
जनसंख्या की समस्या
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(श्री सत्यभक्त, पूर्व संपादक ‘चाँद’ व ‘सतयुग‘)
कई वर्ष हुए हमने एक साप्ताहिक पत्र के एक अंक में एक विशेष संपादकीय लेख पढ़ा था, जो एक साधारण स्कूल मास्टर की स्मृति में लिखा गया था। इस मास्टर ने आर्थिक कठिनाइयों से तंग आकर एक-दो वर्ष पूर्व आत्महत्या कर ली थी। यह लेख इसी शोकमय घटना की याद दिलाने के लिए लिखा गया था और उसमें माँग की गयी थी कि सरकार ऐसी घटनाओं को आँखें खोलकर देखे तथा उनके प्रतिकार का उपाय करे। उस मास्टर की दुःखस्था का वर्णन करते हुए बतलाया गया था कि उसे लगभग 60 रुपये मिलते थे और उसके ऊपर अपनी स्त्री, चार बच्चे, पिता और एक विधवा बहिन-इस प्रकार आठ आदमियों के भरण-पोषण का भार था, जिनका निर्वाह युद्धकाल की महंगी के युग में 60 रुपये में होना किसी प्रकार संभव न था। अतः अपने परिवार के कष्टों को न देख सकने के कारण उसने अपने जीवन का अंत कर लिया।
यह निस्संदेह एक दुःखजनक घटना थी और मानवता का तकाजा है कि ऐसी परिस्थितियों का प्रतिकार किया जाय। पर उसी समय मेरे चित्त में एक विचार यह उत्पन्न हुआ कि इस विषय में देश पर शासन करने वाली सरकार ही दोषी है या उस मास्टर का भी कुछ कसूर है? हम अपनी आमदनी या अन्य आर्थिक साधनों पर दृष्टि डाले बिना अगर अपने परिवार की संख्या बढ़ाते जायें तो वर्तमान सरकार अथवा कोई भी अन्य शासन संस्था उसकी व्यवस्था कहाँ तक कर सकती है। जब वह मास्टर साहब 60 रुपये पाते थे और उनके ऊपर पिता तथा बहिन का भार था तो उनको विवाह ही न करना था और विवाह करके भी 4-6 वर्ष में चार बच्चे उत्पन्न कर लेना और भी अदूरदर्शिता की बात थी। इस प्रकार अपनी थोड़ी-सी आमदनी का ज्ञान- रखते हुए भी हम अपने आश्रितों की संख्या निरंतर बढ़ाते जायें तो उसका कुपरिणाम हमारे सिवा और कौन भोग सकता है?
जनसंख्या की समस्या वास्तव में बहुत विचारणीय है। एक साधारण बुद्धिवादी मनुष्य भी समझ सकता है कि पृथ्वी का क्षेत्रफल नपा तुला है और मनुष्यों की संख्या बराबर बढ़ती रहती है। इसके फलस्वरूप अनेक ऐसी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं जिनके कारण मानवीय सभ्यता में बड़े गम्भीर परिवर्तन होने लगते हैं। यह कारण यदि बढ़ते जायें और उनका प्रतिकार न किया जा सके तो सभ्यता का नाश ही कर डालते हैं। यही कारण है कि वर्तमान समय के विचारकों ने ही नहीं वरन् प्राचीन काल के विद्वानों ने भी इस समस्या पर विचार किया था। उदाहरण के लिए यूनानी दार्शनिक अफलातून (प्लेटो) और अरस्तू (आरिस्टोटिल)ने जनसंख्या को एक सीमा के भीतर ही रखने का विधान बनाया है जिससे लोग अधिक शक्तिशाली और सामर्थ्यवान रह सकें। हमारे यहाँ ‘योग वशिष्ठ’ के लेखक ने भी यह विचार प्रकट किया है कि “जब किसी देश की जनसंख्या अत्यधिक बढ़ जाती है तो अकाल, युद्ध, महामारी या किसी दैवी उपद्रव के कारण उसका नाश हो जाता है। “ इस संबंध में आज कल के एक विचारक ने जो दलीलें दी हैं उनका साराँश नीचे दिया जाता है :-
1. मनुष्यों में एक ऐसी स्वाभाविक प्रवृत्ति पाई जाती है जिसे यदि यत्नपूर्वक निवारण न किया जाय, तो उसकी प्रेरणा से उनका ध्यान अवश्य ही विवाह करने और बहुत सी संतानें उत्पन्न करने की तरफ आकर्षित होता है।
2. यह भी सत्य है कि यदि किसी देश में खाने-पीने की कमी न हो तो प्रत्येक दम्पत्ति दो से अधिक बच्चे उत्पन्न करके उनको पाल-पोस सकते हैं।
3. साधारण गणित जानने वाला भी यह समझ सकता है कि यदि मनुष्य इसी नियम पर चलते रहें तो प्रत्येक पीढ़ी पिछली पीढ़ी की अपेक्षा संख्या में अधिक होगी।
4. विज्ञान की चाहे जितनी उन्नति क्यों न हो जाय, जमीन की पैदावार एक नियत सीमा के भीतर ही रहेगी। प्रत्येक पौधे की जड़ और पत्तियों को फैलने के लिए जितना स्थान चाहिए उसमें कभी विशेष अंतर नहीं पड़ सकता।
