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Books - कर्मकाण्ड भास्कर

Media: TEXT
Language: HINDI
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॥ वानप्रस्थ संस्कार॥

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ढलती उम्र का परम पवित्र कर्त्तव्य है- वानप्रस्थ। पारिवारिक जिम्मेदारियाँ जैसे ही हलकी होने लगें, घर को चलाने के लिए बड़े बच्चे समर्थ होने लगें और अपने छोटे भाई- बहिनों की देख−भाल करने लगें, तब वयोवृद्ध आदमियों का एक मात्र कर्त्तव्य यही रह जाता है कि वे पारिवारिक जिम्मेदारियों से धीरे- धीरे हाथ खींचे और क्रमशः वह भार समर्थ लड़कों के कन्धों पर बढ़ाते चलें। ममता को परिवार की ओर से शिथिल कर समाज की ओर विकसित करते चलें। सारा समय घर के ही लोगों के लिए खर्च न कर दें, वरन् उसका कुछ अंश क्रमशः अधिक बढ़ाते हुए समाज के लिए समर्पित करते चलें।

धर्म और संस्कृति का प्राण- वानप्रस्थ संस्कार भारतीय धर्म और संस्कृति का प्राण है। जीवन को ठीक तरह जीने की समस्या उसी से हल हो जाती है। युवावस्था के कुसंस्कारों का शमन एवं प्रायश्चित्त इसी साधना द्वारा होता है। जिस देश, धर्म, जाति तथा समाज में उत्पन्न हुए हैं, उनकी सेवा करने का, ऋण मुक्त होने का अवसर भी इसी स्थिति में मिलता है। इसलिए जिन नर- नारियों की स्थिति इसके लिए उपयुक्त हो, उन्हें वानप्रस्थ ले लेना चाहिए। एक प्रतिज्ञा बन्धन में बँध जाने पर व्यक्ति अपने जीवनक्रम को तदनुरूप ढालने में अधिक सफल होता है, बिना संस्कार कराये मनोभूमि पर वैसी छाप गहराई तक नहीं पड़ती। इसलिए कदम कभी आगे बढ़ते, कभी पीछे हटते रहते हैं। विवाह न होने तक प्रेमी का सहचरत्व सन्दिग्ध रहता है, पर जब विवाह हो गया हो, तो सब कुछ स्थायी एवं सुनियोजित हो जाता है। संस्कार के बिना पारमार्थिक भावनाओं का तूफान कभी शिथिल या समाप्त भी हो सकता है, पर यदि विधिवत् संस्कार कराया गया, तो अंतःप्रेरणा तथा लोकलाज दोनों ही निर्धारित गतिविधि अपनाये रहने की प्रेरणा देते
रहेंगे, इसलिए शास्त्र मर्यादा के अनुरूप जिन्हें सुविधा हो, वे विधिवत् संस्कार करा लें। जिन्हें सुविधा न हो, वे बिना संस्कार के भी उपयुक्त प्रकार की रीति- नीति अपनाने के लिए यथा सम्भव प्रयत्न करते रहें।

लोक शिक्षण की आवश्यकता- इस गतिविधि को अपनाने से समाज की भी भारी सेवा होती है। प्राचीनकाल में लोक निर्माण की सारी गतिविधियों एवं प्रवृत्तियों के संचालन का उत्तरदायित्व साधु- ब्राह्मण, वानप्रस्थों पर ही था, वे अपनी सारी शक्तियाँ परमार्थ भावना से प्रेरित होकर जनमानस को सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त किये रहने में लगाये रहते थे। फलस्वरूप चारों ओर धर्म, कर्त्तव्य, सदाचार का ही वातावरण बना रहता था। वयोवृद्ध अनुभवी परमार्थ- परायण लोकसेवियों का प्रभाव जन साधारण पर स्वभावतः बहुत गहरा पड़ता है, वह टिकाऊ भी होता है। ऐसे लोग जन नेतृत्व करने के लिए जब धर्मतन्त्र का उचित उपयोग करते थे, तो सारे समाज में सत्प्रवृत्तियों के लिए उत्साह उमड़ पड़ता था। शिक्षा, स्वास्थ्य, सदाचार, न्याय, विवेक, वैभव, शासन, विज्ञान, सुरक्षा, व्यवस्था आदि सभी क्षेत्रों में वे वयोवृद्ध लोग ही नेतृत्व करते थे। इतने अधिक अनुभवी और धर्म परायण व्यक्तियों की निःशुल्क सेवा जिस देश या समाज को उपलब्ध होती हो, उसको संसार का मुकुटमणि होना ही चाहिए, प्राचीनकाल में ऐसी ही स्थिति थी। आज वानप्रस्थ की परम्परा नष्ट हुई, बूढ़े लोगों को लोभ- मोह के बन्धनों में ही ग्रसित रहना प्रिय लगा, तो फिर देश का पतन अवश्यम्भावी हुआ भी, हो भी रहा है।
विशेष व्यवस्था- वानप्रस्थ संस्कार जितने व्यक्तियों का हो, उनके लिए समुचित आसन तैयार रखे जाएँ। वानप्रस्थ परम्परा को महत्त्व देने की दृष्टि से उनके लिए सुसज्जित मंच बनाया जा सके, तो बनाना चाहिए। पूजन की सामान्य सामग्री के साथ- साथ संस्कार के लिए प्रयुक्त विशेष वस्तुओं को पहले से देख- सँभाल लेना चाहिए। उनका विवरण इस प्रकार है-

