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Magazine - Year 1957 - Version 2

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हिंदू-धर्म लौकिक और पारलौकिक उन्नति का मूल है।

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(श्री लक्ष्मण शास्त्री जोशी, तर्कतीर्थ)

हिंदू धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है, यह एक विचारणीय प्रश्न है। यद्यपि साधारण लोगों की धारणा के अनुसार हिंदू धर्म मुख्यतः पारलौकिक समस्याओं से ही संबंध रखता है। पर एक ऐसा दल भी मौजूद है जो हिंदू धर्म को प्रधान रूप से साँसारिकता का समर्थक मानता है। और तीसरा दल भी है जिसका मत है कि हिंदू-धर्म में स्वार्थ और परमार्थ दोनों के साधन पर समान रूप से बल दिया गया है।

पहले पक्ष का कहना है कि वर्ण व्यवस्था, देश, जाति-कुल धर्म, आश्रम-व्यवस्था, नीति-धर्म, व्यवहार-धर्म, राज-धर्म ही हिंदू धर्म की प्रधान बातें हैं। आलौकिक दैवी, आध्यात्मिक शक्तियों की आराधना और पारलौकिक कल्पना हिंदू धर्म का मुख्य भाग नहीं है, वह गौण है। सामान्य लोग सामाजिक और व्यक्तिगत नियमों का उचित रीति से पालन करें इसीलिए अनेक धार्मिक कल्पनाओं का आविर्भाव हुआ है, क्योंकि परलोक का भय और प्रलोभन लोगों को नियम-पालन में प्रवृत्त करता है।

दूसरा पक्ष कहता है कि ‘इह’ अथवा ‘पर’ और साँसारिक और पारलौकिक परमार्थ साधन ही हिंदू धर्म का स्वरूप है। इस जन्म में जीवन-निर्वाह उचित रीति से चलता रहे और मरणोत्तर जीवन में श्रेय प्राप्त हो इसी उद्देश्य से श्रुति, स्मृति और पुराणों में हिंदू धर्म का प्रतिपादन किया गया है। इसी दृष्टि से चतुर्विधि पुरुषार्थ और त्रिवर्ग का उपदेश महाभारत और स्मृतियों में दिया गया है। स्मृतियों में जो धार्मिक-नियम बतलाये गये हैं उनका उद्देश्य अपने अनुयायियों को अभ्युदय और निःश्रेयस अथवा उभयलोक की प्राप्ति करा देना है! उदाहरणार्थ गृहस्थ धर्म से कुटुम्ब का पालन भी होता है और चित्त-शुद्धि होकर स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग भी सुगम होता है।

तीसरे पक्ष का कथन है कि हिंदू-धर्म पूर्ण आध्यात्मिक धर्म है। आत्म-प्राप्ति, निर्वाण, मोक्ष या परमार्थिक कल्याण की ओर ले जाना ही हिंदू धर्म का स्वरूप है। अर्थ, काम, शरीर-संरक्षण, समाज धारण आदि साँसारिक ध्येय हिंदू धर्म के गौण उद्देश्य हैं। वे मूढ़, अविकसित अथवा बाल बुद्धि वाले मंद अधिकारियों के लिए हैं। वस्तुतः जीव मोक्ष-मार्ग का ही प्रवासी है। यह नर जन्म अथवा साँसारिक जीवन तो बीच की काम चलाऊ ठहरने की जगह अथवा सराय की तरह है। मोक्ष-मार्ग की अचूक राह दिखाना ही हिंदू धर्म का कार्य है।

1. इन तीनों पक्षों में से पहले साँसारिक पक्ष का समर्थन करने वाले लोगों की संख्या नगण्य है। अत्यंत प्राचीन काल से लेकर अब तक के हिंदुओं के आचार और विचार में इस पद्धति का धर्म कभी व्यवहार में नहीं आया। कुछ अपवादों को छोड़कर हिंदू धर्म के प्रवर्तक, उपदेशक, ग्रंथ और गुरु उक्त पक्ष के विरुद्ध तत्वों का ही प्रतिपादन करते रहे हैं। वेदों का यज्ञ अथवा कर्मकाण्ड एक तरह से देवताओं की आराधना ही है। उपनिषद् तो ब्रह्म, आत्मा, परलोक मार्ग, अमरत्व, स्वर्गापवर्ग और अदृष्ट कर्म फल का ही उपदेश देते हैं। स्मृतियों और धर्म शास्त्रों में वर्णाश्रम धर्म तथा आचार व्यवहार के प्रायश्चित्तों का आदेश दिया गया है। इसी प्रकार पुराणों में भी परलोक साधन के लिए व्रत, तीर्थयात्रा, उपासना की विधियाँ बतलाई गई हैं।

