
हमारे धर्म का आदि स्रोत वेद ही है।
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्री रामदास गौड़)
साधारण बोलचाल की भाषा में ‘श्रुति’ शब्द से समस्त वैदिक-साहित्य का बोध होता है। इसके मुकाबले ‘स्मृति’ शब्द का प्रयोग किया जाता है, जिससे धर्म-शास्त्र का अर्थ समझा जाता है। पर जब ‘वेद’ शब्द का प्रयोग ‘लोक’ के साथ होता है तो वहाँ वेद का तात्पर्य सभी शास्त्र ग्रंथों से होता है, जैसे तुलसीदास जी ने लिखा है- ‘लोकहु वेद न आन उपाऊ।’ वैसे श्रुति शब्द का अर्थ है ‘सुना हुआ’। इसका आशय यह है कि वेद और उससे संबंध रखने वाले ‘ब्राह्मण’ ‘अरण्यक’ ‘उपनिषद्’ आदि जितने ग्रंथ हैं जिनका ठीक-ठीक उच्चारण गुरुमुख से सुनकर ही किया जा सकता है वे सब श्रुति हैं। वेद के पर्यायवाची और भी कई शब्द हैं जैसे आम्नाय, छंदस, ब्रह्म, निगम और प्रवचन। विदेशी विद्वान संहिता (मूल मंत्रभाग, ब्राह्मण और अरण्यक) तीनों को भिन्न-भिन्न ऋषियों की रचना मानते हैं।
वेदों की उत्पत्ति के संबंध में ऋग्वेद के 10वें मंडल के 90वें सूक्त में कहा गया है- “तस्माद्यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। छंदांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्त मादजायत।” इसका आशय है कि ‘ऋक, यजुः, साम तथा अथर्व- ये चारों वेद परमपुरुष यज्ञ-भगवान से उत्पन्न हुये हैं।’ इस मंत्र के अनुसार वेदों की उत्पत्ति सृष्टि के साथ ही हुई है जिसको अब तक (संवत् 2014 तक) एक अरब 95 करोड़, 58 लाख, 85 हजार 39 सौर वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। पर आधुनिक इतिहासज्ञ वेदों की उत्पत्ति इतनी पुरानी नहीं मानते, क्योंकि वे सृष्टि को तो अरबों वर्ष पुरानी मानते हैं पर उनके मतानुसार पृथ्वी पर मनुष्य का आविर्भाव हुए कुछ ही लाख वर्ष हुए हैं। तो भी वे वेदों को संसार के सबसे पुराने ग्रंथ मानते हैं।
इस प्रकार लगभग दो अरब वर्ष से लेकर सात-आठ हजार वर्ष तक की प्राचीनता का अनुमान वेदों के लिए किया जाता है। समय का यह परिमाण कितना अधिक है इसका अनुमान हम सहज ही नहीं कर सकते। हमको यह समझना चाहिए कि जिन पुस्तकों की नकल की जाती है, अथवा प्रेस में छाप कर जिनके अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं उनमें लेखकों की भूल से, छापेखाने वालों की भूल से, विभिन्न प्रकार के पाठकों के मतभेद से कितने ही परिवर्तन हो गये हैं। अभी कुछ ही समय पहले बनी तुलसीदासजी की रामचरितमानस में ही असंख्यों पाठाँतर हो गये हैं और बीसियों प्रकार के ऐसे संस्करण प्रकाशित हो गये हैं जो प्रामाणिक होने का दावा करते हैं। ऐसी व्यवस्था में वेदों के पाठान्तरों और संस्करणों की क्या गिनती की जा सकती है, जो हजारों वर्ष तक लिखे ही नहीं गये, केवल गुरु के मुख से सुनकर याद कर लिये जाते थे। फिर कई हजार वर्षों में भाषा भी इतनी बदल गयी कि उस पुरानी भाषा को, जिसमें वेद आरंभ में रचे गये, समझ कर ठीक-ठीक लिख सकना बड़ा कठिन हो गया। तब लोगों ने मंत्रों के एक-एक पद को अलग-अलग करके रट लेना ही वेदों की सुरक्षा का मार्ग समझा। वेदों के अर्थ में गड़बड़ी न होने देने के लिए ब्राह्मण और अरण्यक ग्रंथों में उनकी टिप्पणी अथवा व्याख्या कर दी गयी। पर काल प्रभाव से आज उनकी भाषा भी बड़ी दुर्बोध और कठिन जान पड़ती है। वेदों के अर्थ को सुबोध बनाने के लिए व्याकरण वालों, मीमाँसकों, कर्मकाण्ड वालों ने बहुत जोर लगाये। पुराणकारों ने भी उपाख्यानों के रूप में वेदों की ही व्याख्या करने की चेष्टा की
‘मत्स्यपुराण’ में सृष्टि के आरंभ में वेदोत्पत्ति का वर्णन करते हुए लिखा है कि “ब्रह्म के चारों मुखों से चारों वेद निकले।” पर आगे चलकर भविष्य का वर्णन करते हुए द्वापर के अंत में वेदों की परंपरा के बिल्कुल अस्त-व्यस्त हो जाने की बात लिखी है। उसके 144 वें अध्याय में कहा गया है-
एकोवेदः चतुष्पादः संहृत्यतु पुनःपुनः।
संक्षेपादायुषश्चैक व्यस्यते द्वापरेष्विह॥10॥
वेदश्चैकश्चतुर्धा तु व्यस्यते द्वापरादिषु।
ऋषिपुत्रैः पुनर्वेदा, भिद्यन्ते दृष्टि विभ्रमैः।