* वानप्रस्थों को पीले रंग के वस्त्रों में पहले से तैयार रखना चाहिए।
* पंचगव्य एक पात्र में पहले से तैयार रहे।
* संस्कार कराने वाले जितने व्यक्ति हों, उतने (१) पीले यज्ञोपवीत (२) पंचगव्य पान कराने के लिए छोटी कटोरियाँ, (३) मेखला- कोपीन (कमरबन्द सहित लँगोटी), (४) धर्मदण्ड (हाथ में लेने योग्य गोल दण्ड) रूल एवं (५) पीले दुपट्टे तैयार रखे जाएँ।
* ऋषि पूजन के लिए सात कुशाएँ एक साथ बँधी हुई।
* वेदपूजन हेतु वेद या कोई पवित्र पुस्तक पीले कपड़े में लपेटी हुई।
* यज्ञ पुरुष पूजन के लिए कलावा लपेटा हुआ नारियल का गोला।
* अभिषेक के लिए स्वच्छ लोटे या कलश एक जैसे, कम से कम ५, अधिक २४ तक हों, तो अच्छा है। अभिषेक के लिए कन्याएँ अथवा सम्माननीय साधकों को पहले से निश्चित कर लेना चाहिए।
* विधिवत् स्नान करके, पीत वस्त्र पहनाकर वानप्रस्थ लेने वालों को संस्कार स्थल पर लाया जाए। प्रवेश एवं आसन ग्रहण के समय पुष्प- अक्षत वृष्टि के साथ मंगलाचरण बोला जाए।
* सबके यथास्थान बैठ जाने पर नपे- तुले शब्दों में संस्कार का महत्त्व तथा उसके महान् उत्तरदायित्वों पर सबका ध्यान दिलाकर भावनापूर्वक कर्मकाण्ड प्रारम्भ कराएँ।
॥ विशेष कर्मकाण्ड॥
* प्रारम्भ में षट्कर्म के बाद ही सङ्कल्प करा दिया जाए। तिलक और रक्षासूत्र बन्धन के उपचार करा दिये जाएँ।
* समय की सीमा का ध्यान रखते हुए सामान्य प्रकरण, पूजन आदि को समुचित विस्तार या संक्षेप में किया जाए।
* रक्षाविधान के बाद विशेष कर्मकाण्ड इस प्रकार कराये जाएँ।

॥ संकल्प॥

दिशा एवं प्रेरणा- साधक हाथ में पुष्प,अक्षत, जल लेकर सङ्कल्प करता है। सङ्कल्प की सार्वजनिक घोषणा करता है कि आज से मैंने वानप्रस्थ व्रत ग्रहण कर लिया। अब मैं अपना या अपने परिवार का न रहकर समस्त समाज का बन गया। मेरा जीवन सार्वजनिक सम्पत्ति समझा जाए, उसे अपने या परिवार वालों के लाभ के लिए नहीं, वरन् विश्वमानस के लाभ की, आवश्यकता- पूर्ति का ध्यान रखते हुए माना जाए।

