
संस्कृत भाषा का महत्व
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(श्री सुदर्शनदेव “व्याकरणाद्याचार्य “ गुरुकुल झज्जर, रोहतक)
विश्व में विद्यमान समस्त भाषाओं की जननी संस्कृत भाषा है। जो मधुर, सब प्रकार के दोषों से रहित, अति ललित, पवित्र तथा वैज्ञानिक भाषा है। वेद, शास्त्र, उपनिषद्, गीता, रामायण, महाभारत आदि सभी भारतीय संस्कृति के ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं, जो कि मानव जीवन के चरम लक्ष्य (मोक्ष प्राप्ति) के साधक हैं। अतः जिस मनुष्य ने संस्कृत भाषा का अध्ययन नहीं किया अथवा यूँ कहिए कि जिसने भारतीय संस्कृति के मूलभूत वेदादि सत्य शास्त्रों के अध्ययन का सौभाग्य प्राप्त नहीं किया, वह भारतीय, भारतीय कहलाने का पूर्ण अधिकारी नहीं है। प्रत्येक भारतीय को अपनी भारती-संस्कृत भाषा का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
कुछ एक पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगे हुए महानुभावों का विचार है कि संस्कृत भाषा एक मृत भाषा है। मृत वस्तु को गले लगाना व्यर्थ भार वहन करना है। उसका तो अपने से पृथक करण ही श्रेयस्कर है। भला उन भोले जनों से पूछना चाहिए कि जन्म से लेकर मरण पर्यन्त संस्कार आदि सभी धार्मिक कृत्य जिस संस्कृत भाषा में ही प्राचीन काल से आज तक होते चले आ रहे हैं, और जो भाषा आज भी लगभग 36 करोड़ (360000000) मनुष्यों के जीवन में ओत-प्रोत हो, और करोड़ों मनुष्य प्रातः सायं दोनों समय अपने इष्ट देवों को जिस भाषा में हृदय से आराधना करते हों, जिसका साहित्य भी अन्य सभ्य मानी जाने वाली भाषाओं से किसी भी दृष्टि से कम न हो, और जो भाषा कभी अपने काल में राष्ट्र भाषा रह चुकी हो भला वह भाषा किस प्रकार मृत भाषा कहला सकती है।
आजकल जन साधारण की यह भी एक मिथ्या धारणा बन हुई है कि संस्कृत भाषा एक अति कठिन भाषा है। बिना रटे उसका ज्ञान प्राप्त करना सर्वथा असंभव है, किंतु यह धारणा सर्वथा मिथ्या है। संसार में कोई भी ऐसी भाषा नहीं जिस भाषा के अध्ययन में सामान्यतः रटने का कार्य विद्यार्थी को न करना पड़ता हो। आजकल संस्कृताध्ययन की कई पद्धतियाँ हमें दृष्टिगोचर होती हैं। किसी पद्धति में “रट्ट प्रधानम् खलु योग्यतायाः” को ही सर्वोच्च स्थान दिया जाता है, जो सर्वथा अवाँछनीय है।
हमारी सरकार का भी ध्यान इस संस्कृताध्ययन अध्यापन की सुँदर पद्धति की ओर नहीं है, और न वह संस्कृत-अध्ययन को विशेष प्रोत्साहन ही दे रही है, जबकि अन्य विदेशी लोग संस्कृत भाषा को सब भाषाओं की जननी मानते हुए बड़ी रुचि के साथ इसका अध्ययन कर रहे हैं। कुछ समय पूर्व श्री डॉ. लूई रेणु महोदय रूस से भारत पधारे तब उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा था कि “मुझे केवल एक ही दुख है कि हम जिस संस्कृत भाषा को अति रुचि से पढ़ते हैं और जिस भाषा को अमर समझते हैं उस भारती (संस्कृत भाषा) को भारतीय मृत भाषा नाम से पुकारते हैं। और भारतीयों के लिए यह भी दुर्भाग्य की बात है कि उनके शिक्षा मंत्री महोदय संस्कृत भाषा से अनभिज्ञ हैं।”
इसी प्रकार अमेरिका भी संस्कृत भाषा पर लट्ट है। अमेरिका के “अमेरिका काँग्रेस पुस्तकालय” में 67 सौ (छह हजार सात सौ) संस्कृत भाषा के हस्त लिखित ग्रंथ आज भी भारत के गौरव का गुणगान कर रहे हैं, और सारे जगत में प्रकाशित होने वाले संस्कृत साहित्य का सूचीपत्र भी आप वहाँ से प्राप्त कर सकते हैं। अभी कोई लगभग तीस वर्ष की बात है कि उत्तरी अमेरिका के दक्षिणी भाग में अन्वेषण किया गया। वहाँ एक मनुष्य जाति मिली जो अपनी ही भाषा में बोलती थी। उनकी उस भाषा का नाम भाषा शास्त्रियों ने ‘ब्रोकिन संस्कृत’ (टूटी-फूटी संस्कृत) रखा। यह घटना भी संस्कृत के महत्व का सिर ऊँचा करती है। केवल इतना ही नहीं अपितु रूस तथा अमेरिका के अतिरिक्त जर्मनी, अफगानिस्तान, थाईलैण्ड, सीलोन, हालैण्ड, मिस्र, इटली, इंग्लैंड, चीन आदि देशों में भी संस्कृत का महत्व कोई कम नहीं है।
संस्कृत भाषा एक विश्वव्यापी भाषा है, पुनरपि भारत सरकार इस ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दे रही, सरकार की ओर से संस्कृत भाषा को अधिक से अधिक प्रोत्साहन मिलना चाहिए। विद्यालयों में भी अनिवार्य रूप से अध्ययन-अध्यापन होना चाहिए। प्रत्येक भारतीय को भी अपनी भारती (संस्कृत भाषा) का अध्ययन अवश्य करना चाहिए और यत्न करना चाहिए कि निकट भविष्य में ही संस्कृत भाषा राष्ट्र भाषा बने तभी हम भारत के भाषा संबंधी प्रान्तीयता आदि के कलह को दूर भगा सकते हैं और तभी हम संसार में सच्ची विश्वशाँति की स्थापना कर सकते हैं।