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Magazine - Year 1957 - Version 2

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प्रकृति की ओर लौटो

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First 10 12 Last
(प्रोफेसर वीरनारायण दलेला एम.ए., एम.कौम.)

आज मनुष्य अपने को सभ्य बनने की डींग मारता है। प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति करता जा रहा है। अनेकों ऐसी वस्तुओं का निर्माण कर दिया है जिनको कभी किसी ने स्वप्न में भी न सोचा था। जल-थल एवं आकाश पर निर्भयता एवं स्वतंत्रता से विचरण करता है। यही मनुष्य- ईश्वर की अनुपम एवं अति उत्तम कृति- रोगों के चंगुल में इतनी बुरी तरह से जकड़ा हुआ है कि उसकी यह धारणा परिपक्व हो गई है कि “शरीरं व्याधि मंदिरम्”-शरीर व्याधि का घर है अर्थात् जब तक संसार में रहना है, रोग होना आवश्यक है। प्रत्यक्ष रूप से मनुष्य की ऐसी धारणा रखना गलत भी नहीं क्योंकि वह स्वयं प्रति दिन अपने नेत्रों से देखता है, कि राजकीय चिकित्सालयों में, डाक्टरों एवं वैद्यों की दुकानों पर घंटों दीर्घ पंक्तिबद्ध, बोतलें लिए हुए, मुँह लटकाये हुए, एवं चिकित्सक से अपने रोग की कहानी सुनाने के अवसर की प्रतीक्षा में लोगों की भीड़ लगी हुई है। राजनीति आधुनिक युग में अधिकतर चर्चा का विषय है परंतु रोगों की चर्चा भी वार्तालाप का कम महत्वपूर्ण विषय नहीं है। आज का मानव अपने मासिक आय-व्यय में एक अच्छी खासी धन-राशि का चिकित्सा के लिए प्रावधान करता है क्योंकि रोगों की अनिवार्यता उसके मस्तिष्क में है। इस प्रकार अपने पसीने की महीने भर की कमाई का अधिकतम भाग चिकित्सकों को अर्पण कर देता है, परंतु फिर भी रोगों को विदाई नहीं दे पाता। राज्य की ओर से भी इन रोगों से युद्ध करने के लिए दिन ब दिन अनेकों चिकित्सालय खुलते जा रहे हैं, चिकित्सकों की संख्या में भी वृद्धि होती जा रही है, परंतु फिर भी रोगियों की संख्या में कमी नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि चिकित्सालयों एवं रोगों में संख्या वृद्धि की होड़ सी लगी हुई है। यदि ऐसी ही अवस्था चलती रही तो संख्या-वृद्धि की दौड़ में अवश्य ही विजय मुकुट रोगों के शीश पर सुशोभित होगा।

यह शोचनीय दशा है एक ओर उस ‘ज्ञानवान’ कहे जाने वाले पशु की जो अपने बुद्धि बल पर ईश्वर को भी निवृत्ति देने का प्रयत्न कर रहा है। दूसरी ओर उन विचार शक्ति हीन पशुओं एवं पक्षियों की ओर देखिए, कितने सुँदर एवं स्वस्थ दृष्टिगोचर होते हैं। उनके लिए तो चिकित्सालय भी नहीं औषधियाँ भी नहीं। आवश्यकता भी क्या इनको इन वस्तुओं की? रोग इनसे स्वयं दूर भागते हैं। जब तक ये संसार में साँस लेते हैं, केवल या तो मृत्यु के समय ही रोग से पीड़ित होते हैं या अधिक से अधिक दो-चार बार। जीवन काल में मनुष्य की भाँति आये दिन रोग शैय्या पर लेटे हुए ‘शरीर व्याधि मंदिरम’ का संगीत नहीं अलापते। हाँ जिन पक्षियों एवं पशुओं को मनुष्य ने बंदी बना लिया है, वे ही अब रोग के शिकार होने लगे हैं-फिर भी मनुष्य की अपेक्षा कम ही-एवं उनके लिए औषधालयों का आयोजन होने लगा है। क्या हमने कभी अपनी इस दयनीय दशा पर मनन किया है? क्या हमने कभी इस आश्चर्यजनक शरीर-यंत्र-रचना को समझने के लिए अपने मस्तिष्क पर बल दिया है? कारण स्पष्ट है, हमारे जीवन में कृत्रिम आहार-विहार की प्रधानता है, अतः हमारे जीवन में औषधियों की भरमार है, कुछेक तो औषधियों के बलबूते पर ही जीते हैं।