क्रिया और भावना- सङ्कल्प के लिए अक्षत, जल, पुष्प हाथ में दिये जाएँ। भावना करें कि देवसंस्कृति के मेरुदण्ड वानप्रस्थ जीवन का शुभारम्भ करने के लिए अपने अन्तरङ्ग और अन्तरिक्ष की सद्शक्तियों से सहयोग की विनय करते हुए साहस भरी घोषणा कर रहे हैं-
ॐ तत्सदद्य श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्त्तमानस्य अद्य श्री ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीये प्रहरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्त्तैक देशान्तर्गते......... क्षेत्रे.............. विक्रमसंवत्सरे................ मासानां मासोत्तमेमासे........ पक्षे......... तिथौ......... वासरे......... गोत्रोत्पन्नः......... नामाऽहं स्वजीवनं व्यक्तिगतं न मत्वा सम्पूर्ण- समाजस्य एतत् इति ज्ञात्वा, संयम- स्वाध्याय विशेषतश्च लोकसेवायां निरन्तरं मनसा वाचा कर्मणा च संलग्नो भविष्यामि इति सङ्कल्पम् अहं करिष्ये।

॥ यज्ञोपवीत परिवर्तन॥

नये जीवन की ओर पहला कदम त्याग, पवित्रता, तेजस्विता एवं परमार्थ के प्रतीक व्रतबन्ध स्वरूप यज्ञोपवीत का नवीनीकरण किया जाता है।
यज्ञोपवीत का सिंचन करके पाँच देव शक्तियों के आवाहन स्थापन के उपरान्त उसे धारण कर लिया जाता है, पुराना उतार दिया जाता है। यह क्रम यज्ञोपवीत संस्कार प्रकरण में दिया गया है। सुविधा की दृष्टि से मन्त्त्रादि यहाँ भी दिये जा रहे हैं।

॥ यज्ञोपवीत सिंचन॥

मन्त्र बोलते हुए यज्ञोपवीत पर जल छिड़कें, पवित्र करें, नमस्कार करें-
ॐ प्रजापतेर्यत्सहजं पवित्रं, कार्पाससूत्रोद्भवब्रह्मसूत्रम्॥
ब्रह्मत्वसिद्ध्यै च यशः प्रकाशं, जपस्य सिद्धिं कुरु ब्रह्मसूत्र॥
॥ पंचदेवावाहन॥
निम्नस्थ मन्त्रों के साथ यज्ञोपवीत में विभिन्न देवताओं का आवाहन करें-
(१) ब्रह्मा- ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्, विसीमतः सुरुचो वेन आवः। स बुध्न्याऽउपमाऽअस्यविष्ठाः, सतश्चयोनिमसतश्च विवः॥ ॐ ब्रह्मणे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -१३.३
(२) विष्णु ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे, त्रेधा निदधे पदम्। समूढमस्य पा œ सुरे स्वाहा॥ ॐ विष्णवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -५.१५
(३) शिव ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव ऽ, उतो तऽइषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः॥ ॐ रुद्राय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -१६.१
(४) यज्ञपुरुष यज्ञोपवीत खोल लें। दोनों हाथों की कनिष्ठा और अँगूठे से फँसाकर सीने की सीध में करें, फिर यज्ञ भगवान् का आवाहन करें।
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः, तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। तेह नाकं महिमानः सचन्त,
यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥
ॐ यज्ञपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -३१.१६
(५) सूर्य - फिर दोनों हाथ ऊपर उठाकर सूर्यदेव का आवाहन करें-
ॐ आकृष्णेन रजसा वर्त्तमानो, निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना,
देवो याति भुवनानि पश्यन्॥ ॐ सूर्याय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -३३.४३
॥ यज्ञोपवीतधारण॥
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुंच शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥ - पार०गृ०सू० २.२.११
॥ जीर्णोपवीत विसर्जन॥
ॐ एतावद्दिन पर्यन्तं, ब्रह्म त्वं धारितं मया।
जीर्णत्वात्ते परित्यागो, गच्छ सूत्र यथासुखम्॥

