Books - कर्मकाण्ड भास्कर
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॥ विवाह दिवस संस्कार॥
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॥ विवाह दिवस संस्कार॥
जिनके विवाह नहीं हुए उनके संस्कार को सुयोग्य व्यवस्थापकों एवं पुरोहितों द्वारा अत्यन्त प्रभावोत्पादक बनाया जाना चाहिए; पर जिनके हो चुके हैं, उनके सम्बन्ध में ‘हो गया सो हो गया’ कहकर छुटकारा नहीं पाया जा सकता, उनको यह लाभ पुनः मिलना चाहिए। औंधे- सीधे ढंग से बेगार भुगतने की भगदड़ में उन्हें जो मिल नहीं पाया है, इसके लिए उत्तम- सरल और उपयोगी तरीका विवाह दिवसोत्सव मनाया जाना ही हो सकता है। जिस दिन विवाह हुआ था, हर वर्ष उस दिन एक छोटा उत्सव, समारोह मनाया जाए। मित्र परिजन एकत्रित हों, विवाह का पूरा कर्मकाण्ड तो नहीं, पर उनमें प्रयुक्त होने वाली प्रमुख क्रियाएँ पुनः की जाएँ तथा विवाह के कर्त्तव्य- उत्तरदायित्वों को नये सिरे से पुनः समझाया जाए।
हर वर्ष इस प्रकार का व्रत धारण, प्रशिक्षण, सङ्कल्प एवं धर्मानुष्ठान किया जाता रहे, तो उससे दोनों को अपने कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्वों को पालने- निबाहने की निश्चय ही अधिक प्रेरणा मिलेगी। उसी दिन दोनों परस्पर विचार- विनिमय करके अपनी- अपनी भूलों को सुधारने तथा एक दूसरे के अधिक समीप आने के उपाय सुझाने में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। विवाह दिन की पुरानी आनन्दमयी स्मृति का स्मरण कर पुनः अन्तःकरण को प्रफुल्लित कर सकते हैं। इस प्रकार वह सुनहरा दिन एक दिन के लिए हर साल नस- नाड़ियों में उल्लास भरने के लिए आ सकता है और विवाह कर्त्तव्यों को नये सिरे से निबाहने की प्रेरणा दे सकता है।
बन्दूकों के लाइसेन्स हर साल बदलने पड़ते हैं, रेडियो का लाइसेन्स हर वर्ष नया मिलता है। मोटरों के लाइसेन्स का भी हर साल नवीनीकरण करना पड़ता है। विवाह के कर्त्तव्यों को ठीक तरह पालने का लेखा- जोखा उपस्थित करने, भूल- चूक को सुधारने और अगले वर्ष सावधानी बरतने के विवाह लाइसेन्स का यदि हर वर्ष नवीनीकरण कराया जाए, तो इससे कुछ हानि नहीं, हर दृष्टि से लाभ ही लाभ है। संसार के अन्य देशों में यह उत्सव सर्वत्र मनाये जाते हैं। अन्तर इतना ही है कि वे केवल खुशी बढ़ाने के मनोरञ्जन तक ही उसे सीमित रखते हैं, हमें उसे धर्म प्रेरणा से ओत- प्रोत करने वाले धर्मानुष्ठान की तरह नियोजित करना है।
संकोच- अनावश्यक- इस प्रथा के प्रचलन में एक बड़ी कठिनाई यह है कि हमारे देश में विवाह को, दाम्पत्य जीवन को झिझक- संकोच एवं लज्जा का विषय माना जाने लगा है, उसे लोग छिपाते हैं। दूसरों को देखकर स्त्रियाँ अपने पतियों से घूँघट काढ़ लेती हैं और पति अपनी पत्नी की तरफ से आँखें नीची कर लेते हैं। विवाह के अवसर पर वधू बड़े संकोच के साथ डरती- झिझकती कदम उठाकर आती है, यह अनावश्यक संकोचशीलता निरर्थक है। भाई- भाइयों की तरह पति- पत्नी भी दो साथी हैं। विवाह न तो चोरी है, न पाप। दो व्यक्तियों का धर्मपूर्वक