• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • प्राक्कथन
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-2
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-3
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-4
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-5
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-6
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-8
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-8
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -1
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -2
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -3
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -4
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -5
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -6
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-1
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-2
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-3
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-4
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-5
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-6
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-1
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-2
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-3
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-4
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-5
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-6
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-7
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-8
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -1
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -2
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -3
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -4
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -5
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -6
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -7
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -8
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -9
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -10
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-1
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-2
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-3
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-4
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-5
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-6
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-7
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-8
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-1
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-2
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-3
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-4
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-5
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-6
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-7
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-8
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-9
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • प्राक्कथन
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-2
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-3
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-4
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-5
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-6
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-8
    • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-8
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -1
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -2
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -3
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -4
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -5
    • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -6
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-1
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-2
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-3
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-4
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-5
    • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-6
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-1
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-2
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-3
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-4
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-5
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-6
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-7
    • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-8
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -1
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -2
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -3
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -4
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -5
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -6
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -7
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -8
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -9
    • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -10
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-1
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-2
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-3
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-4
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-5
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-6
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-7
    • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-8
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-1
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-2
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-3
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-4
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-5
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-6
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-7
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-8
    • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-9
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - प्रज्ञा पुराण भाग-2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT TEXT SCAN TEXT TEXT SCAN SCAN


।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-2

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 21 23 Last

आसां दुरुपयोगं नो प्राणिनोऽन्ये तु कुर्वते । स्वस्थं जीवन्त्यत: सर्वे ससुखं सर्वदैव च ।। १० ।। केवलं मानवोस्त्येष दर्पोन्मत्तस्तु यः सदा । मर्यादास्ताभिनचाऽसंयम: स्वीकरोति च ।। ११ ।। प्रकृतेर्दण्डसंस्थित्या स्खलत्येव पदे-पदे । दु:सहं दु:खमाप्रोपि समुदायोऽत्र सोइब्रवीत् ।। १२ ।।
टीका-अन्य प्राणी इनका अपव्यय-दुरुपयोग नहीं करते, अतएव स्वस्थ और सुखी जीवन जीते हैं । मात्र मनुष्य ही ऐसा है, जो दर्प में उन्मत्त होकर मर्यादाओं को तोड़ता है, असंयम बरतता है और प्रकृति की दंड-व्यवस्था के अनुसार पग-पग पर ठोकरें खाता और दुःसह दुःख सहता है ।। १०- १२ ।।
अर्थ-रोग और दुःखों के कारण भगवान की ओर से किसी सामर्थ्य की कमी से पैदा नहीं होते । वे होते हैं ईश्वरीय प्रकृति द्वारा स्थापित मर्यादाओं के उल्लंघन से । जब तक उल्लंघन बंद करके अनुशासन को अंगीकार नहीं किया जाता, सारे उपचार बेकार हो जाते हैं । यह मर्यादाएँ वह समझता तो है पर उन्मत्त होकर उन्हें भूल जाता है, तोड़ देता है ।
केवल मनुष्य ही रोगी क्यो? 
ब्रह्मचारी शाकुंतल गुरु आज्ञा से अनुभव संपादन के लिए कई वर्षों तक भूमंडल के विभिन्न भागों में भ्रमण करते रहे । निर्धारित अवधि पूरी होने पर आश्रम में पहुँचे । कुलपति महर्षि मुद्गल जीको प्रणाम किया । अपनी यात्रा का विवरण सुनाया, स्नेह पाया ।
समय पाकर शाकुंतल ने कहा-''गुरुदेव! मैंने एक आश्चर्य देखा । पृथ्वी पर रहने वाले, वृक्षों पर निवास करने वाले, जलचर तथा नभचर सभी प्राणियों को नीरोग जीवन जीते देखा । उन्हें कहीं चोट लग जाय, घायल हो जाँय यह और बात है, परंतु जुखाम, खाँसी, ज्वर जैसे सामान्य रोग भी उन्हें नहीं होते, श्वांस, हृदय रोग, राजयक्ष्मा (टी०बी०) जैसे रोगों का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता ।''
गुरुदेव मुस्कराये, बोले-''क्या मनुष्य के साथ रहने वाले पालूत पशु पक्षियों को भी रोगी होते नहीं देखा ?''