॥ पंचगव्यपान॥

शिक्षण और प्रेरणा- पंचगव्य का पान पिछले जीवन में हुई भूलों के प्रायश्चित्त के लिए कराया जाता है। मैल हटे तो रंग चढ़े, दोषों की स्वीकारोक्ति, उनसे सम्बन्ध विच्छेद, जो प्रवृत्तियाँ इस ओर तो ले जाती है, उनका नियमन, भूलों से हुई हानियों को पूरा करने का साहस भरा शुभारम्भ यह सब मिलकर प्रायश्चित्त कर्म पूरा होते हैं। प्रायश्चित्त से शुद्ध चित्त पर देव अनुग्रह सहज ही बरस पड़ते हैं।

क्रिया और भावना- पंचगव्य की कटोरी बायें हाथ में ले और दाहिने हाथ की मध्यमा अँगुली से मन्त्रोच्चार के साथ उसे घोलें- चलाएँ। भावना करें कि इन गौ द्रव्यों को दिव्य चेतना से अभिमन्त्रित कर रहे हैं।
ॐ गोमूत्रं गोमयं क्षीरं, दधि सर्प्पिः कुशोदकम्।

निर्दिष्टं पंचगयं तु, पवित्रं मुनिपुंगवैः॥

कटोरी दाहिने हाथ में लेकर मन्त्रोच्चार के साथ पान करें। भावना करें कि दिव्य संस्कारों से पापों की जड़ पर प्रहार और पुण्यों को उभारने का क्रम आरम्भ हो रहा है, जो निष्ठापूर्वक चलाया जाता रहेगा।
ॐ यत्त्वगस्थिगतंपापं, देहे तिष्ठति मामके। प्राशनात्पञ्चगव्यस्य, दहत्वग्निरिवेन्धनम्॥

॥ मेखला- कोपीन धारण॥

शिक्षण एवं प्रेरणा- पंचगव्य- पान के उपरान्त वानप्रस्थ लेने वालों के हाथों में धर्मदण्ड और मेखला- कोपीन का उत्तरदायित्व सौंपा जाता है। कोपीन धारण करने का अर्थ है- इन्द्रिय संयम बरतना। वानप्रस्थी को सन्तानोत्पादन बन्द कर देना चाहिए। अब तक की उत्पन्न हुई सन्तान का ही पालन- पोषण, विकास- निर्माण ठीक तरह हो जाए, यही बहुत है। पचास वर्ष की आयु के बाद बच्चे पैदा करते रहना, तो एक लज्जा की बात है, इससे कठिनाई बढ़ती है। बच्चे दुबले पैदा होते हैं, अनाथ रह जाते हैं तथा उनकी जिम्मेदारी मरते समय तक बनी रहने से समाजसेवा, परमार्थ साधना जैसे जीवन को सार्थक बनाने वाले प्रयोजनों के लिए अवसर ही नहीं मिलता। जिसके पीछे जितनी कम घरेलू जिम्मेदारी है, वह उतनी ही अच्छी तरह वृद्धावस्था का सदुपयोग कर सकेगा। फिर जिसने वानप्रस्थ धारण कर लिया, तो उसके लिए सन्तानोत्पादन एक विसंगति ही है, अतः उसे इस प्रकार की मर्यादाओं का पालन करने के लिए इन्द्रिय संयम का मार्ग अपनाना पड़ता है, उसी भावना का प्रतिनिधित्व कोपीन करती है, वानप्रस्थी उसे धारण करता है।

कमर में रस्सी बाँधना कोपीन धारण के लिए तो आवश्यक है ही, साथ ही वह सैनिकों की तरह कमर कसकर, पेटी बाँधकर परमार्थ के मोर्चे पर आगे बढ़ने की मानसिक स्थिति का भी प्रतीक है। कमर कसना, मुस्तैदी, सतर्कता, तत्परता निरालस्यता जैसी शारीरिक एवं मानसिक स्थिति बनाये रखने का प्रतीक है। निर्माण के दो मोर्चों पर एक साथ लड़ने वाले सैनिक को जिस सतर्कता से कार्य करना होता है, वैसा ही उसे भी करना चाहिए।
क्रिया और भावना- मेखला- कोपीन हाथों के सम्पुट में ली जाए। मन्त्रोच्चार के साथ भावना की जाए कि तत्परता, सक्रियता तथा संयमशीलता का वरण किया जा रहा है। मन्त्र पूरा होने पर उसे कमर में बाँध लें।

