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Magazine - Year 1957 - Version 2

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जाति-भेद हिंदू समाज का घुन है।

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(श्री क्षिति मोहन सेन शास्त्री)

मनुष्य-समाज में ऊँच-नीच का भेद सर्वत्र पाया जाता है, पर हमारे देश के समान जाति-भेद संसार में और कहीं भी नहीं है। दूसरे देशों में सब प्रकार के भेदों के भीतर उनका धर्म एकता का भाव उत्पन्न करता है, पर हमारे देश में जाति-भेद की दीवार धर्म के आधार पर ही खड़ी की गई है। कभी-कभी हम तर्क बुद्धि से इस भेद की कृत्रिमता को समझ जाते हैं, पर उसका संबंध धर्म से होने के कारण हम उससे उत्पन्न होने वाले कुफलों का प्रतिकार नहीं कर सकते।

जब तक जाति-भेद की प्रथा की जड़ खूब दृढ़ भाव से इस देश में नहीं जमी थी, तब तक भारत-वर्ष के बाहर से आने वाले विदेशी भी इस देश की समाज में शामिल कर लिये जाते थे। अब से 2100 वर्ष पूर्व के एक शिला लेख से पता चलता है कि तक्षशिला का यूनानी राजा ‘हेलियो डोरस’ भागवत धर्म का दृढ़ अनुयायी बन गया था और उसने गरुणध्वज की स्थापना की थी, कनिष्क, हुविष्क आदि प्रसिद्ध भारतीय नरेश विदेशी ही थे। ‘काडवाइसिस’ नाम का राजा शिव का परमभक्त हुआ। श्री नगर (काश्मीर) के राजा मिहिर कुल ने मिहिरेश्वर नामक महादेव की स्थापना की थी। इस प्रकार प्राचीन काल में विदेशों से आये शक, हूण, यवन, कोची, मीना आदि वीर जातियों के दल भारत के समाज में मिलते रहे और आज सब हिंदू जाति के अंग माने जा रहे हैं। जिन राजपूतों की वीर गाथाओं के लिए हम इतना गर्व अनुभव करते हैं वे भी एक समय बाहर से आये थे। अन्य जातियों का हिंदू समाज में सम्मिलित होने का कार्य किसी-किसी प्रदेश में अब भी हो रहा है, पर अब इसमें उतनी शक्ति नहीं है जो कुछ शताब्दी पहले थी। कुछ समय पहले नाथपंथी जोगियों का एक स्वतंत्र मत था। वे वर्णाश्रम नहीं मानते थे, मृतक का दाह नहीं करते थे, वरन् पृथ्वी में गाड़ दिया करते थे। पर अब वे धीरे-धीरे हिंदू-समाज में प्रविष्ट हो गये हैं। इन्होंने वर्णाश्रम धर्म भी स्वीकार कर लिया है और वैष्णव बन गये हैं। वे गुरुमंत्र, तीर्थ, पूजा, प्रार्थना आदि भी स्वीकार कर रहे हैं। फिर भी इस को अपनाना नहीं कह सकते। दूसरे धर्म वाले जिस प्रकार उद्योग करके और तरह-तरह के उपायों से अपनी संख्या बढ़ा रहे हैं उसकी तुलना में यह कुछ भी नहीं। वरन् अब भी छोटे-छोटे कारणों से व्यर्थ बहुत से आदमियों को समाज से बाहर निकाल देने की प्रवृत्ति स्पष्ट दिखलायी पड़ती है। इस प्रकार का कार्य हिंदू समाज के लिए आत्म हत्या से कम नहीं है।

बंगाल के त्रिपुरा जिले के ‘माहीमाल’ या ‘माई फरोश’ मुसलमान पहले हिंदू कैवर्त (मल्लाह) थे। सुना जाता है, कि एक बार इनके पास के गाँव में हैजे की बीमारी हुई थी। उस गाँव के रहने वाले मुसलमान थे, जो सभी हैजे से मर गये। केवल एक छोटा शिशु बच गया। कैवर्तों को उस पर दया आ गयी। उनकी एक स्त्री ने उसे अपना दूध पिलाया और बड़ा किया। बाद में किसी ने यह तर्क उठाया कि यह लड़का तो हिंदू नहीं है, उसके पालन करने वाली की जात नष्ट हो गई, और उसके साथ खान-पान करने वाले सभी मुसलमान हो गये। इस प्रकार कई सौ लोगों को हिंदू धर्म से जबरदस्ती बाहर निकाल दिया गया। बहुत दिनों तक वे समाज की प्रतीक्षा में रहे पर समाज के नेताओं का हृदय नहीं पसीजा। अब वे पक्के मुसलमान हैं।