बटुक ने कहा-''हाँ उन्हें बीमार होते देखा है, परंतु वे सामान्य रोगों से ही ग्रस्त होते हैं और मनुष्य की अपेक्षा जल्दी आरोग्य लाभ कर लेते हैं । ''
गुरुदेव ने समझाया-''वत्स ! मनुष्य को यह दंड प्राकृतिक नियमों के उल्लंघन के कारण मिलता है । अन्य जीवों में प्रकृति का उल्लंघन करने जितनी समझ या नासमझी नहीं है, इसलिए वे नीरोग हैं । पर रोग का संकेत मिलते ही सहज वृत्ति से प्रेरित उस मर्यादा में आ जाते हैं और जल्दी आरोग्य लाभ करते हैं ।''
हे तात, चिकित्सालय और कुशल चिकित्सकों की संख्या कितनी भी बढ़ जाय, जब तक मनुष्य संयम से,मर्यादा से दूर रहेगा, उसे रोगों से मुक्ति नहीं मिलेगी । इसलिए संयम की प्रेरणा जन-जन को देकर ही उन्हें रोगों और दु:खो से बचाया जा सकता है । चिकित्सा व्यवस्था केवल सहायक निभा सकती है ।
मानवी उन्मत्तता 
आहार-सभी प्राणी अपने निधारित आहार ही करते । साथ ही पचाने की सीमा का ध्यान रखते हैं । गाय, घोडे़, हिरन, खरगोश आदि घास, पत्तियाँ ही खाते हैं । जंगल में उन्हें खाद्य की कोई कमी नहीं रहती, पर वे अपनी सीमा से बाहर कभी नहीं खाते । चूहे अनाज की खोह में घुसकर भी खाते हैं, पर अति आहार से पेट फूल कर कोई चूहा मर गया हो ऐसा नहीं देखा गया । मांसाहारी शेर आदि यदि बड़ा शिकार कर लेते हैं तो भी अपनी सीमा से बाहर खाते नहीं जब वे भूखे होते हैं, तभी शिकार की और प्रवृत्त होते हैं ।
पर मनुष्य का ढंग विचित्र है । वह स्वाभाविक-अस्वाभाविक सभी पदार्थ खाने का प्रयास करता है । पेट भरने पर भी स्वाद या शेखी में अधिक खा जाता है । न खाने का कोई समय है, न सीमा । फलस्वरूप मानव एक मात्र ऐसा प्राणी है जिसका पेट खराब रहता है और अभक्ष्य खाकर विकार इकट्ठे करता है ।
काम सेवन की हर प्राणी की अपनी सीमा है । आयु परिपक्र होने पर तथा ऋतु विशेष आने पर ही वे काम सेवन करते है, उन पर कोई सामाजिक बंधन नहीं फिर भी स्वाभाविक सीमा-मर्यादा मानते हैं ।
मनुष्य प्राकृतिक मर्यादाएँ भी समझता है तथा सामाजिक शालीनता की भी उसे शर्म होती है । फिर भी उन्मत्त हो उठता हैं तथा दोंनों को भुलाकर अनियमितताएँ बरतता है । फलस्वरूप दुर्बलता, रोग, समय से पहले बुढ़ापा तथा बच्चों की संख्या बढ़ाकर दु:ख पाता है ।
श्रम एवं विश्राम के क्रम में सभी प्राणी अपनी प्राकृतिक मर्यादा के अनुरूप ही चलते हैं । दिन-रात का, सोने-जागने का उनका क्रम बिगड़ता नहीं । आलस्य में अपने शरीर को जंग लगने देने का मौका कोई जानवर नहीं देता । पर मनुष्य का जैसे कोई भी क्रम नहीं । दिन को रात, रात को दिन के ढंग से इस्तेमाल करता रहता है । मस्ती में रात भर जागेगा और आलस्य में दिन-दिन भर सोता रहेगा ।
इन्हीं सबके कारण वह कदम-कदम पर नुकसान और दुःख उठाता है । मर्यादाओं का उल्लंघन, प्रकृति के नियमों की उपेक्षा का परिणाम वह दैनंदिन जीवन में भुगतता है । जड़ों की अपेक्षा पत्तियों ओ सींचने की विडंबना उसके साथ भी घटती है । उपचार हेतु वह बहिरंग जगत में कारण खोजता, जीवाणु-विषाणु को कारण मानते हुए उन्हें मार भगाने का प्रयास करता है, ऐसे प्रयास निष्फल ही जाते हैं एवं रोग कभी जड़ से नष्ट नहीं होते ।
