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Magazine - Year 1987 - Version 2

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काया की स्थूल परत एवं ध्वनि-प्रयोग

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अध्यात्म प्रतिपादनों में स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीरों के परिशोधन की चर्चा आत्मिक-प्रगति के संदर्भ में की जाती है। प्रत्यक्ष रूप से यह कार्य तो क्रियाशुद्धि से ही होता है; किंतु इतना भर पर्याप्त नहीं है। अतः की बीजशक्ति उभारने के लिए विशेष साधनात्मक प्रयोग किए जाने की आवश्यकता है। शरीर-रक्षा के लिए आहार-विहार की व्यवस्था अनिवार्य है, पर इतने भर से कोई विद्वान वैज्ञानिक या इंजीनियर-डॉक्टर नहीं बन जाता। इसके लिए विशेष अध्ययन-अभ्यास करना होता है। आहार-विहार की विधि-व्यवस्था एवं विशिष्ट शिक्षा दोनों का सुयोग-संयोग आध्यात्मिक प्रगति हेतु अभीष्ट है। अकेली ईटों से दीवार नहीं खड़ी हो जाती; उन्हें परस्पर जोड़ने के लिए चूना, सीमेन्ट, लोहा आदि भी चाहिए। इसी प्रकार गाड़ी के दो पहियों की तरह व्यवहारशुद्धि और साधनात्मक उपचार दोनों की ही अपनी जगह अनिवार्यता एवं महत्ता है।

त्रिवेणी की तीन धाराओं की तरह ब्रह्मा-विष्णु-महेशरूपी त्रिदेवों की तरह, लोक त्रिधा की तरह मानवी सत्ता भी तीन भागों में विभक्त है— स्थूल, सूक्ष्म और कारण। तीनों पृथक भी हैं और समन्वित भी। तीनों का समावेश होने पर एक पूर्णता विकसित होती है; किंतु सही स्थिति में तीनों को ही होना चाहिए, अन्यथा असंतुलनजन्य विकृति उत्पन्न हो सकती है। चर्म, मांस और अस्थि का ढाँचा तभी तक सही है, जब तक तीनों अपने-अपने स्थान पर सही रूप से अवस्थित है। इनमें से एक का भी गड़बड़ाना उस क्षेत्र की स्वास्थ्य-सुडौलता को आघात पहुँचाता है।

स्थूलशरीर रासायनिक पदार्थों से बना हुआ है। उसमें किसी प्रकार की हलचल उत्पन्न करने के लिए प्रहार की आवश्यकता पड़ती है। प्रत्यक्ष आघात तो हथौड़े जैसे उपकरणों से पहुँचाएँ जाते हैं; किंतु अदृश्य जगत में यह कार्य शब्द के द्वारा संभव होता है। सभी जानते हैं कि आघात लगने पर शब्द होता है, पर तथ्य यह भी है कि शब्द से आघात लगता है। किसी वस्तु के गिरने-टूटने-टकराने से शब्द होता है। तोप-बंदूक चलने से धमाका होता है; पर यह भी मान्यता है कि शब्द की भयंकरता भी अनर्थ कर सकती है। तोपों के गर्जन, बमों के विस्फोट गर्भधारियों के गर्भ गिरा देते हैं। धड़कते हृदय को बंद कर देते हैं। कान बहरे हो जाते हैं। कोलाहल की अधिकता से अन्य प्रकार के शारीरिक-मानसिक उपद्रव खड़े होते हैं। और अदृश्य वातावरण में भी एक तरह का असंतुलन आ जाता है। प्रदूषण बढ़ जाता है। जेटयानों की कंपन लहरें जिधर होकर गुजरती है, उधर अस्थिरता-अस्वाभाविकता उत्पन्न करती हैं। रात में भयानक पक्षी ध्वनि करते हैं तो डर लगता है और नींद उड़ जाती है। फौजी सिपाही तालबद्ध कदम मिलाकर चले तो उस आवाज से वह लोहे का पुल टूट सकता है; जिस पर से लोग गुजरते थे। देखा तो यहाँ तक गया है कि किसी मजबूत हाॅल में लोहे का मजबूत गार्डर लटका दिया जाए और उस पर क्रमबद्ध रूप से हलका प्रहार एक छोटे से पेंडुलम से करते रहा जाए तो वह गार्डर टूट सकता है एवं छत फट सकती है।

यह ध्वनि की प्रहार-प्रक्रिया हुई। उसका रचनात्मक उपयोग भी है। अमुक स्तर का संगीत बजाकर रोगियों की मानसिकता, जीवन-क्षमता, भाव-संवेदना लहराई जाती है। इस उभार के आधार पर रोग-विषाणुओं का समापन एवं आरोग्य को वापस लाने वाले तत्त्वों का उन्नयन होता है। संगीत  अब अपने आप में एक स्वतंत्र चिकित्सापद्धति  बनती जा रही है। पुरातनकाल में उसका उपयोग मेघ-मल्हार गाकर वर्षा कराने में, दीपक राग गाकर दीपक जलाने के रूप में होता था। बहेलिए मृगों को, सपेरे साँप को संगीत के आधार पर वशीभूत करते और उन्हें पकड़ते थे। आधुनिक वैज्ञानिक पशु-पक्षियों और जलचरों की क्षमता विकसित करने में लयबद्ध ध्वनि-प्रवाह का उपयोग करते हैं। पाया गया है कि इस प्रकार से गाएँ अधिक दूध देने लगीं। मुर्गियों से अधिक अंडे बच्चे मिले और मछलियाँ जल्दी परिपुष्ट हुई और अपेक्षाकृत कहीं अधिक प्रजनन करने लगीं। यह प्रयोग पेड़-पौधों पर भी हुआ है। वे इस आधार पर अधिक तेजी से बढ़े और असामान्य रूप से फूले-फले। कृषकों और उद्यानमालिकों ने अपनी फसलों को संगीत सुनाकर अधिक परिपुष्ट करने में सफलता पाई। मानवी मनोरंजन में गायन-वादन-अभिनय का असाधारण स्थान है। उससे उत्साह बढ़ता है। घोड़े नाचने लगते हैं। मेघ-गर्जन की ध्वनि पर भाव-विभोर होकर मोर नाचते देखे गए हैं।

प्रकृति के अंतराल में तीन प्रमुख शक्तियाँ काम करती हैं— (1) ध्वनि (2) ताप (3) प्रकाश। इन्हीं की सूक्ष्म-तरंगें रेडियो, टेलीविजन आदि उपकरण चलते हैं। एक्स-किरणें, रेडियो-किरणें, लेसर-किरणें, गामा-किरणें आदि के रूप में इन तरंगों का महत्त्वपूर्ण एवं आश्चर्यजनक उपयोग भी किया जाने लगा है। तरंगें ही सघन होकर अणु-परमाणुओं के रूप में परिवर्तित होती है।और अनेक नाम-रूपों वाले पदार्थों की संरचना करती हैं। इस प्रकार यह समझा जा सकता है कि समस्त विश्व की अनेकानेक हलचलों को यह ध्वनि-प्रवाह ही हिलाता-डुलाता, मोड़ता-मरोड़ता रहता है। इसी आधार पर उत्पादन-अभिवर्ध्दन परिवर्तन की रीति-नीति सर्वत्र चलती रहती है। उत्साह, उमंग और उल्लास के रूप में तीनों शरीरों को भी सूक्ष्मध्वनियाँ अपने ढंग से यथा अवसर प्रभावित करती रहती हैं। जीवन और मरण, उत्थान और पतन, बहुत कुछ उन्हीं के ऊपर अवलंबित है।

त्रिविधि-तरंगों में से स्थूलशरीर को ध्वनि-तरंगें प्रभावित करती हैं। सूक्ष्मशरीर को ताप-तरंगें और कारणशरीर को प्रकाश-तरंगें। यों अनायास भी यह संयोग बनता-बिगड़ता रहता तथा अनेकानेक प्रभाव उत्पन्न करता रहा है; किंतु यदि उनका योजनाबद्ध रूप से वैज्ञानिक प्रयोगों की तरह उपयोग किया जा सके तो इसके इच्छित परिणाम भी होते हैं। बारूद जला देने पर धमाका तो होता है, पर उसमें अस्त-व्यस्तता रहती है; किंतु उसी को बंदूक या तोप की नली में डालकर किसी लक्ष्य पर केंद्रित करके दागा जाए तो निशाने को धराशाई करने की प्रत्यक्ष परिणति दृष्टिगोचर होती है। ध्वनि-तरंगों का उपयोग स्थूलशरीर को प्रभावितकर उसमें अभीष्ट सुधारकर इस समूचे ब्रलाक में बिखरी पड़ी है। उन्ही  के द्वारा  परिवर्तन करने के निमित्त किया जा सकता है।

स्थूलशरीर को प्रभावित करने के लिए मंत्रयोग का सूक्ष्मशरीर के लिए प्राणयोग का और कारणशरीर में उपयोगी उभार लाने के लिए ध्यानयोग का उपयोग किया जाता है। यों साधनाएँ अनेकों प्रकार की हैं। परंपरा भेद से उनका उपयोग-उपचार अनेक विधि-विधानों के रूप में किया जाता हैं। इस प्रकार साधना विज्ञान के अनेकानेक भेद और उपभेद बन जाते हैं। इनमें से जिन्हें अपनी अभिरुचि के अनुरूप अपनाना होता है, वे उसका प्रयोग करते रहते हैं। देश, भाषा, परंपरा आदि भेदों के कारण तत्त्व दर्शन अनेक भागों में विभक्त हो गया है, पर इसे एकदूसरे के प्रतिकूल मानना भूल होगी। एक ही नगर में पहुँचने के लिए विभिन्न दिशाओं के सभी अलग-अलग मार्ग अपनाते हैं। इतने पर भी वे सभी उस एक ही लक्ष्य तक पहुँच ही जाते हैं।

संसार भर में प्रचलित अनेकानेक योगाभ्यासों को तीन भागों में ही विभक्त किया जा सकता है। बहुलता को सीमा बद्धता में बाँधा जा सकता है। मंत्रयोग, प्राणयोग और ध्यानयोग की सीमा में प्रायः सभी साधन-विधानों को बाँधा जा सकता है। मनोविकार और अनैतिक आचरण भी लोभ, मोह, अहंता की पृष्ठभूमि पर उगते हैं। साधनाएँ भी साहस, संकल्प और संवेदना का अवलंबन लेकर आगे बढ़ती और तीनों शरीरों को प्रभावित करती हैं।

पदार्थ परिवार को ध्वनि-तरंगों से प्रभावित परिवर्तित, परिष्कृत, करने के लिए 'मंत्रयोग' का उपयोग करना होता है। मंत्र में तीन तत्त्व जुड़ते हैं— (1) शब्दों का गठन (2) साधक का व्यक्तित्व (3) तथ्य को अंतःकरण की गहराई तक पहुँचा देने वाला अविचल विश्वास। इन तीनों का जब भी, जहाँ भी जितना भी, समावेश हो, वहाँ उसकी उपयोगी प्रतिक्रिया मिश्रित रूप से परिलक्षित होगी; किंतु यदि इनमें से एक भी कम पड़ा या त्रुटिपूर्ण रहा तो उसका अभीष्ट प्रतिफल उत्पन्न होना; संदिग्ध हो जाएगा।

मंत्रों का गठन दूरदर्शी अनुभवी योगाभ्यासियों द्वारा किया जाता है। वे शब्दों को समझने में अर्थ को प्रधानता नहीं देते; वरन यह देखते हैं कि किस क्रम से अक्षरों का गुणन हुआ और उनके उच्चारण में किस प्रकार का ध्वनि प्रवाह उत्पन्न हुआ। इस मंत्र निर्धारण में प्रायः उनके सृजेताओं को अंतःस्फुरण-मार्गदर्शन मिलता है। इसलिए वे उसे आकाशवाणी द्वारा, ईश्वरीय-चेतना द्वारा उद्भूत भी कहते हैं। गायत्री मंत्र, कलमा शरीफ, बपतिस्मा, णामोंकार मंत्र, मणि पद में हुँ, ऐसे ही सनातन कहे जाने वाले मंत्र हैं।

तंत्रयोग के अंतर्गत एकाक्षर मंत्रों का भी निर्धारण किया गया है। देवनागरी लिपि के कुछ प्रभावशाली अक्षरों के ऊपर अनुस्वार (.) लगाकर उन्हें विशेष प्रयोजनों में काम आने वाला विशेषज्ञ मंत्र बना दिया गया है (कं, खं, गं, घं, चं, छं, जं, झं,पं, फं, बं, भं) आदि की रचना इसी दृष्टि से हुई है। श्रीं, क्लीं, ह़ीं, हुं फट् आदि की भी गणना एकाक्षरी मंत्रों से ही होती है। अर्थसहित मंत्रों की व्याख्या-विवेचना हो सकती है। उनसे शिक्षा ले सकते हैं, पर एकाक्षरी मंत्र बीजरूप हैं। उनमें शक्ति की प्रधानता है। अभिव्यक्ति नहीं खोजी जा सकती। इन सबके अपने अपने प्रभाव है। उनका उच्चारण यों, कंठ, होठ, जीभ, दाँत, तालु आदि के माध्यम से ही होता है; पर जो ध्वनि-प्रवाह समंवित रूप से बनता है वह स्थूल शरीर के अन्तराल में रहने वाली विशाल ग्रंथियों से टकराता है, उस प्रतिक्रिया को समूचे व्यक्तित्व में वितरित करता है। शरीर के अंतराल में अनेक गुच्छक, उपत्यिकाएँ, चक्र-भ्रमर अंतः स्रावी ग्रंथियों का समुदाय है। इनमें से कुछ के क्रियाकलापों की जानकारी हो गई है, पर कुछ अभी तक शरीरशास्त्रियों द्वारा समझे नहीं जा सके हैं। माइक्रोलीटर की मात्रा में स्रवित होने वाले हारमोन द्रव्यों की विलक्षणता प्रत्यक्ष है। उनका प्रभाव काया तक ही सीमित नहीं रहता; वरन स्वभाव और व्यक्तित्व को भी प्रभावित करता है। इस प्रकार अनेकानेक ग्रंथियों को संतुलन में लाने, विकसित करने के लिए मंत्र-प्रयोगों को आश्चर्यजनक परिणाम उत्पन्न होते देखा गया है। आहार आदि की तरह संसार के अन्यान्य पदार्थ भी मनुष्य को प्रभावित करते हैं। वे पास आते, दूर भागते हैं। अनुकूल एवं प्रतिकूल बनते हैं। इस असंतुलन को इच्छानुरूप बनाने में भी मंत्रशक्ति कार्य करती है। यह शक्ति वरदान एवं अभिशाप के रूप में भी अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करती देखी जाती है।

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