जब तक हमारे जीवन से इस कृत्रिमता को नष्ट नहीं किया जाता, हम अनेक औषधियों एवं अनेक निजी एवं राजकीय चिकित्सालयों के होते हुए भी अपने को स्वस्थ नहीं रख सकते। अतः यदि हम चाहते हैं, अपने परिश्रम द्वारा अर्जित किये हुए धन को अपने पास रखना, यदि हम चाहते हैं चिकित्सकों की दुकान पर समय नष्ट न करना, तो हमें प्रकृति के संपर्क में आना पड़ेगा, प्राकृतिक आहार-विहार अपनाना पड़ेगा। प्रकृति को अपनी माता समझना पड़ेगा, शत्रु नहीं, प्रकृति की पुकार सुननी पड़ेगी एवं उसको अपना सहायक समझना पड़ेगा।

प्रकृति से संपर्क स्थापित करने से या प्राकृतिक जीवन यापन करने से मेरा अभिप्राय यह नहीं है, जैसा कि कुछेक व्यक्ति अनुमान लगायेंगे, पशुओं की तरह नंगे धड़ंगे इधर उधर घूमना, ज्ञान शून्य हो जाना एवं घासपात फल फूल खाकर जीवन व्यतीत करना। हाँ यदि मनुष्य इस प्रकार का जीवन यापन करते हैं तो रोग तो न आवेंगे, परंतु हम ऐसा नहीं कर सकते। और सभ्य एवं बुद्धिमान होने के नाते हमें ऐसा करना भी न चाहिए। अतः हमें मध्यम मार्ग अपनाना चाहिए। हमें अपने जीवन में संतुलन लाना अनिवार्य है अर्थात्-कृत्रिमता के पीछे अधिक न भागते फिरे, सामाजिक अवस्था का ध्यान रखते हुये अधिक से अधिक प्राकृतिक आहार-विहार अपनावें।

हमारे इस शरीर-यंत्र की रचना पंच तत्वों द्वारा अग्नि, वायु, जल, आकाश एवं पृथ्वी- हुई है। अतः इस शरीर को स्वस्थ रखने के लिए केवल इन पंच तत्वों की ही आवश्यकता है तथा इन्हीं तत्वों द्वारा रोग निवारण हो सकता है। प्राकृतिक चिकित्सा में इन तत्वों द्वारा ही रोग की चिकित्सा की जाती है। इसी कारण से सदैव ही आशातीत सफलता मिलती है। यदि हम अपने आहार-विहार में किसी प्रकार की कृत्रिमता आने से रोगी हो भी जाते हैं तो हमें चाहिए शीघ्र ही इधर-उधर भटकने के स्थान पर, हम प्राकृतिक साधनों द्वारा स्वास्थ्य लाभ कर लें। प्राकृतिक साधनों द्वारा ही रोग निवारण करना प्राकृतिक चिकित्सा का कार्य है। इस प्रकार की चिकित्सा के अंतर्गत रोगों से बचने के उपायों पर एवं रोग होने पर उनके निवारण पर महत्व दिया जाता है। दोनों प्रकार की अवस्थाएं महत्वपूर्ण हैं परंतु प्रथम अवस्था पर इतना बल दिया जाता है कि द्वितीय अवस्था को प्राप्त होने का दुर्भाग्य ही न प्राप्त हो। क्योंकि जैसी अँग्रेजी में कहावत है-’रोगों की चिकित्सा से रोगों से बचना अच्छा है।’

प्राकृतिक चिकित्सा का भारत जैसे एक निर्धन देश के लिए विशेष महत्व है जहाँ कि प्रति व्यक्ति की औसत वार्षिक आय, बर्मा और पाकिस्तान के अतिरिक्त संसार में सबसे कम है। इस प्रकार की चिकित्सा के मूल्य को विदेशों में आँका गया है और इस दिशा में काफी कार्य भी किया गया है। भारत के लिए यह प्रणाली नवीन नहीं है। प्राचीन काल में हमारे ऋषियों एवं योगियों ने इसकी महत्ता पर उचित प्रकाश डाला है एवं इसी के आश्रय से दीर्घ जीवन लाभ किया है। परंतु समय की गति में हमारी अन्य अमूल्य विचारधाराओं, नीतियों एवं प्रणालियों की भाँति इसे भी भुला दिया गया है। अतः जबकि भारत परतंत्रता की श्रृंखलाओं को तोड़ कर स्वतंत्र हो गया है, जनता का कर्तव्य है कि इस अमूल्य चिकित्सा-प्रणाली का उचित मूल्याँकन करें। राज्य का कर्तव्य है कि इसकी महत्ता को उचित मान्यता दे। राज्य एवं प्राकृतिक चिकित्सक प्रचार द्वारा जनता का ध्यान इसकी ओर आकर्षित करें जिससे देश के निवासी हृष्ट पुष्ट रहना सीखें, क्योंकि हृष्ट पुष्ट व्यक्ति ही देश की सबसे बड़ी सम्पत्ति हैं।

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