॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-3
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
सेनासंयुक्तशक्ति सा कुरुते कार्यमुत्तमन् । कुटुम्बं संघटित नूनं समाजोऽपि तथा च सः॥३२॥ बुद्धिं यातोऽथ मर्त्याश्च वियुक्ता यान्ति विग्रहम् । वैरं भेदं सहन्ते न प्रातिकृल्यं मनागपि ॥३३॥ यान्तीवाऽकालजं मृत्युमतो ज्ञातव्यमेव तु । माहात्म्यं संघजोत्त्वं तु प्राणिमंगलकारकम् ॥३४॥
टीका-सेना की संयुक्त शक्ति ही काम करती है । संगठित परिवार और समाज फलते-फूलते हैं; जबकिविलगाव से आक्रांत भेद, फूट, फसाद में लगे हुए तनिक भी प्रतिकूलता सहन नहीं कर पाते और बेमौत मरतेहैं । संगठन का महत्व समझा जाना चाहिए, जो प्राणिमात्र का मंगलकारक है ॥३२-३४॥
अर्थ-जब भी कभी पतन होता है, तो उसका मूल कारण संगठन स्त्र अभाव माना जाना चाहिए । मनुष्य की संकीर्णता-अलगाववादी प्रवृत्ति ही उसकी प्रगति में बाक्क बनती है ।
एक, दूसरे की टाँगें खींचेंगे
एक मछुआरे ने मछलियाँ पकड़ने के लिए नदी में जाल फैलाया। संयोगवश उस दिन मछलियों के स्थान पर केकड़े जाल में आये । मछुआरे ने यह सोचकर संतोष किया कि कुछ नहीं से कुछ तो अच्छा है । केंकडों को टोकरी में भरकर नदी के किनारे रख दिया तथा जाल समेटने लगा । कुछ राहगीर उधर से निकले । उनमें से एक ने कहा-"तुमने टोकरी का ढक्कन तो लगाया ही नहीं । एक-एक करके सारे केकड़े नंदी में कूद जायेंगे ।" मछुआरे ने बड़ी शांति के साथ उत्तर दिया-"चिंता करने की आवश्यकता नहीं है । ये केकड़े अभी बाहर नहीं निकल सकते । एक केकड़ा यदि बाहर निकलने का प्रयत्न करता है, तो दूसरा उसकी टाँग पकड़कर नीचे गिरा देता है ।"
किसी को न उबरने देने और न स्वयं उबरने का यह संकीर्ण प्रचलन केकड़ों की, तरह मनुष्यों में भी सर्वत्र देखा जाता है ।
पतन का कारण
अहमद शाह अब्दाली भारत पर अपने छोटे से सैन्य दल के साथ आक्रमण करता हुआ आगे बढ़ रहा था। मराठे वीरतापूर्वक उससे लोहा ले रहे थे ।
रात हुयी । दोनों ओर से लड़ाई बंद हुई, रात में उन दिनों लड़ाइयाँ नहीं हुआ करती थीं । अहमद शाहने मराठों की सेना में जगह-जगह धुँआ उठते हुए देखा, तों उसे आश्चर्य हुआ कि इसका क्या कारण हो सकता है?
गुप्तचर भेजे गए । वे पता लगाकर आयें । हिन्दू एक दूसरे का छुआ नहीं खाते । सिपाही लोग अपनीअलग-अलग रसोई पका रहे हैं।
अहमद शाह की प्रसन्नता का पारावार न रहा । उसने सेनापति को बुलाकर कहा-"जिनमें एक दूसरे का छुआ खाने जितनी भी एकता नहीं, वे बाहर से बलवान् भले ही दीखें, भीतर से पूरी तरह खोखले होंगे । इन पर अभीही हमला कर दो ।"
पूरी शक्ति के साथ आक्रमण हुआ। रसोई बनाते सैनिक भारी संख्या में मार डाले गए और अब्दाली जीत काडंका बजाता हुआ आगे बढ़ता चला गया ।
कई बार तो केवल संगठन के प्रदर्शन के कारण ही शत्रु को भगाते और पराजित होते पाया गया है ।
एक नहीं अनेक सिपाही
नेपोलियन की सेना में कितने ही सैनिक बहुत बहादुर और सूझ-बूझ वाले थे । उनमें एक् कुछ समय के लिए यर छुट्टी पर गया । लौटा तो रास्ते में एक पहाड़ी दुर्ग पर ऑस्ट्रिया और फ्रांस के सैनिकों में मोर्चा लगा दीखा । रात हो चली थी । दुर्ग में सिपाही सामने फ्रांसीसियों की विशाल सेना आते देखकर घबरा गए और किला खाली कर्के इधर-उधर भाग गए।"
छुट्टी से लौटे सैनिक आर्वान को स्थिति भाँपते देर न लगी । वह खाली किले में अकेला घुस गया । सिपाहियों की छूटी बंदूकें जगहें-जगह गुंबजों से बाँध दी और बारूद जलाकर गोलाबारी शुरू कर दी । शत्रु सैनिकों का कब्जा होते-होते रुक गया । वे वापस लौटने लगे ।
छिपे सिपाहियों ने समझा कि किले बंदी आधीं है । वे सिमट कर किले में इकट्ठे हो गए । गोलाबारी चालूहो गयी । नेपोलियन की सेना ने हारा हुआ मोर्चा जीत लिया । आर्वान की सूझ-बूझ सबने सराही और उसे उच्चपद मिला ।
संगठित जन मानस
दैत्यराज बलि के सेनापतियों ने स्वर्ग पर आक्रमण करके विश्वकर्मा को पकड़ बुलाया और इंद्रपुरी के स्तर का राज्य भवन बनाकर खड़ा करने का आदेश दिया ।
सामान जुटता गया और विश्वकर्मा का प्रयास चलता रहा । कुछ समय में ही दैत्यपुरी तैयार हो गई । अब बलि ने विश्व-विजय की तैयारी की और सेनापतियों को विश्व-विजय के लिए साज-सामान समेत भेजा ।