शेर, हाथी, गैंडा, चीता, बैल, भैंसे, गीध, शतुरमुर्ग, मगर, मत्स्य आदि न जाने ऐसे कितने थलचर, जलचर, नभचर जीव परमात्मा की सृष्टि में पाये जाते हैं जो मनुष्य से सैकड़ों गुना अधिक शक्ति रखते हैं । मछली जल में जीवन भर-तैर सकती है, पक्षी दिन-दिन भर आकाश में उड़ते रहते हैं । क्या मनुष्य इस विषय में उनकी तुलना कर सकता है? परिश्रमशीलता के संदर्भ में हाथी, घोड़े, ऊँट, बैल, भैंसे आदि उपयोगी तथा घरेलू जानवर जितना परिश्रम करते और उपयोगी सिद्ध होते हैं, उतना शायद मनुष्य नहीं हो सकता । जबकि इन पशुओं तथा मनुष्य के भोजन में बहुत बड़ा अंतर होता है ।
पशु-पक्षियों के समान स्वावलंबी तथा शिल्पी तो मनुष्य हो ही नहीं सकता । पशु-पक्षी अपने जीवन तथाजर्विनोपयोगी सामग्री के लिए किसी पर भी निर्भर नहीं रहते । वे जंगलों, पर्वतों, गुफाओं तथा पानी में अपना आहार आप खोज लेते है । उन्हें न किसी पथ-प्रदर्शन की आवश्यकता पड़ती है और न किसी संकेतक की । पशु-पक्षी स्वयं एक दूसरे पर भी इस संबंध में निर्भर नहीं रहते । अपनी रक्षा तथा आरोग्यता के उपाय बिना किसी से पूछे ही कर लिया करते हैं । यह भली-भाँति समझा जा सकता है कि पौष्टिकता की दृष्टि से स्वास्थ्य संवर्द्धक आहार ग्रहण करते हुए भी मनुष्य में जीव-जंतुओं जैसी सामर्थ्य, शक्ति क्यों नहीं होती? यदि उसने भी कृत्रिम जीवन छोड़कर संयम मर्यादाओं का परिपालन करनें का अभ्यास किया होता, आहार प्राकृतिक रूप में लिया होता तो सामर्थ्य की दृष्टि से वह भी उतना ही संपन्न होता जितने कि अन्य जीवधारी हैं । यह एक दुर्भाग्य ही है कि विचार संपदा, भाव संवेदना की दृष्टि से सुविकसित मनुष्य आहार-विहार के व्यतिक्रम के कारण सामर्थ्य क्षेत्र में अन्य जीवधारियों से पिछड़ जाता है ।
जनसमुदाय उवाच-
प्रज्ञ ब्रूतामिहास्माकं पुरोऽसंयमाशु तम् । यस्माद्धेतोर्नरोरोग शोकाक्रान्तश्च जायते ।। १३ ।। वयं सर्वे स्वरूपं तत्तस्य ज्ञातुं समुत्सुका: । परिणामं, च येन स्याज्जीवनं सफलं तु न: ।। १४ ।।
टीका-जनसमुदाय ने पूछा-हे प्रज्ञावान् ! उस असंयम का वर्णन कीजिए, जिसके कारण मनुष्य को रोग-शोकों से आक्रांत होना पड़ता है । हम सब उसके स्वरूप और प्रतिफल को जानने के इच्छुक हैं, जिससे हमारा मनुष्य जीवन सफल हो सके ।। १३ - १४ ।।
कौण्डिन्य उवाच-
चतस्त्रो भगवाञ्छक्ती: प्रत्येकस्मै नराय तु । दत्तवाञ्जन्मतो, शक्तिरिन्द्रियाणां मताऽऽदिमा ।। १५ ।। द्वितीया कालशक्तिश्च विचाराणां तृतीयका । साधनानाञ्चतुर्थी सा शक्ति: प्रोक्ता बुधैरिह ।। १६ ।। शक्तयस्तिस्त्र एतेषां शरीरे मनसि स्थिता: । चतुर्थी विपुलायां सा मात्रायां विद्यतेऽभित : ।। १७ ।। सम्पदा प्रकृतेरत्र पुरूषार्थेन स्वेन या: । अर्जितुं शक्यते मत्यैंर्यथेच्छं प्रकृते सदा ।। १८ ।।
टीका-कौण्डिन्य बोले-हे सज्जनो ! भगवान ने हर मनुष्य को चार स्तर की शक्ति जन्मजात रूप से प्रदान की है, इनमें एक है-इंद्रियशक्ति, दूसरी-समयशक्ति, तीसरी-विचारशक्ति और चौथी-साधनाशीक्त । तीन शक्तियाँ उसके शरीर और मन में भरी पड़ी हैं । चौथी प्रकृति सम्पदा के रूप में सर्वत्र विपुल परिमाण में विद्यमान है । वह अपने पुरुषार्थ द्वारा उसमें से जितनी चाहे बटोर सकता है ।। १५-१८ ।।