इस पक्ष के कुछ नेता कहते हैं कि वैदिक धर्म-विशेषतः ऋग्वेद का धर्म, ऐहिकता प्रधान है, इसलिए अब उसी का समर्थन करने का अवसर आ गया है। बल वीर्य, पराक्रम विजय, शत्रुनाश, कीर्ति, कवित्व, विद्वत्ता, मानसिक आरोग्य, दीर्घायुष्य, आनंद, पर्जन्य, पशु, शस्य, सुवर्णादि धन, भार्या, पुत्र आदि साँसारिक विषयों के लिए प्रार्थनाओं और कामनाओं से वैदिक साहित्य भरा हुआ है। उसके देवता भौतिक शक्तियाँ ही हैं। वैदिक धर्म भौतिकवादी धर्म है। हिंदू-समाज को अब आगे भौतिक प्रगति की प्रेरणा वेदों से ही मिलेगी। वेद अभ्युदय के मार्ग दर्शक हैं और वेदाँत निःश्रेयस का मार्ग दर्शक है।

पर यह विचार विशेष प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। साँसारिक ध्येय वाला धर्म पारलौकिक धर्म की अपेक्षा हीन संस्कृति का और अविकसित सामाजिक स्थिति का परिचायक है। मानव-जाति-शास्त्र के ज्ञाताओं ने निश्चय किया है कि साँसारिक ध्येय रखने वाला धर्म समाज की प्राथमिक अथवा आदिम अवस्था में रहता है जब कि पारलौकिक और पारमार्थिक तत्वों की कल्पना पर अधिष्ठित धर्म उसकी अपेक्षा अधिक सुधरे समाज में ही उत्पन्न हुए हैं।

2. उपर्युक्त पक्ष के विपरीत पक्ष वह है जो केवल अध्यात्म-परायणता को ही हिंदू-धर्म का स्वरूप बतलाता है। यद्यपि हिंदू-धर्म के वास्तविक स्वरूप का सम्पूर्ण समावेश इस पक्ष में नहीं होता, फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि वह हिंदू-धर्म का एक मुख्य पहलू है। आजकल हिंदुओं के एक बड़े अंश पर और शिक्षित बहुमत पर इसी पक्ष की छाप है।

इस पक्ष की गूढ़ और पारलौकिक कल्पनाओं का निराकरण करना इस समय का एक बहुत बड़ा कर्तव्य है, क्योंकि इसके बिना हिंदू समाज की मौजूदा परिस्थिति अर्थात् भौतिक व मानसिक जीवन पर ध्यान न देने की प्रवृत्ति का सुधार नहीं हो सकता। वर्तमान समय में आध्यात्मिक और पारलौकिक कल्पनाओं के आभास के नीचे वास्तविक जीवन की दुर्गति छुपी रहती है। इस ‘आभास’ के कारण मनुष्य ने अपने आपको और अपनी जाति को बहुत ठगा है। इस आभास में वाणी अथवा लेखनी का प्रभाव रखने वाले विद्वानों की प्रतिभा ऐसे भावुकतापूर्ण तथा मोहक रंगों के अलौकिक चित्र खींच देती है कि उनके प्रभाव से वस्तुस्थिति का गंदा और अमंगलजनक रूप ढक जाता है। गंभीर किंतु पोले तत्वज्ञान की पार्श्वभूमि में उस आभास के रंग-मंदिर खड़े किये जाते हैं। इस प्रकार का परलोकवाद और अध्यात्म वाद भारतीय समाज के अनंत दुखी जीवों के आँसुओं को ढक रखने वाला एक पर्दा है। अज्ञान, दासता और दीनता के गहरे गढ़े में कराहते हुए मनुष्यों के कंटकाकीर्ण जीवन का आच्छादन करने वाली यह कृत्रिम पुष्प राशि है। इस हानिकारक ‘आभास’ को मिटाए बिना सामाजिक दुर्गति को मिटाने वाले कोई प्रयत्न सफल नहीं हो सकते।