सफलता कुछ ही दिन मिली। फिर आगे बढ़ सकना दैत्य सेना के लिए कठिन हो गया । कारण यह था किअब सीमित सैनिकों से लड़ना नहीं हो पा रहा था । असीम जनता आक्रमणकारियों से जूझने के लिए कटिबद्ध हो गई थी ।
बलि ने इरादा छोड़ दिया और सेनाएँ यह कहकर वापस बुला लीं, कि सैनिकों को जीता जा सकता है; किन्तुजन चेतना को, संगठित जन मानस को परास्त कर सकना संभव नहीं । स्वार्थिवर्ग: सदा दोषग्रस्ततां याति सन्ततम्। तत्प्रभावेण जीर्णश्च बिना कालं विन्श्यति॥३५॥ अतो विचारशीलैश्च वसितव्यं सुसंगतै:। भोक्तव्यं च सदा भोज्यं यथायोग्यं विभज्य च॥३६॥ दूरदर्शित्यमत्राऽस्ति गरिमा च नृणां ध्रुवम् । कुर्वते सहयोगं ते सहयोगिन उन्नता:॥३७॥ वसन्ति मोदमानाश्च तेभ्य: क्षुद्रेभ्य एव ते । प्रसन्नाश्चाधिकं तस्मात् सहयोगो महाबलम्॥३८॥
टीका-स्वार्थियों का समुदाय दोष-दुर्गुणों से ग्रसित होता जाता है और उनके दबाव के कारण समय सेपूर्व ही दम तोड़ते देखा जाता है। अस्तु, सभी विचारशीलों को हिल-मिलकर रहना चाहिए, मिल-बाँटकर खाना चाहिए । इसी में दूरदर्शिता एवं गरिमा है । सहयोग करने वाले सहयोग पाते हैं और एकाकीपन की सुद्रता अपनाने वालों की तुलना में कहीं अधिक प्रसन्न एवं समुन्नत रहते हैं । अत: स्पष्ट है सहयोग में बहुत बड़ी शक्ति है॥३५-३८॥
अर्थ-स्वार्थी बहुधा अत्याचारी होते हैं । धर्म, पंथ, संप्रदाय आदि के नाम पर विश्व में जितने भी अत्याचार, लूटमार, मारकाट या विघटन हुए हैं, अथवा हो रहे हैं, उन सबके पीछे खुले या छद्म रूप में स्वार्थियों की अपनी हित कामना ही निहित रही है । भले ही वे इस कुचक्र रचना में विनष्ट हो गए हों या रहे हों ।
स्वार्थांध अत्याचारियों के हाथ में 'धर्म' एक ऐसा कारण-साधन है, जिससे जनता में विषमता स्थापित होती चली जाती है । यह मनुष्यों में समता को नहीं रहने देता । इसके द्वारा धनिक, विद्धान्, राजनेता, शासकगण अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं । श्रमिको-मजदूरों में इसी के द्वारा गुलामी की आदत कायम रखी जाती है । धर्म के बहाने लोगों को अनहोनी बातों पर, चमत्कारों पर विश्वास दिलाकर मनुष्यों के अज्ञान को चिरस्थायी बनाया जाता है । इस तरह छल-छद्म से चालाक और धूर्त लोग अपना काम बनाते हैं, मजदूर, अनपढ़ और अज्ञानी लोग लुटते हैं । बड़े-बड़े मठाधीश, महंत, पोप, पंडे-पुजारी, मौलवी-मुल्ला आम आदमी के इसी अज्ञान का लाभ उठाकर मौज-मजे उड़ाते हैं और लोगों को बराबर लूटा करते हैं ।
स्वार्थ या विग्रह का विष बहुत भयंकर होता है । यह जिस किसी के जीवन में आया, उसको नष्ट करके ही छोड़ता है । जो देता है, वह पाता है। जो रखने का प्रयास करता है, वह अंतत: हानि ही उठाता है। देने के कारण ही मधुरता
एक बार प्रसंग नदियों में मीठा पानी होने और उन्हीं का संग्रह समुद्र में एकत्रित होने पर खारी होने का चल रहा था।
समाधानकर्त्ता ने कहा-"नदियाँ अपनी संपदा देने के लिए दौड़ती रहती है। इसलिए उनमें मधुरता बनी रहती है। समुद्र संग्रह भर करने की आदत से खारा होता है ।"
जहाँ का था, वहाँ चला गया
जों संग्रह में लीन रहते हैं; अपने, सिर्फ अपने अतिरिक्त जिन्हें कुछ सूझ ही नहीं पड़ती, उनकी अंतत: दुर्गति ही होती है । एक था कृपण । कमाता तो बहुत था; पर उसे जमीन में गाड़ता जाता । न देता, न खर्च करता ।
एक बार उसे बड़ी कमाई हुई । सोचा, घर के लोगों को पता चला, तो खर्च कर डालेंगे । इसलिए किसी एकांत जंगल में गाड़ना चाहिए ।
एक स्थान चुना । रुपये का घडा लेकर रात्रि के समय गाड़ने चला । चोर छिपे थे, उन्हें संदेह हो गया । पीछा करते और छिपकर देखते रहे।
दूसरी रात चोरों की बारी आई । उन्होंने उसने जो गाड़ा था, खोद लिया और गढ्डा मिट्टी से भर दिया ।
कुछ दिन बाद कृपण स्थान को देखने गया । पाया कि किसी ने उस धन को खोद लिया । घर लौटकर वह बुरी तरह से रोने लगा ।
दु:खद समाचार सुनकर सारा गाँव एकत्र हो गया । एक को यह कहते सुना गया-"सेठजी, यह धन किसीकाम तो आता नहीं था । एक जगह से उठकर दूसरी चला गया, तो क्या हर्ज हुआ?"
उसी धन की सार्थकता है, जो काम आए और उत्पादन-चलन में घूमता रहे ।
ऐसे बड़े किस काम के?
