Magazine - Year 1987 - Version 2
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Language: HINDI
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प्राणाकर्षण प्रयोग से तेजस् का जागरण
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सूक्ष्मतत्त्व प्राणतत्त्व से विनिर्मितहै। जड़ और चेतन का सम्मिश्रण प्राण है। जिस प्रकार नीला और पीला रंग मिलने से हरा रंग बनता है, पानी और मिट्टी का सम्मिश्रित स्वरूप कीचड़ के रूप में परिलक्षित होता है, ठीक उसी प्रकार प्रकृति और पुरुष का जड़-चेतन का सम्मिलन प्राण है। इसी के आधार पर जीवन स्थिर रहता है। जब वह शरीर से पृथक हो जाता है तो मरण की स्थिति बन जाती है।
प्राणतत्त्व शरीर में भी विद्यमान है और उसका विराट स्वरूप विश्व-ब्रह्मांड में संव्याप्त है। जड़-चेतन की एक मात्रा जब आपस से गुँथ जाती है तो उसे जीव संज्ञा दी जाती है, वह शरीरगत अवयवों को गति प्रदान करता है, साथ ही अहम् की ग्रंथी बनकर चिंतन-तंत्र के माध्यम से अपनी चेतना का परिचय देता है। चेतना का गुण है— चिंतर। चिंतर को ही सजीवता का चिह्न माना जाता है। आस्था, आकांक्षा, भावना कल्पना, विवेचना आदि उसी के भेद उपभेद है। प्राणवान को साहसी समझा जाता है। पराक्रमी, पुरुषार्थी और जीवट का धनी। महाप्राण प्रतिभावान होते हैं और अल्पप्राण कहकर दीन, दुर्बलों, कायरों, डरपोकों का तिरस्कार किया जाता हैं। वैभववान होने की तरह प्राणवान होना भी किसी के समर्थ सौभाग्यवान होने का चिह्न है। उसका वर्तमान सुव्यवस्थित होता है और भविष्य उज्ज्वल।
जिस प्रकार जमीन पर बिखरी हुई रेत बिना किसी अड़चन के अभीष्ट में बटोरी जा सकती है, जिस प्रकार विशाल जलाशय से अपनी आवश्यकता का पानी उपलब्ध पात्र में भरा जा सकता है, उसी प्रकार ब्रह्माण्डव्यापी महाप्राण में से अपनी सूक्ष्मसत्ता में प्राणतत्त्व को इच्छित मात्रा में धारण करके अपना चेतना-पक्ष बलिष्ठ बनाया जा सकता है। यह शरीर की शोभा-समर्थता बढ़ाने की भी निमित्त कारण बनता है।
सूक्ष्मशरीर किस स्थिति में रहरहा है, किस स्तर का है? इसका अनुमान इसी आधार पर लगाया जा सकता है कि उसमें प्राणतत्त्व कितना है? स्थूलशरीर में उसकी विद्यमानता को 'ओजस्' कहते है। सूक्ष्मशरीर में उसकी बहुलता “तेजस कहलाती है और उसका कारणशरीर को जब वह ऊर्जा प्रदान करने लगता है तब उसे 'वर्चस्' नाम मिलता है।
सूक्ष्मशरीर को लोक-व्यवहार के लिए कुशल बनाने के लिए चिंतन-क्षेत्र की परिधि बढ़ानी पड़ती है। शिक्षा का आश्रय लिया जाता है, अनुभव एकत्रित करते हैं, साथ ही मनन-चिंतन का उपक्रम अपनाने मंथन करते हुए दूरदर्शी विवेकशीलता की परिधि तक पहुँचा जाता है। प्रज्ञा का, मेधा का भूमा का उदय कारणशरीर में होता है, पर उसके पूर्व मानसिक संतुलन की, परिष्कृत दृष्टिकोण की पृष्ठभूमि बनती है।