3. इहलोक और परलोक, दोनों का साझा करने के लिए हिंदू-धर्म की रचना हुई है-यह सम्पूर्ण वाला पक्ष ही हिंदू धर्म की सबसे ठीक व्याख्या करता है। हिंदू धर्म शास्त्रों में कुछ साधन अदृष्टार्थ कुछ दृष्टार्थ और कुछ उभयार्थ बताये गये हैं जिनमें कुछ प्रत्यक्ष समझ में आते हैं। कृषि, शिल्प, युद्ध, राज व्यवहार आदि कर्म दृष्टार्थ है।

साधनों से अप्रत्यक्ष फल सिद्धि प्राप्त होने वाले साधन अदृष्टार्थ हैं, जैसे देव-पितृ-यज्ञ, जन, व्रत, जप आदि। इन कर्मों में लौकिक और पारलौकिक दोनों फल प्राप्त होते हैं, पर उनका प्रमाण प्रत्यक्ष न होकर शास्त्रों के वचनों द्वारा ही मिलता है।

4. जिस कर्म का साध्य-साधन भाव दृष्ट और अदृष्ट दोनों तरह का है, वह है उभयार्थ, जैसे प्रवाह धर्म। इसमें रति और संतान यह विचार का दृष्ट प्रयोजन है और पितृ-ऋण मुक्ति, देव-पितृ लोक प्राप्ति ये अदृष्ट फल हैं।

यहाँ पर पाप-पुण्य के स्वरूप पर भी विचार करना आवश्यक है जिसके आधार पर मनुष्यों के कर्तव्य स्थिर किये जा सकते हैं। इस संबंध में कुछ विवेकशील व्यक्तियों का मत है कि “जिस आचरण में व्यक्ति का, अथवा उसके समाज का हित स्थायी रूप से होता है, वह आचरण पुण्यकारक माना जा सकता है। इस प्रकार का हिसाब दीर्घकाल तक गहराई से विचार करने और विविध परिस्थितियों की जाँच करने से ही निकाला जा सकता है। अध्ययन शून्य और संकुचित बुद्धि के लोग समीप के इष्ट और अनिष्ट फलों की ही आज़माइश कर सकते हैं, इसलिए शास्त्रों को लिखने का कार्य मननशील और अध्ययनशील साधुओं ने ही किया है। सामान्य और संकुचित बुद्धि वालों की समझ में न आने वाले साधन ही अदृष्टार्थ साधन हैं। जो कर्म तात्कालिक सुख या लाभ के जान पड़ते हैं वे दूर तक विचार करने से बहुधा परिणाम में अनिष्टकारक होते हैं। उन्हें ही शास्त्रकार पापकर्म बतलाते हैं।”

परोपकार, सत्य, अहिंसा आदि नैतिक नियम, पुण्य के और परमार्थ के मूल हैं। महाभारत में कहा है कि जो सब के साथ आत्मवत् दृष्टि से व्यवहार करता है उसे मरणोत्तर शाश्वत सुख प्राप्त होता है। सारी स्मृतियाँ कहती हैं कि हिंसा से, पर-धन हरण से और पर-दारा गमन से मनुष्य पतित होता है। यदि हम सारे जीवन की पर्यालोचन करें, तो यह दिखायी देगा कि उक्त विधि-निषेधों का पालन करने से असंख्य व्यक्तियों का और समूचे समाज का हित होता है, और वैसा न करने से व्यक्ति और समाज को दुर्गति भोगनी पड़ती है। शास्त्र प्रमाणों के साथ ही मनन और अनुभव से भी हम इन बातों की सत्यता का अनुभव कर सकते हैं, और हिंदू धर्म की दृष्टि से ये ही स्वार्थ और परमार्थ को सिद्ध करने वाले साधन हैं।

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