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Books - प्रज्ञा पुराण भाग-2

Media: TEXT
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॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-9

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First 56 58 Last
धर्मस्य धारणायोञ्च युग्मैरन्यै समं समे । जानन्तु पञ्चमं युग्मं महत्वमहितं भुवि॥८६॥ धर्म आचरणस्यापि विषये विद्यते यत:। क्रियायां परिणतं ने च कुर्वते मानवास्तत: ॥८७॥ कथनेनाऽथवा लोके श्रवणेन तु केवलम्। प्राप्यते ज्ञानमात्रं तु दिशाबोधश्च जायते ॥८८॥ धर्मचर्चाऽनिवार्याऽत: समैरेव मता परम् । पर्याप्ता नैव नूनमाचारेण बिना भुवि॥८९॥
टीका-धर्मधारणा के अन्य चार युग्मों की भाँति यह पाँचवाँ युग्म भी अतीव महत्वपूर्ण है । धर्म आचरण का विषय है । उसे कर्म में परिणत किया जाता है । कथन-श्रवण से तो जानकारी प्राप्त होती और दिशा मात्र मिलती है। अतएव धर्मचर्चा को आवश्यक तो समझा गया है पर उसे आचरण में लाए बिना पर्याप्त नहीं माना गया॥८३-८६॥ 
अर्थ-धर्म वस्तुत: पढ़ने भर की वस्तु नहीं, वह तो महानता का आचरण है। उसे अपनाने से ही धर्मधारणा परिपक्व होती है और सिद्धि प्राप्त होती है ।
पढे़ं नहीं, आचरण में उतारें
मगध के राजा सर्वदमन को राजगुरु की नियुक्ति अपेक्षित थी । एक दिन एक महापंडित दीर्घलोभ उधर से निकले । राजा से भेंट-अभिवादन के उपरांत पंडित ने कहा-"राजगरु का स्थान आपने रिक्त छोड़ा हुआ है । उचित समझें तो उस स्थान पर मुझे नियुक्त कर दें ।"
राजा बहुत प्रसन्न हुए, साथ ही एक निवेदन भी किया-"आपने जो ग्रंथ पढ़े हैं, कृपया एक बार उन सबको फिर पढ़ लें । इतना कष्ट करने के उपरांत आपकी नियुक्ति होगी । जब तक आपु आवेंगे नहीं, वह स्थान रिक्त ही पड़ा रहेगा ।"
विद्वान् वापस अपनी कुटी में चले गए और सब ग्रंथ ध्यानपूर्वक पढ़ने लगे । जब पड़ लिए, तो नियुक्ति काआवेदन लेकर फिर दरबार में उपस्थित हुए ।
राजा ने अबकी बार और भी नम्रतापूर्वक एक बार फिर उन ग्रंथों को पढ़ लेने के लिए कहा । दीर्घ लोभअसमंजसपूर्वक फिर पढ़ने के लिए चल दिए ।
नियत अवधि बीत गई, पर पंडित वापस न लौटे । तब राजा स्वयं पहुँचे और न आने का कारण जानने लगे ।
पंडित ने कहा-"गुरु अंतरात्मा में रहता है, बाहर के गुरु कामचलाऊ भर होते हैं । आप अंत: के गुरु सेपरामर्श लिया करें ।"
राजा ने नम्रतापूर्वक पंडित जी को साथ ले लिया और उन्हें राजगुरु के स्थान पर नियुक्त किया । बोले-"जबआपने शास्त्रों का सार जान लिया, इसलिए उस स्थान को सुशोभित करें।"  सत्रे समाप्ते सर्वेऽपि जनास्ते तु परस्परम् । आलिलिंगर्गृहीत्वा च गले रोमाञ्चिता: समे॥९०॥ सत्राध्यक्षं प्रणेमुस्ते यो ववर्षाऽमृतं वच:। आगतेभ्यश्च धर्मस्य धारणाया महत्वगम् ॥९१॥ तत्वज्ञानं सगाम्भीर्यं बोधयामास यत्नत:। सवैं र्गन्तुं द्वितीयेऽह्नि निजस्थानानि निश्चितम्॥९२॥ निजेष्वाचरणेष्येव स्वरूपं शोभनं समे । धर्मस्य धारणायास्ते निरचिन्वन् समाहितुम् ।।९३॥ वातावृतौ सदुत्साहभरितायां तपोवने । सत्रं समाप्तं तद्दिव्यं जयधोषपुरस्सरम् ॥९४॥ भूयोऽपि चेदृशं दिव्यं भवेदायोजनं तथा।  तत्र सम्मिलिता: स्याम वाञ्छा चेतसि सोद्गता॥९५॥