द्वैत को अद्वैत में परिणत करने का व्रत- बन्ध ही विवाह अथवा दाम्पत्य सम्बन्ध है। अवश्य ही अश्लील चेष्टाएँ अथवा भाव भंगिमाएँ खुले रूप से निषिद्ध मानी जानी चाहिए, पर साथ- साथ बैठने- उठने, बात करने की मानवोचित रीति- नीति में अनावश्यक संकोच न बरता जाए, इसमें न तो कोई समझदारी है, न कोई तुक। इस बेतुकी बात को यदि हटा दिया जाए, तो इससे मर्यादा का तनिक भी उल्लंघन नहीं होता। जब अनेक अवसरों पर पति- पत्नी पास- पास बैठ सकते हैं, कोई हवन आदि धर्मकृत्य कर सकते हैं, साथ- साथ तीर्थ यात्रा आदि कर सकते हैं, तो विवाह दिवसोत्सव पर किये जाने वाले साधारण से हवन में किसी को क्यों संकोच होना चाहिए। गायत्री हवन के साथ- साथ (विवाह दिवसोत्सव के) चार- पाँच छोटे- छोटे अन्य विधि- विधान जुड़े हुए हैं और प्रवचनों का विषय दाम्पत्य जीवन होता है। इनके अतिरिक्त और कुछ भी बात तो ऐसी नहीं है, जिसके लिए झिझक एवं संकोच किया जाए, विवाह की चर्चा करने पर जैसे वर- वधू सकुचाते हैं, वैसी ही कुछ झिझक विवाह दिवसोत्सव के अवसर पर दिखाई जाती है। इसमें औचित्य तनिक भी नहीं, विचारशील लोगों के लिए इस अकारण की संकोचशीलता को छोड़ने में कुछ अधिक कठिनाई नहीं होनी चाहिए। अनेक प्रगतिशील दम्पती अपने विवाह दिवस मनाते हैं। कोई दिशा धारा न होने से छुट्टी, पिकनिक, मित्रों की पार्टी, सिनेमा जैसे छुटपुट उपचारों तक ही सीमित रह जाते हैं, ऐसे लोगों को भावनात्मक- धर्म समारोहपूर्वक विवाह दिवसोत्सव मनाने की बात बतलाई- समझाई जाए, तो वे इसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। न्यूनतम खर्च में जीवन में नई दिशा का बोध कराने वाला तथा नये उल्लास का संचार कराने वाला यह संस्कार थोड़े ही प्रयास से लोकप्रिय बनाया जा सकता है।
नया उल्लास नया आरम्भ- पति- पत्नी को नये वर्ष में नये उल्लास एवं नये आनन्द से परिपूर्ण जीवन बनाने- बिताने की नई प्रेरणा के साथ अपना नया कार्यक्रम बनाना चाहिए। अब तक वैवाहिक जीवन अस्त- व्यस्त रहा हो, तो रहा हो; पर अब अगले वर्ष के लिए यह प्रेरणा लेनी चाहिए, ऐसी योजना बनानी चाहिए कि वह अधिकाधिक उत्कृष्ट एवं आनन्ददायक हो। उस दिन को अधिक मनोरंजक बनाने के लिए छुट्टी के दिन के रूप में मनोरंजक कार्यक्रम के साथ बिताने की व्यवस्था बन सके, तो वैसा भी करना चाहिए। केवल कर्मकाण्ड की दृष्टि से ही नहीं, भावना- उल्लास और उत्साह की दृष्टि से भी विवाह दिन की अभिव्यक्तियों को नवीनीकरण के रूप में मना सकें, ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए।
यह तथ्य ध्यान में रखें- गृहस्थ एक प्रकार का प्रजातन्त्र है, जिसमें डिक्टेटरशाही की गुँजाइश नहीं, दोनों को एक- दूसरे को समझना,
सहना और निबाहना होगा। दोनों में से जो हुक्म चलाना भर जानता है, अपना पूर्ण आज्ञानुवर्ती बनाना चाहता है, वह गृह- शान्ति में आग लगाता है। दो मनुष्य अलग- अलग प्रकृति के ही होते और रहते हैं, उनका पूर्णतया एक में घुल- मिल जाना सम्भव नहीं। जिनमें अधिक सामञ्जस्य और कम मतभेद दिखाई पड़ता हो, समझना चाहिए कि वे सद्गृहस्थ हैं। मतभेद और प्रकृति भेद का पूर्णतया मिट सकना तो कठिन है। सामान्य स्थिति में कुछ न कुछ विभेद बना ही रहता है, इसे जो लोग शान्ति और सहिष्णुता के साथ सहन कर लेते हैं, वे समन्वयवादी व्यक्ति ही गृहस्थ का आनन्द ले पाते हैं।
