‘साधना से सिद्धि’ में बाधक संचित दुष्कर्म (भाग 1)

संचित दुष्कर्मों को यथा स्थान छोड़कर–आत्मिक प्रगति की साधना कर सकना–किसी के लिये भी सम्भव नहीं, यह एक सुनिश्चित तथ्य है। कक्षाएँ उत्तीर्ण करके ही विद्यार्थी स्नातक की उपाधि पाते–उच्च पदाधिकारी बनते हैं। छलांगें भौतिक जगत में कई क्षेत्रों में लगाई जाती हैं और सफल भी होती हैं, पर आत्मिक क्षेत्र में ऐसी सुविधा नहीं है। संचित दुष्कर्मों से विनिर्मित प्रारब्ध न केवल विपत्तियों–असफलताओं का त्रास देता है, वरन् उच्चस्तरीय प्रगति के पथ पर चलने में भी अनेकों विघ्न उपस्थित करता है। रास्ते में अड़ी इन चट्टानों को हटाने−सरकाने के लिए साहसपूर्ण पराक्रम करना होता है। यही है वह प्रायश्चित प्रक्रिया जिसे तप साधना में वरिष्ठता–प्रमुखता दी गयी है।
कर्म फल की सम्भावना सुनिश्चित है। उसे विश्व व्यवस्था का एक अनिवार्य एवं अविच्छिन्न अंग ही समझा जाना चाहिए। इन संचयों को स्वयं ही भुगतना होता है। देव−दर्शन, नदी स्नान, पूजा, उपचार, कथा−वार्ता एवं छुटपुट कर्मकाण्डों का प्रयोजन इतना ही है कि उनसे परिशोधन, परिमार्जन की ओर ध्यान मुड़े, महत्व समझने का अवसर मिले और वह साहस उभरे जिससे कर्मफल भुगतने का दूसरा विकल्प प्रायश्चित स्वेच्छापूर्वक बन पड़े। प्रायश्चित के लिए किये जाने वाले व्रत उपवासों के सामयिक प्रतिफल भी होते हैं, किन्तु वास्तविक एवं चिरस्थाई लाभ देने वाला तथ्य यह है कि दुष्कृत्यों के प्रति घृणा उभरे, भविष्य में वैसा न करने का संकल्प मचले साथ ही जो किया गया हो उसकी क्षतिपूर्ति करने ही सदाशयता की खाई पाटने के लिए उत्साह उत्पन्न करें।
यह सारा संसार कर्म व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। भगवान ने दुनिया बनाई और उसके सुसंचालन के लिए कर्म विधान रच दिया। ‘जो जैसा करता है वह वैसा भोगता है, सिद्धान्त अकाट्य है। लोग भ्रम में इस लिए पड़ते हैं कि कई बार कर्मों का तत्काल फल नहीं मिलता। उसमें विलम्ब हो जाता है। यदि शुभ−अशुभ कर्मों का फल तत्काल मिल जाया करता तो फिर दूरदर्शिता, विवेकशीलता की आवश्यकता ही न पड़ती। आग छूते ही हाथ जल जाता है। इस प्रत्यक्ष तथ्य के कारण कोई आग में हाथ डालने की मूर्खता नहीं करता। किन्तु सुकृत्यों और दुष्कृत्यों का परिणाम तत्काल नहीं मिलता। उसके परिपाक में देरी हो जाती है। इतने में ही बालबुद्धि के लोग अधीर हो जाते हैं। पुण्य के सम्बन्ध में निराश और पाप के सम्बन्ध में निर्भय हो जाते हैं। जो करणीय है उसे छोड़ बैठते हैं और जो न करना चाहिए उसे करने लगते हैं। यही वह माया है जिसके बन्धनों में जकड़े हुए लोग दिग्भ्रान्त होते, भूल−भुलैयों में उलझते तथा भटकावों में खिन्न, उद्विग्न बने दिखाई पड़ते हैं।
क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी
अखण्ड ज्योति फरवरी 1982 पृष्ठ 47
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