टीका-सत्र समापन पर सभी उपस्थित जन गले मिले एवं हर्ष से गद्गद् हो गए। सत्राध्यक्ष को नमन-अभिवंदन किया, जिनने ऐसी अमृत वर्षा की और को धर्म-धारणा के तत्वज्ञान को गंभीरतापूर्वक समझाने का सफल प्रयत्न किया । कल सभी को अपने-अपने स्थानों को जाना था। सबने अपनी-अपनी गतिविधियों में धर्मधारणा के इस स्वरुप को और भी अच्छी तरह समाविष्ट करने का निश्चय किया । अत्यंत उत्साह के वातावरण मेंजयघोष के साथ तपोवन में आयोजित वह सत्र समाप्त हुआ । दूसरी बार फिर ऐसे ही आयोजन के होने और उसमें सम्मिलित होने की आकांक्षा सभी के मन में उठ रही थी॥९०-९५॥ इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे ब्रह्मविद्याऽऽत्मविद्ययो:, युगदर्शनयुणसाधनाप्रकटीकरणयो:,श्री आश्वलायन-जरत्कारु ऋषि सम्वादे "सहकार: परमार्थश्वे," तिप्रकरणो नाम सप्तमोध्याय: ॥७॥
वन्दना परिशिष्ट
कथावाचक का आदर्श यह रहा है कि वह अपने आपको शाश्वत ज्ञान का विनम्र सन्देशवाहक मात्र मानकर चले। इसीलिए स्वयं को वक्ता न मानकर आदि वक्ताओं का प्रतिनिधि माने। कथा प्रारम्भ करने से पूर्व अपना यह भाव उद्दीप्त करने के लिए वन्दना एक बड़ा उपयोगी माध्यम रहा है। भावभरी वन्दना से न केवल अपने अनुशासन का निर्वाह होता है, बल्कि अपनी शालीनता का उभार होने से दिव्य अनुदान के रूप में सूक्ष्म प्रवाह का भी सहज ही लाभ मिलने लगता है। अस्तु, हर कथा के पहले भावभरी वन्दना अवश्य की जाय।
वन्दना में पहले ईश-वन्दना तथा फिर गुरु-वन्दना के श्लोक बोले जायें। समय एवं परिस्थितियों के अनुरूप २ -३ मंत्र दोनों ही प्रसंगों के बोले जा सकते हैं। यहाँ ईश-वन्दना और गुरु-वन्दना के पर्याप्त श्लोकदिए जा रहे हैं। ईश-वन्दना के श्लोक इस तरह के है कि उसमें किसी विशेष नाम रूप का वर्णन न होकर प्रभु की सामर्थ्य, सार्वभौम सत्ता, उनकी विशेषता एवं गुणों, आदर्शों का ही उल्लेख है । गुरु-वन्दना के श्लोक भी सार्वभौम है ।
 ईश वन्दना
यं शैवा: समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो, बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटव: कर्तेति नैयायिका: ।
अर्हन्नित्यथ जैनशासनरता: कर्मेति मीमांसका: सोऽयं नो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरि:॥१॥ त्वमादिदेंव: पुरुष: पुराण:, त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्। बेत्तासि वेद्यं च परं च  धाम, त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥२॥ भवानीशंङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ। याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा स्वान्त: स्थमीश्वरम्॥३॥ प्रात: स्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्त्वं सच्चित्सुखं परमहंसगतिं तुरीयम् । यत्स्वप्नजागरसुषुप्तमवैति नित्यं तदं ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसंघ॥