अर्थ-यहाँ चारों शक्तियों के स्वरूप और अनुशासन समझने योग्य हैं । इनमें इंद्रियशक्ति और विचारशक्ति यह हर प्राणी के साथ पैदा होती है । मनुष्य कों यह अन्यों की अपेशा विशेष क्रम में प्राप्त है । संसार की सारी कुशलताएँ इन्हीं शक्तियों के प्रयोग से बनी हैं, जैसे मजदूर, पहलवान आदि इंद्रिय शक्ति के बिना काम नहीं कर सकते । विद्धान्, वकील, विचारकों में विचारशक्ति प्रधान होती है, परंतु इद्रियशक्ति के बिना वे उसे व्यक्त नहीं कर सकते ।
पहलवान, खिलाड़ी, चित्रकार, शिल्पी, संगीतकार-यह सब अपने विचार संयोग से इंद्रियों का कलात्मक प्रयोग कर सकने में कुशल हो जाते हैं । साधना एवं अभ्यास द्वारा इन दोनों शक्तियों को विकसित तथा उचित अनुपात में संचित किया जाता है।
शिक्षक, विद्वान, वकील, डाक्टर, इंजीनियर, लेखक अपनी विचारशक्ति को इंद्रियशक्ति के सहारे प्रकट करतें हैं । लिखना आपरेशन करना, पढ़ना आदि क्रियाएँ इसी क्रम में आती हैं ।
समय सम्पदा-इंद्रिय और विचार शक्तियों की तरह मनुष्य के अधिकार में नहीं होती। वह उसे घटा-बढ़ा नहीं सकता । परंतु वह मिलती सबको है । प्रतिदिन २४ घंटे सबको मिलते हैं । जब तक जीवन हैतब तक समय भी मिलता है । पर उसका मूल्य मनुष्य अपनी इंद्रिय और विचार शक्ति के संयोग से ही पा सकता है । इस संयोग की कुशलता को पुरुषार्थ कहा जाता है । जो किसी समयावधि में अपनी इंद्रिय और विचार शक्ति का जितना अच्छा उपयोग कर सकता है वह उतना ही पुरुषार्थी कहा जा सकता है ।
साधन शक्ति दैवी संपदा है । साधन सब भगवान ने बना रखे हैं मनुष्य इनका रूपांतरण भर अपनी इच्छा के अनुसार कर सकता है । यही नहीं उन्हें कहीं अपनी या किसी दूसरे की अधिकार सीमा में एकत्र भी कर सकता है । परंतु उनको इच्छानुरूप स्वरूप देना या एकत्रित करना बिना पुरुषार्थ के संभव नहीं । इसीलिए ऋषि कहते हैं कि इन्हें पुरुषार्थ के द्धारा जितना चाहे बटोरा जा सकता है । संसाधनों की विपुल संपदा प्रकृति के भंडागार में समायी हुई है । अनेक व्यक्ति पराक्रम-पुरुषार्थ से इन्हें हस्तगत कर संपन्न होते, स्वयं को पुष्ट बनाते देखे जा सकते हैं । लेकिन इस उपयोग की भी अपनी सीमा है । जब यहअनावश्यक दोहन की स्थिति में पहुँच जाता है तो उसे प्रकृति की प्रताइनाएँ भी सहनी पड़ती हैं । यही बात प्रकारांतर से अन्य तीन मानव की सीमा रेखा में आने वाली शक्तियों-इंद्रिय संपदा, समय संपदा एवं विचार संपदा पर भी लागू होती है । जब इनका महत्व भूलकर इनका अनावश्यक दुरुपयोग किया जाता है एवंइन्हें व्यर्थ ही अकारण नष्ट किया जाता है तो मनुष्य को तरह-तरह के त्रास भुगतने पड़ते हैं । जितनी महत्वपूर्ण निधियाँ ये सभी शक्तियाँ अपने आप में हैं, उतना ही महत्वपूर्ण उनका सार्थक सदुपयोग एवं सुनियोजन भी है । ऋषि इसी कारण मनुष्य के रोग-शोकों का कारण जानने के लिए असंयम के स्वरूप का भी स्पष्टीकरण चाहते हैं ताकि हानियों को जानते हुए मनुष्य उनसे बचने के उपाय सोच सके ।
