
अभ्यास और साधना ही सफलता की कुँजी है।
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(महात्मा एपिक्टेटिस)
मनुष्य में जितनी प्रकार की शक्तियाँ और प्रवृत्तियाँ हैं वे सब अभ्यास और साधना द्वारा ही रह सकती हैं और बढ़ सकती हैं। चलने की शक्ति चलने से और दौड़ने से बढ़ सकती है। अगर तुम किसी बात में उन्नति करना चाहते हो तो बार-बार उसका अभ्यास करना होगा। यदि सुँदर अक्षर लिखना चाहते हो तो बार-बार लिखना होगा। यदि तुम एक महीने तक पूरी तरह बोलना बंद कर दो तो बाद में तुमको बोलने में भी कठिनाई जान पड़ेगी। अगर दस दिन तक बिस्तर पर पड़े रहकर बाद में एक दिन दूर तक चलने का प्रयत्न करो तो मालूम होगा कि तुम्हारे पाँव निर्बल हो गये हैं। साराँश यही है कि यदि तुम किसी विषय में दक्षता प्राप्त करना चाहते हो तो उसे व्यवहार में लाओ और जिस काम से दूर रहना है उसे बिल्कुल बंद करो। उसके बदले में और कुछ करो जिससे उसका विचार भी उत्पन्न न हो।
जो नियम साँसारिक कार्यों का है वही आध्यात्मिक विषयों पर भी लागू होता है। यदि तुम एक बार क्रोध करते हो तो समझ लो कि उससे तुम्हारा एक बार ही नुकसान नहीं हुआ-बल्कि तुम्हारा एक अनिष्टकारी प्रवृत्ति की ओर झुकाव हुआ-तुमने आग में घी की आहुति प्रदान की। यदि तुम काम के द्वारा अभिभूत हुए तो यह न समझना कि कामदेव ने तुम्हारे ऊपर एक ही बार विजय प्राप्त की-परंतु इससे तुम्हारी इंद्रियों का संयम बहुत समय के लिए क्षीण हो गया और तुम्हारे भीतर इंद्रियों की विवशता के भाव की वृद्धि हुई। कारण और कार्य के द्वारा ही सब प्रकार की शक्तियाँ-सब प्रकार की वृत्तियाँ विकसित होती हैं, प्रबल होती हैं, व्याप्त होती हैं। इसी प्रकार आत्मा का भी पाप या पुण्य की ओर झुकाव घटता या बढ़ता है। यदि तुम्हें कभी धन का लोभ हो और उसी समय यदि तुम धर्म बुद्धि की शरण लो तो इससे तुम्हारे लोभ का दमन होगा और तुम्हारी धर्म बुद्धि भी बल प्राप्त करके अपने पद पर प्रतिष्ठित रहेगी। किंतु यदि तुम धर्म बुद्धि की शरण न लोगे तो अपनी आत्मा की पहले जैसी निर्मल अवस्था तुमको फिर प्रतीत न होगी। दूसरी बार जब कोई प्रलोभन सामने आयेगा, तो पहले की अपेक्षा और भी शीघ्र तुम्हारी वासना की आग जल उठेगी। जो आदमी एक बार ज्वर-रोग से पीड़ित हुआ है उसका ज्वर छूट जाने पर भी पूर्ण रूप में आरोग्यता प्राप्त किये बिना -वह अपनी पहली जैसे अवस्था को प्राप्त नहीं होता। आत्मा के रोग में भी ऐसा ही हुआ करता है। रोग के दूर होने पर भी आत्मा में जो घाव का निशान रह जाता है, अगर उसे पूरी तरह दूर नहीं किया जायेगा, तो फिर जब कभी उस स्थान पर पाप की आँच लगेगी तो उस समय वह घाव का निशान केवल निशान ही न रहेगा, वरन् पहले से भी अधिक भयंकर घाव बन जायेगा।
उदाहरणार्थ अगर तुम चाहते हो कि “मेरा क्रोधी स्वभाव बदल जाय”-तो ऐसी कोई बात न करो जिससे उसकी प्रवृत्ति का पोषण हो-उसमें आहुति पड़े। पहले से ही शाँत भाव धारण करो और बिना क्रोध के कितने दिन बीते हैं, इसकी गिनती करते रहो-”इस बार मैं एक दिन क्रोधित नहीं हुआ”- “इस बार दो दिन क्रोधित नहीं हुआ”, “इस बार तीन दिन तक क्रोधित नहीं हुआ”-इस प्रकार अभ्यास करते हुए जब तीस दिन तक बिना क्रुद्ध हुए रह सके तो इस सफलता के लिए भगवान की पूजा करना। इसी प्रकार अभ्यास करने से सब प्रकार की हानिकारक प्रवृत्तियाँ धीरे-धीरे घटकर अंत में निर्मूल हो जायेंगी।