४॥ प्रातर्नमामि तमस: परमर्कवर्नं पूर्णं सनातनपदं पुरुषोत्तमाख्यम् । यस्मिन्निदं जगदशेषमशेषमूर्तौं रज्ज्वां भुजगंम इव प्रतिभासितं वै॥५॥ नमस्ते सते ते जगत्कारणाय नमस्ते चिते सर्वलोकाश्रयाय । नमोऽद्वैततत्त्वाय मुक्तिप्रदाय नमो ब्रह्मणे व्यापिने शाश्वताय॥६॥ यं ब्रह्मा वरूणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै र्वेदै: साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा । ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:॥७॥ पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् । न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिक: कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥८॥ त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं, त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । त्वमव्यय: शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषों मतो मे॥९॥ प्रातर्नमामि मनसा वचसा समूर्ध्ना पादारविन्दयुगलं परमस्य पुंस:। नारायणस्य नरकार्णवतारणस्य पारायणप्रवणविप्रपरायणस्य॥१०॥ प्रातर्भजामि मनसो वचसामगम्यं वाचो विभान्ति निखिला यदनुग्रहेण । यन्नेतिनेतिवचनैर्निगमा अवोचस्तं देवदेवमजमच्युतमाहुरग्रय्म्॥११॥ भयानां भयं भीषणं भीषणानां गति: प्राणिनां पावनं पावनानाम् । महोच्चै: पदानां नियन्तृत्वमेकं परेषां परं रक्षणं रक्षणानाम्॥१२॥ नम: पुरस्तादथ पृष्ठस्तते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व । अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्व:॥१३॥ वायुर्यमोऽग्निर्वरूण शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च । नमो नमस्तेऽस्तु सहस्त्रकृत्व: पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥१४॥ एको देव: सर्वभूतेषु गूढ: सर्वंव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । कर्माध्यक्ष: सर्वभूताधिवास: साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥१५॥ त्वं वायुरग्निरवनिर्वियदम्बुमात्रा: प्राणेन्द्रियाणि हृदयं चिदनुग्रहश्च। सर्वं त्वमेव सगुणो विगुणश्च भूमन् नान्यत् त्वदस्यपि मनो वचसा निरुक्तम्॥१६॥ अणोरणीयान् महतो महीयान् आत्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तो: । तमक्रतुं पश्यन्ति वीतशोको धातु: प्रसादान्महिमानमीशम्॥१७॥ नमस्ते नमस्ते विभो! विश्वमूर्ते! नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते !। नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य॥१८॥ अजं शाश्वतं कारणं कारणानां शिवं केवलं भासकं भासकानाम् । तुरीयं तम: पारमाद्यन्तहीनं प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम्॥१९॥ सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये। सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रंपन्ना:॥२०॥ वयं त्वां स्मरामो वयं त्वां भजामो वयं त्वां जगत् साक्षिरूपं नमाम:। सदेकं निधानं निरालम्बमीशं भवाम्भोधिपोतं शरण्यं ब्रजाम:॥२१॥