5. यह भी अनुभव सिद्ध बात है कि जमीन की पैदावार को जब कृत्रिम उपायों से बहुत अधिक बढ़ाने की चेष्टा की जाती है तो शीघ्र ही ऐसा अवसर आता है जब परिश्रम के मुकाबले में पैदावार घटने लगती है। इसका कारण यह होता है कि निरंतर जोती-बोई जाने से जमीन सारहीन होती चली जाती है। प्राचीन काल में अनेक जातियों के देश त्याग करने का यह भी एक कारण होता था। और वर्तमान समय में अपने देश के कारखानों में बने माल को अधिक से अधिक विदेशों में बेचने की प्रतिस्पर्धा (कम्पटीशन) का मूल कारण भी यही है।
इन पाँच स्वयंसिद्ध बातों पर ध्यान देने से यह समझ में आता है कि किसी भी देश के लिए अंत में ऐसा समय आता है कि यदि युद्ध या अन्य दैवी उपद्रवों से वहाँ की जनसंख्या नष्ट न हो जाय तो जमीन की पैदावार मनुष्यों की आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकती। तब या तो उनको किसी उपाय से अपनी जनसंख्या की वृद्धि को रोकना पड़ता हैं, या कुछ लोगों को बाहर भेजकर उपनिवेश बसाने पड़ते हैं, अथवा अपने उद्योग धंधों की उन्नति करके उनके द्वारा तैयार किये गये माल को बाहर बेचकर वहाँ से भोजन सामग्री मंगानी पड़ती है। अगर इनमें से किसी उपाय का आश्रय नहीं लिया जा सकता तो वहाँ के निवासी दरिद्र होकर भूखे-नंगे फिरने लगते हैं और मृत्यु- संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती है।
ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो जनसंख्या की वृद्धि की इस समस्या को झूँठ-मूँठ का हौआ बतलाते हैं। उनकी एक मुख्य दलील तो यह है कि अभी ऐसे कितने ही देश मौजूद हैं जहाँ करोड़ों आदमियों के रह सकने की गुँजाइश है। मनुष्य कोशिश करे तो बड़े-बड़े रेगिस्तानों, जंगलों और बर्फिस्तानों को रहने योग्य बना सकता है। दूसरी दलील यह दी जाती है कि मनुष्य में परिस्थिति का मुकाबला करने की अद्भुत क्षमता है। जब कभी उसे जीवन निर्वाह के संबंध में किसी कठिनाई का सामना करना पड़ा तो उसने उसको किसी न किसी उपाय से हल कर लिया। उदाहरण के लिए जब मनुष्यों की संख्या बहुत कम थी तो वे जंगल में प्राप्त होने वाले फल, कंद, मूल तथा शिकार आदि से अपना पेट भर लेते थे। पर जब इनसे काम चलना कठिन हो गया हो तो मनुष्यों ने खेती करने का तरीका निकाल लिया जिससे पैदावार बहुत बढ़ गयी। आजकल खेती से भी काम न चलते देखकर मनुष्य समुद्र से खाद्य पदार्थ उत्पन्न करने की चेष्टा करने लगे हैं। वैज्ञानिकों ने हवा में से शक्कर और लकड़ी से आटा बनाने की विधियाँ भी निकाली हैं। इस लिए कुछ लोगों का कहना यही है कि जनसंख्या के बढ़ने की चिंता करना व्यर्थ है। जैसे-जैसे आवश्यकता बढ़ती जायेगी लोग अपनी बुद्धि से उसकी पूर्ति के नये-नये साधन भी निकाल लेंगे जिनकी आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
इन सब दलीलों में कुछ सच्चाई मान लेने पर भी यह स्पष्ट है कि अगर किसी देश की जनसंख्या वहाँ की भूमि के परिमाण से अधिक बढ़ेगी तो वहाँ के निवासियों का जीवन-स्तर अवश्य गिर जायेगा। हमारी आँखों के सामने भारत, चीन, जापान आदि के उदाहरण मौजूद हैं। जनसंख्या के बहुत अधिक बढ़ जाने से भारत और चीन के निवासियों का रहन-सहन ऐसा गिर गया कि गुठली, छाल, साग-पात आदि खाकर भी गुजर करना यहाँ के लोगों के लिए साधारण बात हो गयी है। जापान ने उद्योग धंधों को बढ़ाकर तथा अपनी आबादी को मंचूरिया, हवाई टापू, अमेरिका आदि में भेजकर इस समस्या को हल करने की कोशिश की, पर इसके फलस्वरूप उसका इंग्लैंड, अमरीका आदि देशों से संघर्ष बढ़ गया और उसे पतन के मार्ग पर जाना पड़ा। इस समय भारतवर्ष की अवस्था इस दृष्टि से बड़ी कठिन है। यहाँ की कृषि योग्य जमीन का परिमाण 4 करोड़ एकड़ माना गया था (जिसमें पाकिस्तान के हिस्से में चले गये प्रदेश भी शामिल थे।) एक मनुष्य के निर्वाह के लिए साधारणतः ढाई या कम से कम दो एकड़ भूमि की पैदावार आवश्यक मानी गई है। इस हिसाब से संपूर्ण देश में 20-25 करोड़ व्यक्ति ही सुखपूर्वक रह सकते हैं, जब कि इस समय इस भूभाग की जनसंख्या दुगुने के लगभग है। यह वास्तव में एक विकट समस्या है जिसको अब देश की सरकार भी अनुभव करने लगी है और जनसंख्या को नियंत्रित करने के उपाय सोचे जा रहे हैं। इस विषय पर हम दूसरे लेख में विचार करेंगे।