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Magazine - Year 1957 - Version 2

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पाप की कमाई से सच्चा सुख नहीं मिलता

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(श्री अशर्फीलाल जी वकील, बिजनौर)

पाप से कमाये हुए धन की सभी ने निंदा की है। पाप की कमाई से पले हुए मनुष्य कभी धर्मात्मा नहीं हो सकते। यह सच है कि साधारण संसारी मनुष्य शुद्ध और अशुद्ध कमाई का भेद नहीं जान पाते, परंतु शुद्ध अंतःकरण के महापुरुषों से कुछ छिपा नहीं रहता। बहुत स्पष्ट घटनाओं के दोषों का अनुमान तो साधारण लोग भी कर लेते हैं, पर स्वभाव पड़ जाने से उस ओर ध्यान नहीं देते। कुछ भी हो यह निस्संदेह है कि पाप से कमाया हुआ धन कितना भी हो उससे शाँति अथवा चैन नसीब नहीं हो सकता। इस संबंध में एक दृष्टता नीचे दिया जाता है :-

पंजाब के एक गाँव में एक महात्मा किसी किसान के घर ठहरे थे। दिन भर तो वे पास ही बहने वाली एक नदी के किनारे भजन करते रहते और शाम को आकर किसान की झोंपड़ी में विश्राम करते। उसी किसान के यहाँ भिक्षा करके वे दो रोटी खा लिया करते थे।

एक दिन ग्राम के जमींदार के यहाँ, जो जाति का वैश्य था और बड़ा मालदार था, लड़के का विवाह था। उसकी दावत में बस्ती के समस्त नर-नारी न्यौते गये। उस किसान को भी उस दिन वहीं खाना था। शाम को जब उस किसान की स्त्री महात्माजी के लिए रोटी बना रही थी, वैश्य का लड़का खाने के लिए बुलाने आया। स्त्री को रोटी बनाते देख उसे कुछ आश्चर्य हुआ और पूछा कि- “आज रोटी क्यों बना रही हो?” स्त्री ने कहा कि मैं महात्माजी के लिए दो रोटी बना दूँ उसके बाद तुरंत तुम्हारे यहाँ आती हूँ। इस पर वैश्य पुत्र ने बड़े घमण्ड से कहा-”सारा गाँव तो आज पूरी, कचौड़ी, मिठाइयाँ उड़ायेगा, महात्मा जी आज भी सूखी रोटी ही खायेंगे। महात्मा जी को भी ज्यौनार में ले चलो।” महात्मा जी, जो पास ही बैठे सब सुन रहे थे, बोले-”भैया, हमें तो रोटी ही अच्छी लगती है, पूरी-कचौड़ी तुम्हीं लोग खाना।” इस पर वैश्य पुत्र ने और भी गरुर के शब्दों में कहा-”महात्मा जी, आपके भाग्य में सूखी रोटी ही दीखती है, जो ज्यौनार होते हुए भी इनकार करते हो-चलो आज तो तर माल खाकर आनंद ले लो। “ महात्मा मन ही मन उसकी छोटी बुद्धि पर हँस रहे थे, बोले-”तुम चलो, हम कुछ देर में पहुँच जायेंगे।”