गिलहरी मटर के खेत में जाती और थोड़ी देर में पेट भर लाती ।
एक दिन उसके मन में आया कि बड़ी के पास क्यों न चला जाय? जहाँ से कुछ ज्यादा और मजेदार खाने को मिले ।
वह सेमल के एक लंबे-चौड़े पेड़ पर चढ़ गई । उस पर सैकड़ों हरे-हरे फल लटक रहे थे । दाँत गडाने परउसमें से सिर्फ रुई निकली और हवा के साथ इधर-उधर छितरा गई ।
गिलहरी ने लंबी सांस भरते हुए कहा- "बड़े बेकार दरख्तों से वे छोटे पौधे अच्छे, जो किसी की भूख बुझानेके काम आते रहते हैं ।"
गाँधी जी को टोपी
जिनके अंत:करण उदार होते हैं, उनके लिए छोटी से छोटी वस्तु का महत्व होता है । सारा विश्व जिनका कार्य क्षेत्र हो, वे संकीर्णता की परिधि में कैसे बँध सकते है ।
एक किसान गाँधी जी के दर्शन करने पहुँचा । नंगा सिर देखकर उसे आश्चर्य हुआ । पूछा-"गाँधी टोपी दुनिया भर में मशहूर है, फिर आप स्वयं गाँधी होते हुए भी वह टोपी क्यों नहीं लगाते?" गाँधी जी ने उसके सिर पर बँधे हुए लंबे-चौड़े साफे की ओर इशारा करते हुए कहा-"जब एक-एक व्यक्ति इतना कपड़ा सिर पर लपेटेगा तो बहुतों को नंगे रहना ही पड़ेगा । ऐसे ही लोगों में से एक, आप मुझे भी समझ सकते है ।"
सशर्त आशीर्वाद
बुद्ध शिष्यों को धर्म प्रचार के लिए विदा कर रहे थे । लंबे प्रवास में कठिनाइयाँ आने और नए स्थानोंपर विरोध होने, पराजय मिलने की आशंका व्यक्त की जा रही थी ।
असमंजस का निवारण करते हुए तथागत ने सशर्त आशीर्वाद दिया, कहा-"जब तक तुम लोग संयमीरहोगे, परस्पर मित्र भाव बरतोगे, जो मिलेगा उसे मिल-बाँट कर खाओगे और लोकमंगल को धर्म की आत्मा मानते रहोगे, तब तक कठिनाइयाँ तुम्हें पराजित न कर सकेंगी ।"
आदेशों को हृदयंगम करके वे देश-देशांतरों में बिखर गए और धर्मचक्र प्रवर्तन को चरम सीमा तक सफल बनाने में समर्थ हुए ।
तीन सूत्र
पारसी धर्म के तत्वज्ञान का सार तीन वाक्यों में है-हुमदा, अर्थात् अच्छे विचार । हुखता, अर्थात् वही बोलना और हुवस्ता, अर्थात् नेक काम ।
बौद्ध धर्म का सार भी तीन शब्दों में है-बुद्धं शरणं गच्छामि, अर्थात् विवेक का आश्रय लो । धर्म शरणंगच्छामि, अर्थात् अपने आचरण में धर्म का समावेश करो । संघ शरणं गच्छामि, अर्थात् मिल-जुल कर रही ।
निरमात् सहयोगेन समुदायं तथा व्यधात् । मिलित्वा शुभकर्माणि दानाऽऽदानेऽध्यगादपि॥३९॥ आदिकालात् क्रमादत्र प्रगते: पथिसंचलन् । आगतो वर्तमानां च स्थितिं विकसितां पराम् ॥४०॥ सहकारप्रधानश्च स्वभावोऽत्र विशिष्यते । नैकाकिनो महामर्त्या:न्यवात्सु कुत्रचिद भुवि ॥४१॥ निर्ममुस्ते समूहं तु प्रयासैश्च समूहगै:। संकल्पा सुमहान्तस्तै: पूरिता: शीघ्रमेव च ॥४२॥ सत्प्रयोजनहेतोश्च सहकार: स्थिरो दृढ़ । प्राप्यते येषु लोकस्य हितं कर्मसु संस्थितम्॥४३॥ यथा तथोदयं याति सहयोगस्य शोभना। लोकश्रद्धा जगत्पीडा तमिस्त्रा चन्द्रिका शुभा॥४४॥
टीका-इसीलिए मनुष्य ने सहयोगपूर्वक समुदाय गठित किए, मिल-जुलकर काम करना सीखा। आदान-प्रदान का क्रम अपनाया और अनादिकाल से लेकर क्रमश: प्रगतिपथ पर चलता हुआ वर्तमान स्थिति तक आ पहुँचा । इसमें उनके सहकार प्रधान स्वभाव का ही चमत्कार है । महामानव एकाकी नहीं रहे । उनने समूह बनाए और सामूहिक प्रयासों के बल पर बड़े संकल्प शीघ्र पूरे किए हैं । ठोस और स्थायी सहकार सत्प्रयोजनों के लिए ही मिलता है । जिन कार्यों के पीछे लोकहित का जितना समावेश रहता है । उनमें सहयोग देने भी लोक श्रद्धा उतनी ही उमड़ती है, जो संसार की व्यथा रूपी रात्रि में चंद्रिका के उदय के समान सिद्ध होती है॥३९-४४॥
अर्थ-सामूहिकता एक ऐसी शक्ति है, जिससे सारे संसार को जीता जा सकता है । निर्बल वर्ग भी जब अपनों का साथ लेकर खड़ा हो जाता है, तो शक्तिवानों को भी उनके आगे पराजय स्वीकार करनी पड़ती है ।
समूह बल
विष्णु के वाहन गरुड़ को देखकर शिव के गले में पड़े सर्प फुसकारने लगे और युद्ध की चुनौती देने लगे।
गरुड़ ने कहा-"सर्प तुम तो मेरा भोजन हो । तुम जो चुनौती दे रहे हो, वह निश्चय ही शिव के शरीर परलिपटे अनेक सर्पो के बल का परिणाम है ।"
"हे नागेश, यह तुम्हारा नहीं, संघ शक्ति का बल है ।"
जीवन के किसी भी क्षेत्र में प्रगति का एक ही सिद्धांत है-'सहकार' । समूह बल को पहचान लेने वाले आश्चर्यजनक सफलताएँ पाते देखे गए हैं ।
सुई से टैंक तक
जमशेद जी टाटा के पिता पारसी समाज में पुरोहित का काम करते थे । सूरत जिले के नवसारी गाँव में उनका जन्म हुआ । ऊँची शिक्षा का प्रबंध न हो सका । वे नवसारी छोड़कर बंबई चले गए । वहाँ छोटे-मोटे उद्योग करते रहे । पीछे उनने बड़े कदम उठाये । अनेक लोगों की सामूहिक शक्ति की कल्पना आते ही उन्होंने नागपुर में कपड़ा मिल लगाया । चलने तो वह भी लगा; पर बिहार के जमशेदपुर में उनने लोहे का एक बड़ा कारखाना लगाया । अब सुई से लेकर टैंक-ट्रैक्टर तक उसमें तैयार होता है ।