समय की कीमत 
एक व्यक्ति ने एकं संत को कहते कि समय बेश कीमती है । उसकी मनचाही कीमत प्राप्त सकती है । वह लोगों के पास जाकर कहने लगा-''मेरा समय बहुमूल्य है, सौ रुपये प्रतिदिन के हिसाब से आप ले सकते है । लोगों ने पूछा-''जो समय हम खरीदेंगे, उससे तुम करोगे क्या?''
व्यक्ति बोला-''मैं तो समय बेच रहा हूँ, उसका आप चाहे जो उपयोग कर लेना, मैं कोई मेहनत क्यों करूँगा?'' लोगों में किसी ने उसे दुत्कार दिया, किसी ने पागल कह कर भगा दिया । वह उन्हीं संत के पास पहुँचा और समय के बदले एक भी पैसा नं मिलने की शिकायत की।
संत हँसे और बोले-'' बेटे, समय की कीमत जरूर मिलती है । पर वह तो कोरा चैक है, उस पर श्रम की कलम और विचार की स्याही से मूल्य भरा जाता है । श्रम और विचार मिलकर जितना मूल्य भर देते हैं उतना अवश्य मिल जाता है ।
शक्तियों का संयोग 
राजा अग्रिमित्र और श्रेष्ठि सोमपाल मित्र थे। उनमें बहस हो गयी । सोमपाल ने कहा-''राज्य का संरक्षण उपयोगी तो है, पर अनिवार्य नहीं । ईश्वर प्रदत्त विभूतियों और साधनों से मनुष्य बहुत मजे में रह सकता है ।'' राजा ने उग्र होकर चुनौती दो-''अच्छा एक वर्ष नगर में मत घुसना, जंगल की सीमा में रहना । अंदर आये तो जेल में डाल दूँगा । हार मान लोगे तो प्रतिबंध हटा दूँगा और यदि एक वर्ष में कुछ उल्लेखनीय करके दिखा दोगे तो मैं हार मान लूँगा ।''
सोमपाल सीमित साधन लेकर जंगल में प्रवेश कर गए । वहाँ एक निराश लंकडहारा मिला । श्रम बहुत करनेपर भी परिवार का पोषण ठीक से नहीं कर पाने से दु:खी था । सोमपाल ने उसे उत्साहित किया, कहा-''मित्र ,'तुम मुझे श्रम से सहायता देना, मैं तुम्हें विचार से सहायता दूँगा । दोनों मिलकर बड़ा काम कर लेंगे ।'' लकड़हारा राजी हो गया ।
सोमपाल ने उससे कुल्हाडी ले ली । स्वयं लकड़ी काटने लगे और उसे नगर के समाचार लेने भेज दिया । प्राप्त सूचनाओं के आधार वे उसे जलाऊ और इमारती लकड़ी बेचने भेजने लगे । धीरे-धीरे काम बढ़ निकला । अधिक मजदूर बुलाकर अधिक काम होने लगा । नगरवासी उस व्यवस्था का लाभ उठाने लगे ।
तभी पता लगा कि एक विशाल यज्ञ होने वाला है । सोमपाल ने यज्ञीय समिधाओं तथा सुगंधित वनौषधियों का संग्रह कर लिया । यज्ञ संयोजकों को सूचना मिली तो अच्छे मूल्य पर तैयार वस्तुएँ खरीद ली गयीं, इसी प्रकार नगर की ढेरों आवश्यकताएँ सोमपाल के तंत्र से पूरी होने लगीं ।
राजा को सूचना मिली तो उस तंत्र के पीछे कौन है यह खोजा गया । राजा अपने मित्र से मिलने स्वयं गए ।
प्रेम से मिले, पूछा-''तुम तो शहर में घुसे नहीं, यह सब कैसे विकसित किया?'' सोमपाल बोले-''मित्र, यह मेरीविचारशक्ति और लकड़हारे की शरीर शक्ति का संयोग है । इसी के संयोग से वन संपदा नगरवासियों के काम आईऔर एक वर्ष का समय हम सबके लिए बहुमूल्य बन गया ।''
जो सामने है-वही महत्वपूर्ण 
एक जिज्ञासु ने पूछा-''सबसे महत्वपूर्ण काम कौन-सा है? सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति कौन है? और सबसे अच्छा समय कब होता है?''