महात्मा वैश्य के मकान पर ज्यौनार में गये। तरह-तरह के भोजन और मिठाइयाँ पत्तलों पर सबके सामने परोसे गये। महात्मा जी के सामने भी एक पत्तल रखी गयी। जब भोजन शुरू हुआ तो महात्मा जी ने अपने पास से दो रोटियाँ निकाल कर खाना आरंभ किया। यह देखकर उस वैश्य को बड़ा बुरा लगा और कहने लगा-”महात्मा तुम्हारे भाग्य तो फूटे हुए ही हैं, तभी तो ऐसे बढ़िया खानों को छोड़कर सूखी रोटी खा रहे हो।” महात्मा ने फिर कहा कि-”भैया हमारे लिए तो इन भोजनों से सूखी रोटी ही अच्छी जान पड़ती है।” वैश्य पुत्र ने तिनक कर कहा-”महाराज, इन रोटियों में क्या विशेषता है, जरा हमें भी बतलाइये।” इस पर महात्मा ने पत्तल पर से एक कचौड़ी उठाई और उसे मुट्ठी में दबाया तो खून कीं बूंदें टपकने लगीं। फिर उन्होंने अपनी रोटी का टुकड़ा दबाया तो उसमें से दूध की धार निकली। महात्मा जी ने कहा-”इस वैश्य का धन लोगों का खून चूस-चूस कर इकट्ठा किया गया है और यह रोटी ईमानदारी की कमाई का फल है। इसी से दोनों में इतना अंतर दिखलाई पड़ रहा है।” इस घटना का सब उपस्थित लोगों पर बड़ा प्रभाव पड़ा और उस वैश्य ने आगे के लिए किसी को न सताने का प्रण कर लिया।

पाप की कमाई घर में आती हुई तो मालूम होती है, पर जाने के लिए भी उसके हजारों पैर लग जाते हैं। उसको उपभोग करने वाले इतने ऐयाश और फिजूलखर्च बन जाते हैं कि उनकी जरूरतें कभी पूरी ही नहीं होतीं। आप कमाते-कमाते थक जाते हैं, पर संतान खर्च करते-करते नहीं थकती। उनको सदा अपनी इच्छा के प्रतिकूल ही खर्च करना पड़ता है, इसलिए वे कभी प्रसन्नता का मुँह नहीं देखते। नेक कमाई में ये दोष नहीं होते, जिससे उसका उपभोग करने से लोक और परलोक दोनों बनते हैं।

खरी चीज में खोटी चीज मिलाकर बेचना, कम तोलना, रिश्वत लेना, किसी का हक मारना, कम काम करके अधिक दाम लेना, नौकरी में पूरी मेहनत से काम न करना, चोरी करना, लोभ से अन्यायी का साथ देना, आतताइयों की सहायता करना, छल, कपट और रागद्वेष का व्यवहार करना आदि पाप कर्म है। जीवन को सुखमय बनाने के लिए इन सब से बचकर रहना अत्यावश्यक है। पाप-कर्म से जो अधिक धन आता है, वह सब की बुद्धि हर लेता है, फल स्वरूप वे पाप कर्म करने लग जाते हैं।

जो पाप कर्म नहीं करते वे ऐसे लोगों को देख कर कभी-कभी यह ख्याल करते हैं कि हम तो घाटे में रह गये, जो कुछ न कमा सके। पाप-कर्म वालों की मोटरें दौड़ रही हैं, और हमको साधारण भोजन मिलना भी कठिन है। अनेक समय ऐसे विचारों के प्रभाव से सज्जन पुरुष भी पाप-कर्मों में लग जाते हैं और पहले से भी ज्यादा मुसीबतों में फँस जाते हैं। पर उनको सोचना चाहिए कि क्या सभी रिश्वत लेने वालों को मोटरें और आराम की सामग्री प्राप्त है? क्या पाप की कमाई न करने वाले सभी तंग हैं, या उनमें से किसी के पास मोटर आदि नहीं हैं?

