आत्मचिंतन के क्षण

गुरु- शिष्य संबंध बड़ा कोमल, किन्तु कल्याणकारी होता है। गुरु शिष्य को पुत्रवत् समझकर, उसे टेढ़े- मेढ़े मागों से निकाल ले जाते हैं, जिन्हें शिष्य के लिए समझ पाना कठिन होता है ।। इसलिए कई बार शिष्य अभिमान में आकर गुरु की अवज्ञा कर जाता है, इच्छा तथा आदेश की अवहेलना करता है। यद्यपि गुरु उसे कुछ भी न कहें, किन्तु फिर भी वह संभावित लाभ से वंचित रह जाता है। इसके लिए शिष्य में गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की आवश्यकता है।
कुविचारों और दुःस्वभावों से पीछा छुड़ाने का तरीका यह है कि सद्विचारों के सम्पर्क में निरन्तर रहा जाये उनका स्वाध्याय, सत्संग और चिंतन- मनन किया जाये। साथ ही अपने सम्पर्क क्षेत्र में सुधार कार्य जारी रखा जाये। सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन का सेवा कार्य किसी न किसी रूप में कार्यान्वित करते रहा जाये। इतना करने पर ही मन को स्वच्छ, निर्मल व स्वयं को प्रगति के पथ पर अग्रगामी बनाए रखा जा सकता है।
योग का उद्देश्य ‘‘चित्त वृत्तियों’’ का संशोधन है ।। पशु- प्रवृतियों को देव आस्थाओं में बदल देने वाला मानसिक उपचार का नाम योग है। योगीजन अपने संगृहीत कुसंस्कारों को उच्चस्तरीय आस्थाओं में परिणत करने के लिए भावनात्मक पुरूषार्थ करते रहते हैं और इन्हीं प्रयत्नों में तल्लीन रहते हैं। जिससे वे उतने ही अंशों में आत्मा को परमात्मा से जोड़ लेता है।
वातावरण मानवी चिंतन, विचारणा एवं गतिविधि के समन्वय से उत्पन्न होता है। जैसी भी पीढ़ियां बनानी हो ,जैसा भी समाज का ढ़ाँंचा खड़ा करना हो, उसके अनुरूप ही वातावरण बनाना होगा। जब जब भी महामानवों की पीढ़ियां जन्मी हैं, ऐसे सूक्ष्म घटकों के आधार पर ही विकसित हुई है।माहौल को विनिर्मित करने ,वातावरण को बदलने जिसमें श्रेष्ठ मानवों की ढलाई होती चले। आज उज्ज्वलमान व्यक्तियों की आवश्यकता है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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