इस प्रकार का अभ्यास सफलता पूर्वक करने का मार्ग यह है कि हम अपने हृदय में दृढ़ संकल्प करें कि “हम आत्मोन्नति करेंगे”- “ईश्वर के सामने निष्कलंक रहेंगे।” हमको सच्चे दिल से ऐसी इच्छा करनी चाहिए कि “मैं अपनी अन्तरात्मा के निकट निर्मल रहूँगा।” पर इतने पर भी प्रलोभन में पड़ जाओ तब क्या करोगे? इस संबंध में प्लेटो का उपदेश है-”ऐसा हो तो पुण्य कर्मों का अनुष्ठान करो। दुर्बलों को बल देने वाले देवताओं के मंदिर में जाकर प्रार्थना करो।” साधुजनों की संगति से भी बड़ा लाभ हो सकता है।
इन सब उपायों का अवलम्बन करने से तुम प्रलोभनों को जीत सकोगे-प्रलोभनों से पराजित न होगे। किंतु पहले से ही प्रलोभन के वेग में न बह जाना, जब ऐसा अवसर आये तो पहले जरा ठहर कर प्रलोभन के स्वरूप और उसके अंतिम परिणाम पर भली प्रकार विचार करना उचित है। यदि तुम ऐसा न करोगे तो प्रलोभन तुम्हारे मन पर अधिकार जमा लेगा और जहाँ चाहेगा वहाँ तुम्हें ले जायगा। और एक काम करो-उस नीच प्रलोभन के मुकाबले में एक श्रेष्ठ प्रलोभन को लाकर खड़ा कर दो। उस उच्च प्रलोभन की सहायता से वह नीच प्रलोभन दूर किया जा सकता है। यदि तुम इस प्रकार का अभ्यास करोगे तो तुम्हारा मन बहुत बलवान बन जायगा और तुम आत्मोन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सकोगे।
वही सच्चा वीर है जो इन प्रलोभनों के साथ निरन्तर युद्ध करता है। वही युद्ध श्रेष्ठ है, वही व्रत स्वर्गीय है जिसके द्वारा सब पर आधिपत्य प्राप्त होता है, स्वाधीनता मिलती है, चित्त शाँत होता है। ईश्वर का स्मरण करो, उससे सहायता की प्रार्थना करो, उसकी शरण लो। जैसे तूफान के समय नाव का मल्लाह वरुणदेव को पुकारता है, वैसे ही इस प्रलोभन रूपी तूफान में तुम ईश्वर को पुकारो। जिस तूफान में हमारी विवेक बुद्धि विचलित हो जाए, उससे बढ़कर दूसरा तूफान कौन सा हो सकता है? यदि ऐसे अवसर पर हम एक बार प्रलोभनों के पंजे में फँस जायेंगे और फिर कहेंगे कि “इस बार न सही अगली बार मैं विजयी होऊँगा।” और प्रत्येक बार तुम ऐसी ही बात कहते रहे तो यह निश्चय है कि तुम निरन्तर निर्बल होते जाओगे और अन्त में तुम्हारी दशा ऐसी हीन हो जायगी कि तुम्हें यह भी अनुभव न होगा कि तुम कोई पाप-कर्म कर रहे हो। उस समय तुम अपने पाप-कर्म को उचित सिद्ध करने के लिये तरह-तरह के बहाने खोजते फिरोगे।
तब क्या मनुष्य इस प्रकार दृढ़ संकल्प करने से सदैव दोषों से बच सकता है? नहीं, ऐसा होना संभव नहीं है। तो भी मनुष्य इस प्रकार निर्दोषिता की तरफ क्रमशः अग्रसर होता जायगा। अपने प्रयत्न में बराबर लगे रहकर, उसमें तनिक भी शिथिलता न लाकर अगर हम दो-चार दोषों से भी छुटकारा पा जायें तो यह हमारा बड़ा सौभाग्य होगा। तुम जो कहते हो कि ‘कल से मैं सावधान होऊँगा।’ इस बात का अर्थ तो यह है कि “आज मैं निर्लज्जता करूंगा, दुराग्रह करूंगा, नीचता करूंगा, आज मैं क्रोध के वशीभूत होऊँगा, ईर्ष्या के वशीभूत होऊँगा” देखो एक बार की निर्बलता से तुम कितने पापों को बुला रहे हो। इसलिए किसी काम को कल के लिये उठा रखने के बजाय आज ही पूरा कर डालो। ऐसा करने से तुम्हें शक्ति प्राप्त होगी और कल तुम उस काम को और भी अच्छी तरह कर सकोगे।