ॐ इयं दुरुक्तं परिबाधमाना, वर्णं पवित्रं पुनतीमऽआगात्। प्राणापानाभ्यां बलमादधाना, स्वसा देवी सुभगा मेखलेयम्॥ - पार० गृ०सू० २.२.८

॥ धर्मदण्डधारण॥

शिक्षण एवं प्रेरणा- वानप्रस्थी को हाथ में लाठी दी जाती है। गुरुकुलों में विद्याध्ययन करने वालों को वन्य प्रदेश की आवश्यकता के अनुरूप लाठी सुविधा की दृष्टि से आवश्यक भी होती थी। इसके अतिरिक्त यह धर्मदण्ड इस मन्तव्य का भी प्रतीक है कि राजा जिस प्रकार राज्याभिषेक के समय शासन सत्ता का प्रतीक राजदण्ड छोटा लकड़ी का डण्डा हाथ में विधिवत् समारोह के साथ ग्रहण करता है, उसी प्रकार वानप्रस्थी संसार में धर्म व्यवस्था कायम रखने की अपनी जिम्मेदारी को हर घड़ी स्मरण रखे रहे और तदनुरूप अपना जीवनक्रम बनाये रहे, इसलिए भी यह धर्मदण्ड है।

क्रिया और भावना- दण्ड दोनों हाथों से पकड़ें। भूमि के समानान्तर हृदय की सीध में स्थिर करें। मन्त्र पूरा होने पर मस्तक से लगाएँ और दाहिनी ओर रख लें। भावना करें कि धर्म चेतना को जीवन्त, व्यवस्थित एवं अनुशासित रखने का महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व स्वीकार किया जा रहा है। इसके साथ दिव्य शक्तियाँ ब्राह्मणत्व और ब्रह्मवर्चस प्रदान कर रही है।

ॐ यो मे दण्डः परापतद्, वैहायसोऽधिभूम्याम्। तमहं पुनराददऽआयुषे, ब्रह्मणे ब्रह्मवर्चसाय॥ - पार०गृ०सू० २.२.१२

॥ पीतवस्त्रधारण॥

शिक्षण एवं प्रेरणा- पीतवस्त्र वीरों, त्यागियों और परमार्थ परायणों का बाना कहा गया है। अज्ञान, अभाव एवं अनीति से संघर्ष करने के लिए विचारशीलों को सन्त, सुधारक और शहीदों की भूमिका निभाने की तैयारी करनी पड़ती है। संस्कृति की प्रतिष्ठा, उसके सनातन गौरव की रक्षा के लिए यही रंग प्रेरणा देता रहा है।

क्रिया और भावना- दोनों हाथों की हथेलियाँ सीधी करके दुपट्टा लें। मन्त्र के साथ ध्यान करें कि सत् शक्तियों से पवित्रता, शौर्य और त्याग का संस्कार प्राप्त कर रहे हैं। मन्त्र पूरा होने पर दुपट्टा कन्धों पर धारण कर लें।
ॐ सूर्यो मे चक्षुर्वातः, प्राणो३न्तरिक्षमात्मा पृथिवी शरीरम्। अस्तृतो नामाहमयमस्मि स, आत्मानं नि दधे द्यावापृथिवीभ्यां गोपीथाय॥ - अथर्व० ५.९.७

॥ ऋषिपूजन॥

शिक्षण एवं प्रेरणा- सांस्कृतिक चेतना को जाग्रत्- जीवन्त रखने, जीवन के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों की शोध और उनका लाभ जन- जन तक पहुँचाने, ईश्वरीय उद्देश्यों के लिए समर्पित पवित्र और तेजस्वी व्यक्तित्व के धनी उन महामानवों की परम्परा का अनुगमन, आत्मकल्याण- लोकमंगल दोनों दृष्टियों से अनिवार्य है, उनके अनुगमन के शुभारम्भ के रूप में पूजन किया जाता है।

