गहना कर्मणोगति: (अन्तिम भाग)

दुःख का कारण पाप ही नहीं है
दूसरे लोग अनीति और अत्याचार करके किसी निर्दोष व्यक्ति को सता सकते हैं। शोषण, उत्पीड़ित और अन्याय का शिकार कोई व्यक्ति दुःख पा सकता है। अत्याचारी को भविष्य में उसका दण्ड मिलेगा, पर इस समय तो निर्दोष को ही कष्ट सहना पड़ा। ऐसी घटनाओं में उस दुःख पाने वाले व्यक्ति के कर्मों का फल नहीं कहा जा सकता।
विद्या पढ़ने में विद्यार्थी को काफी कष्ट उठाना पड़ता है, माता को बालक के पालने में कम तकलीफ नहीं होती, तपस्वी और साधु पुरुष लोक-कल्याण और आत्मोन्नति के लिए नाना प्रकार के दुःख उठाते हैं, इस प्रकार स्वेच्छा से स्वीकार किए हुए कष्ट और उत्तरदायित्व को पूरा करने में जो कठिनाई उठानी पड़ती है एवं संघर्ष करना पड़ता है, उसे दुष्कर्मों का फल नहीं कहा जा सकता।
हर मौज मारने वाले को पूर्व जन्म का धर्मात्मा और हर कठिनाई में पड़े हुए व्यक्ति को पूर्व जन्म का पापी कह देना उचित नहीं। ऐसी मान्यता अनुचित एवं भ्रमपूर्ण है। इस भ्रम के आधार पर कोई व्यक्ति अपने को बुरा समझे, आत्मग्लानि करे, अपने को नीच या निंदित समझे इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। कर्म की गति गहन है, उसे हम ठीक प्रकार नहीं जानते केवल परमात्मा ही जानता है।
हमें अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए हर घड़ी प्रयत्नशील एवं जागरूक रहना चाहिए। दुःख-सुख जो आते हों, उन्हें धैर्यपूर्वक स्वीकार करना चाहिए। मनुष्य की जिम्मेदारी अपने कर्तव्य धर्म का पालन करने की है। सफलता-असफलता या दुःख-सुख अनेक कारणों से होते हैं, उसे ठीक प्रकार कोई नहीं जानता।
समाप्त
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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