टाटा ने मजदूरों को अधिक से अधिक सुविधाएँ देने का प्रावधान रखा । इसके बाद भी टाटा फाउंडेशन केअंतर्गत चल रही कितनी ही संस्थाओं के संचालन का ढाँचा खड़ा किया । विदेशों के धनपति अपने पैसे कोसार्वजनिक कार्यो में लगाने के लिए प्रसिद्ध है । टाटा को उसी श्रेणी में गिना जा सकता है ।
बिनोवा जी ने सर्वोदय का एक नया दर्शन दिया और यह दिखाया कि संसार चाहे तो कुछ ही दिनों मेंआदान-प्रदान की प्रक्रिया अपनाकर भारी से भारी संकट टाल सकता है।
भूदान यों चला
हैदराबाद के ललगोंडा इलाके में मची हुई मारकाट को दूर करने के लिए संत बिनोवा ने वहीं से भुदान आंदोलन आरंभ किया । उदारमना लोगों ने अपनी जमीनें देना आरंभ किया । सबसे पहले बिनोवा की पुकार पर रामचंद्र रेड्डी ने अपनी फालतू जमीन दी । इसके बाद वह सिलसिला चल पड़ा और भूदान में एक लाख एकड़ जमीन तक दान में मिली ।
प्रारंभ में लोगों को इस तथ्य से अवगत कराने का काम महापुरुष पूरा करते आये हैं, इसलिए परमार्थ कोसहकारी प्रगति का पिता कहा गया है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही संभव नहीं ।
सफलता मिली पर इस तरह
अमेरिका में कानून द्वारा नीग्रो समुदाय को समानता के अधिकार मिल गए थे; पर उनका व्यावहारिक उपयोग नहीं के बराबर होता था । जिन परिस्थितियों में उनके बाप-दादों को गुलाम की जिंदगी जीनी पड़ती थी, लौट-पलट कर वे उसी में रहने के लिए बाधित किए जा रहे थे।
इन परिस्थितियों को बदलने के लिए आवश्यक था कि नीग्रो समुदाय स्वयं अपने पैरों खड़ा हो और अधिकारों की लड़ाई लड़े । पर इसके लिए उन्हें साहस प्रदान कौन करे? यह कार्य एक अमेरिकन महिला डैविडऐंजिलो ने अपने कंधों पर लिया । कैलीफोर्निया के कॉलेज में उन्हें छात्रवृत्ति मिली । पढ़ाई जारी रखने के अलावा उन्होंने नीग्रो जागरण में भाग लिया । पी० एच० डी० की और एक कॉलेज में अध्यापिका हो गयीं । आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी होते हुए भी अपने काम के लिए उन्हें भारी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी । नौकरी से निकाली गयीं । जेल गईं । फिर भी अपना काम नहीं छोड़ा । नीग्रो समुदाय को उनके नेतृत्व में जो सुविधाएँ उपलब्ध हुई, उसके लिए वे सदा इस तेजस्वी महिला के कृतज्ञ रहेंगे ।
संतों को इसी कारण लोक श्रद्धा मिली। महामानवों का उत्पादन इसीलिए आवश्यक है; क्योंकि उनसे सारे राष्ट्र की प्रगति का प्रकाश मिलता है ।
संत की गरिमा
ईरान और तुर्की में लंबी लड़ाई चली। असंख्यों हताहत हुए । इसी बीच किसी प्रकार संत फरीउद्दीन तुर्कों के हाथ पड़ गए । उन पर जासूसी का इज्जाम लगाया गया और मौत की सजा सुना दी गई ।
संत उन दिनों अत्यधिक लोकप्रिय थें। जन-जन उन्हें प्यार करता था । बचाने के लिए कई उपाय किए गए । धनिकों ने कहा-"हम उनके बराबर सोना दे देंगे, संत को छोड़ दिया जाय ।" इस पर भी तुर्क तैयार न थे; वे उन्हें मारने पर उतारू थे ।
अंत मैं ईरान के बादशाह ने संत को छुड़ाने के बदले अपना सारा राज्य तुर्को को देने का प्रस्ताव रखा ।
संत की गरिमा काम कर गयी । संधि हुई। लड़ाई बंद हो गयी और संत भी वापस लौट आए ।
जिस देश ने इस सच्चाई को समझा, जिन जातियों में अपने जातीय जीवन के लिए यह परमार्थ जागा, वेजातियाँ महान् बनीं। जापान वह देश है, जिसने प्रथम परमाणु युद्ध का आघात झेला, तो भी अपने नागरिकों की इसी निष्ठा के कारण आज समर्थ राष्ट्रों के समकक्ष खड़ा हुआ है ।
परमार्थ में घर जलाया
जापान के एक गाँव में मेला लगा हुआ था । नर-ररियों की भारी भीड़ उसे देखने जमा थी । एक वृद्ध हागामूची ने देखा कि समुद्र बहुत पीछे हट गया है। इतना तो भाटे के दिनों में भी नहीं हटता था । इस आश्चर्य का कारण उसकी समझ में आया । जब वह बच्चा था, तब भी इसी प्रकार एक बार समुद्र हटा था और उसके तुरंत बाद इतने जोर का उछाल आया था कि तटवर्ती गाँव उसमें बह गए थे । इस विपत्ति की सूचना वह मेले वालों को कैसे दे? इसका उपाय उसे एक ही सूझा । टीले पर बने हुए अपने घर में आग लगा दी । उसे बुझाने के लिए भीड़ टीले पर पहुँची । इतने में ही बाढ़ आ गयी । लोग टीले पर खड़े थे, इसलिए बच गए ।
हागामूची की परमार्थपरायणता पर सभी लोग बड़े कृतज्ञ हुए । थोड़े दिन बाद उसके मर जाने पर लोगों नेउसका स्मारक बनाया, जो अभी तक है ।
गले, पर महक फैलायी
संत-महामानव गलने के बाद समर्पण के कारण अपने परिकर को धन्य बना देते हैं । इसी कारण वे विश्व वद्य बनते है ।
रात कि आँधी में बगीचे के खिले फूल जमीन पर गिर पडे़ और उसके नीचे दब गए ।
कई दिन बाद माली ने इस मिट्टी को बर्तन माँजने के लिए उठाया, तो वह महक रही थी । वह इसका कारणखोजने लगे ।