क्रिया और भावना- हाथ में पुष्प- अक्षत लेकर ऋषियों का ध्यान कर मन्त्रोच्चारण के साथ भावना करें कि हम भी उन्हीं की परिपाटी के व्यक्ति हैं, उनके गौरव के अनुरूप बनने के लिए अपने पुरुषार्थ के साथ उनके अनुग्रह को जोड़ रहे हैं, उसे पाकर अन्याय उन्मूलन के मोर्चे को सुदृढ़ बनायेंगे।
ॐ इमावेव गोतमभरद्वाजौ, अयमेव गोतमोऽयं भरद्वाजऽ, इमावेव विश्वामित्रजमदग्नी, अयमेव विश्वामित्रोऽयं जमदग्निः,
इमावेव वसिष्ठकश्यपौ, अयमेव वसिष्ठोऽयं कश्यपो वागेवात्रिर्वाचाह्यन्नमद्यतेऽत्तिर्ह वै, नामैतद्यत्रिरिति सर्वस्यात्ता भवति, सर्वमस्यान्नं भवति य एवं वेद॥ - बृह० उ० २.२.४

ॐ सप्तऋषीनभ्यावर्ते। ते मे द्रविणं यच्छन्तु, ते मे ब्राह्मणवर्चसम्।ॐ ऋषिभ्यो नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि। - अथर्व० १०.५.३९

॥ वेदपूजन॥

शिक्षण एवं प्रेरणा- वेद कहते हैं ज्ञान को। अज्ञान हजार दुःखों का कारण है। ज्ञान- सद्विचार की स्थापना से ही समाज में सुख- सद्गति सम्भव है। स्वयं ज्ञान की आराधना करने तथा जन- जन को उसमें लगाने का भाव वेदपूजन के साथ रहता है।
क्रिया और भावना- पूजन सामग्री हाथ में लें। मन्त्रोच्चार के साथ भावना करें कि ज्ञान की सनातन धारा के वर्तमान युग के अनुरूप प्रवाह को अपने लिए सारे समाज के लिए पतित पावनी माँ गङ्गा की तरह प्रवाहित करने के लिए अपनी भूमिका निर्धारित की जा रही है। अज्ञान का निवारण इसी से सम्भव होगा।

ॐ वेदोऽसि येन त्वं देव वेद, देवेभ्यो वेदोऽभवस्तेन मह्यं वेदो भूयाः। देवा गातुविदो गातुं, वित्त्वा गातुमित। मनसस्पतऽ इमं देव, यज्ञ œ स्वाहा वाते धाः।
ॐ वेदपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि। - २.२१

॥ यज्ञपुरुष पूजन॥

शिक्षण एवं प्रेरणा- यज्ञ देवत्व का आधार है। इसी से देव शक्तियाँ कल्याणकारी प्रवृत्तियाँ पुष्ट होती हैं। यज्ञीय भावना के आधार पर ही व्यक्ति और समाज अभावों से मुक्त होगा, अन्यथा कुबेर जैसी सम्पदा प्राप्त कर लेने के बाद भी शोषण, उत्पीड़न और कंगाली का वातावरण बना रहेगा। यज्ञीय भावना, यज्ञीय दर्शन और यज्ञीय जीवन क्रम अपनाने- फैलाने का सङ्कल्प यज्ञ पुरुष पूजन के साथ जुड़ा रहेगा।
क्रिया और भावना- पूजन सामग्री हाथ में लें। मन्त्र के साथ भावना करें कि धर्म और देवत्व के प्रमुख आधार को अङ्गीकार करते हुए, उसे पुष्ट और प्रभावशाली बनाया जा रहा है।

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः, तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं महिमानः सचन्त, यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।
ॐ यज्ञपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि। -३१.१६

॥ व्रत धारण॥

शिक्षण एवं प्रेरणा- महानता की मञ्जिल पर मनुष्य एकाएक नहीं पहुँच जाता, उसके लिए एक- एक करके सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। श्रेष्ठ प्रवृत्तियाँ, आचरण एवं स्वभाव बनाने के लिए व्रतशील होकर चलना पड़ता है। छोटे ही सही, व्रत लेने, उन्हें पूरा करने, फिर नये व्रत लेने का क्रम विकास के लिए अनिवार्य है। व्रतशीलता के लिए कुछ देवशक्तियों को साक्षी करके व्रतशील बनने की घोषणा की जाती है। इन्हें अपना प्रेरक, निरीक्षक और नियंत्रक बनाना पड़ता है। सम्बन्धित देवशक्तियों की प्रेरणाएँ इस प्रकार हैं-

