ध्यानयोग का आधार और स्वरूप (भाग 2)

बच्चों के शरीर दिन भर उछल कूद करते रहते हैं। उसका प्रयोजन अभी यह होता है अभी वह। जैसा मूड आया वैसी गतिविधियाँ अपनाने लगे। चिड़ियों तथा बन्दरों जैसे पशुओं की अनगढ़ गतिविधियाँ किसी उद्देश्य विशेष के लिए नहीं अपितु अस्त-व्यस्त, अनगढ़ और अर्ध विक्षिप्त सी, ऐसी ही कुछ ऊट-पटाँग सी होती है। जिधर मुँह उठ जाता है, उधर ही वे चल पड़ते हैं, भले ही उस श्रम से किसी प्रयोजन की सिद्धि न होती हो।
मन को यदि अपने प्राकृतिक रूप में रहने दिया जाय तो उसकी कल्पनाएँ अनगढ़ एवं अनियंत्रित होती हैं। मनुष्य कभी भी कुछ भी सोच सकता है, कभी यह, कभी वह, कल्पना की उड़ानों में ऐसी बातें भी सम्मिलित रहती हैं जिनकी कोई सार्थकता नहीं होती। वैसा बन पड़ना तो सम्भव ही नहीं होता। इन बिना पंखों की रंगीली या डरावनी उड़ानों पर बुद्धिमत्ता ही यत्किंचित् नियंत्रण लगा पाती है और बताती है कि इस प्रकार सोचने से कुछ काम की बात निकलेगी। जिनकी बुद्धिमत्ता कम और कल्पनाशक्ति बचकानी होती है वे कुछ भी सोच सकते हैं। ऐसी बातें भी, जिनका अपनी वर्तमान स्थिति के साथ किसी प्रकार का तारतम्य तक नहीं बैठता।
शक्तियों को क्रमबद्ध रूप से किसी एक प्रयोजन के लिए लगाया जाय तो ही उसका कोई प्रतिफल निकलता है। बिखराव से तो बर्बादी के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। शरीर को नियत निर्धारित काम पर लगाये रहने पर ही कृषि, व्यापार, मजूरी जैसे काम बन पड़ते हैं और उपयुक्त लाभ मिलता है। आवारागर्दी में घूमते रहने वाले आलसी, प्रमादी अपनी श्रम शक्ति का अपव्यय करते हैं, फलतः उन्हें उपलब्धियों की दृष्टि से छूँछ ही रहना पड़ता है। यही बात मन के संबंध में है। मस्तिष्कीय ऊर्जा, मानसिक तन्तुओं को उत्तेजित करती है। फलस्वरूप रात्रि स्वप्नों की तरह दिवा स्वप्न भी आते रहते हैं और मनुष्य कल्पना लोक में विचरता रहता है।
यदि नियोजित बुद्धिबल कम हो तो व्यक्ति सनकी जैसा बन जाता है और उपहासास्पद कल्पनाएँ करता रहता है। भीतर की इच्छाएँ और आकाँक्षाएँ ही सुहावने और डरावने दिवा स्वप्न विनिर्मित करती रहती हैं और मस्तिष्क उन्हीं सनकों के जाल जंजाल में फंसा हुआ चित्र-विचित्र, संभव असंभव बातें सोचता रहता है। फलतः मस्तिष्क जैसे बहुमूल्य तंत्र का उत्पादन ऐसे ही बर्बाद होता है और उसका प्रतिफल नहीं के बराबर ही हस्तगत होता है। आवारागर्दी में बालकों, बन्दरों जैसी उछल कूद से मनोविनोद के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। मस्तिष्कीय बर्बादी, शरीरगत श्रम, समय की बर्बादी से भी अधिक हानिकारक होती है।
क्रमशः जारी
अखण्ड ज्योति 1986 नवम्बर पृष्ठ 3
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