ज्ञानी ने समाधान किया-''जो काम हाथ में है वही सबसे महत्वपूर्ण है । इसी प्रकार जो साथ काम करता है वही सबसे उपयुक्त है और वर्तमान समय ही सबसे उत्तम मुहूर्त है । इसे गँवाओ मत ।''
पत्ते नहीं, जड़ प्रधान 
हरे पत्ते इठला रहे थे कि हमारे ही कारण पेड़ की शोभा और सुंदरता है । छोटी टहनियाँ बोलीं-''तुम्हारा कहना तो सही है पर यह बताओ, हमारा आश्रय तुम्हें न मिले तो हवा में कहाँ लटके रहोगें ?''
विवाद चल ही रहा था कि पड़ोस के एक अधेड़ पेड़ को आँधी ने उखाड़ कर फेंक दिया । कुसमुसाते हुए उसने कहा-''देखा, जड़ें कमजोर हों तो टहनी, पत्ते तथा तने में से किसी का भी अस्तित्व न बचे ।''
प्रसंग सुनाते, हुए ऋषि ने कहा कि मनुष्य की जड़ें-इंद्रिय शक्ति, विचार एवं समय संपदा के रूप में अंत: में विद्यमान हैं । जब तक ये मजबूत हैं, इनको कमजोर बनाने के प्रयास मनुष्य मूर्खतावश न कर रहा हो तब तक यह सुनिश्चित है कि मानवी काय-वैभव से संपन्न वृक्ष दृढ़ता से खड़ा रहेगा, आँधी-तूफानों, प्रकृति के व्यतिरेकों से भी तनिक भी विचलित न होगा । इस व्यवस्था में व्यतिक्रम होते ही काय सत्ता जीर्ण-शीर्ण होने लगती है । हाथ, पैर, नाक-नक्श कितने ही सुंदर क्यों न हों, वे पत्तियों-फूलों के सदृश हैं, जिनका वैभव अंत: की तीन शक्तियों के रूप में अवस्थित जड़ों पर निर्भर है ।
First 21 23 Last


Other Version of this book



प्रज्ञा पुराण भाग-2
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-3
Type: TEXT
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-1
Type: TEXT
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-4
Type: TEXT
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग 3
Type: SCAN
Language: HINDI
...

प्रज्ञा पुराण भाग-4
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books



गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Divine Message of Vedas Part 4
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • प्राक्कथन
  • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्
  • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-2
  • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-3
  • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-4
  • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-5
  • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-6
  • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-8
  • ॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-8
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -1
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -2
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -3
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -4
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -5
  • ।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -6
  • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-1
  • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-2
  • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-3
  • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-4
  • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-5
  • ।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-6
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-1
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-2
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-3
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-4
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-5
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-6
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-7
  • ।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-8
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -1
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -2
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -3
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -4
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -5
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -6
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -7
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -8
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -9
  • ।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -10
  • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-1
  • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-2
  • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-3
  • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-4
  • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-5
  • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-6
  • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-7
  • ॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-8
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-1
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-2
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-3
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-4
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-5
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-6
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-7
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-8
  • ॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-9
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj