
॥ स्वस्तिवाचनम्॥
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॥ स्वस्तिवाचनम् ॥
स्वस्ति- कल्याणकारी, हितकारी के तथा वाचन- घोषणा के अर्थों में प्रयुक्त होता है। वाणी से, उपकरणों से स्थूल जगत् में घोषणा होती है। मन्त्रों के माध्यम से सूक्ष्म जगत् में अपनी भावना का प्रवाह भेजा जाता है। सात्त्विक शक्तियाँ हमारे ईमान, हमारे कल्याणकारी भावों का प्रमाण पाकर अपने अनुग्रह के अनुकूल वातावरण पैदा करें, यह भाव रखें। अनुकूलता दो प्रकार से पैदा होती है- (१) अवाञ्छनीयता से बचाव। (२) वाञ्छनीयता का योग। यह अधिकार भी देवशक्तियों को सौंपते हुए स्वस्तिवाचन करना चाहिए।
सभी लोगों को दाहिने हाथ में अक्षत, पुष्प, जल दिया जाए। बायाँ हाथ नीचे रहे। सबके कल्याण की भावनाएँ मन में रखें। मन्त्र पूरा होने पर पूजा सामग्री सबके हाथों से लेकर एक तश्तरी में इकट्ठी कर ली जाए।
ॐ गणानां त्वा गणपति हवामहे, प्रियाणां त्वा प्रियपति हवामहे, निधीनां त्वा निधिपति œ हवामहे, वसोमम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥
- २३.१९
ॐ स्वस्ति नऽइन्द्रो वृद्धश्रवाः, स्वस्ति नः पूषा विश्वेवेदाः।
स्वस्ति नस्ताक्र्ष्योऽअरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु। - २५.१९
ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधीषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्॥ - १८.३६
ॐ विष्णो रराटमसि विष्णोः, श्नप्त्रे स्थो विष्णोः, स्यूरसि विष्णोर्ध्रुवोऽसि, वैष्णवमसि विष्णवे त्वा॥ -५.२१
ॐ अग्निर्देवता वातो देवता, सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता, वसवो देवता रुद्रा देवता, ऽऽदित्या देवता मरुतो देवता, विश्वेदेवा देवता, बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता, वरुणो देवता॥ -१४.२०
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः, पृथिवी शान्तिरापः, शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः, शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः, सर्व œ शान्तिः, शान्तिरेव शान्तिः, सा मा शान्तिरेधि॥ -३६.१७
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद्भद्रं तन्नऽआ सुव। ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः॥ सर्वारिष्टसुशान्तिर्भवतु। -३०.३
॥ रक्षाविधानम्॥
जहाँ उत्कृष्ट बनने की, शुभ कार्य करने की आवश्यकता है, वहाँ यह भी आवश्यक है कि दुष्टों की दुष्प्रवृत्ति से सतर्क रहा जाए और उनसे जूझा जाए। दुष्ट प्रायः सज्जनों पर ही आक्रमण करते हैं, इसलिए नहीं कि देवतत्त्व कमजोर होते हैं, वरन् इसलिए कि वे अपने समान ही सबको सज्जन समझते हैं और दुष्टता के घात- प्रतिघातों से सावधान नहीं रहते, सङ्गठित नहीं होते और क्षमा- उदारता के नाम पर इतने ढीले हो जाते हैं कि अनीति से लड़ने का साहस, शौर्य और पराक्रम ही उनमें से चला जाता है। इससे लाभ अनाचारी तत्त्व उठाते हैं। यज्ञ जैसे सत्कर्मों की अभिवृद्धि से ऐसा वातावरण बनता है, जिसकी प्रखरता से असुरता के पैर टिकने ही न पाएँ। इस आशंका में असुर- प्रकृति के विघ्न सन्तोषी लोग ही ऐसे षड्यन्त्र रचते हैं, जिसके कारण शुभ कर्म सफल न होने पाएँ।
इस स्थिति से भी धर्मपरायण व्यक्ति को परिचित रहना चाहिए और संयम- उदारता, सत्य- न्याय जैसे आदर्शों को अपनाने के साथ- साथ ऐसी वैयक्तिक और सामूहिक सामर्थ्य इकट्ठी करनी चाहिए, जिससे दुष्टता को निरस्त किया जा सके। इसी सर्तकता और तत्परता का नाम रक्षा विधान है। दसों दिशाओं में विघ्नकारी तत्त्व हो सकते हैं, उनकी ओर दृष्टि रखने, उन पर प्रहार करने की तैयारी के रूप में सब दिशाओं में मन्त्र- पूरित अक्षत फेंके जाते हैं। भगवान् से उन दुष्टों से लड़ने की शक्ति की याचना भी इस क्रिया- कृत्य में सम्मिलित है। बायें हाथ में अक्षत रखें, जिस दिशा की रक्षा का मन्त्र बोला जाए, उसी ओर अक्षत फेंकें।
ॐ पूर्वे रक्षतु वाराहः, आग्नेय्यां गरुडध्वजः।
दक्षिणे पद्मनाभस्तु, नैऋर्त्यां मधुसूदनः॥ १॥
पश्चिमे चैव गोविन्दो, वायव्यां तु जनार्दनः।
उत्तरे श्रीपती रक्षेद्, ऐशान्यां हि महेश्वरः॥ २॥
ऊर्ध्वं रक्षतु धाता वो, ह्यधोऽनन्तश्च रक्षतु।
अनुक्तमपि यत् स्थानं, रक्षत्वीशो ममाद्रिधृक्॥ ३॥
अपसर्पन्तु ते भूता, ये भूता भूमिसंस्थिताः।
ये भूता विघ्न्रकर्तारः, ते गच्छन्तु शिवाज्ञया॥ ४॥
अपक्रामन्तु भूतानि, पिशाचाः सर्वतो दिशम्।
सर्वेषामविरोधेन, यज्ञकर्म समारभे॥ ५॥
॥ अग्निस्थापनम्॥
यज्ञाग्नि को ब्रह्म का प्रतिनिधि मानकर वेदी पर उसकी प्राण- प्रतिष्ठा करते हैं। उसी भाव से अग्नि की स्थापना का विधान सम्पन्न करते हैं। जब कुण्ड में प्रथम अग्नि- ज्योति के दर्शन हों, तब सब लोग उन्हें नमस्कार करें।
अग्नि स्थापना से पूर्व कुण्ड में समिधाएँ इस कुशलता से चिननी चाहिए कि अग्नि प्रदीप्त होने में बाधा न पड़े। अग्नि के ऊपर पतली सूखी लकड़ियाँ रखी जाएँ, ताकि अग्नि का प्रवेश जल्दी हो सके। एक चम्मच में कपूर अथवा घी में भीगी हुई रुई की मोटी बत्ती रखी जाए, उसमें अग्नि जलाकर स्थापित किया जाए। ऊपर पतली लकड़ी लगाने से अग्नि प्रवेश में सुविधा होती है।
ॐ भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना, पृथिवीव वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि, पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे। अग्निं दूतं पुरोदधे, हव्यवाहमुपब्रुवे।
देवाँऽआसादयादिह। -३.५, २२.१७
ॐ अग्नये नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
तदुपरान्त गन्ध, अक्षत- पुष्प आदि से अग्निदेवता की पूजा करें—
गन्धाक्षतं, पुष्पाणि, धूपं, दीपं, नैवेद्यं समर्पयामि।