भूलना न चाहिए कि हर व्यक्ति अपना मान चाहता है। दूसरे का तिरस्कार कर उसे सुधारने की आशा नहीं की जा सकती। अपमान से चिढ़ा हुआ व्यक्ति भीतर ही भीतर क्षुब्ध रहता है। उसकी शक्तियाँ रचनात्मक दिशा में नहीं, विघटनात्मक दिशा में लगती हैं। पति या पत्नी में से कोई भी गृह व्यवस्था के बारे में उपेक्षा दिखाने लगे, तो उसका परिणाम आर्थिक एवं भावनात्मक क्षेत्रों में विघटनात्मक ही होता है। दोनों के बीच यह समझौता रहना चाहिए कि यदि किसी कारणवश एक को क्रोध आ जाए, तो दूसरा तब तक चुप रहेगा, जब तक कि दूसरे का क्रोध शान्त न हो जाए। दोनों पक्षों का क्रोधपूर्वक उत्तर- प्रत्युत्तर अनिष्टकर परिणाम ही प्रस्तुत करता है। इन तथ्यों को दोनों ही ध्यान में रखें।
व्रत धारण की आवश्यकता- जिस प्रकार जन्मदिन के अवसर पर कोई बुराई छोड़ने और अच्छाई अपनाने के सम्बन्ध में प्रतिज्ञाएँ की जाती हैं, उसी तरह विवाह दिवस के उपलक्ष में पतिव्रत और पत्नीव्रत को परिपुष्ट करने वाले छोटे- छोटे नियमों को पालन करने की कम से कम एक- एक प्रतिज्ञा इस अवसर लेनी चाहिए। परस्पर ‘आप या तुम’ शब्द का उपयोग करना ‘तू’ का अशिष्ट एवं लघुता प्रकट करने वाला सम्बोधन न करना जैसी प्रतिज्ञा तो आसानी से ली जा सकती है।
पति द्वारा इस प्रकार की प्रतिज्ञाएँ ली जा सकती हैं- १. कटुवचन या गाली आदि का प्रयोग न करना। २. कोई दोष या भूल हो, तो उसे एकान्त में ही बताना- समझाना, बाहर के लोगों के सामने उसकी तनिक भी चर्चा न करना। ३. युवती- स्त्रियों के साथ अकेले में बात न करना। ४. पत्नी पर सन्तानोत्पादन का कम से कम भार लादना। ५. उसे पढ़ाने के लिए कुछ नियमित व्यवस्था बनाना। ६. खर्च का बजट पत्नी की सलाह से बनाना और पैसे पर उसका प्रभुत्व रखना। ७. गृह व्यवस्था में पत्नी का हाथ बँटाना। ८. उसके सद्गुणों की समय- समय पर प्रशंसा करना। ९. बच्चों की देखभाल, साज- सँभाल, शिक्षा- दीक्षा पर समुचित ध्यान देकर पत्नी का काम सरल करना। १०. पर्दा का प्रतिबन्ध न लगाकर उसे अनुभवी- स्वावलम्बी होने की दिशा में बढ़ने देना। ११. पत्नी की आवश्यकताओं तथा सुविधाओं पर समुचित ध्यान देना आदि- आदि।
पत्नी द्वारा भी इसी प्रकार की प्रतिज्ञाएँ की जा सकती हैं, जैसे- १. छोटी- छोटी बातों पर कुढ़ने, झल्लाने या रूठने की आदत छोड़ना। २. बच्चों से कटु शब्द कहना, गाली देना या मारना- पीटना बन्द करना। ३. सास, ननद, जिठानी आदि बड़ों को कटु शब्दों में उत्तर न देना। ४. हँसते- मुस्कराते रहने और सहन कर लेने की आदत डालना, परिश्रम से जी न चुराना, आलस्य छोड़ना। ५. साबुन, सुई, बुहारी इन तीनों को दूर न जाने देना, सफाई और मरम्मत की ओर पूरा ध्यान रखना। ६. उच्छृंखल फैशन बनाने में पैसा