दबे हुए फूलों ने कहा-"हम मिट्टी की गोद में खेले और अपनी खुशबू उसे प्रदान की । पर साथ ही यह भीदेखो कि गलने की स्थिति में भी हमने मिट्टी की गुणहीनता नहीं अपनायी, उसे महकाया है ।
मरने के बाद प्रेरणा पुञ्ज बने
तब हसन जौहरी का धंधा करते थे । उन्हें व्यवसाय प्रयोजन से रोम के सुलान से मिलना था । सो वह पहुँचे । सुल्तान कहीं बाहर जाने की तैयारी में थे । मंत्रियों ने हसन से कहा-"इस समय मिलना संभव नहीं । लौटने तक प्रतीक्षा करो, अथवा हम लागों के साथ चलने की बात सोचो ।" हसन ने साथ चलना बेहतर समझा, सो वे भी चल पडे़ ।
जहाँ पहुँचना था, वहाँ एक तंबू गड़ा था और भीतर मजार सुल्तान के लड़के की थी । सभी लोग भीतरघुसते, शिजदा करते और डेरे की परिक्रमा करते । साथ ही कुछ कहते भी जाते ।
हसन दूर खड़े यह सब देख रहे थे । उनने काफ़िले के समझदार आदमी से चुपके से पूछा-"यह सब क्याहो रहा है?'' उसने जबाव दिया-"डेरे के भीतर शहजादे की मजार है । यहाँ हर साल सैनिक, डाक्टर, संबंधी सभी आते हैं और कसमें खाते हैं कि यदि हमारी शक्ति तुम्हें बचा सकी होती, तो हम प्राण देकर भी तुम्हें बचा लेते। होता वही है, जो अल्लाह को मंजूर हो। सो तुम्हारी रूह से अपने आप की वास्तविकता जताने आये है । किसी व्यक्ति की उपेक्षा तुमने समझी हो, तो माफ करना ।"
हसन भी काफिले के साथ लौटपड़े और उस दृश्य के आधार पर अपना समूचा जीवन क्रम ही बदल लिया ।
टीका-सेना की संयुक्त शक्ति ही काम करती है । संगठित परिवार और समाज फलते-फूलते हैं; जबकिविलगाव से आक्रांत भेद, फूट, फसाद में लगे हुए तनिक भी प्रतिकूलता सहन नहीं कर पाते और बेमौत मरतेहैं । संगठन का महत्व समझा जाना चाहिए, जो प्राणिमात्र का मंगलकारक है ॥३२-३४॥
अर्थ-जब भी कभी पतन होता है, तो उसका मूल कारण संगठन स्त्र अभाव माना जाना चाहिए । मनुष्य की संकीर्णता-अलगाववादी प्रवृत्ति ही उसकी प्रगति में बाक्क बनती है ।
एक, दूसरे की टाँगें खींचेंगे
एक मछुआरे ने मछलियाँ पकड़ने के लिए नदी में जाल फैलाया। संयोगवश उस दिन मछलियों के स्थान पर केकड़े जाल में आये । मछुआरे ने यह सोचकर संतोष किया कि कुछ नहीं से कुछ तो अच्छा है । केंकडों को टोकरी में भरकर नदी के किनारे रख दिया तथा जाल समेटने लगा । कुछ राहगीर उधर से निकले । उनमें से एक ने कहा-"तुमने टोकरी का ढक्कन तो लगाया ही नहीं । एक-एक करके सारे केकड़े नंदी में कूद जायेंगे ।" मछुआरे ने बड़ी शांति के साथ उत्तर दिया-"चिंता करने की आवश्यकता नहीं है । ये केकड़े अभी बाहर नहीं निकल सकते । एक केकड़ा यदि बाहर निकलने का प्रयत्न करता है, तो दूसरा उसकी टाँग पकड़कर नीचे गिरा देता है ।"
किसी को न उबरने देने और न स्वयं उबरने का यह संकीर्ण प्रचलन केकड़ों की, तरह मनुष्यों में भी सर्वत्र देखा जाता है ।
पतन का कारण
अहमद शाह अब्दाली भारत पर अपने छोटे से सैन्य दल के साथ आक्रमण करता हुआ आगे बढ़ रहा था। मराठे वीरतापूर्वक उससे लोहा ले रहे थे ।
रात हुयी । दोनों ओर से लड़ाई बंद हुई, रात में उन दिनों लड़ाइयाँ नहीं हुआ करती थीं । अहमद शाहने मराठों की सेना में जगह-जगह धुँआ उठते हुए देखा, तों उसे आश्चर्य हुआ कि इसका क्या कारण हो सकता है?
गुप्तचर भेजे गए । वे पता लगाकर आयें । हिन्दू एक दूसरे का छुआ नहीं खाते । सिपाही लोग अपनीअलग-अलग रसोई पका रहे हैं।
अहमद शाह की प्रसन्नता का पारावार न रहा । उसने सेनापति को बुलाकर कहा-"जिनमें एक दूसरे का छुआ खाने जितनी भी एकता नहीं, वे बाहर से बलवान् भले ही दीखें, भीतर से पूरी तरह खोखले होंगे । इन पर अभीही हमला कर दो ।"
पूरी शक्ति के साथ आक्रमण हुआ। रसोई बनाते सैनिक भारी संख्या में मार डाले गए और अब्दाली जीत काडंका बजाता हुआ आगे बढ़ता चला गया ।
कई बार तो केवल संगठन के प्रदर्शन के कारण ही शत्रु को भगाते और पराजित होते पाया गया है ।
एक नहीं अनेक सिपाही
नेपोलियन की सेना में कितने ही सैनिक बहुत बहादुर और सूझ-बूझ वाले थे । उनमें एक् कुछ समय के लिए यर छुट्टी पर गया । लौटा तो रास्ते में एक पहाड़ी दुर्ग पर ऑस्ट्रिया और फ्रांस के सैनिकों में मोर्चा लगा दीखा । रात हो चली थी । दुर्ग में सिपाही सामने फ्रांसीसियों की विशाल सेना आते देखकर घबरा गए और किला खाली कर्के इधर-उधर भाग गए।"
छुट्टी से लौटे सैनिक आर्वान को स्थिति भाँपते देर न लगी । वह खाली किले में अकेला घुस गया । सिपाहियों की छूटी बंदूकें जगहें-जगह गुंबजों से बाँध दी और बारूद जलाकर गोलाबारी शुरू कर दी । शत्रु सैनिकों का कब्जा होते-होते रुक गया । वे वापस लौटने लगे ।
