
॥ सामान्य प्रकरण॥
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(यज्ञ- संचालन) ॥ मङ्गलाचरणम्॥
यज्ञ कर्म अथवा अन्य धर्मानुष्ठानों को सम्पन्न करने वाले याजकों के आसन पर बैठते समय उनके कल्याण, उत्साह, अभिवर्धन, सुरक्षा और प्रशंसा के लिए पीले अक्षत अथवा पुष्प वर्षा की जाती है, स्वागत किया जाता है। मन्त्र के साथ भावना की जाए कि इस पुण्य कर्म में भाग लेने वालों पर देव अनुग्रह बरस रहा है और देवत्व के धारण तथा निर्वाह की क्षमता का विकास हो रहा है। आचार्य निम्न मन्त्र से यजमान के ऊपर चावल फेंकें।
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा, भद्रम्पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरंगैस्तुष्टुवा सस्तनूभिः,व्यशेमहि देव हितं यदायुः॥ -२५.२१
॥ आचमनम्॥
वाणी, मन और अन्तःकरण की शुद्धि के लिए तीन बार आचमन किया जाता है, मन्त्रपूरित जल से तीनों को भाव स्नान कराया जाता है। आयोजन के अवसर पर तथा भविष्य में तीनों को अधिकाधिक समर्थ, प्रामाणिक बनाने का सङ्कल्प किया जाता है। हर मन्त्र के साथ एक आचमन किया जाए।
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ॥ १॥
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा ॥ २॥
ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि, श्रीः श्रयतां स्वाहा ॥ ३॥
॥ शिखावन्दनम्॥
शिखा भारतीय धर्म की ध्वजा है, जो मस्तकरूपी किले के ऊपर हर भारतीय संस्कृति प्रेमी को फहराते रहनी पड़ती है। इसे गायत्री का प्रतीक भी माना गया है। मस्तिष्क सद्विचारों का केन्द्र है। इसमें देव भाव ही प्रवेश करने पाएँ। भावना करें कि सांस्कृतिक ध्वजा को धारण करने योग्य प्रखरता, तेजस्विता का विकास हो रहा है।
दाहिने हाथ की अँगुलियों को गीला कर शिखा स्थान का स्पर्श करें। मन्त्र बोलने के बाद शिखा में गाँठ लगाएँ। जिनके संयोगवश शिखा नहीं है, ऐसे व्यक्ति तथा महिलाएँ उस स्थान को भावनापूर्वक स्पर्श करें।
ॐ चिदरुपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते।
तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥ -सं.प्र.
॥ प्राणायामः ॥
कमर सीधी, बायाँ हाथ मुड़ा हुआ, हथेली चौड़ी, दाहिने हाथ की कोहनी बायें हाथ की हथेली पर बीचों- बीच, चारों अँगुलियाँ बन्द। अँगूठे से दाहिने नथुने को बन्द करके, बायें नथुने से धीरे- धीरे पूरी साँस खींचना- यह पूरक हुआ। साँस को भीतर रोकना, दायें हाथ की तर्जनी और मध्यमा अँगुलियों से बायाँ नथुना भी बन्द कर लेना, अर्थात् दोनों नथुने बन्द। यह अन्तः कुम्भक हुआ। अँगूठा हटाकर दाहिना नथुना खोल देना, उसमें से साँस को धीरे- धीरे बाहर निकलने देना, यह रेचक हुआ। इसके बाद कुछ समय साँस बाहर रोक देना चाहिए। बिना साँस के रहना चाहिए, इसे बाह्यकुम्भक कहते हैं। इन चार क्रियाओं को करने में एक प्राणायाम पूरा होता है। यह क्रिया कठिन लगे, तो दोनों हाथ गोद में रखते हुए दोनों नथुनों से श्वास लेते हुए पूरक, कुम्भक, रेचक का क्रम नीचे लिखी भावनानुसार पूरा करें।
श्वास खींचने के साथ भावना करनी चाहिए कि संसार में व्याप्त प्राणशक्ति और श्रेष्ठता के तत्त्वों को श्वास द्वारा खींच रहे हैं। श्वास रोकते समय भावना करनी चाहिए कि वह प्राणशक्ति, दिव्यशक्ति तथा श्रेष्ठता अपने रोम- रोम में प्रवेश करके उसी में रम रही है। जैसे मिट्टी पर जल डालने से वह उसे सोख लेती है, उसी तरह शरीर और मन ने प्राणायाम की श्वास जो भीतर पहुँची है, उसकी समस्त श्रेष्ठता को अपने में सोख लिया है। श्वास छोड़ते समय यह भावना करनी चाहिए कि जितने भी दुर्गुण अपने में थे, वे साथ निकल कर बाहर चले गये। इसके उपरान्त कुछ समय बिना श्वास ग्रहण किये रहना चाहिए और भावना करनी चाहिए कि निकलते हुए दोष- दुर्गुणों को सदा के लिए बहिष्कृत कर दिया गया और उनको पुनः वापस न आने देने के लिए दरवाजा बन्द कर दिया गया।
मन्त्रोच्चारण दूसरे लोग करते रहें। याज्ञिक, केवल प्राणायाम विधान पूरा करें। यह प्राणायाम अपने भीतर शरीरबल, मनोबल और आत्मबल की वृद्धि के लिए है। दोष- दुर्गुणों के निवारण, निष्कासन के लिए उन्हीं भावनाओं के साथ उसे करना चाहिए।
ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम्। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ। - तै०आ० १०.२७