़ा हो। आरती में पैसे चढ़ाये जाते हैं अर्थात् ऐसे प्रयोजन के लिए सहयोग का परिचय दिया जाता है। यज्ञ भगवान् की आरती- प्रतिष्ठा ज्ञान दीपों के प्रकाश- विस्तार से ही सम्भव है। यज्ञीय परम्परा इस अनुष्ठान तक ही सीमित न रहे, वरन् उसके विस्तार की व्यवस्था भी यज्ञ प्रेमी करेंगे, इसी कर्त्तव्य का उद्घाटन प्रतीक रूप से आरती में किया जाता है। थाली में पुष्पादि से सजाकर आरती जलाएँ, तीन बार जल घुमाकर यज्ञ भगवान् व देव प्रतिमाओं की आरती उतारें, पुनः तीन बार जल घुमाकर उपस्थित जनों तक आरती पहुँचा दें। यह सारा कृत्य एक प्रतिनिधि करे, आवश्यकतानुसार आरती की संख्या बढ़ाई जा सकती है।

ॐ यं ब्रह्मवेदान्तविदो वदन्ति, परं प्रधानं पुरुषं तथान्ये।
विश्वोद्गतेः कारणमीश्वरं वा, तस्मै नमो विघ्नविनाशनाय॥

ॐ यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः, स्तुन्वन्ति दिव्यै स्तवैः,
वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैः, गायन्ति यं सामगाः।
ध्यानावस्थित- तद्गतेन मनसा, पश्यन्ति यं योगिनो,
यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणाः, देवाय तस्मै नमः॥



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