विचारों की तीक्ष्णता किसी तथ्य की गहराई तक पहुँचती है, जबकि मंदता बनी रहने पर उथली प्रथा-परंपराओं को अपनाकर ही काम लिया जाता है। समीपवर्ती लोगों को जैसा सोचते-करते देखा जाता है, उसी का अनुकरण-अनुगमन साधारणजनों का भी चल पड़ता है। वे कोयले के ढेर में से हीरे नहीं बीन पाते। दोनों के बीच रहने वाला अंतर भी उनकी समझ में नहीं आता। ऐसी दशा में वे स्वतंत्र बुद्धि उत्कर्ष के लिए आवश्यकता-निर्धारण के लिए समर्थ नहीं होते। बस नर-पशुओं की तरह जिंदगी पूरी करते हैं। पेट-प्रजनन के अतिरिक्त और कुछ उन्हें सूझता ही नहीं। तृष्णा और अहंता उन्हें कठपुतली की तरह नचाती रहती है।
प्रचलन का सम्मोहन जिन्हें वशवर्त्ती बनाए रहता है, जो समुदाय से प्रभावित-परिचालित होते हैं, वे सामान्यजनों में ही गिने जाते हैं। उनसे न कुछ महत्त्वपूर्ण सोचते बनता है और न करते। आहार-निद्रा कही लहरों में डूबते गिरते किसी प्रकार जिंदगी पार करते हैं; जिन्हें आत्मबोध को प्रकाश में मिलता है, वे इतने भर से संतुष्ट नहीं रहते, उन्हें महानता की आकांक्षा कचोटती है, फलतः ऐसी दिशाधारा खोजते हैं, जो व्यक्तित्व में दैवी तत्त्वों का समावेश कर सके।
इस मार्ग पर चलने, इस प्रयास में लगने के लिए लौकिक प्रयत्न तो करने ही पड़ते हैं। स्वाध्याय-सत्संग का, चिंतन-मनन का आश्रय तो लेना पड़ता है, साथ ही एक कदम बढ़कर प्राणतत्त्व की अतिरिक्त मात्रा का भी संचय करना पड़ता है। सामान्यतया हर किसी को प्राणतत्त्व की एक समिति मात्रा ही उपलब्ध होती है। उस विभूति को अधिक मात्रा में हस्तगत करने के लिए प्राणाकर्षण की विशेष साधना करनी पड़ती है। प्राणाकर्षण का अर्थ है— ब्रह्मांडव्यापी महाप्राण में से खींचकर अपनी पात्रता को फुला-फैलाकर उसमें अभीष्ट वैभव को संचित-संकलित करना। इसी क्रिया विज्ञान को प्राणायाम भी कहते हैं।
जन्म से मरण पर्यंत हमें साँस लेने-छोड़ने का क्रम चलाना पड़ता है। वायु को नथुनों द्वारा लिया, फेफड़ों में भरा व अंग-प्रत्यंगों में फैलाया जाता है। अपनी पहुँच की परिधि में वह बुहारी लगाती है और कचरे को बाहर निकाल फेंकती हैं। इसी प्रकार सामान्य परिशोधन होता रहता है। वायु के साथ शरीर को पोषण देने वाला आक्सीजन तत्त्व भरा रहता है। यही ईंधन बनकर जलता और शरीर-संचालन के लिए आवश्यक ऊर्जा उत्पन्न करता है। इतनी जानकारी हर किसी को होती है; किंतु इसी रहस्य को अध्यात्म विज्ञानी ही जानते हैं कि आक्सीजन के अतिरिक्त आवश्यकता प्राणतत्त्व की भी रहती है। इसे आक्सीजन नहीं, उससे उच्चस्तरीय चेतना-मिश्रित धारा कह सकते हैं। यह अनायास ही नासिका मार्ग से भीतर घुसती-निकलती नहीं रहती; वरन उसे संकल्पशक्ति को उभरकर विशेष प्रयास द्वारा खींचने और धारण करने का अभ्यास करना पड़ता है। इस अभ्यास में जितनी अधिक पकड़ होती है, उतनी ही शक्ति लगाकर वह प्राणतत्त्व को उतनी ही मात्रा में आकर्षित करने पकड़ने धारण करने में समर्थ होती है। प्रयोक्ता इसे इच्छित मात्रा में प्रयत्नपूर्वक उपलब्ध कर सकते हैं और उसे जिस भी प्रयोजन में खर्च करना चाहें, खर्च कर सकते हैं। इसे प्राण विज्ञान कहा जाता है। अध्यात्म-क्षेत्र की इसे एक बडी उपलब्धि माना जाता है। इस अतिरिक्त प्राण का अनेक प्रयोजनों में उपयोग होता है। आक्सीजन तो श्वास प्रश्वास का प्रयोजन ही पूरा करती है, किंतु प्राण के द्वारा साधक अपने मानस तंत्र का स्तर भी बढ़ा सकता है और प्रभाव एवं कार्यक्षेत्र भी।
