• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • प्राक्कथन
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-2
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-3
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-4
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-5
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-6
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-8
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-8
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -1
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -2
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -3
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -4
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -5
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -6
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-1
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-2
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-3
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-4
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-5
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-6
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-1
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-2
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-3
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-4
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-5
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-6
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-7
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-8
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -1
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -2
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -3
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -4
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -5
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -6
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -7
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -8
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -9
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -10
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-1
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-2
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-3
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-4
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-5
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-6
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-7
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-8
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-1
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-2
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-3
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-4
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-5
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-6
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-7
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-8
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-9
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • प्राक्कथन
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-2
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-3
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-4
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-5
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-6
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-8
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-8
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -1
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -2
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -3
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -4
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -5
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -6
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-1
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-2
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-3
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-4
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-5
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-6
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-1
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-2
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-3
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-4
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-5
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-6
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-7
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-8
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -1
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -2
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -3
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -4
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -5
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -6
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -7
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -8
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -9
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -10
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-1
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-2
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-3
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-4
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-5
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-6
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-7
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-8
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-1
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-2
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-3
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-4
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-5
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-6
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-7
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-8
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-9
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - प्रज्ञा पुराण भाग-2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT TEXT SCAN TEXT TEXT SCAN SCAN


।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -2

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 9 11 Last
आश्वालयन उवाच- 
एक एव तु धर्मेऽस्ति भद्र: निर्धार्यतामिदम्।  सर्वेभ्यश्च समान: स कर्तव्यं व्यक्तिगं च तत् ।। १७ ।।  सामाजिकं च दायित्वं मन्तव्यं पुरुषैरिह ।  औत्कर्ष्यं चिन्तस्यैवं शालीन्यं व्यवहारगम्  ।। १८ ।।  चरित्रादर्शवादित्वं त्रयमेतत्समन्वितम् । उच्यते धर्म इत्येवमृषिभिर्दिव्यदृष्टिभि: ।। ११ ।। 
टीका-आश्वलायन ने कहा-''भद्र ! धर्म एक ही है । वह सब मनुष्यों के लिए एक जैसा है । उसे व्यक्तिगत कर्तव्य और सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह समझा जाना चाहिए । दिव्य दृष्टि संपन्न ऋषि चिंतन की उत्कृष्टता, चरित्र की आदर्शवादिता और व्यवहार की शालीनता के समन्वय को धर्म कहते हैं ।।१७- ११।। 