या समय तनिक भी खर्च न करना। ७. पति से छिपा कर कोई काम न करना। ८. अपनी शिक्षा- योग्यता बढ़ाने के लिए नित्य कुछ समय निकालना। ९. पति को समाज सेवा एवं लोकहित के कार्यों में भाग लेने से रोकना नहीं, वरन् प्रोत्साहित करना। १०. स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने में उपेक्षा न बरतना। ११. घर में पूजा का वातावरण बनाये रखना, भगवान् की पूजा, आरती और भोग का नित्य क्रम रखना। १२. पर्दा के बेकार बन्धन की उपेक्षा करना। १३. पति, सास आदि के नित्य चरण स्पर्श करना। आदि- आदि।
हर दाम्पत्य जीवन की अपनी- अपनी समस्याएँ होती हैं। अपनी कमजोरियों, भूलों, दुर्बलताओं और आवश्यकताओं को वे स्वयं अधिक अच्छी तरह समझते हैं, इसलिए उन्हें स्वयं ही यह सोचना चाहिए कि किन बुराइयों- कमियों को उन्हें दूर करना है और किन अच्छाइयों को अभ्यास में लाना है। उपस्थित लोगों के सामने अपने सङ्कल्प की घोषणा भी करनी चाहिए; ताकि उन्हें उसके पालने में लोक- लाज का ध्यान रहे, साथ ही जो उपस्थित हैं, उन्हें भी वैसी प्रतिज्ञाएँ करने के लिए प्रोत्साहन मिले।
संस्कार क्रम- विवाह दिवसोत्सव, विवाह संस्कार के संक्षिप्त संस्करण के रूप में मनाया जाता है। उसी कर्मकाण्ड प्रक्रिया का सहारा लेकर उसे नीचे लिखे क्रम से कराया जाना चाहिए- मंगलाचरण, षट्कर्म, कलश पूजन आदि कृत्य सम्पन्न करके सङ्कल्प करें। देवशक्तियों और सत्पुरुषों की साक्षी में सङ्कल्प बोला जाए-
............नामाऽहं दाम्पत्यजीवनस्य पवित्रता- मर्यादयोः रक्षणाय त्रुटीनांच प्रायश्चित्तकरणाय उज्ज्वलभविष्यद्धेतवे स्वोत्तरदायित्वपालनाय संकल्पमहं करिष्ये।
सङ्कल्प के बाद समय की सीमा का ध्यान रखते हुए देवपूजन, स्वस्तिवाचन आदि क्रम विस्तृत या संक्षिप्त रूप से कराया जाना चाहिए। सामान्य क्रम पूरा हो जाने पर विवाह पद्धति के मन्त्रों का प्रयोग करते हुए नीचे लिखे क्रम से निर्धारित विशेष उपचार कराये जाएँ-
१. ग्रन्थि बन्धन, २. पाणिग्रहण, ३. वर- वधू की प्रतिज्ञाएँ, ४. सप्तपदी और ५. आश्वास्तना।
६- आहुति- यज्ञ करें तो अग्निस्थापना, गायत्री मन्त्राहुति, प्रायश्चित्ताहुति करके पूर्णाहुति करें। यदि यज्ञ करने की स्थिति न हो, तो दीपयज्ञ करें। पाँच दीप सजाकर रखें, गायत्री मन्त्र बोलते हुए उन्हें प्रकाशित करें। प्रायश्चित्त आहुति के प्रथम मन्त्र के साथ पति- पत्नी दीपों की ओर अपनी हथेलियाँ करें, जैसे घृत अवघ्राण के समय करते हैं।
७. एकीकरण- पति- पत्नी एक- एक दीपक उठाएँ। नीचे लिखे मन्त्र पाठ के साथ ज्योतियों को मिलाकर एक ज्योति करें। भावना करें कि हम अपने व्यक्तित्वों को एक दूसरे के साथ इसी प्रकार एकाकार करने का प्रयास करेंगे। दैवी अनुग्रह और स्वजनों के सद्भाव उसमें सहायक होंगे।
ॐ समानी वआकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति। - अथर्व० ६.६४.३
८. अन्त में दम्पति पुष्पोहार मन्त्र (पृष्ठ..२३३) से एक दूसरे कोमाल्यार्पण करें | फिर सभी लोग मंगल मंत्र बोलते हुए पुष्पवृष्टि करें - शुभकामनाये-आशीर्वाद दे |