अग्निदेव- ऊर्जा के प्रतीक। ऊर्जा, स्फुरणा, गर्मी, प्रकाश से भरे- पूरे रहने, अन्यों तक उसे फैलाने, दूसरों को अपने जैसा बनाने, ऊर्ध्वगामी- आदर्शनिष्ठ रहने, यज्ञीय चेतना के वाहन बनने की प्रेरणा के स्रोत।

वायुदेव- स्वयं प्राणरूप, किन्तु बिना अहङ्कार सबके पास स्वयं पहुँचते हैं। कोई स्थान खाली नहीं छोड़ते, निरन्तर गतिशील। सुगन्धित और मेघों जैसे परोपकारी तत्त्वों के विस्तारक सहायक।

सूर्यदेव- जीवनी शक्ति के निर्झर, तमोनिवारक, जागृति के प्रतीक, पृथ्वी को सन्तुलन और प्राण- अनुदान देने वाले, स्वयं प्रकाशित, सविता देवता।
चन्द्रदेव- स्वप्रकाशित नहीं, पर सूर्य का ताप स्वयं सहन करके निर्मल प्रकाश जगती पर फैलाने वाले, तप अपने हिस्से में- उपलब्धियाँ सबके लिए।
इन्द्रदेव- व्रतपति देवों में प्रमुख, देव प्रवृत्तियों- शक्तियों को संगठित- सशक्त बनाये रखने के लिए सतत जागरूक, हजार आँखों से सतर्क रहने की प्रेरणा देने वाले।

क्रिया और भावना- साधक मन्त्रोच्चार के समय दोनों हाथ ऊपर उठाकर रखें। भावना करें कि हाथ उठाकर व्रतशीलता की साहसिक घोषणा कर रहे हैं, साथ ही सत्प्रवृत्तियों को अपना हाथ थमा रहे हैं। वे हमें मार्गदर्शक की तरह प्रेरणा एवं सहारा देती रहेंगी। एक देवता का मन्त्र पूरा होने पर हाथ जोड़कर नमस्कार करें, फिर पहले जैसी मुद्रा बना लें।

ॐ अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्।
तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि। ॐ अग्नये नमः॥ १॥
ॐ वायो व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्।
तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि। ॐ वायवे नमः॥ २॥
ॐ सूर्य व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्।
तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि। ॐ सूर्याय नमः॥ ३॥
ॐ चन्द्र व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्।
तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि। ॐ चन्द्राय नमः॥ ४॥
ॐ व्रतानां व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तत्ते प्रब्रवीमि तच्छकेयम्।
तेनर्ध्यासमिदमहम्, अनृतात्सत्यमुपैमि। ॐ इन्द्राय नमः॥ ५॥ - मं०ब्रा०१.६.९.१३

॥ अभिषेक॥

शिक्षण एवं प्रेरणा- अभिषेक कृत्य ठीक उसी तरह का है, जैसा कि किसी राजा को राजगद्दी देते समय राज्याभिषेक किया जाता है। राजा का, दरबारी लोगों के संरक्षण में राज्याभिषेक होता है। प्रजाजनों और धर्म संरक्षकों के द्वारा वानप्रस्थ का धर्माभिषेक किया जाता है। राजा अपनी प्रजा की सुरक्षा एवं साधन- व्यवस्था के भौतिक उपकरण जुटाता है, इसलिए उसे प्रजापालक कहकर सम्मानित किया जाता है। वानप्रस्थ प्रजा की आत्मिक सुरक्षा, सुव्यवस्था एवं सुख- शान्ति के उपकरण जुटाता है, उसे सन्मार्ग पर चलने की सद्भावना से ओत- प्रोत रहने की सत्प्रेरणाएँ प्रदान करता रहता है। यह अनुदान सभी भौतिक साधनों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। राजा केवल एक सीमित प्रदेश में रहने वाली प्रजा की भौतिक सुरक्षा के लिए ही उत्तरदायी है, पर वानप्रस्थ के कन्धों पर संसार के समस्त मानवों- प्राणियों को न्याय एवं धर्म का प्रकाश उपलब्ध कराना है। भौतिक सुरक्षा की तुलना में आत्मिक प्रगति का मूल्य महत्त्व असंख्य गुना बड़ा है। इसी प्रकार एक सीमित क्षेत्र में रहने वाली प्रजा के साज- सँभाल की तुलना में समस्त विश्व के प्राणियों को सत्प्रेरणा देना कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। अतएव राजा की तुलना में धर्म- सेवी महात्मा का, वानप्रस्थ का पद तथा गौरव भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है, उसको अपना उत्तरदायित्व पूरी सावधानी से, जिम्मेदारी से निभाना है। इसी भावना को हृदयंगम कराने के लिए यह अभिषेक क्रिया की जाती है। समाज के सम्भ्रान्त, धर्मसेवी एवं विचारशील २४ व्यक्ति, जो यह अभिषेक करने खड़े हुए हैं, समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। जल से वानप्रस्थी का अभिषिंचन करते हुए वे लोग समाज की ओर से नई भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं।

