ज्ञान-यज्ञ इस युग का महानतम अभियान

मनुष्य की मूल शक्ति विचारणा है। उसी के आधार पर इतनी प्रगति कर सकना उसके लिए सम्भव हुआ है। समस्याएँ विचारों की विकृति से उत्पन्न होती हैं और उनका समाधान दृष्टिकोण बदलने से निकलता है। सचमुच जो जैसा सोचता है, वह वैसा ही बनकर रहता है। सोचने की दिशा में ही क्रिया बनती है और उसी की परिणति परिस्थितियों के रूप में सामने आती है। परिस्थितियों का अपने आप में कोई स्वतंत्र आधार नहीं है। वे हमारे कर्तृत्व का परिणाम मात्र हैं। इसी प्रकार कर्तृत्व भी अपने आप नहीं बन जाता है, विचारों की प्रेरणा ही हमारी कार्य पद्धति के लिये पूरी तरह उत्तरदायी होती है। इस तथ्य को समझ लेने पर ही आज की मानवीय समस्याओं का कारण और निवारण ठीक तरह समझा जा सकता है।
खेद है कि अब तक इस प्रकार का चिन्तन नहीं के बराबर हुआ है जो हुआ है उसको महत्त्व नहीं दिया गया। हमारे मूर्धन्य व्यक्ति इतना भर सोचते रहे है कि शासनतंत्र के माध्यम से सुविधा-साधन बढ़ा देने से मनुष्य सुखी रहने लगेगा और अपनी उलझनें सुलझा लेगा। पर देखते हैं कि वह मान्यताएँ गलत सिद्ध होती चली जा रही हैं। शासन तंत्र को सुधारने के लिये जितने हाथ-पैर पीटे जाते हैं उतनी ही उससे विकृतियाँ उत्पन्न होती चली जा रही हैं। अर्थ-तंत्र से नि:संन्देह कई प्रकार की सुविधाएँ उत्पन्न की हैं पर परिणाम उलटा ही रहा है। तथाकथित प्रगति की जड़ें बिलकुल खोखली हैं, किसी भी धक्के में वह लडख़ड़ा सकती है। स्थायी प्रगति और सुदृढ़ समर्थता के लिए चरित्र बल होना चाहिए और वह उत्कृष्ट विचारणा की भूमि पर ही उग सकता है।
ज्ञान-यज्ञ देखने-सुनने में छोटी बात लगती है, पर उसकी सम्भावनाएँ उतनी विशाल हैं कि यदि ठीक तरह इस अभियान को चलाया जा सका तो विश्वास है कि लोक-मानस में विवेकशीलता और सत्प्रवृत्तियों की गहरी स्थापना सम्भव हो सकेगी और नये युग के अवतरण का स्वप्न साकार किया जा सकेगा।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
युग निर्माण योजना - दर्शन, स्वरूप व कार्यक्रम-66 (4.44-46)
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