छिपे सिपाहियों ने समझा कि किले बंदी आधीं है । वे सिमट कर किले में इकट्ठे हो गए । गोलाबारी चालूहो गयी । नेपोलियन की सेना ने हारा हुआ मोर्चा जीत लिया । आर्वान की सूझ-बूझ सबने सराही और उसे उच्चपद मिला ।
संगठित जन मानस
दैत्यराज बलि के सेनापतियों ने स्वर्ग पर आक्रमण करके विश्वकर्मा को पकड़ बुलाया और इंद्रपुरी के स्तर का राज्य भवन बनाकर खड़ा करने का आदेश दिया ।
सामान जुटता गया और विश्वकर्मा का प्रयास चलता रहा । कुछ समय में ही दैत्यपुरी तैयार हो गई । अब बलि ने विश्व-विजय की तैयारी की और सेनापतियों को विश्व-विजय के लिए साज-सामान समेत भेजा ।
सफलता कुछ ही दिन मिली। फिर आगे बढ़ सकना दैत्य सेना के लिए कठिन हो गया । कारण यह था किअब सीमित सैनिकों से लड़ना नहीं हो पा रहा था । असीम जनता आक्रमणकारियों से जूझने के लिए कटिबद्ध हो गई थी ।
बलि ने इरादा छोड़ दिया और सेनाएँ यह कहकर वापस बुला लीं, कि सैनिकों को जीता जा सकता है; किन्तुजन चेतना को, संगठित जन मानस को परास्त कर सकना संभव नहीं । स्वार्थिवर्ग: सदा दोषग्रस्ततां याति सन्ततम्। तत्प्रभावेण जीर्णश्च बिना कालं विन्श्यति॥३५॥ अतो विचारशीलैश्च वसितव्यं सुसंगतै:। भोक्तव्यं च सदा भोज्यं यथायोग्यं विभज्य च॥३६॥ दूरदर्शित्यमत्राऽस्ति गरिमा च नृणां ध्रुवम् । कुर्वते सहयोगं ते सहयोगिन उन्नता:॥३७॥ वसन्ति मोदमानाश्च तेभ्य: क्षुद्रेभ्य एव ते । प्रसन्नाश्चाधिकं तस्मात् सहयोगो महाबलम्॥३८॥
टीका-स्वार्थियों का समुदाय दोष-दुर्गुणों से ग्रसित होता जाता है और उनके दबाव के कारण समय सेपूर्व ही दम तोड़ते देखा जाता है। अस्तु, सभी विचारशीलों को हिल-मिलकर रहना चाहिए, मिल-बाँटकर खाना चाहिए । इसी में दूरदर्शिता एवं गरिमा है । सहयोग करने वाले सहयोग पाते हैं और एकाकीपन की सुद्रता अपनाने वालों की तुलना में कहीं अधिक प्रसन्न एवं समुन्नत रहते हैं । अत: स्पष्ट है सहयोग में बहुत बड़ी शक्ति है॥३५-३८॥
अर्थ-स्वार्थी बहुधा अत्याचारी होते हैं । धर्म, पंथ, संप्रदाय आदि के नाम पर विश्व में जितने भी अत्याचार, लूटमार, मारकाट या विघटन हुए हैं, अथवा हो रहे हैं, उन सबके पीछे खुले या छद्म रूप में स्वार्थियों की अपनी हित कामना ही निहित रही है । भले ही वे इस कुचक्र रचना में विनष्ट हो गए हों या रहे हों ।
स्वार्थांध अत्याचारियों के हाथ में 'धर्म' एक ऐसा कारण-साधन है, जिससे जनता में विषमता स्थापित होती चली जाती है । यह मनुष्यों में समता को नहीं रहने देता । इसके द्वारा धनिक, विद्धान्, राजनेता, शासकगण अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं । श्रमिको-मजदूरों में इसी के द्वारा गुलामी की आदत कायम रखी जाती है । धर्म के बहाने लोगों को अनहोनी बातों पर, चमत्कारों पर विश्वास दिलाकर मनुष्यों के अज्ञान को चिरस्थायी बनाया जाता है । इस तरह छल-छद्म से चालाक और धूर्त लोग अपना काम बनाते हैं, मजदूर, अनपढ़ और अज्ञानी लोग लुटते हैं । बड़े-बड़े मठाधीश, महंत, पोप, पंडे-पुजारी, मौलवी-मुल्ला आम आदमी के इसी अज्ञान का लाभ उठाकर मौज-मजे उड़ाते हैं और लोगों को बराबर लूटा करते हैं ।
स्वार्थ या विग्रह का विष बहुत भयंकर होता है । यह जिस किसी के जीवन में आया, उसको नष्ट करके ही छोड़ता है । जो देता है, वह पाता है। जो रखने का प्रयास करता है, वह अंतत: हानि ही उठाता है। देने के कारण ही मधुरता
एक बार प्रसंग नदियों में मीठा पानी होने और उन्हीं का संग्रह समुद्र में एकत्रित होने पर खारी होने का चल रहा था।
समाधानकर्त्ता ने कहा-"नदियाँ अपनी संपदा देने के लिए दौड़ती रहती है। इसलिए उनमें मधुरता बनी रहती है। समुद्र संग्रह भर करने की आदत से खारा होता है ।"
जहाँ का था, वहाँ चला गया
जों संग्रह में लीन रहते हैं; अपने, सिर्फ अपने अतिरिक्त जिन्हें कुछ सूझ ही नहीं पड़ती, उनकी अंतत: दुर्गति ही होती है । एक था कृपण । कमाता तो बहुत था; पर उसे जमीन में गाड़ता जाता । न देता, न खर्च करता ।
एक बार उसे बड़ी कमाई हुई । सोचा, घर के लोगों को पता चला, तो खर्च कर डालेंगे । इसलिए किसी एकांत जंगल में गाड़ना चाहिए ।
एक स्थान चुना । रुपये का घडा लेकर रात्रि के समय गाड़ने चला । चोर छिपे थे, उन्हें संदेह हो गया । पीछा करते और छिपकर देखते रहे।
दूसरी रात चोरों की बारी आई । उन्होंने उसने जो गाड़ा था, खोद लिया और गढ्डा मिट्टी से भर दिया ।
कुछ दिन बाद कृपण स्थान को देखने गया । पाया कि किसी ने उस धन को खोद लिया । घर लौटकर वह बुरी तरह से रोने लगा ।
दु:खद समाचार सुनकर सारा गाँव एकत्र हो गया । एक को यह कहते सुना गया-"सेठजी, यह धन किसीकाम तो आता नहीं था । एक जगह से उठकर दूसरी चला गया, तो क्या हर्ज हुआ?"
उसी धन की सार्थकता है, जो काम आए और उत्पादन-चलन में घूमता रहे ।
ऐसे बड़े किस काम के?