मलकाने मुसलमानों का किस्सा भी इसी प्रकार का है। ये लोग आगरा, मथुरा के आस-पास ही रहते हैं। किसी समय ये देश और गो-ब्राह्मण की रक्षा के नाम पर मुसलमान आक्रमणकारियों से जी तोड़कर लड़ाई कर रहे थे। उसी समय किसी ने झूठमूठ अफवाह फैला दी कि शत्रुओं ने उनके कुएँ में गोमाँस डाल दिया है और वे उसी का पानी काम में ला रहे हैं। यही अफवाह उनको समाज से च्युत करने का कारण बन गई। बहुत दिनों तक वे धर्म को छोड़ने को तैयार नहीं हुये। अब तक भी उनके आचार विचार में अनेक राजपूती रस्में मिलती थीं, पिछले कुछ वर्षों में शुद्धि आँदोलन के फल से उनमें से बहुसंख्यक व्यक्तियों को हिंदू-धर्म में पुनः सम्मिलित किया गया।

इस प्रकार जाति-भेद की विचार शून्य प्रथा के कारण हिंदू-समाज से जबर्दस्ती निकाली गयी आधी हिन्दू और आधी मुसलमान अनेकों जातियाँ अब भी मौजूद हैं। काशी के पास जोगियों की एक जाति के लोग राज भर्थरी का गाना गाते हुए भीख माँगते फिरते हैं। इनका भरण-पोषण हिंदू ही करते हैं, इनसे गण्डे ताबीज भी लेते हैं, पर नाम मात्र के लिए ये मुसलमान हैं और अपने को हिंदू कह सकने के अधिकारी नहीं है। गुजरात और सिंध में मतिया, मोमना, शेख, मौल-इस्लाम, संघर आदि अनेकों जातियाँ हैं, जिनको मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट में ऐसे ही कारणों से मुसलमान लिख दिया गया है। मीरासी लोग देवी के भक्त हैं और उसी के गीत गाकर जीविका चलाते हैं, पर इनको मुसलमान मान लिया गया है। गंजाम (उड़ीसा) में आरुवा जाति का आचार-विचार सर्वथा हिंदुओं का है, पर वह विवाह के समय मुल्लों को बुलाने को बाध्य हैं। इसी प्रकार मद्रास के ‘दुदेकुल’ तिलंगाने के ‘काटिक’, यू.पी. और राजपूताना के डफाली, घोसी, राँकी, किंगानी आदि सैंकड़ों जातियाँ ऐसे नौ मुस्लिमों की हैं जो हिंदू समाज की संकीर्णता के कारण समाज से बहिष्कृत कर दिये गये हैं, और जो स्वभाव वश अभी तक अधिकाँश हिंदू आचार-विचारों का पालन कर रहे हैं।

जो ऐसी आधी हिंदू और आधी मुसलमान जातियाँ हैं उनकी अवस्था के अनुसार उचित तो यही था कि कुछ इधर आ जातीं, कुछ उधर चली जातीं। पर हिंदू समाज में तो बाहर से आने का रास्ता बंद है। घर का आदमी भी यदि एक बार बाहर चला गया तो फिर उसका घर में आना असंभव है। अभिमन्यु चक्रव्यूह के भीतर घुस सकते थे, बाहर नहीं निकल सकते थे, पर यहाँ आदमी बाहर तो निकल सकता है, भीतर नहीं आ सकता।

भीतर आने में सबसे बड़ी बाधा जातिभेद की है। जिस जाति से कोई बाहर जाता है वह जाति अपनी शान बनाये रखने के लिए उसे फिर से अपने दल में स्थान नहीं दे सकती। उनका कहना है कि जो बाहर निकलकर अपनी जात-पाँत ठीक नहीं रख सका उसे फिर किस जाति में लिया जाय? बाहर जाने से वर्णाश्रम तो विशुद्ध रह नहीं जाता, तो फिर वह लौटना भी चाहे तो उसे बैठाने का कोठा खोजने पर भी नहीं मिलता, इसका नतीजा पहले जमाने में यह होता था कि वे लोग अपनी एक नई जाति बना लेते थे। यही कारण यहाँ पर एक-एक वर्ण में हजार-हजार और पाँच-पाँच सौ जातियाँ होने का है। इस भूल अथवा विचार शून्यता के कारण हिंदू अपने लाखों भाइयों को पराया बना चुके हैं। यह बात भी निश्चय है कि अपना आदमी जब एक बार पराया हो जाता है, तो वह बड़ा कठोर दुश्मन सिद्ध होता है, और वह बड़ी निर्ममता से चोट करता है। अर्जुन के ऊपर कर्ण ही सबसे अधिक भयंकर आक्रमण करता था। जिसे अपमानित करके जाति बहिष्कृत कर दिया जाता है, वह उस अपमान को कभी नहीं भूलता। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है-”सबसे कठिन जाति अपमाना।”

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