अगर हम इस विषय में भली प्रकार विचार कर के देखें तो यही जान पड़ेगा कि सभी पाप की कमाई करने वाले आराम से नहीं रहते। किसी-किसी को तो उनमें से भी रोटी नसीब नहीं होती और सारी उमर तंगी में गुजरती है। उन लोगों की बाहरी टीमटाम इतनी बढ़ जाती है कि पास में कुछ भी नहीं बचता। जब कोई शादी-ब्याह का खर्च आ पड़ता है तो ऐसे लोगों को कर्ज लेकर ही काम चलाना पड़ता है। और कर्ज भी थोड़ा नहीं , क्योंकि अपनी झूठी शान को बनाये रखने के लिए उनको हजारों रुपये चाहिएं। इस तरह कर्जदार हो जाने से सारी उम्र परेशानी में ही गुजरती है। इसके विपरीत पाप की कमाई से बचने वाले बहुसंख्यक लोग अच्छी हालत में मिलेंगे। इस प्रकार विचार करने से यही नतीजा निकलता है कि न तो पाप से अधिक कमाई करने वाले सब सुखी हैं, और न नेक कमाई पर संतोष करने वाले सब दुखी ही हैं। सुखी और दुखी दीखने वाले दोनों में एक बराबर हैं। पर आत्मसुख जिसे शाँति कहते हैं पाप की कमाई करने वालों में किसी को नसीब नहीं है यह बात डंके की चोट पर कही जा सकती है। आज पाप की कमाई करने वाले किसी बड़े से बड़े व्यक्ति को ले लीजिए और उसे एक मनोविज्ञान के विशेषज्ञ के हवाले कर दीजिए तो पता चलेगा कि उसके मन में इस कदर बेचैनी है कि उतनी बेचैनी एक बड़े मुजरिम के मन में भी न होगी। सब कुछ पास होते हुए भी उसे सुख और शाँति दुर्लभ होगी। फिर ऐसी अधिक कमाई से क्या लाभ हुआ?

आदमी जो कुछ भी कमाता है वह बहुतों के भाग्य का होता है। उसका अपना भाग्य तो उसमें उतना ही है, जितना वह खा, पहिन लेता है। शेष तो जिन-जिन का है उनके पास पहुँच जाता है। कमाने वाले की पोजीशन एक कारिंदा से अधिक नहीं है। जैसे कारिंदा गाँव के किसानों से लगान वसूल करके लाता है और मालिकों को दे देता है, और खुद अपनी गुजर लायक वेतन मालिकों से पाता है। वैसे ही कमाने वाला दूसरों के भाग्य का रुपया लाता है और समझता है कि मैं मालदार बन गया। कितनी बड़ी भूल है! दूसरों की अमानत पर इतना गर्व!! जब सब अपना-अपना भाग ले लेते हैं तो स्वयं खाली रह जाते हैं, और फिर कमाई की धुन सवार होती है। इसी कमाने और बाँटने में उम्र समाप्त हो जाती है और हाथ पल्ले कुछ नहीं पड़ता। जीवन में जो धन बाँटने से बच रहता है उसे वैसे ही पछताते हुए छोड़ कर जाना पड़ता है, जिससे मरते समय भी बड़ा कष्ट उठाना पड़ता है। जोड़े हुए धन को तो वे लोग, जिनका वह भाग्य है आपस में बाँट ही लेंगे, परंतु जिसने कमाने में पाप इकट्ठे किये उसे क्या लाभ हुआ? इसका जवाब देने में उसे हिचकियाँ आने लगेंगी और थोड़ी ही देर में प्राण पखेरू अपने कर्मों का बुरा परिणाम भोगने नर्क की ओर चल देगा।

डाका, चोरी, वकालत, डाक्टरी, अदालत, पुलिस आदि ऐसे ही पेशे हैं जिनमें लेने वाला प्रायः देने वाले की मर्जी के खिलाफ धन लेता है। क्या इनको कोई प्रसन्नतापूर्वक देता है? नहीं इनको सब कोई जबर्दस्ती या मजबूरी से ही देते हैं। ऐसे पाप की कमाई चली भी योंही जाती है। अपनी जिंदगी में ही बहुत दुःख उसे देखने को मिल जाते हैं, अगले जनम में जो बदला मिलेगा उसकी तो कल्पना करना भी दुखदाई है। इसलिए प्रत्येक समझदार आदमी को पाप की कमाई से बचकर धर्म की कमाई पर संतोष करना उचित है।

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Type: TEXT
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