अपने अन्दर के भगवान् को जगाइये

संसार के छोटे कहे जाने वाले प्राणी एक निश्चित प्रकृति लेकर जन्मते हैं और प्राय: अंत तक उसी स्थिति में बने रहते हैं। इतना स्वार्थी मनुष्य ही था, जिसे अपने साधनों से तृप्ति नहीं हुई और उसने दूसरों के स्वत्व का अपहरण करना प्रारंभ किया। न्यायाधीश बनकर आया था; पर स्वयं अन्याय करने लगा। ऐसी स्थिति में परमात्मा के अनुदान भला उसका कब तक साथ देते; क्योंकि परमात्मा ने ही आत्मा को आच्छादित कर रखा है। आत्मा मेें जो भी शक्ति और प्रकाश है, वह सब परमात्मा का ही स्वरूप है। परमात्मा आत्मा से विलग कहाँ?
सम्पूर्ण देव शक्तियाँ इसमें समायी हुई हैं। जब अग्रि देव जाग्रत् होते हैं, तो भूख लगती है, वरुण देवता को जल की जरूरत पड़ती है। किसी को निद्रा की, तो किसी को जागृति की। सबकी अपनी दिशा-अपना काम है।
इनमें पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता न होती रहे और उनका नियंत्रण बराबर किया जाता रहे। इस दृष्टि से एक जबरदस्त नियामक सत्ता की आवश्यकता जान पड़ी, तो परमात्मा स्वयं उसमें आत्मा के रूप में समा गया। इस तरह इस अद्ïभुत मनुष्य जीवन का प्रादुर्भाव इस सृष्टि में हुआ। तब से लेकर आज तक मनुष्य निरन्तर एक प्रयोग के रूप में चलता आ रहा है। कभी वह गलती करता है, तो उस अपराध के बदले सजा मिलती है और यदि वह अधिक कर्तव्यशील होता है, तो उसे अधिक बड़े ईनाम और अधिकार दिये जाते हैं। गलती का परिणाम दु:ख और भलाई का परिणाम सुख। सुख और दु:ख का यह अंतद्र्वन्द्व आदिकाल से चलता आ रहा है।
जब मनुष्य के अन्तर का असुर-भाग बलवान हो जाता है, तो दु:खों में बढोत्तरी होती है। वर्तमान समय इस स्थिति की पराकाष्ठा है, यह कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। मनुष्य का यह पतन देखकर विश्वास नहीं होता कि उसके अंदर परमात्मा जैसी महत्त्वपूर्ण शक्ति का विकास हो सकता है। दुर्बल मनुष्य में सर्वशक्तिमान् परमात्मा ओत-प्रोत हो सकता है, इसकी इन दिनों कल्पना भी नहीं की जा सकती।
मनुष्य की इस दयनीय दशा का एक ही कारण है और वह यह है कि उसने अपनी मनोभूमि इतनी गंदी बना ली है, जहां परमात्मा का प्रखर प्रकाश पहँुचना सम्भव नहीं है। यदि सचेत रहकर उसने अपनी भलाई की शक्ति को जीवन्त रखा होता, तो वह जिन साधनों को लेकर इस धरती पर आया था, वे अचूक ब्रह्म अस्त्र है। उनकी शक्ति वज्र से भी प्रबल सिद्ध होती है। सृष्टिï का अन्य कोई भी प्राणी उसका सामना करने में समर्थ नहीं हो सकता। वह युवराज बनकर आया था। विजय, सफलतायें, उत्तम सुख, शक्ति, शौर्य-साहस, निर्भयता उसे उत्तराधिकार में मिले थे। इनसे वह चिरकाल तक सुखी रह सकता था। भ्रम, चिन्ता, शंका, संदेह आदि का कोई स्थान उसके जीवन में नहीं, पर अभागे मनुष्य ने अपनी दुरवस्था अपने आप उत्पन्न की। अंत:करण की-ईश्वरीय सत्ता की उपेक्षा करने के कारण ही उसकी यह दु:खद स्थिति बनी। अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने का अपराधी मनुष्य स्वयं है, इसका दोष परमात्मा को नहीं।
ईश्वरीय गुणों से पथ-भ्रष्टï मनुष्य की जो दुर्दशा होनी चाहिए थी, वह हुई। दु:ख की खेती उसने स्वयं बोई और उसका फल भी उसे ही चखना पड़ा। परमात्मा हमारे अति समीप रहकर प्रेम का संदेश देता है, पर मनुष्य अपनी वासना से (कुबुद्धि से) उसे कुचल देता है। वह अपनी सादगी, ताजगी और प्राण शक्ति से हमें सदैव अनुप्राणित रखने का प्रयत्न करता है, पर मनुष्य आडम्बर, आलस्य और अकर्मण्यता के द्वारा उस शक्ति को छिन्न-भिन्न कर देता है। कालान्तर में जब आंतरिक प्रकाश की शक्ति क्षीण पड़ जाती है, तो दु:ख और द्वन्द्व के बखेड़े बढ़ जाते हैं। तब मनुष्य को औरों की भलाई करना तो दूर, अपना ही जीवन भार रूप हो जाता है। परमात्मा की अंत:करण से विस्मृति ही कष्टï और क्लेश के बंधन का कारण है।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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