श्रीमद्भगवद्गीता में योग साधना

देव संस्कृति विश्वविद्यालय में शारदीय नवरात्र में कुलाधिपति श्रद्धेय डॉ. प्रणव पण्ड्या जी की विशेष कक्षाए
देव संस्कृति विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए नवरात्र काल में कुलाधिपति श्रद्धेय डॉ. प्रणव पण्ड्या जी की विशेष कक्षाएँ अद्वितीय सुयोग है। यह ऐसा अवसर है, जिसमें युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के तप से अनुप्राणित देवभूमि के दिव्य वातावरण में विद्यार्थियों के व्यक्तित्व विकास, आत्मिक परिष्कार और मानवीय चेतना के उत्कर्ष के लिए उच्च स्तरीय मार्गदर्शन श्रद्धेय कुलाधिपति जी द्वारा दिया जाता है। उदात्त चिंतन और दिव्य वातावरण में की जाने वाली नवरात्र साधना व्यक्तित्व को प्रभावित करती ही है।
प्रस्तुत शारदीय नवरात्र में श्रद्धेय डॉ. साहब ने प्रतिदिन सायंकाल नौ दिनों तक ‘श्रीमद्भगवद्गीता में योग साधना’ विषय से जीवन साधना के बहुमूल्य सूत्र समझाये। उन्होंने गीता के विविध श्लोकों के माध्यम से साधना की सिद्धि में ‘मन’ के महत्त्व को बड़े विस्तार से बताया। उन्होंने कहा-यदि हम अपने मन को एकाग्र कर लेते हैं तो हमारा अंत:करण एवं आचरण निखरता जाता है। हमें सदैव अपने मन, शरीर और इंद्रियों को अपने वश में रखना चाहिए, जिससे किसी भी प्रकार का भटकाव न हो। यह योग तथा ध्यान से ही संभव है। योगाभ्यास से जीवन में शान्ति, आनन्द और ज्ञान की वृद्धि होती है।
ध्यान मन को एकाग्र करने का सर्वोत्तम साधन है। ध्यान के समय हमें सभी सांसारिक चिंताओं को छोड़कर केवल प्रभु का स्मरण करना चाहिए। लगातार ध्यान करने से शरीर और मन शान्त होता है एवं प्राणों का संचार होता है। मन की एकाग्रता के लिए व्यावहारिक जीवन में भी मन एवं इंद्रियों पर नियंत्रण रखना चाहिए।
ध्यान योग का साधक अपने रिश्ते-नातों से उठकर विश्वमय हो जाता है, जैसे स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द को विश्वमय व्यक्तित्व बनाने के लिए तैयार किया। स्वामी विवेकानन्द ने हर किसी के दु:ख-दर्द को अपना समझकर पूरे विश्व को एक नई दिशा दिखाई। ध्यान में हमारा लक्ष्य भी विश्वमय व्यक्तित्व होना चाहिए।
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