अर्थ-धर्म की गरिमा भावना क्षेत्र को दिशा देने के कारण सर्वोपरि मानी गयी है । व्यक्तित्व का गठन एवं परिष्कार धर्म के स्वरूप पर निर्भर है । धर्म मात्र एक एवं शाश्वत ही हो सकता हैं । मानवी अंत: करण में उद्यस्तरीय आस्था जमाना विचारों में सदाशयता जोड़ना जिसका लक्ष्य हो, वह सारे विश्वासियों के लिए सार्वभौम रहेगा, समाजगत अथवा वर्ण-जाति गत विभाजनों के अनुरुप बदलेगा नहीं । वह भली-भाँति समझ लिया जावा चाहिए कि भावना एवं विचारणा ही व्यक्ति की मौलिक संपदा एवं क्षमता है । इन्हीं का महत्व सर्वोध हैं । मानव के अन्दाज- पतन की भूमिका सूत्र संचालन यहीं से होता है । यदि क्रिया-प्रक्रिया को नीति निष्ठा युक्त बनाने वाले धर्म का प्रारूप ही बदलने लगें तो नैतिकता समाज से लुप्त हो जाएगी । जहाँ धर्म है वहीं नीति का, सदाचार का, श्रेष्ठता का निवास है । संप्रदायगत विभाजनों से सामान्य जनों को भ्रमित नहीं होना चाहिए अपितु धर्म के सार्वभौम शाश्वत स्वरूप को समझने, व्यवहार में उतारने का प्रयास करना चाहिए । 
धर्म का उद्देश्य स्वत: पूरा हो जाता है, जब व्यक्ति उदात्त चिंतन अपनाने, संकीर्ण स्वार्थपरता त्यागने एवं विभूतियों को समाज कल्याण हेतु समर्पित करने को उद्यत हो जाता है । 
पुष्प की नीति-निष्ठा 
महर्षि जाववलि ने उस पर्वत पर ब्रह्म कमल खिला देखा । शोभा और सुगंध पर मुग्ध होकर ऋषि सोचने लगे उसे शिवजी के चरणों में चढ़ने कां सौभाग्य प्रदान किया जाय । ऋषि के समीप आया देख पुष्प प्रसन्न तो हुआ; पर साथ ही आश्चर्य व्यक्त करते हुए आगमन का कष्ट उठाने का कारण भी पूछा ।
जावालि बोले-''तुम्हें शिव सामीप्य का श्रेय देने की इच्छा हुई तो अनुग्रह के लिए तोड़ने आ पहुँचा ।'' 
पुष्प की प्रसन्नता खिन्नता में बदल गई । उदासी कां कारण महर्षि ने पूछा तो फूल ने कहा-''शिव सामीप्य का लोभ संवरण न कर सकने वाले कम नहीं । फिर देवता को पुष्प जैसी तुच्छ वस्तु की न तो कमी है और न इच्छा । 
ऐसी दशा में यदि मैं तितलियों- मधुमक्खियों जैसे क्षुद्र कृमि-कीटकों की कुछ सेवा-सहायता करता रहता, तो क्या बुरा था । आखिर इस क्षेत्र को खाद की भी तो आवश्यकता होगी जहाँ मैं उगा और बढ़ा ।'' 
ऋषि ने पुष्प की भाव-गरिमा को समझा और वे भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उसे यथास्थान छोड़कर वापस लौट आये ।
 अश्वसेन का वाण बनना 
अनीति नहीं नीति पर चलकर ही व्यक्ति धर्म परायण कहलाता है । कर्ण कौरवों की सेना में होते हुए भी महान धर्म निष्ठ योद्धा थे। श्रीकृष्ण तक उनकी प्रशंसा करते थे । महाभारत युद्ध में कर्ण ने अर्जुन को मार गिराने की प्रतिज्ञा की थी । उसे सफल बनाने के लिए खांडव वन के महासर्प अश्वसेन ने यह उपयुक्त अवसर समझा । अर्जुन से वह शत्रुता तो रखता था पर काटने का अवसर मिलता नहीं था । वह बाण बनकर कर्ण के तरकस में जा घुसा, ताकि जब उसे धनुष परं रख कर अर्जुन तक पहुँचाया जाय, तो काट कर प्राण हर ले । 
कर्ण के वाण चले । अश्वसेन वाला वाण भी । कृष्ण ने वस्तुस्थिति को समझा और रथ घोड़े जमीन पर बिठा दिए । वाण मुकुट काटता हुआ ऊपर से निकल गया। 
असफलता पर क्षुब्ध अश्वसेन प्रकट हुआ और कर्ण से बोला-''अबकी बार अधिक सावधानी बरतना, साधारण तीरों की तरह मुझे न चलाना । इस बार अर्जुन का बध होना ही चाहिए । मेरा विष उसे जीवित रहने न देगा ।'' 
इस पर कर्ण को भारी आश्चर्य हुआ । उसने उस काल सर्प से पूछा-''आप कौन हैं और क्यों अर्जुन को मारने में इतनी रुचि रखते हैं ?''
सर्प ने कहा-''अर्जुन ने एक बार खांडव वन में आग लगाकर मेरे परिवार को मार दिया था, सो उसका प्रतिशोध लेने के लिए मैं व्याकुल रहता हूँ । उस तक पहुँचने का अवसर न मिलने पर आपके तरकस में वाण रूप में आया हूँ ।आपके माध्यम से अपना आक्रोश पूरा करूँगा ।'' 
कर्ण ने उसकी सहायता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए वापस लौट जाने के लिए कहा-''भद्र ! मुझे अपने ही पुरुषार्थ से नीति-युद्ध लड़ने दीजिए । आपकी अनीतियुक्त छद्म सहायता लेकर जीतने से तो हारना अच्छा ।'' 
काल सर्प कर्ण की नीति-निष्ठा को सराहता हुआ वापस लौट गया । उसने कहा-''कर्ण तुम्हारी यह धर्म निष्ठा ही सत्य है, जिसमें अनीतियुक्त पूर्वाग्रह को, छद्म को कहीं स्थान नहीं ।'' 
महा पंडित को आत्मबोध 
जब उत्कृष्टता व्यक्ति के व्यवहार में उतरने लगती है तो धर्म निष्ठा स्वत: प्रकट हो जाती है । मगध के राजा सर्वदमन को राजगुरु की नियुक्ति अपेक्षित थी । वह स्थान बहुत समय से रिक्त पड़ा था । एक दिन महा पंडित दीर्घ लोभ उधर से निकले । राजा से भेंट-अभिवादन के उपरांत महापंडित ने कहा-''राजगुरु का स्थान आपने रिक्त छोड़ा हुआ है । उचित समझें तो उस स्थान परं मुझे नियुक्त कर दें । 
राजा बहुत प्रसन्न हुए । साथ ही एक निवेदन भी किया । आपने जो ग्रंथ पढे़ हैं कृपया एक बार सबको फिर पढ़ लें । इतना कष्ट करने के उपरांत आपकी नियुक्ति होगी । जब तक आप आवेंगे नहीं वह स्थान रिक्त ही पड़ा रहेगा । 
विद्वान वापस अपनी कुटी में चले गए और सब ग्रंथ ध्यान पूर्वक पढ़ने लगे । जब पढ़ लिए तो फिर नियुक्ति का आवेदन लेकर राज दरबार में उपस्थित हुए । 
राजा ने अबकी बार फिर और भी अधिक नम्रतापूर्वक एक बार फिर उन ग्रंथों को पढ़ लेने के लिए कहा । दीर्घलोभ असमंजस पूर्वक फिर पढ़ने के लिए चल दिए । 
नियत अवधि बीत गई । पर पंडित वापस न लौटे । तब राजा स्वयं पहुँचे और न आने का कारण जानने लगे । 
पंडित ने कहा-''गुरु अंतरात्मा में रहता है। बाहर के गुरु काम चलाऊ भर होते हैं । आप अपने अंदर के गुरु से परामर्श लिया करें । 
राजा ने नम्रतापूर्वक पंडित जी को साथ ले लिया और उन्हें राजगुरु के स्थान पर नियुक्त किया । बोले-''अब आपने शास्त्रों का सार जान लिया, इसलिए आप उस स्थानं को सुशोभित करें । 
धर्म का अर्थ मात्र कथा वाचन कर्मकांड भर समेट लेना नहीं, अपितु उसके अनुरूप आचरण करना भी है । दिव्यदर्शी ऋषियों ने इसी कारण आदर्शवादी चरित्र निष्ठा को धर्म का पर्यायवाची माना है । 
धर्म का सही अर्थ 
एक शिष्य को अपने धर्मनिष्ठ होने का अभिमान हो गया । गुरुजी ताड़ गए । धर्म को सही मर्म समझाने के लिए वे एक दिन एक सद्गृहस्थ के घर ठहरे । कृषक एक आम लाया था, उसने उसे अपनी धर्मपत्नी को दे दिया । बेचारी धर्म-पत्नि ने भी उसे खाया नहीं, छोटे बच्चे को दे दिया । बच्चे ने आम गुरु चरणों में समर्पित किया तो गुरु ने शिष्य को बताया-"वत्स ! धर्म का यह है सही अर्थ ।'' 
त्रिवेणी संगमं चैनमवगाहन्त एव ये ।  कायाकल्पमिवात्रैते लाभं विन्दन्ति मानवाः  ।। २० ।।  ते मानवशरीरस्था देवा इव सदैव च ।  श्रेय: सम्मानमत्यर्थं विन्दन्त्यानन्दमुत्तमम् ।। २१ ।।  भूय एव वदाम्येतद् धर्म एक इहोदित: ।।  समानश्चापि सर्वेभ्यो मनुष्येभ्य: स वर्तते ।। २२ ।।
टीका-इस त्रिवेणी संगम का अवगाहन करने वाले काया-कल्प जैसा लाभ अर्जित करते हैं । उन्हें मनुष्य शरीर में रहते हुए भी देवताओं जैसा श्रेय-सम्मान और आनंद मिलता है । मैं फिर कहता हूँ कि धर्म अनेक नहीं एक है । वह सभी मनुष्य मात्र के लिए एक जैसा है ।। २० -२२ ।। 
अर्थ-ऋषि श्रेष्ठ ने उत्कृष्ट चिंतन, आदर्शवादी चरित्र एवं शालीनता युक्त व्यवहार के समन्वय को त्रिवेणी संगम के समाज पवित्र मानते हुए धर्म के इस स्वरूप को अपनाने वाले का कायाकल्प होने की व्याख्या यहाँ की है । वास्तविक त्रिवेणी यही है जो हमारे अंत: में विराजती है । मानस में 'काक होहिं पिक बकहुँ मसला' के माध्यम से इसी की महत्ता बतायी गयी है । धर्म धारणा का जितना अच्छा स्पष्टीकरण इन तीन सूत्रों के माध्यम से होता दिखायी देता है, ऐसा किसी अन्य व्याख्या में दृष्टिगोचर नहीं होता । मनुष्य मात्र एक हैं, धर्म का स्वरूप शाश्वत है, वह भी एक है । गुण कर्म, स्वभाव में यदि परिवर्तन न हो तो धर्म संबंधी सारे बाह्य उपकरण, शास्त्र-ग्रंथादि मात्र आडंबर बन कर रह जाते हैं। जो इस तत्व दर्शन को हृदयंगम कर उन पर चलने का प्रयास करते हैं, वे विदित ही धर्म परायण कहे जा सकते हैं । 
राजा परीक्षित और देव कन्याएँ 
छोटे-बडे़ का इसमें कोई भेद- भाव नहीं। चिंतन की श्रेष्ठता, चरित्र-निष्ठा और शालीनता ही यथार्थ धर्म है । राजा परीक्षित वन-विहार में भटक गए । बहुत तलाश करने पर प्यास बुझाने के लिए एक सरोवर मिला । घोड़े से उतरकर पानी पीने के लिए आगे बढे़, तो देखा कई युवा देवकन्याएँ जलाशय में निर्वस्त्र होकर सान कर रही है । राजा लज्जावश पीछे लौट आये और पेड़ की ओट में छिपकर उनके चले जाने की प्रतीक्षा करने लगे ।
इतने में ही देखा कि उधर से मुनि शुकदेव आए । आयु में युवक, वस्त्र विहीन। वे भी उसी सरोवर में समीप ही स्त्रान करते रहे । देवकन्याओं ने इस पर कोई आपत्ति नहीं की । शुकदेव चले गए ।
कुछ देर उपरांत वयोवृद्ध व्यास सरोवर तट पर पहुँचे, उन्हें पानी भर पीना था । वल भी पहने थे । उन्हें देखते ही देवकन्याएँ भागीं और कपड़े लपेट कर झाड़ी की आड़ में तब, तक छिपी रहीं, जब तक किं व्यास चले न गए ।
निवृत्त होकर कन्याएँ जब चलने लगीं, तो परीक्षित ने अपना कौतूहल निवारण के लिए पूछा-''आप लोगों ने निर्वस्त्र युवा शुकदेव के समीप स्नान से भी कोई आपत्ति नहीं की; किन्तु वस्त्रधारीं वयोवृद्ध व्यास को देखकर इस प्रकार क्यों भागी?'' 