मंत्रब्राह्मण विन्यासैः स्वरक्रम विपर्य्ययैः।
संहृत्य ऋग्यजुस्न्साम्नाँ संहितास्तैर्महर्षिभिः॥ 12॥
द्वापरे संनिवृत्तेते वेदानश्यन्ति वै कलौ।
मत्स्य भगवान ने भविष्य का वर्णन करते हुए बतलाया है कि “सतयुग से द्वापर तक के लाखों वर्ष के समय में भाँति-भाँति की भूलों से चारों वेद मिल कर केवल एक यजुर्वेद रह जाता है जो केवल यज्ञकर्म के अनुकूल होता है। फिर भी वह बारम्बार परिवर्तित होता रहता है जिसका कारण लोगों की अपात्रता तथा अस्वस्थ और अल्पायु जीवन होता है। द्वापर में आकर उसके विविध खण्ड और शाखायें बन जाती हैं। ऋषियों के वंशज दृष्टि, स्मृति आदि में भूलें करते हैं, मंत्रों को अस्त-व्यस्त करते हैं, ब्राह्मणों और कल्पसूत्रों का भी क्रम भंग हो जाता है। स्वर और क्रम में भेद पड़ जाता है। वेदों के ऋषियों को इसलिए ऋग्, यजुः और साम तीनों को बारम्बार फिर-फिर से संकलित करना पड़ता है। यजुर्वेद पहले एक ही रहता है, फिर उसके भी दो पाठ हो जाते हैं। इस तरह द्वापर में ही ऋग्, यजुः, साम तीनों वेदों का अर्थ उलटा-सीधा हो जाता है। कलियुग में तो उनका नाश ही हो जाता है।”
मत्स्यपुराण के अनुशीलन से स्पष्ट हो जाता है कि वेदव्यास द्वारा वेदों का पुनः संकलन और विभाग द्वापर के अंत की बात है। और ऐसा संकलन पहले दो युगों में भी कई बार करना पड़ा था। मत्स्यपुराण के अतिरिक्त महाभारत के शल्य पर्व में भी एक कथा है कि एक बार वर्षा न होने के कारण बारह वर्ष का अकाल पड़ा और सब ऋषि प्राणरक्षार्थ इधर-उधर चले गये और इस बीच में वेदों को भूल गये। तब दधीचि और सारस्वत ऋषियों ने अपने से भी कहीं अधिक बूढ़े ऋषियों को वेद पढ़ाया था। अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं, आज से पाँच-छह सौ वर्ष पहले सायणाचार्य आदि ने भी वेदोद्धार के लिए प्रयत्न किया था। पर सायण के बाद भी लोगों ने वेदाध्ययन की तरफ ध्यान नहीं दिया। तब अब से अस्सी वर्ष पूर्व स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों के संकलन और प्रचार का कार्य किया और इसके फल से अब अन्य अनेक विद्वानों ने भी वेदों के पुनरुद्धार में हाथ लगाया है और जनता को वेदों के संबंध में जानकारी प्राप्त करने का मार्ग सुलभ हो गया है।
वेदों के पुरुष सूक्त में सृष्टि का वर्णन है। हमारे साहित्य में सृष्टि की उत्पत्ति कहीं भी इस तरह नहीं बतलाई गयी है कि ईश्वर ने कहा, और समस्त जगत का कार्य इस प्रकार शुरू हो गया जैसे परदा उठने पर नाटक का कोई दृश्य प्रकट हो जाता है। हमारे यहाँ की वैदिक और पौराणिक दोनों ही सृष्टि कथाओं से प्रकट है कि सृष्टि के बनने में करोड़ों वर्ष लगे होंगे और सच पूछा जाय तो आज भी वह काम खत्म नहीं हुआ है। इसी प्रकार विभिन्न ऋषियों द्वारा वेद मंत्रों के प्रकट होने में भी हजारों वर्ष लगे होंगे। विदेशों के अनेक विद्वानों का मत है कि पहले ऋग्वेद का संकलन हुआ, फिर यजुर्वेद का, फिर साम और अंत में अथर्ववेद का। पर हमें ऐसी कोई बात देखने में नहीं आती जिससे एक के पीछे दूसरे की उत्पत्ति प्रकट हो। वेदों में वर्णित विषय में तो चारों की उत्पत्ति साथ ही हुई जान पड़ती है। यदि चारों वेदों की संहिताओं में पाये जाने वाले मंत्रों के प्रकट होने में एक हजार वर्ष का समय भी लगा, तो उसमें चारों वेदों की सामग्री ही सम्मिलित थी, जो समय आने पर भिन्न-भिन्न वेदों में संकलित कर दी गयी। इस बात का अनुमान इन तथ्य से भी होता है कि ऋग्वेद की आधी ऋचाएँ यजुर्वेद में भी हैं। सामवेद में 75 ऋचाओं के सिवाय सभी वही ऋचाएँ हैं जो ऋग्वेद में आई हैं। अथर्ववेद में भी पाँचवाँ भाग ऋचाएँ ऋग्वेद की ही हैं। संभव है महर्षि वेद व्यास ने ऐसा संकलन कर दिया हो, अथवा सनातन काल से ऐसे ही मिले-जुले मंत्र चले आये हों। यजुर्वेदी कहते हैं कि एक यजुर्वेद से ही तोड़कर शेष तीनों वेद बना दिये गये हैं, परंतु सायणाचार्य ने अपने ऋग्वेद्भाष्य की भूमिका में इस कथन की निस्सारता दिखा दी है। इसके सिवा मत्स्यपुराण के उद्धरण से भी इस भ्रम का मूल कारण समझ में आ जाता है।