गुरु वन्दना
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुरेव महेश्वर:। गुरुरेव परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नम:॥१॥ अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नम:॥२॥ अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरुवे नम:॥३॥ वन्दे बोधमयं नित्यं शंकररुपिणम्। यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्र: सर्वत्र वन्द्यते॥४॥ अखण्डानन्दबोधाय शिष्यसन्तापहारिणे। सच्चिदानन्दरुपाय तस्मै श्री गुरवे नम:॥५॥ ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्। एकं नित्यं विमलचलं सर्वसाक्षिभूतं भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तन्नमामि॥६॥
युगदेव-स्तवन
अहो तां गायत्रीमखिलजगदान्द निलयामुपास्य ब्रह्मासावसृजदमलां सृष्टिमधिकाम्। मता या वेदानामपि निखिलविश्वस्य जननी सुखान्त्यै शान्तां तां जपत मनुजा! देवजननीम्॥१॥
समस्त जगत् के आनन्द की आधारभूत जिस गायत्री की उपासना करके ब्रह्माजी ने सृष्टि रची। जिसे वेदमाता, देवमाता व विश्व माता कहा जाता है। हे मनुष्यो! अपार शांति के लिए शांत-स्वरुप उस गायत्री को भजो, उसका जप करो॥१॥
त्रयोलोका यस्ताश्चरण वरणास्तेऽपि च समे, त्रयो देवास्तिस्त्र: प्रथितविभवा देव्य इति सा।  त्रिवेणी व्याख्याताऽक्षरगण इहाख्यातिमभजच्चतुर्विंशत्याहु ऋषित्रिदशदिव्यावतरणा:॥२॥
जिसके तीन चरणों को तीन लोक, तीन देव, तीन वैभव शाली देवी-त्रिवेणी कहते हैं। जिसके चौबीस अक्षर अवतारों, देवताओं, ऋषियों के रुप में प्रख्यात हुए॥२॥
सुदैव्या: संस्कृत्या इहनिगदिता मूलमखिलं, बुधा: प्राहु: यांचा मृतममरवृक्षं परमणिम्। शिखासूत्रे यास्या दधुरमृतचिह्नं जपत तां, युगप्रज्ञोन्मेषप्रबलकरुणां सिद्धिजननीम्॥३॥
जो देव संस्कृति की मूल है। जिसे पारस, कल्पवृक्ष और अमृत कहा जाता है, जिसे शिखा-सूत्र के रु में धारण किया जाता है। जो अमृत तत्वदायी चिह्न है-ऐसी युग परिवर्तन का उन्मेष करने में अत्यन्त करुणामयी सिद्धि-दात्री गायत्री को जपो॥३॥
अहो आद्यां शक्तिं कलियुगकलाविस्मृततनुमुपेक्षाक्षीणां ताममृतनिधिकां बुद्धिविभवाम्। महाप्रज्ञो ह्योनां पुनरुदधरद् देवसदृश ऋतां प्रज्ञां तुभ्यं युगपुरुष! न: सन्तु नतय:॥४॥
उस आद्यशक्ति को काल-प्रवंचना से विस्मृत रुप वाली, उपेक्षित हुई ऋतम्भरा-प्रज्ञा का जिसने पुनरुद्धार किया, उस महाप्राज्ञ युग पुरुष को देव संस्कृति का, उसके कोटि-कोटि अनुचरों को कोटि-कोटि नमन वन्दन॥४॥
सदा भास्वान् भूत्वा तपति गगने यज्ञ इह यो, भृशं पर्जन्योऽयं यमुनसततं रसम्। य ओत: प्रोपश्च प्रबलतमतत्प्राणमरुमता तदेतद् देवत्वं श्वसिति कृपया यस्य हि चिते:॥५॥
जो यज्ञ सूर्य के रुप में तपता है। जिसके प्रताप से पर्जन्य बरसते है। जो प्राण-ऊर्जा से ओत-प्रोत है। जिसकी चेतना से देवत्व जीवित है॥५॥
यदङेक देवानां गण उद्यमासाद्य लुठति, भृशं पोषं  प्राप्य प्रखरतरतां यानि सततम् ।।  निधिर्ऋद्धे: सिद्धेरपि च कथिता यत्र वपुषि, तदोजस्तेजस्त्वे वसत इह वर्चोऽभिलषति ।। ६ ।।
देवगण जिससे, जिसकी गोद में जन्मते, पलते, प्रखर होते और समर्पण करते हैं ।। जो ऋद्धि- सिद्धियों का भण्डार है ।। जिसमें ओजस् तेजस् और वर्चस् के सभी तत्व विद्यमान हैं ।। ।। ६ ।। ।। 
तिरस्कारं यातो विकृतिमभजद् य: कलिबलादुपेक्षां संप्राप्तोऽप्यहह निखिलारोग्यसदनमू ।।  अहो विष्णुं यागं पुनरुदधरद् यो बुधवर! प्रणामास्तुभ्यं हे युगपुरुष! न: कोटिश इमे ।। ।। ७ ।। ।।
 ऐसे कलि- विडम्बना से उपेक्षित, तिरस्कृत, विकृत हुए, आरोग्य के उत्पत्ति स्थल विष्णु रूप यज्ञ का जिसने पुनरुद्धार किया, उस महाप्राज्ञ युग पुरुष को, देव संस्कृति का, उसके अनुचरों का कोटि -कोटि नमन- वन्दन ।। ।। ७ ।। ।। 
वंदना परिशिष्ट-२६७ 
अहो विश्वस्तानामिव हि हृदयं यस्य सरसं, तदास्ते भक्तानामिव, गहनमाचिन्तनमपि ।।  सदा ब्रह्मज्ञानामिव च चरितं तदृषिसम, प्रमाणास्तुभ्यं हे युग- पुरुष ।। न कोटिश इमे ।। ।। ८ ।। ।। 
जिसका हृदय विश्वासी भक्त जैसा- सरस, जिसका गहन चिन्तन ब्रह्मवेत्ताओं जैसा, जिसका चरित्र ऋषियों जैसा, जो महाप्राज्ञ है, ऐसे युग- पुरुष को हम करोड़ों भक्तों का प्रणाम ।। ।। ८ ।। ।। 
उपास्ते य ईशं ह्यविरतमहो जीवनविधौ सदासक्ते लोकाधिक सुखसमाराधनविधौ ।।  सदादर्शादर्शो भुवि विदित सत्सौख्य विभव:, प्रणामास्तुभ्यं हे -युग पुरुष! न: कोटिश इमे ।। ।। ९।। ।। 
जो ईश्वर सर उपासना- जीवन साधना और लोक को सुखी करने की आराधना में संलग्र- आदर्शों के लिए समर्पित स्वयं आदर्श (दर्पण) के समान है, उस महाप्राज्ञ युग- पुरुष का- देव संस्कृति और उसके अनुचरों द्वारा कोटि- कोटि नमन- वन्दन ।। ।। ९ ।। ।। 
य उन्सेहे पातोमुखमनुजसत्संस्कृतिमहो, निरोद्धं नाशस्य प्रबलतमगर्तादनलस: ।।  दधीचेर्व्यासस्य परशुधर श्रृङ्गिप्रथितयोर्दधौरूपं यस्त्वां युगनर ! नता कोटिश इमे ।। ।। १० ।। ।। 
जिसने पतनोन्मुख मानवी- संस्कृति को महाविनाश के गर्त से बचाने का आलस्य त्यागकर एकाकी साहस किया ।। जिसने दधीचि, व्यास, परशुराम, श्रृंगी, पिप्पलाद की कोटि -कोटि हम अनुचरों का प्रणाम ।। ।। १० ।। ।। 

सुरर्षिं यो वाजि श्रवसमपि कार्यादनुगत,  ऋषि विश्वामित्रं मुनिवर वशिष्ठं सगरजम्।  ज्वलन् दीपान् स्त्रेहोदभरितहृदयो ज्वालयदसौ,  महावर्च :! सन्तु युगपुरुष !तुभ्यं प्रणतय:  ।। ।। ११।। ।। 
जिसने नारद, वाजिश्रवा, ऋषि -विश्वामित्र, मुनिवर वशिष्ठ व सगरवंशज भगीरथ की भूमिका एकाकी निभाई ।। जिसने स्वयं ज्वलन्त होकर -स्नेहयुक्त होकर- अगणित दीप जलाये -उस साहस के धनी, ब्रह्मवर्चस् से ओत -प्रोत महाप्राज्ञ युगपुरुष को देव संस्कृति का -उसके कोटि -कोटि अनुचरों का कोटि -कोटि नमन -वन्दन ।। ।। ११ ।। ।। 
                                           -पं० -चन्द्रभूषणमिश्रेण विरचितम् 
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