कन्याओं ने उत्तर दिया-''राजन् हम दोनों की मन स्थिति और पूर्व इतिहास को जानते हूँ । शुक निर्विकार थे । और व्यास के पूर्व कृत्य अभी भी कुसंस्कारों के रूप में छिपे पड़े थे । महत्व परिस्थिति का नहीं मन:स्थिति का होता है । 
बाह्य आचरण कैसा भी हों, व्यक्तिं अंदर से वैसा सुसंस्कारी हैं या नहीं, इस पर ही उसका मूल्यांकन किया जाता है । 

एक हाथ में माला एक हाथ में भाला
समायानुकूल जब जैसी परिस्थितियाँ आती हैं, धर्म का उद्देश्य एक होते हुए भी बाह्य स्वरूप बदल जाता है । उस समय कोई कर्मकांडों के पूर्वाग्रहों पर अड़ा रहे, युग की परिस्थितियों को न पहचाने तो उसे दिग्भ्रांत ही कहा जा सकता है । 
मध्यकालीन संतों को भजन-कीर्तन की सनक थी । विदेशियों के आक्रमण से सारा देश पराधीन हो गया था । उनकी सामना करने की उमंगों को भगवान की तथाकथित भक्ति बुझा देती । सोमनाथ मंदिर इसी कारण देखते-देखते लुट गया था । 
गुरु गोविंदसिंह ने गहराई के साथ विचार किया और सज्जनों से सत्संग, दुखियों की सेवा और आतताइयों से संघर्ष की नीति अपनाई । 'एक हाथ में माला, एक हाथ में भाला का सिद्धांत उनने अपने शिष्यों को समझाया । एक बड़ा संगठन इसी आधार पर खड़ा कर लिया और उसके माध्यम से आक्रमणकारियों के विरुद्ध करारा लोहा लिया । फलत: जो कार्य वे सरल समझते रहे थे, वह कठिन हो गया । आक्रांताओं के बढ़ते हुए पैर थम गए । संघर्ष में उनके पुत्र, शिष्य तथा सहयोगी बड़ी संख्या में काम आये । पर उसका प्रतिफल यह हुआ कि आक्रमणकारियों को अपनी नीति बदलनी पड़ी और पीछे हटना पड़ा। 
संत ने इस परिपाटी को नीति सम्मत बनाते हुए अन्य अनेक को दिशा दी, उन्हें कर्तव्यों के प्रति सचेत किया । 
वर्तते शाश्वतो देवविहित: स सनातन: । सुयोजित: स मर्त्यस्य नूनमत्रान्तरात्मनि ।। २३ ।।  प्रियानुभूतिर्धर्म: स आत्मनो विद्यते तथा ।  जगन्मङ्गलमूलश्च निर्णय: परमात्मन: ।। २४ ।।  एक: सः स्वयमेवाऽपि पूर्ण एव च विद्यते ।  खण्डशो भवितुं नैव सोऽर्हतीत्येव चिन्त्यताम् ।। २५ ।।  कालानुसारं क्षेत्राणामनुसारमपीह च । वर्गानुसारं वा धर्मपारम्पर्यमनेकधा ।। २६ ।।  दृश्यते यत्र धर्म: सं सम्प्रदायों मतोऽथवा । पक्ष एव मत: साक्षान्मर्त्यभेदकरोऽशुभ: ।। २७।। 
टीका-वह शाश्वत, सनातन और ईश्वरकृत है । उसे मनुष्य की अंतरात्मा में संजोया गया है । वस्तुत: धर्म तो आत्मा की पुकार है, ईश्वर का निर्णय है और विश्व- कल्याण का वास्तविक कारण है । वह एक और अपने में समग्र है । उसके खंड नहीं हो सकते हैं- यह दृढ़ता से समझ लो । क्षेत्र, समय, वर्ग के आधार पर जो धर्म परंपरायें चलती हैं, वे सम्प्रदाय कहलाती हैं । मत, पक्ष तो अनेक हैं ।। २३-२७ ।।  
भगवान बुद्ध के उपदेश 
भगवान बुद्ध का जब मरणकाल निकट आया, तब उन्होंने अपने शिष्यों को आकर कुछ उपदेश दिए । उन्होंने कहा- ''तुम साम्यवादी संकीर्णता से दूर रहकर सच्चे धर्म का पालन करना । धर्म मनुष्य को मर्यादाओं में रखता है और शालीन बनाता है । बिना तट की सरिता उच्छृंखल होकर अपना और सबका विनाश करती है । धर्म के सीमा बंधन तोड़ना मत ।'' 
''परस्पर एक होकर रहना । कारण कुछ भी हो पृथकतावाद मत अपनाना । जो तुम में फूट डाले उनसे सतर्क रहना और उन्हें कभी क्षमा मत करना ।'' 
''जहाँ रहते हो उसे पथ विश्राम मात्र मानना । तुम्हारा घर तो वहाँ है, जहाँ जीवन लक्ष्य पूर्ण होता है। रास्ते के साथियों से मिलना जरूर पड़ावों पर ठहरना भी, पर उनके साथ इतने मत उलझ जाना कि मंजिल ही भूल जाये ।'' 
''भिक्षुओ! बोलना कम, करना ज्यादा । जितना ज्यादा बोलोगे उतना ही तुम्हारा सम्मान गिरेगा । उथले लोग ही बहुत बकवास करते हैं । तुम जो बोलो-ठोस, मर्यादित, थोडा़, अनुभूत औरविश्वासपूर्वक बोलना । उस थोड़े से भी बड़ा प्रयोजन सधेगा ।'' 
उपासना, साधना, आराधना ही सच्चा धर्म
माला फेरने और किसी देवी-देवता का भजन करने मात्र से कोई धार्मिक नहीं बन सकता । एक ब्राह्मण पूजा-उपासना करके सिद्धियों प्राप्त करने के निमित्त गंगातट पर चला गया; घर का काम छोड़ दिया और भिक्षा से दिन काटने लगा । 
उधर से एक दूरदर्शी ऋषि गुजरे । ब्राह्मण की मान्यता और क्रिया देखकर दु:खी हुए, उसे समझाने का उपाय सोचने लगे । 
नदी में मुट्ठी- मुट्ठी बालू डालने लगे वह ब्राह्मण यह कौतुक देखता रहा और निकट आकर बोला-''यह क्या कर रहे है ?'' 
ऋषि ने कहा-''नदी पार जाने के लिए पुल बना रहा हूँ ।'' 
ब्राह्मण हँसा और बोला-''इस प्रकार थोड़े ही बनेगा । इसके लिए साधन, श्रम, धन और कौशल चाहिए । यह सब जुटायें तभी बात बनेगी ।'' 
अब संत की बन आयी । उनने कहा-'' आप भी मात्र भजन के सहारे सिद्धियाँ पाने के लिए मात्र पूजा तक अवलंबित न रहें, आत्म शोधन और लोक सेवा की बात भी सोचे । इससे कम में आपका मनोरथ भी पूरा होने वाला नहीं है । '' 
ऋषि सांकेतिक शिक्षा देकर चले गए । ब्राह्मण ने नयी कार्य-पद्धति अपनायी और उपासना के साथ साधना-आराधना के तत्व भी जोड़कर सच्चे धर्मावलंबी बने । 
ईश्वर के बारे में कहा गया है-''एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति''-वह ( ईश्वर) तो एक ही है, लोग उसे भिन्न-भिन्न रूप में समझते व बताते रहते हैं । जो बात ईश्वर के विषय में सत्य है, वही धर्म-धारणा के लिए शाश्वत सनातन है । धर्म एक है उस तक पहुँचने के मार्ग भिन्न-भिन्न हो सकते है । धर्म को, ईश्वर को विभिन्न रूपों में देखने वाले स्वयं तो चिंतन को उलझाते ही हैं, उनके कर्तव्य मान्यताओं की कट्टरता एवं विचारों की संकीर्णता के लिए अहितकर ही सिद्ध होते हैं । 
मत, पक्ष, उपासनायें अलग-अलग हो सकती हैं, धर्म की मूलभूत आकांक्षा मनुष्य मात्र के लिए एक ही है, शेष सभी उसके उपादान मात्र हो सकते हैं । उपादानों को ही श्रेष्ठ मानकर झगड़ना धर्मनिष्ठा नहीं हो सकती । इसी विडंबना का नाम सम्प्रदाय है । 
महा याजक शाल्वनेक का अनायास ही आगमन हुआ । श्रेष्ठि उदयन ने उनका समुचित स्वागत-सत्कार किया । दूसरे दिन ज्ञान दीक्षा का क्रम चल पड़ा । 
महा याजक ने अपनी अनेक संग्रहीत विद्याओं का परिचय देते हुए उदयन से पूछा वे जिसमें भी रुचि रखते हों, उसके संबंध में पूछें और प्राप्त करें । 
श्रेष्ठि ने पूछा-''क्या ऐसा संभव है, आपने जो-जो जाना है, उन सबके मूल आधार को ही मुझे प्रदान करने का अनुग्रह कर दिया जाय ?'' 
आत्मज्ञान से सर्वज्ञता 
महा याजक असमंजस में पड़े धीरे-धीरे सिर हिला रहे थे । उनकी कठिनाई दूर करने के लिए उदयन ने घर में प्रयुक्त होने वाले अनेक पात्र, उपकरण प्रस्तुत कर दिए और फिर पूछा-''देव ! इन सबको क्या एक ही रथ में भर कर नहीं ले जाया जा सकता ।'' शाल्वनेक की आँखें खुल गयीं । उन्होंने नव-चेतना अनुभव की और कहा-''ऐसा हो सकता है । एक ही आत्म-ज्ञान के समुद्र में ज्ञान की समस्त सरिताओं का समावेश हो सकता है । मैं अब उसी को उपलब्ध करूँगा और जब प्राप्त कर सकूँगा, तो आपको ज्ञान दीक्षा का साहस करूँगा ।'' 
सच्चे धर्म प्रचारक-फादर जिम्मी 
क्रेप ब्रिटोन द्वीप में जन्मे एक कृषक परिवार के जेम्स थापकिन्स ने पादरी बनने का निश्चय किया । जब वे सेंट फ्रांसिस विद्यालय की पढ़ाई पूरी कर चुके तो उन्हें कनाडा के नीवास्कोटियर क्षेत्र में गरीब जनता के बीच धर्म प्रचार करने भेजा गया। वह क्षेत्र अत्यंत पिछड़े हुए मछुओं और गरीबों से भरा हुआ था । जेम्स ने उस क्षेत्र में जाकर उसकी गरीबी, बीमारी तथा तबाहियों से छुड़ाने वाले काम करने आरंभ कर दिए । चर्च का निर्धारित कार्यक्रम पीछे रह गया । उनने वहाँ की जनता की भौतिक स्थिति सुधारने का काम हाथ में लिया । इसके लिए सूदखोरों और जमींदारों से झगड़ना भी पड़ा । 
बड़े पादरी जब उनका कार्य देखने आये तो धर्म प्रचार गौण और सुधार आंदोलन आगे पाया । इस पर नाराजी व्यक्त की गई तो उसने उत्तर दिया कि मेरी जगह यदि आप होते तो भी यही करते । 
जेम्स को वहाँ की जनता फादर जिम्मी कहती थी और उन्हें अपना त्राता मानती थी । वे उस क्षेत्र में ईसाई धर्म फैलाने में भी बहुत सफल हुए । 
गुरु के सच्चे शिष्य द्वारा धर्म की सेवा
रामकृष्ण परमहंस के संपर्क से नास्तिक नरेन्द्र को ऋषि कल्प स्वामी विवेकानंद बनने का अवसर मिला । परमहंस जी ने उन्हें व्यक्तिगत जीवन न जीकर लोक कल्याण के लिए जीवन समर्पित करने की प्रेरणा दी और उन्हें सच्चे अर्थों में संत बनाया । 
उन दिनों शिक्षित समुदाय विदेशी आक्रांताओं के संपर्क में आकर नास्तिकतावादी बनता जा रहा था । विद्यार्थियों पर विशेष रूप से उसका प्रभाव पड़ता था । इन परिस्थितियों में उनने भारतीय धर्म-देव संस्कृति की विशेषता से न केवल देशवासियों को परिचित कराया, वरन् देश-देशांतरों में परिभ्रमण करके अनेक देशों को प्रभावित किया । उनके झकझोरने से देशी-विदेशी विद्वानों ने, जन साधारण ने नये सिरे से अध्याय आरंभ किया । 