गिलहरी मटर के खेत में जाती और थोड़ी देर में पेट भर लाती ।
एक दिन उसके मन में आया कि बड़ी के पास क्यों न चला जाय? जहाँ से कुछ ज्यादा और मजेदार खाने को मिले ।
वह सेमल के एक लंबे-चौड़े पेड़ पर चढ़ गई । उस पर सैकड़ों हरे-हरे फल लटक रहे थे । दाँत गडाने परउसमें से सिर्फ रुई निकली और हवा के साथ इधर-उधर छितरा गई ।
गिलहरी ने लंबी सांस भरते हुए कहा- "बड़े बेकार दरख्तों से वे छोटे पौधे अच्छे, जो किसी की भूख बुझानेके काम आते रहते हैं ।"
गाँधी जी को टोपी
जिनके अंत:करण उदार होते हैं, उनके लिए छोटी से छोटी वस्तु का महत्व होता है । सारा विश्व जिनका कार्य क्षेत्र हो, वे संकीर्णता की परिधि में कैसे बँध सकते है ।
एक किसान गाँधी जी के दर्शन करने पहुँचा । नंगा सिर देखकर उसे आश्चर्य हुआ । पूछा-"गाँधी टोपी दुनिया भर में मशहूर है, फिर आप स्वयं गाँधी होते हुए भी वह टोपी क्यों नहीं लगाते?" गाँधी जी ने उसके सिर पर बँधे हुए लंबे-चौड़े साफे की ओर इशारा करते हुए कहा-"जब एक-एक व्यक्ति इतना कपड़ा सिर पर लपेटेगा तो बहुतों को नंगे रहना ही पड़ेगा । ऐसे ही लोगों में से एक, आप मुझे भी समझ सकते है ।"
सशर्त आशीर्वाद
बुद्ध शिष्यों को धर्म प्रचार के लिए विदा कर रहे थे । लंबे प्रवास में कठिनाइयाँ आने और नए स्थानोंपर विरोध होने, पराजय मिलने की आशंका व्यक्त की जा रही थी ।
असमंजस का निवारण करते हुए तथागत ने सशर्त आशीर्वाद दिया, कहा-"जब तक तुम लोग संयमीरहोगे, परस्पर मित्र भाव बरतोगे, जो मिलेगा उसे मिल-बाँट कर खाओगे और लोकमंगल को धर्म की आत्मा मानते रहोगे, तब तक कठिनाइयाँ तुम्हें पराजित न कर सकेंगी ।"
आदेशों को हृदयंगम करके वे देश-देशांतरों में बिखर गए और धर्मचक्र प्रवर्तन को चरम सीमा तक सफल बनाने में समर्थ हुए ।
तीन सूत्र
पारसी धर्म के तत्वज्ञान का सार तीन वाक्यों में है-हुमदा, अर्थात् अच्छे विचार । हुखता, अर्थात् वही बोलना और हुवस्ता, अर्थात् नेक काम ।
बौद्ध धर्म का सार भी तीन शब्दों में है-बुद्धं शरणं गच्छामि, अर्थात् विवेक का आश्रय लो । धर्म शरणंगच्छामि, अर्थात् अपने आचरण में धर्म का समावेश करो । संघ शरणं गच्छामि, अर्थात् मिल-जुल कर रही ।
निरमात् सहयोगेन समुदायं तथा व्यधात् । मिलित्वा शुभकर्माणि दानाऽऽदानेऽध्यगादपि॥३९॥ आदिकालात् क्रमादत्र प्रगते: पथिसंचलन् । आगतो वर्तमानां च स्थितिं विकसितां पराम् ॥४०॥ सहकारप्रधानश्च स्वभावोऽत्र विशिष्यते । नैकाकिनो महामर्त्या:न्यवात्सु कुत्रचिद भुवि ॥४१॥ निर्ममुस्ते समूहं तु प्रयासैश्च समूहगै:। संकल्पा सुमहान्तस्तै: पूरिता: शीघ्रमेव च ॥४२॥ सत्प्रयोजनहेतोश्च सहकार: स्थिरो दृढ़ । प्राप्यते येषु लोकस्य हितं कर्मसु संस्थितम्॥४३॥ यथा तथोदयं याति सहयोगस्य शोभना। लोकश्रद्धा जगत्पीडा तमिस्त्रा चन्द्रिका शुभा॥४४॥
टीका-इसीलिए मनुष्य ने सहयोगपूर्वक समुदाय गठित किए, मिल-जुलकर काम करना सीखा। आदान-प्रदान का क्रम अपनाया और अनादिकाल से लेकर क्रमश: प्रगतिपथ पर चलता हुआ वर्तमान स्थिति तक आ पहुँचा । इसमें उनके सहकार प्रधान स्वभाव का ही चमत्कार है । महामानव एकाकी नहीं रहे । उनने समूह बनाए और सामूहिक प्रयासों के बल पर बड़े संकल्प शीघ्र पूरे किए हैं । ठोस और स्थायी सहकार सत्प्रयोजनों के लिए ही मिलता है । जिन कार्यों के पीछे लोकहित का जितना समावेश रहता है । उनमें सहयोग देने भी लोक श्रद्धा उतनी ही उमड़ती है, जो संसार की व्यथा रूपी रात्रि में चंद्रिका के उदय के समान सिद्ध होती है॥३९-४४॥
अर्थ-सामूहिकता एक ऐसी शक्ति है, जिससे सारे संसार को जीता जा सकता है । निर्बल वर्ग भी जब अपनों का साथ लेकर खड़ा हो जाता है, तो शक्तिवानों को भी उनके आगे पराजय स्वीकार करनी पड़ती है ।
समूह बल
विष्णु के वाहन गरुड़ को देखकर शिव के गले में पड़े सर्प फुसकारने लगे और युद्ध की चुनौती देने लगे।
गरुड़ ने कहा-"सर्प तुम तो मेरा भोजन हो । तुम जो चुनौती दे रहे हो, वह निश्चय ही शिव के शरीर परलिपटे अनेक सर्पो के बल का परिणाम है ।"
"हे नागेश, यह तुम्हारा नहीं, संघ शक्ति का बल है ।"
जीवन के किसी भी क्षेत्र में प्रगति का एक ही सिद्धांत है-'सहकार' । समूह बल को पहचान लेने वाले आश्चर्यजनक सफलताएँ पाते देखे गए हैं ।
सुई से टैंक तक
जमशेद जी टाटा के पिता पारसी समाज में पुरोहित का काम करते थे । सूरत जिले के नवसारी गाँव में उनका जन्म हुआ । ऊँची शिक्षा का प्रबंध न हो सका । वे नवसारी छोड़कर बंबई चले गए । वहाँ छोटे-मोटे उद्योग करते रहे । पीछे उनने बड़े कदम उठाये । अनेक लोगों की सामूहिक शक्ति की कल्पना आते ही उन्होंने नागपुर में कपड़ा मिल लगाया । चलने तो वह भी लगा; पर बिहार के जमशेदपुर में उनने लोहे का एक बड़ा कारखाना लगाया । अब सुई से लेकर टैंक-ट्रैक्टर तक उसमें तैयार होता है ।
टाटा ने मजदूरों को अधिक से अधिक सुविधाएँ देने का प्रावधान रखा । इसके बाद भी टाटा फाउंडेशन केअंतर्गत चल रही कितनी ही संस्थाओं के संचालन का ढाँचा खड़ा किया । विदेशों के धनपति अपने पैसे कोसार्वजनिक कार्यो में लगाने के लिए प्रसिद्ध है । टाटा को उसी श्रेणी में गिना जा सकता है ।
बिनोवा जी ने सर्वोदय का एक नया दर्शन दिया और यह दिखाया कि संसार चाहे तो कुछ ही दिनों मेंआदान-प्रदान की प्रक्रिया अपनाकर भारी से भारी संकट टाल सकता है।
भूदान यों चला
