समग्र अध्यात्म
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अध्यात्म की त्रिवेणी प्रेम, ज्ञान और बल इन तीन धाराओं में प्रवाहित होती है। इन तीनों का संतुलित अभिवर्धन करने से ही कोई समग्र आध्यात्मवादी हो सकता है। प्रेम हमारे अन्त:करण का अमृत है। जिस प्रकार हम अपने स्वार्थ, सुख, यश, वैभव और उत्सर्ग को चाहते हैं उसी प्रकार दूसरों के लिए भी चाह उठने लगे, तो उसे प्रेम का प्रकाश कहना चाहिए। अपनापन ही सबसे अधिक प्रिय है। अपने शरीर, मन, यश, सुख की चाहत सभी को रहती है। यह अपना आपा जितना विस्तृत होता जाता है, वह उतना ही प्रिय लगता जाता है और उसे सुखी समुन्नत बनाने की परिधि विस्तृत होती जाती है और अपना ‘प्रिय’ क्षेत्र बढ़ता चला जाता है। उसके लिए सेवा सहायता करने की इच्छा होती है और जो सत्कर्म ही बनते हैं। अपनों के साथ दुष्टता कौन करता है? प्रेम भावना की वृद्धि मन में से सभी दुष्प्रवृत्तियों को हटा देती है और मनुष्य सज्जन और सच्चरित्र एवं सहृदय बनता चला जाता है। प्रेम असंख्य सदगुणों का स्रोत है इसलिए उसे अध्यात्म का प्रथम चरण माना गया है।
दूसरा घटक है- ज्ञान। यथार्थ को समझना ही सत्य है। इसी को विवेक कहते हैं। जीवन के लक्ष्य को हम भूल जाते हैं। आत्मकल्याण की बात विस्तृत हो जाती है और कत्र्तव्य धर्म का पालन करने की गरिमा समझ में नहीं आती। इन्द्रियों की वासना और मन की तृष्णा पूरी करने के लिए अहंकार की पूर्ति के लिए निरर्थक कार्य करते हुए जीवन बीत जाता है और पाप की गठरी सिर पर लद जाती है। यह सब अज्ञान का फल है। अपने को शरीर नहीं आत्मा मानकर चलें। आत्मकल्याण की दृष्टिï से जीवन क्रम निर्धारित करें और वासना, तृष्णा को अनियन्त्रित न होने दें। स्कूली शिक्षा या धर्म की पुस्तकें पढ़ लेने का नाम ज्ञान नहीं है। यह तो एक आस्था है जो अन्त:करण में प्रकाशवान होकर हमें सही और गलत का विवेक कराती है। यह ज्ञान जो जितना प्राप्त कर लेता हैं वह उतना ही सफल आत्मवादी कहा जाता है।
तीसरा चरण है- बल। निर्बल को न सांसारिक सुख मिलता है न आत्मिक। हमें बलवान बनना चाहिए। मनोबल के आधार पर ही आपत्तियों से निपटना-प्रगति के पथ पर बढ़ चलना सम्भव होता है। लोभ, मोह जैसे शत्रुओं को परास्त करते हुए-प्रलोभनों से बचते हुए आदर्शवादिता के मार्ग पर अपनी प्रवृत्तियों को मोड़ सकना साहसी और पराक्रमी व्यक्ति के लिए ही सम्भव है। जीवन का प्रत्येक क्षेत्र सामथ्र्यवान और सशक्त बनाना पड़ता है। आत्मिक, मानसिक, शारीरिक सभी दुर्बलताएँ दूर करनी पड़ती हैं और आर्थिक क्षेत्र में इतना स्वावलम्बी रहना पड़ता है कि किसी के आगे न हाथ पसारना पड़े।
मनुष्य की सत्ता तीन भागों में विभक्त है- अन्त:करण, मस्तिष्क और शरीर। इसी विभाजन को अध्यात्म की भाषा में कारण शरीर और स्थूल शरीर कहते हैं। अन्त:करण का वैभव है-प्रेम। मस्तिष्क का धन है-ज्ञान। शरीर का वर्चस्व है-बल। चूँकि शरीर से ही आर्थिक, पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्ध है इसलिए धन, व्यवहार कौशल और संगठन को भी इसी क्षेत्र में गिना जाता है। इन तीनों के समन्वय से ही समग्र अध्यात्म बनता है। एकांगी से काम नहीं चलता। अन्न, जल और वायु के त्रिविध आहार पर जीवन निर्भर है। आध्यात्मिक जीवन की यह तीनों प्रवृत्तियाँ समान रूप से आवश्यक हैं। इनका समन्वय ही त्रिवेणी का संगम है। इस तीर्थराज प्रयाग में स्नान करके ही हम जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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