क्रिया और भावना- निर्धारित मात्रा में कन्याएँ या संस्कारवान् व्यक्ति कलश लेकर मन्त्रोच्चार के साथ साधकों का अभिषेक करें। भावना करें कि ईश्वरीय ऋषिकल्प जीवन के अनुरूप स्थापनाओं, बीजरूप प्रवृत्तियों को सींचा जा रहा है, समय पाकर वे फूलें- फलेंगी। जीवन के श्रेष्ठतम रस में भागीदारी के लिए परमात्म सत्ता से प्रार्थना की जा रही है, अनुदानों को धारण किया जा रहा है।

ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुवः, ता न ऽऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे। ॐ यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः। ॐ तस्मा अरंगमाम वो, यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः। - ३६.१४

॥ विशेष आहुति॥
अभिषेक के बाद अग्निस्थापना करके विधिवत् यज्ञ किया जाए। स्विष्टकृत् के पूर्व सात विशेष आहुतियाँ दी जाएँ।
भावना की जाए कि युग देवता एक विशाल यज्ञ चला रहे हैं। उस यज्ञ में समिधा, द्रव्य बनकर हम भी सम्मिलित हो रहे हैं, उनसे जुड़कर हमारा जीवन धन्य हो रहा है।
ॐ ब्रह्म होता ब्रह्म यज्ञा, ब्रह्मणा स्वरवो मिताः।
अध्वर्युर्ब्रह्मणो जातो, ब्रह्मणोऽन्तर्हितं हविः स्वाहा।
इदं अग्नये इदं न मम। - अथर्व० १९.४२.१

॥ प्रव्रज्या॥

दिशा एवं प्रेरणा- परिव्राजक का काम है चलते रहना। रुके नहीं, लक्ष्य की ओर बराबर चलता रहे, एक सीमा में न बँधे, जन- जन तक अपने अपनत्व और पुरुषार्थ को फैलाए। जो परिव्राजक लोकमंगल के लिए संकीर्णता के सीमा बन्धन तोड़कर गतिशील नहीं होता, सुख- सुविधा छोड़कर तपस्वी जीवन नहीं अपनाता, वह पाप का भागीदार होता है।
क्रिया और भावना- यज्ञ की चार परिक्रमाएँ चरैवेति मन्त्रों के साथ करें। भावना करें कि हम सच्चे परिव्राजक बनकर गतिशीलों को मिलने वाले दिव्य अनुदानों के उपयुक्त सत्पात्र बन रहे हैं।
१- ॐ नाना श्रान्ताय श्रीरस्ति, इति रोहित शुश्रुम।
पापो नृषद्वरो जन, इन्द्र इच्चरतः सखा। चरैवेति चरैवेति॥

२- पुष्पिण्यौ चरतो जंघे, भूष्णुरात्मा फलग्रहिः। शेरेऽस्य सर्वे पाप्मानः, श्रमेण प्रपथे हताः। चरैवेति चरैवेति॥
३- आस्ते भग आसीनस्य, ऊर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः। शेते निपद्यमानस्य, चराति चरतो भगः। चरैवेति चरैवेति॥
४- कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः। उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं सम्पद्यते चरन्। चरैवेति चरैवेति॥
५- चरन् वै मधु विन्दति, चरन् स्वादुमुदुम्बरम्। सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं, यो न तन्द्रयते चरन्।
चरैवेति चरैवेति॥- ऐत०ब्रा० ७.१५

इसके बाद यज्ञ समापन पूर्णाहुति आदि उपचार कराये जाएँ। अन्त में मन्त्रों के साथ पुष्प अक्षत की वर्षा करें, शुभ कामना- आशीर्वाद आदि दें।
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