शत्रु बनाने का परीक्षित मार्ग (अन्तिम भाग)

अधिकतर व्यक्ति शिकायत करते हैं कि अमुक मित्र ऐसा है, अमुक सम्बन्धी ऐसा है। उनकी यह कमी है, आदि आदि। पर उस व्यक्ति के उन गुणों पर विचार ही नहीं करते जोकि अन्य व्यक्ति यों में उपलब्ध नहीं हैं और जिनके कारण उन अनेक उलझनों से बचे हुए हैं जिनमें अन्य व्यक्ति परेशान हैं। महर्षि बाल्मीकि ने भगवान राम की प्रशंसा करते हुए बार बार उन्हें ‘अनुसूय’ कह कर स्मरण किया है। अनुसूय अर्थात्—किसी के गुणों में दोष न देखने वाले।
पर दोष−दर्शन के पाप से मुक्ति पाने के लिये, गुण−चिन्तन का अभ्यास डालना चाहिए। प्रतिपक्षी के गुणों का विचार करना चाहिये। चीनी कवि यू−उन−चान की कविता की कुछ पंक्ति यों का अनुवाद हमारे इस कथन का समर्थक है:—
‘हे प्रभु! मुझे शत्रु नहीं—मित्र चाहिये
तदर्थ मुझे कुछ ऐसी शक्ति दे।
कि मैं किसी की आलोचना न करूं—गुणगान करूं”।
बैंजामिन फ्रैंकलिन अपनी युवावस्था में बहुत नटखट थे। दूसरों की आलोचना करना, खिल्ली उड़ाना उनकी आदत बन चुकी थी। क्या पादरी, क्या राजनीतिज्ञ सभी उनके गाने हुए शत्रु बन चुके थे। बाद में इस व्यक्ति ने अपनी भूल सँभाली और अन्त में जब वह उन्नति करते करते अमेरिकन राजदूत होकर फ्रांस में भेजे गये तो उनसे पूछा—“आपने अपने शत्रुओं की संख्या कम करके मित्र कहाँ से बना लिये?” उन्होंने उत्तर दिया—“अब मैं किसी की आलोचना नहीं करता और न किसी के दोष उभार कर रखता हूँ। हाँ—अलबत्ता—किसी का गुण मेरी दृष्टि में आ जाता है तो उसे अवश्य प्रकट कर देता हूँ। यही मेरी सफलता का रहस्य है”।
.... समाप्त
अखण्ड ज्योति, अप्रैल 1955 पृष्ठ 25
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