उनकी योजनानुसार देश-देशांतरों में रामकृष्ण मिशन बने, जिनके द्वारा स्थायी रूप से वहाँ सेवा-साधना और तत्वज्ञान प्रसार का काम होता रहा । वे मात्र ३१ वर्ष जिये । पर इतने स्वल्प काल में अपनी लगन और तत्परता के कारण विश्व धर्म, मानव धर्म की इतनी सेवा कर सके, जितनी कि ३६० वर्षों में भी संभव नहीं । 
धर्म सेवी हर्षवर्धन 
राजा हर्षवर्धन स्थानेश्वर के शासक थे । उन्हें विवशता में आक्रांताओं से जूझना और परास्त करने का कदम भी उठाना पड़ा । पर वस्तुतः उनकी सम्पदा, क्षमता और कल्पना धर्मोत्कर्ष में निरंतर लगी रही । हर पाँचवे वर्ष वे समस्त सम्प्रदायों के धर्मावलंबियों को एकत्रित करते, जिससे फूट-फिसाद छोड़कर मिल-जुल कर धर्म भावनाओं को आगे बढ़ा सकना संभव हो सके । तक्षशिला विश्वविद्यालय की व्यवस्था विशेष रूप से उन्होंने इसीलिए की थी । 
उनके राज्य की आजीविका भी धर्म कार्यों में ही लगती थी । उन दिनों प्रगतिशील बौद्ध धर्म ही माना जा रहा था । उनने समय के अनुरूप विवेक और आदर्श को महत्व देते हुए बौद्ध धर्म का ही परिपोषण किया एवं अपना सब कुछ धर्म-धारणा के परिपोषण हेतु, मूढ़ मान्यताओं के निवारण हेतु प्रचार कार्य में नियोजित कर दिया । 
मौलाना की सच्ची धर्मनिष्ठा 
सन् १९२१ के कांग्रेस द्वारा आरंभ किए गए असहयोग आंदोलन में हिन्दू-मुसलमान एकता के जो दृश्य दीख पड़े उससे अंग्रेजी सरकार घबरा गई । आंदोलन ठंडा होने पर सरकार ने फुट डालो राज करो' की नीति को तेजी से चरितार्थ करने की कूटनीति अपनायी । हजारों की संख्या में किराये के गुंडे नौकर रखे गए थे । उनका काम था किसी न किसी बहाने किसी कौम को भड़काना और दंगा कराना । जान-माल की हानि तो होती ही थी, दोनों वर्गों के बीच खाई चौड़ी होने लगी और अंग्रेजों के मन चीते हुए ।नेता भी बँट गए और जनता में भी अपने-अपने वर्ग का पक्षपात घर कर गया। स्थिति बड़ी विपन्न थी । 
इस स्थिति में पटना के मौलाना मजरुलहक निकले और उन्होंने स्थान- स्थान पर एकता सभायें कीं । दंगों की आग पर पानी डाला और विद्वेष के दुष्परिणामों को समझाया । बहुत से लोग समझे भी; पर कुछ उन्मादी उनके शत्रु हो गए । जान से मार देने की धमकियाँ आये दिन मिलने लगीं । एक दिन तो गुंडों ने उन्हें घेर भी लिया और छुरे से जान लेने पर उतारू हो गए; पर उनकी ओजस्विता, निर्भीकता के सामने सशस्त्र होते हुए भी ठहर न सके । मौलाना अगले कांग्रेस आंदोलन की पृष्ठभूमि बनाते और हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए प्राण प्रण से प्रयत्न करते । इस कार्य में उन्हें सफलता तो मिली ही, मौलाना का प्रयत्न गणेश शंकर विद्यार्थी की तरह सदा अजर-अमर हो गया । 
गधे की कारिस्तानी 
धर्मनिष्ठा को आचरण की गरिमा में देखना चाहिए । मात्र प्रवचन कर लेने, पांडित्य अर्जित कर लेने का नाम धर्म नहीं । कहते हैं-सृष्टि के आरंभ में गधा बहुत ही सौम्य स्वभाव का होने के कारण सम्मानास्पद प्राणियों में गिना जाता था । परमात्मा को अपने दरवार में पशुओं का भी एक प्रतिनिधि रखना उचित प्रतीत हुआ, उनने इसके लिए गधे की नियुक्ति कर दी । 
उन दिनों सृष्टि का नियत क्रम चलाने के लिए भगवान उपासना की नीति की एकं शास्त्र संहिता रच रहे थे । कागज तब तक नहीं था, पत्तों पर वह लेखन कार्य चल रहा था । संहिता के अनेक पृष्ठ अश्वत्थ पत्रों पर लिखे जा चुके 
एक रात को जब कि सब लोग गहरी निद्रा में सोये पड़े थे तब गधे को सूझी कि इन कोमल पत्रों का स्वाद चखा जाय । वह चुपके से उठा और एक-एक करके सब पत्रों को खा गया । दूसरे दिन सबेरे जब भगवान आगे का लेखन-कार्य आरंभ करने को उद्यत हुए तो देखा कि अब तक के लिखे सब पत्र गायब है । 
तहलका मच गया । तलाश की गई तो वह गधे की कारिस्तानी निकली । इतने परिश्रम को इस प्रकार मटियामेट हुआ देखकर भगवान को बड़ा क्रोध आया और उस बुद्धिहीन प्राणी को स्वर्ग से निकाल बाहर करने की आरा दे दी । 
गधे को स्वर्ग से धकेला गया, तो वह पृथ्वी पर आ गिरा । चोट तो बहुत लगी, दु:ख भी हुआ, पर अंत में उसने यह सोचकर संतोष कर लिया कि परमात्मा का सारा ज्ञान मेरे पेट में मौजूद है ।
गधे ने चिल्ला-चिल्ला कर लोगों से कहना आरंभ किया । परमात्मा का सारा ज्ञान पेट में मौजूद है, जो चाहते हो मुझसे पूछो, मेरी बात मानो और जिधर चलने को मैं कहूँ उधर चलो । 
कुछ लोगों ने गधे की बात सच मानी और उसके कहने पर चलने लगे । पर बहुतों को उसकी बात जँची नहीं और उसे बेवकूफ बनाकर हँसते हुए अपने घर चले गए । 
रोज इसी प्रकार बकता-झकता समय आने पर गधा मर गया, पर कहते हैं कि उसकी आत्मा अभी भी अपने रास्ते पर चल रही है । अनेक धर्म-गुरुओं के सिर पर चढ़कर यही कहलवाती रहती है कि जो हम जानते हैं, वही सब कुछ है, हमारी बात सुनो, हमारी बात मानो और हमारे पीछे चले चलो । 
First 9 11 Last


Other Version of this book



प्रज्ञा पुराण भाग-2
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-3
Type: TEXT
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-4
Type: TEXT
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग 3
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-4
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books



गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • प्राक्कथन
  • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्
  • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-2
  • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-3
  • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-4
  • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-5
  • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-6
  • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-8
  • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-8
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -1
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -2
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -3
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -4
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -5
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -6
  • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-1
  • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-2
  • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-3
  • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-4
  • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-5
  • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-6
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-1
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-2
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-3
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-4
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-5
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-6
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-7
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-8
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -1
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -2
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -3
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -4
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -5
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -6
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -7
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -8
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -9
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -10
  • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-1
  • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-2
  • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-3
  • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-4
  • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-5
  • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-6
  • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-7
  • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-8
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-1
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-2
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-3
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-4
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-5
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-6
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-7
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-8
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-9
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj