
परिव्राजक चाहिए! परिव्राजक चाहिए!!
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(श्री विनोबा भावे)
इन सौ वर्षों के अंदर हिंदुस्तान में विश्व विद्यालय बढ़े हैं। लोग समझते हैं हिंदुस्तान में तब से कुछ न कुछ ज्ञान का प्रचार चला। यह बात ठीक है कि हिंदुस्तान के कुछ लोगों को ऊँची तालीम मिली और विश्वविद्यालयों के जरिये दुनिया का कुछ ज्ञान हिंदुस्तान में बढ़ा। परंतु अपनी बहुत बड़ी चीज हमने उनके साथ खोयी। हमारे यहाँ केन्द्रित विश्वविद्यालय नहीं थे, परंतु चलते फिरते विश्वविद्यालय बहुत थे।
वैसे प्राचीनकाल में कुछ केन्द्रित विश्वविद्यालय थे, परंतु देश में ज्ञान-प्रचार का आधार उन विश्वविद्यालयों पर नहीं था, बल्कि ज्ञान-प्रचार का आधार परिव्राजक वर्ग पर था। परिव्राजक- संस्था हिंदुस्तान की बहुत बड़ी संस्था है। शंकराचार्य, रामानुज, बुद्ध, महावीर आदि महापुरुषों ने जो भी ज्ञान प्रचार किया वह परिव्राजक वर्ग खड़ा करके किया, नागरिकों को ज्ञान देने के लिए विद्यालय काम में आते हैं। परंतु कुल देश के कोने-कोने में घर-घर में ज्ञान देने के लिए घूमते परिव्राजकों की जरूरत रहती है। इस भूदान और ग्रामदान आँदोलन में इस कमी का बहुत अनुभव होता है। जो भी थोड़ा प्रचार हुआ है, वह घूमने वालों के जरिये हुआ है।
देश के विभिन्न प्राँतों में कुछ लोग बेशक घूमते हैं, परंतु आवेश में घूमते हैं। वे सतत घूमने वाले नहीं है। इनमें उन लोगों का दोष नहीं। कुछ लोग ऐसे हों जो गृहस्थ धर्म में रहकर समाज के लिए थोड़ा समय दें। परंतु सतत ज्ञान पहुँचाने का काम थोड़े से घूमने वालों से नहीं होगा। वास्तव में वे परिव्राजक नहीं है, प्रचारक हैं। प्रचारक का काम क्षणिक होता है और आवेश भी क्षणिक होता है। लेकिन परिव्राजक ज्ञाननिष्ठ, क्राँतिनिष्ठ, लोकनिष्ठ होते हैं। वे गिनते नहीं कि हम कितने दिन घूमे और घूमने के कितने दिन बाकी रहे। बल्कि लोगों में जाकर ज्ञान पहुँचाना ही उनका जीवन-धर्म रहता है।
भूदान का बुनियादी आँदोलन हिंदुस्तान में चल रहा है। इसके पीछे सर्वोदय का गहन तत्वज्ञान है। यह विचार पहुँचाने वाले निरंतर घूमने वाले ज्ञाननिष्ठ परिव्राजक चाहिएं। इस तरह के परिव्राजक तैयार होंगे, इसमें हमें संशय नहीं है। यह गहरा काम है, इसलिए थोड़े दिन की बातें नहीं करनी हैं। इसका एक हिस्सा पूरा होगा तो दूसरा हिस्सा आरंभ होगा। यह एक हिस्सा है। फिर शाखाएं फूटती हैं, फिर फूल, फिर फल। इस तरह यह बढ़ता चला जायेगा। परिपक्व फल होगा, तभी कार्य पूरा होगा। किसान विश्राँति नहीं लेगा, जब तक वृक्ष पूरा रूप नहीं लेगा। इसलिए हमारी नजर परिव्राजकों की तरफ ज्यादा रहती है। इस देश में 3 सौ जिले हैं और 36 करोड़ लोग हैं। तो 3000 भी परिव्राजक तीन सौ जिले के नहीं। यह क्या भारी माँग है? परंतु आज लोग भोगपरायण हैं। संसार में बहुत सुख है ऐसा नहीं, फिर भी सुखासक्ति है। इस वास्ते वैराग्यशील, क्राँतिनिष्ठ लोग कम हैं। हम तो काम करते चले जा रहे हैं। परंतु हमारा ध्यान उतना विचार-प्रचार की तरफ नहीं, जितना परिव्राजक निर्मित पर है।
लोक जीवन पर तरह-तरह की चीजों का आक्रमण हो रहा है। बीड़ी कितनी बढ़ी है, शौकीनी कितनी करते हैं। पचास साल पहले उतनी नहीं थी। आज जितने देर से लोग उठते हैं, उतने देर से 50 साल पहले नहीं उठते थे। आज जितने तादाद रात में सिनेमा के कारण लोग लोग जागते हैं, उतने पहले नहीं जागते थे। सारा जीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है। लोग देर से सोते हैं और देर से उठते हैं, जिससे राष्ट्र दुर्बल बनता है। यह नहीं होता तो बुद्धि पराक्रमी होती। चाय का रिवाज कितनी तादाद में बढ़ गया है। आजकल लोग सिर के बाल रखते हैं। पेट में जितना तेल नहीं जाता होगा, उससे ज्यादा सिर पर डालते हैं। वह भी बाजार का खरीदा हुआ गंदा तेल। परिणाम स्वरूप जवानी में ही बाल पक जाते हैं।
कुछ अच्छी चीजें भी हैं। उसका हम नाम नहीं लेते। परंतु देश के जीवन में कितना परिवर्तन हो रहा है, यह हम बता रहे हैं। जिसमें धर्म संस्था का, व्यक्ति का कोई असर नहीं। भक्ति मंदिर के इर्द-गिर्द है, लोगों के अंदर नहीं। इसी भक्ति के लिए आचार्य देश भर घूमते थे। आज कोई घूमता नहीं। धर्म का लोकजीवन पर असर ही नहीं रहा। बिल्कुल चेतनहीन धर्म बन गया है।
50 साल पहले जितनी समय परायणता थी उतनी आज नहीं है। परंतु दस गुनी घड़ियाँ बढ़ी हैं। अपनी घड़ी देख-देखकर लोग अपना समय आलस में बिताते हैं।
इससे ज्यादा कौन सा अन्याय हो सकता? परन्तु यह बाते लोगों को समझाना चाहिए।
इसलिए परिव्राजक वर्ग चाहिए। जिसमें ज्ञान निष्ठ के साथ-साथ श्रमनिष्ठ भी हो। गाँव-गाँव जायें, लोगों के साथ श्रम भी करें और ज्ञान दें। उत्साही लोग निकल पड़ेंगे तो ग्रामदान क्या है। मालकियत मिटाना क्या है, यह लोगों को समझाने में देर नहीं लगेगी।
सुखप्रिय लोगों से जन प्रचार नहीं होगा। जनता पहचानती है, कौन पोल है और कौन ठोस है। अगर जमीन पर गेंद पटकते हैं तो उसको जमीन फेंक देती है ऊपर, क्योंकि जमीन जानती है कि वह पोल है। लेकिन कुदाल से जमीन पर प्रहार करें तो जमीन उस को अंदर लेती है, फेंकती नहीं। इसी तरह गेंद जैसे कार्यकर्ता हों तो जनता उनको फेंक देगी। क्योंकि वह पोल है न। लोग पूछेंगे जमीन की मालकी हम को मिटाने के लिए कहता है और स्वयं मालकियत रखता है।
आज सही विचार मनुष्यों के पास पहुँचाने के लिए सही मनुष्यों की जरूरत है। यह क्राँति कार्य है। यह समझ लीजिए हम क्राँति के नजदीक आये हैं। ठोस विचार के परिव्राजकों की जरूरत है।