९ विसर्जन, जयघोष एवं प्रसाद वितरण के साथ कार्यक्रम का समापन किया जायें |
जिनके विवाह नहीं हुए उनके संस्कार को सुयोग्य व्यवस्थापकों एवं पुरोहितों द्वारा अत्यन्त प्रभावोत्पादक बनाया जाना चाहिए; पर जिनके हो चुके हैं, उनके सम्बन्ध में ‘हो गया सो हो गया’ कहकर छुटकारा नहीं पाया जा सकता, उनको यह लाभ पुनः मिलना चाहिए। औंधे- सीधे ढंग से बेगार भुगतने की भगदड़ में उन्हें जो मिल नहीं पाया है, इसके लिए उत्तम- सरल और उपयोगी तरीका विवाह दिवसोत्सव मनाया जाना ही हो सकता है। जिस दिन विवाह हुआ था, हर वर्ष उस दिन एक छोटा उत्सव, समारोह मनाया जाए। मित्र परिजन एकत्रित हों, विवाह का पूरा कर्मकाण्ड तो नहीं, पर उनमें प्रयुक्त होने वाली प्रमुख क्रियाएँ पुनः की जाएँ तथा विवाह के कर्त्तव्य- उत्तरदायित्वों को नये सिरे से पुनः समझाया जाए।
हर वर्ष इस प्रकार का व्रत धारण, प्रशिक्षण, सङ्कल्प एवं धर्मानुष्ठान किया जाता रहे, तो उससे दोनों को अपने कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्वों को पालने- निबाहने की निश्चय ही अधिक प्रेरणा मिलेगी। उसी दिन दोनों परस्पर विचार- विनिमय करके अपनी- अपनी भूलों को सुधारने तथा एक दूसरे के अधिक समीप आने के उपाय सुझाने में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। विवाह दिन की पुरानी आनन्दमयी स्मृति का स्मरण कर पुनः अन्तःकरण को प्रफुल्लित कर सकते हैं। इस प्रकार वह सुनहरा दिन एक दिन के लिए हर साल नस- नाड़ियों में उल्लास भरने के लिए आ सकता है और विवाह कर्त्तव्यों को नये सिरे से निबाहने की प्रेरणा दे सकता है।
बन्दूकों के लाइसेन्स हर साल बदलने पड़ते हैं, रेडियो का लाइसेन्स हर वर्ष नया मिलता है। मोटरों के लाइसेन्स का भी हर साल नवीनीकरण करना पड़ता है। विवाह के कर्त्तव्यों को ठीक तरह पालने का लेखा- जोखा उपस्थित करने, भूल- चूक को सुधारने और अगले वर्ष सावधानी बरतने के विवाह लाइसेन्स का यदि हर वर्ष नवीनीकरण कराया जाए, तो इससे कुछ हानि नहीं, हर दृष्टि से लाभ ही लाभ है। संसार के अन्य देशों में यह उत्सव सर्वत्र मनाये जाते हैं। अन्तर इतना ही है कि वे केवल खुशी बढ़ाने के मनोरञ्जन तक ही उसे सीमित रखते हैं, हमें उसे धर्म प्रेरणा से ओत- प्रोत करने वाले धर्मानुष्ठान की तरह नियोजित करना है।
संकोच- अनावश्यक- इस प्रथा के प्रचलन में एक बड़ी कठिनाई यह है कि हमारे देश में विवाह को, दाम्पत्य जीवन को झिझक- संकोच एवं लज्जा का विषय माना जाने लगा है, उसे लोग छिपाते हैं। दूसरों को देखकर स्त्रियाँ अपने पतियों से घूँघट काढ़ लेती हैं और पति अपनी पत्नी की तरफ से आँखें नीची कर लेते हैं। विवाह के अवसर पर वधू बड़े संकोच के साथ डरती- झिझकती कदम उठाकर आती है, यह अनावश्यक संकोचशीलता निरर्थक है। भाई- भाइयों की तरह पति- पत्नी भी दो साथी हैं। विवाह न तो चोरी है, न पाप। दो व्यक्तियों का धर्मपूर्वक द्वैत को अद्वैत में परिणत करने का व्रत- बन्ध ही विवाह अथवा दाम्पत्य सम्बन्ध है। अवश्य ही अश्लील चेष्टाएँ अथवा भाव भंगिमाएँ खुले रूप से निषिद्ध मानी जानी चाहिए, पर साथ- साथ बैठने- उठने, बात करने की मानवोचित रीति- नीति में अनावश्यक संकोच न बरता जाए, इसमें न तो कोई समझदारी है, न कोई तुक। इस बेतुकी बात को यदि हटा दिया जाए, तो इससे मर्यादा का तनिक भी उल्लंघन नहीं होता। जब अनेक अवसरों पर पति- पत्नी पास- पास बैठ सकते हैं, कोई हवन आदि धर्मकृत्य कर सकते हैं, साथ- साथ तीर्थ यात्रा आदि कर सकते हैं, तो विवाह दिवसोत्सव पर किये जाने वाले साधारण से हवन में किसी को क्यों संकोच होना चाहिए। गायत्री हवन के साथ- साथ (विवाह दिवसोत्सव के) चार- पाँच छोटे- छोटे अन्य विधि- विधान जुड़े हुए हैं और प्रवचनों का विषय दाम्पत्य जीवन होता है। इनके अतिरिक्त और कुछ भी बात तो ऐसी नहीं है, जिसके लिए झिझक एवं संकोच किया जाए, विवाह की चर्चा करने पर जैसे वर- वधू सकुचाते हैं, वैसी ही कुछ झिझक विवाह दिवसोत्सव के अवसर पर दिखाई जाती है। इसमें औचित्य तनिक भी नहीं, विचारशील लोगों के लिए इस अकारण की संकोचशीलता को छोड़ने में कुछ अधिक कठिनाई नहीं होनी चाहिए। अनेक प्रगतिशील दम्पती अपने विवाह दिवस मनाते हैं। कोई दिशा धारा न होने से छुट्टी, पिकनिक, मित्रों की पार्टी, सिनेमा जैसे छुटपुट उपचारों तक ही सीमित रह जाते हैं, ऐसे लोगों को भावनात्मक- धर्म समारोहपूर्वक विवाह दिवसोत्सव मनाने की बात बतलाई- समझाई जाए, तो वे इसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। न्यूनतम खर्च में जीवन में नई दिशा का बोध कराने वाला तथा नये उल्लास का संचार कराने वाला यह संस्कार थोड़े ही प्रयास से लोकप्रिय बनाया जा सकता है।
नया उल्लास नया आरम्भ- पति- पत्नी को नये वर्ष में नये उल्लास एवं नये आनन्द से परिपूर्ण जीवन बनाने- बिताने की नई प्रेरणा के साथ अपना नया कार्यक्रम बनाना चाहिए। अब तक वैवाहिक जीवन अस्त- व्यस्त रहा हो, तो रहा हो; पर अब अगले वर्ष के लिए यह प्रेरणा लेनी चाहिए, ऐसी योजना बनानी चाहिए कि वह अधिकाधिक उत्कृष्ट एवं आनन्ददायक हो। उस दिन को अधिक मनोरंजक बनाने के लिए छुट्टी के दिन के रूप में मनोरंजक कार्यक्रम के साथ बिताने की व्यवस्था बन सके, तो वैसा भी करना चाहिए। केवल कर्मकाण्ड की दृष्टि से ही नहीं, भावना- उल्लास और उत्साह की दृष्टि से भी विवाह दिन की अभिव्यक्तियों को नवीनीकरण के रूप में मना सकें, ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए।
यह तथ्य ध्यान में रखें- गृहस्थ एक प्रकार का प्रजातन्त्र है, जिसमें डिक्टेटरशाही की गुँजाइश नहीं, दोनों को एक- दूसरे को समझना,
सहना और निबाहना होगा। दोनों में से जो हुक्म चलाना भर जानता है, अपना पूर्ण आज्ञानुवर्ती बनाना चाहता है, वह गृह- शान्ति में आग लगाता है। दो मनुष्य अलग- अलग प्रकृति के ही होते और रहते हैं, उनका पूर्णतया एक में घुल- मिल जाना सम्भव नहीं। जिनमें अधिक सामञ्जस्य और कम मतभेद दिखाई पड़ता हो, समझना चाहिए कि वे सद्गृहस्थ हैं। मतभेद और प्रकृति भेद का पूर्णतया मिट सकना तो कठिन है। सामान्य स्थिति में कुछ न कुछ विभेद बना ही रहता है, इसे जो लोग शान्ति और सहिष्णुता के साथ सहन कर लेते हैं, वे समन्वयवादी व्यक्ति ही गृहस्थ का आनन्द ले पाते हैं।