हैदराबाद के ललगोंडा इलाके में मची हुई मारकाट को दूर करने के लिए संत बिनोवा ने वहीं से भुदान आंदोलन आरंभ किया । उदारमना लोगों ने अपनी जमीनें देना आरंभ किया । सबसे पहले बिनोवा की पुकार पर रामचंद्र रेड्डी ने अपनी फालतू जमीन दी । इसके बाद वह सिलसिला चल पड़ा और भूदान में एक लाख एकड़ जमीन तक दान में मिली ।
प्रारंभ में लोगों को इस तथ्य से अवगत कराने का काम महापुरुष पूरा करते आये हैं, इसलिए परमार्थ कोसहकारी प्रगति का पिता कहा गया है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही संभव नहीं ।
सफलता मिली पर इस तरह
अमेरिका में कानून द्वारा नीग्रो समुदाय को समानता के अधिकार मिल गए थे; पर उनका व्यावहारिक उपयोग नहीं के बराबर होता था । जिन परिस्थितियों में उनके बाप-दादों को गुलाम की जिंदगी जीनी पड़ती थी, लौट-पलट कर वे उसी में रहने के लिए बाधित किए जा रहे थे।
इन परिस्थितियों को बदलने के लिए आवश्यक था कि नीग्रो समुदाय स्वयं अपने पैरों खड़ा हो और अधिकारों की लड़ाई लड़े । पर इसके लिए उन्हें साहस प्रदान कौन करे? यह कार्य एक अमेरिकन महिला डैविडऐंजिलो ने अपने कंधों पर लिया । कैलीफोर्निया के कॉलेज में उन्हें छात्रवृत्ति मिली । पढ़ाई जारी रखने के अलावा उन्होंने नीग्रो जागरण में भाग लिया । पी० एच० डी० की और एक कॉलेज में अध्यापिका हो गयीं । आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी होते हुए भी अपने काम के लिए उन्हें भारी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी । नौकरी से निकाली गयीं । जेल गईं । फिर भी अपना काम नहीं छोड़ा । नीग्रो समुदाय को उनके नेतृत्व में जो सुविधाएँ उपलब्ध हुई, उसके लिए वे सदा इस तेजस्वी महिला के कृतज्ञ रहेंगे ।
संतों को इसी कारण लोक श्रद्धा मिली। महामानवों का उत्पादन इसीलिए आवश्यक है; क्योंकि उनसे सारे राष्ट्र की प्रगति का प्रकाश मिलता है ।
संत की गरिमा
ईरान और तुर्की में लंबी लड़ाई चली। असंख्यों हताहत हुए । इसी बीच किसी प्रकार संत फरीउद्दीन तुर्कों के हाथ पड़ गए । उन पर जासूसी का इज्जाम लगाया गया और मौत की सजा सुना दी गई ।
संत उन दिनों अत्यधिक लोकप्रिय थें। जन-जन उन्हें प्यार करता था । बचाने के लिए कई उपाय किए गए । धनिकों ने कहा-"हम उनके बराबर सोना दे देंगे, संत को छोड़ दिया जाय ।" इस पर भी तुर्क तैयार न थे; वे उन्हें मारने पर उतारू थे ।
अंत मैं ईरान के बादशाह ने संत को छुड़ाने के बदले अपना सारा राज्य तुर्को को देने का प्रस्ताव रखा ।
संत की गरिमा काम कर गयी । संधि हुई। लड़ाई बंद हो गयी और संत भी वापस लौट आए ।
जिस देश ने इस सच्चाई को समझा, जिन जातियों में अपने जातीय जीवन के लिए यह परमार्थ जागा, वेजातियाँ महान् बनीं। जापान वह देश है, जिसने प्रथम परमाणु युद्ध का आघात झेला, तो भी अपने नागरिकों की इसी निष्ठा के कारण आज समर्थ राष्ट्रों के समकक्ष खड़ा हुआ है ।
परमार्थ में घर जलाया
जापान के एक गाँव में मेला लगा हुआ था । नर-ररियों की भारी भीड़ उसे देखने जमा थी । एक वृद्ध हागामूची ने देखा कि समुद्र बहुत पीछे हट गया है। इतना तो भाटे के दिनों में भी नहीं हटता था । इस आश्चर्य का कारण उसकी समझ में आया । जब वह बच्चा था, तब भी इसी प्रकार एक बार समुद्र हटा था और उसके तुरंत बाद इतने जोर का उछाल आया था कि तटवर्ती गाँव उसमें बह गए थे । इस विपत्ति की सूचना वह मेले वालों को कैसे दे? इसका उपाय उसे एक ही सूझा । टीले पर बने हुए अपने घर में आग लगा दी । उसे बुझाने के लिए भीड़ टीले पर पहुँची । इतने में ही बाढ़ आ गयी । लोग टीले पर खड़े थे, इसलिए बच गए ।
हागामूची की परमार्थपरायणता पर सभी लोग बड़े कृतज्ञ हुए । थोड़े दिन बाद उसके मर जाने पर लोगों नेउसका स्मारक बनाया, जो अभी तक है ।
गले, पर महक फैलायी
संत-महामानव गलने के बाद समर्पण के कारण अपने परिकर को धन्य बना देते हैं । इसी कारण वे विश्व वद्य बनते है ।
रात कि आँधी में बगीचे के खिले फूल जमीन पर गिर पडे़ और उसके नीचे दब गए ।
कई दिन बाद माली ने इस मिट्टी को बर्तन माँजने के लिए उठाया, तो वह महक रही थी । वह इसका कारणखोजने लगे ।
दबे हुए फूलों ने कहा-"हम मिट्टी की गोद में खेले और अपनी खुशबू उसे प्रदान की । पर साथ ही यह भीदेखो कि गलने की स्थिति में भी हमने मिट्टी की गुणहीनता नहीं अपनायी, उसे महकाया है ।
मरने के बाद प्रेरणा पुञ्ज बने
तब हसन जौहरी का धंधा करते थे । उन्हें व्यवसाय प्रयोजन से रोम के सुलान से मिलना था । सो वह पहुँचे । सुल्तान कहीं बाहर जाने की तैयारी में थे । मंत्रियों ने हसन से कहा-"इस समय मिलना संभव नहीं । लौटने तक प्रतीक्षा करो, अथवा हम लागों के साथ चलने की बात सोचो ।" हसन ने साथ चलना बेहतर समझा, सो वे भी चल पडे़ ।
जहाँ पहुँचना था, वहाँ एक तंबू गड़ा था और भीतर मजार सुल्तान के लड़के की थी । सभी लोग भीतरघुसते, शिजदा करते और डेरे की परिक्रमा करते । साथ ही कुछ कहते भी जाते ।
हसन दूर खड़े यह सब देख रहे थे । उनने काफ़िले के समझदार आदमी से चुपके से पूछा-"यह सब क्याहो रहा है?'' उसने जबाव दिया-"डेरे के भीतर शहजादे की मजार है । यहाँ हर साल सैनिक, डाक्टर, संबंधी सभी आते हैं और कसमें खाते हैं कि यदि हमारी शक्ति तुम्हें बचा सकी होती, तो हम प्राण देकर भी तुम्हें बचा लेते। होता वही है, जो अल्लाह को मंजूर हो। सो तुम्हारी रूह से अपने आप की वास्तविकता जताने आये है । किसी व्यक्ति की उपेक्षा तुमने समझी हो, तो माफ करना ।"
हसन भी काफिले के साथ लौटपड़े और उस दृश्य के आधार पर अपना समूचा जीवन क्रम ही बदल लिया ।