भूलना न चाहिए कि हर व्यक्ति अपना मान चाहता है। दूसरे का तिरस्कार कर उसे सुधारने की आशा नहीं की जा सकती। अपमान से चिढ़ा हुआ व्यक्ति भीतर ही भीतर क्षुब्ध रहता है। उसकी शक्तियाँ रचनात्मक दिशा में नहीं, विघटनात्मक दिशा में लगती हैं। पति या पत्नी में से कोई भी गृह व्यवस्था के बारे में उपेक्षा दिखाने लगे, तो उसका परिणाम आर्थिक एवं भावनात्मक क्षेत्रों में विघटनात्मक ही होता है। दोनों के बीच यह समझौता रहना चाहिए कि यदि किसी कारणवश एक को क्रोध आ जाए, तो दूसरा तब तक चुप रहेगा, जब तक कि दूसरे का क्रोध शान्त न हो जाए। दोनों पक्षों का क्रोधपूर्वक उत्तर- प्रत्युत्तर अनिष्टकर परिणाम ही प्रस्तुत करता है। इन तथ्यों को दोनों ही ध्यान में रखें।
व्रत धारण की आवश्यकता- जिस प्रकार जन्मदिन के अवसर पर कोई बुराई छोड़ने और अच्छाई अपनाने के सम्बन्ध में प्रतिज्ञाएँ की जाती हैं, उसी तरह विवाह दिवस के उपलक्ष में पतिव्रत और पत्नीव्रत को परिपुष्ट करने वाले छोटे- छोटे नियमों को पालन करने की कम से कम एक- एक प्रतिज्ञा इस अवसर लेनी चाहिए। परस्पर ‘आप या तुम’ शब्द का उपयोग करना ‘तू’ का अशिष्ट एवं लघुता प्रकट करने वाला सम्बोधन न करना जैसी प्रतिज्ञा तो आसानी से ली जा सकती है।
पति द्वारा इस प्रकार की प्रतिज्ञाएँ ली जा सकती हैं- १. कटुवचन या गाली आदि का प्रयोग न करना। २. कोई दोष या भूल हो, तो उसे एकान्त में ही बताना- समझाना, बाहर के लोगों के सामने उसकी तनिक भी चर्चा न करना। ३. युवती- स्त्रियों के साथ अकेले में बात न करना। ४. पत्नी पर सन्तानोत्पादन का कम से कम भार लादना। ५. उसे पढ़ाने के लिए कुछ नियमित व्यवस्था बनाना। ६. खर्च का बजट पत्नी की सलाह से बनाना और पैसे पर उसका प्रभुत्व रखना। ७. गृह व्यवस्था में पत्नी का हाथ बँटाना। ८. उसके सद्गुणों की समय- समय पर प्रशंसा करना। ९. बच्चों की देखभाल, साज- सँभाल, शिक्षा- दीक्षा पर समुचित ध्यान देकर पत्नी का काम सरल करना। १०. पर्दा का प्रतिबन्ध न लगाकर उसे अनुभवी- स्वावलम्बी होने की दिशा में बढ़ने देना। ११. पत्नी की आवश्यकताओं तथा सुविधाओं पर समुचित ध्यान देना आदि- आदि।
पत्नी द्वारा भी इसी प्रकार की प्रतिज्ञाएँ की जा सकती हैं, जैसे- १. छोटी- छोटी बातों पर कुढ़ने, झल्लाने या रूठने की आदत छोड़ना। २. बच्चों से कटु शब्द कहना, गाली देना या मारना- पीटना बन्द करना। ३. सास, ननद, जिठानी आदि बड़ों को कटु शब्दों में उत्तर न देना। ४. हँसते- मुस्कराते रहने और सहन कर लेने की आदत डालना, परिश्रम से जी न चुराना, आलस्य छोड़ना। ५. साबुन, सुई, बुहारी इन तीनों को दूर न जाने देना, सफाई और मरम्मत की ओर पूरा ध्यान रखना। ६. उच्छृंखल फैशन बनाने में पैसा या समय तनिक भी खर्च न करना। ७. पति से छिपा कर कोई काम न करना। ८. अपनी शिक्षा- योग्यता बढ़ाने के लिए नित्य कुछ समय निकालना। ९. पति को समाज सेवा एवं लोकहित के कार्यों में भाग लेने से रोकना नहीं, वरन् प्रोत्साहित करना। १०. स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने में उपेक्षा न बरतना। ११. घर में पूजा का वातावरण बनाये रखना, भगवान् की पूजा, आरती और भोग का नित्य क्रम रखना। १२. पर्दा के बेकार बन्धन की उपेक्षा करना। १३. पति, सास आदि के नित्य चरण स्पर्श करना। आदि- आदि।
हर दाम्पत्य जीवन की अपनी- अपनी समस्याएँ होती हैं। अपनी कमजोरियों, भूलों, दुर्बलताओं और आवश्यकताओं को वे स्वयं अधिक अच्छी तरह समझते हैं, इसलिए उन्हें स्वयं ही यह सोचना चाहिए कि किन बुराइयों- कमियों को उन्हें दूर करना है और किन अच्छाइयों को अभ्यास में लाना है। उपस्थित लोगों के सामने अपने सङ्कल्प की घोषणा भी करनी चाहिए; ताकि उन्हें उसके पालने में लोक- लाज का ध्यान रहे, साथ ही जो उपस्थित हैं, उन्हें भी वैसी प्रतिज्ञाएँ करने के लिए प्रोत्साहन मिले।
संस्कार क्रम- विवाह दिवसोत्सव, विवाह संस्कार के संक्षिप्त संस्करण के रूप में मनाया जाता है। उसी कर्मकाण्ड प्रक्रिया का सहारा लेकर उसे नीचे लिखे क्रम से कराया जाना चाहिए- मंगलाचरण, षट्कर्म, कलश पूजन आदि कृत्य सम्पन्न करके सङ्कल्प करें। देवशक्तियों और सत्पुरुषों की साक्षी में सङ्कल्प बोला जाए-
............नामाऽहं दाम्पत्यजीवनस्य पवित्रता- मर्यादयोः रक्षणाय त्रुटीनांच प्रायश्चित्तकरणाय उज्ज्वलभविष्यद्धेतवे स्वोत्तरदायित्वपालनाय संकल्पमहं करिष्ये।
सङ्कल्प के बाद समय की सीमा का ध्यान रखते हुए देवपूजन, स्वस्तिवाचन आदि क्रम विस्तृत या संक्षिप्त रूप से कराया जाना चाहिए। सामान्य क्रम पूरा हो जाने पर विवाह पद्धति के मन्त्रों का प्रयोग करते हुए नीचे लिखे क्रम से निर्धारित विशेष उपचार कराये जाएँ-
१. ग्रन्थि बन्धन, २. पाणिग्रहण, ३. वर- वधू की प्रतिज्ञाएँ, ४. सप्तपदी और ५. आश्वास्तना।
६- आहुति- यज्ञ करें तो अग्निस्थापना, गायत्री मन्त्राहुति, प्रायश्चित्ताहुति करके पूर्णाहुति करें। यदि यज्ञ करने की स्थिति न हो, तो दीपयज्ञ करें। पाँच दीप सजाकर रखें, गायत्री मन्त्र बोलते हुए उन्हें प्रकाशित करें। प्रायश्चित्त आहुति के प्रथम मन्त्र के साथ पति- पत्नी दीपों की ओर अपनी हथेलियाँ करें, जैसे घृत अवघ्राण के समय करते हैं।
७. एकीकरण- पति- पत्नी एक- एक दीपक उठाएँ। नीचे लिखे मन्त्र पाठ के साथ ज्योतियों को मिलाकर एक ज्योति करें। भावना करें कि हम अपने व्यक्तित्वों को एक दूसरे के साथ इसी प्रकार एकाकार करने का प्रयास करेंगे। दैवी अनुग्रह और स्वजनों के सद्भाव उसमें सहायक होंगे।
ॐ समानी वआकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति। - अथर्व० ६.६४.३
८. अन्त में दम्पति पुष्पोहार मन्त्र (पृष्ठ..२३३) से एक दूसरे कोमाल्यार्पण करें | फिर सभी लोग मंगल मंत्र बोलते हुए पुष्पवृष्टि करें - शुभकामनाये-आशीर्वाद दे |
९ विसर्जन, जयघोष एवं प्रसाद वितरण के साथ कार्यक्रम का समापन किया जायें |