प्राण के अधिकार पर सामान्य बुद्धि में वैसी तीक्ष्णता आती है जैसी कि दार्शनिकों, वैज्ञानिकों विशेषज्ञों में देखी जाती है। प्राण के द्वारा मनोविकारों को जलाया जा सकता है। चिंतन-क्षेत्र में आदर्शवादिता एवं विवेकशीलता को उछाला-उभारा जा सकता है। प्राण का मन पर नियंत्रण है। चित्तवृत्तियों के निरोध की, मनोनिग्रह की, एकाग्रता संपादन की, अध्यात्म उत्कर्ष के निमित्त पग-पग पर पल-पल में आवश्यकता पड़ती है। मनस्वी बनने के लिए प्राणतत्त्व की अधिक मात्रा संकलित करनी पड़ती है। इसके बिना ओछी चतुरता ही हाथ रह जाती है और वह कुशलता भरे छद्म-प्रपंच ही रचती रहती है। महामानवों जैसी विशेषताएँ उत्पन्न करने के लिए मनःक्षेत्र को प्राण-प्रेरणा के माध्यम से उभारना पड़ता है।
प्राण की शक्ति बिजली की तरह धावमान भी है और विद्युत उत्पादक यंत्र की तरह स्थिर भी। उससे आत्मविकास के हर पक्ष में अभिनव चेतना का संचार किया जा सकता है। साधक व्यक्तित्ववान, प्रतिभावान, विवेकवान और सामर्थ्यवान बन सकता है। इनकी कमी से जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, उससे उबरा जा सकता है। साथ ही यह भी संभव है कि इस उपार्जित चेतन संपदा का एक भाग किसी जरूरत मंद के लिए हस्तांतरित किया जा सके। इसे शक्तिपात भी कहते हैं और प्राण अनुदान-लाभदायक वरदान भी। जिस प्रकार आग की तपती भट्टी के निकट बैठने वाले शीत से मुक्ति पाते हैं। उस ऊर्जा का अनेकानेक कार्यों में उपयोग कर सकते हैं उसी प्रकार यह भी संभव है कि प्राण संपदा के धनी अपनी उस ऊर्जा को हस्तांतरित करते रह सकें। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद को चाणक्य ने चंद्रगुप्त को समर्थ ने शिवाजी को मात्र आशीष ही नहीं दिया था, इसके साथ ही इन शिष्यों को प्राण अनुदान भी प्रदान किया था। इसी आधार पर वे व्यक्तिगतसंपन्न बने और महान कार्यों का सूत्र-संचालन कर सके। ईसा अपनी प्राण-चेतना का रोगियों और पतितों में वितरित किया करते थे।
इस शक्ति का दुष्प्रयोजन के लिए भी प्रयोग हो सकता है। तांत्रिक, कापालिक, अघोरी इसी शक्ति के बलबूते प्रतिपक्षियों को त्रास देते हैं। मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तंभन आदि के प्रयोगों में दूसरों को हानि पहुँचाकर अपनी अहंता का पोषण किया जाता है। चाकू से फल काटने का काम भी लिया जा सकता है और किसी पर प्राणघातक आक्रमण करने का भी। यह प्रयोक्ता की मनःस्थिति पर निर्भर है कि शक्ति-साधनों को किसके लिए, किस प्रकार प्रयोग करे ?
प्राणाकर्षण की विधा सार्वभौम है। इसमें संप्रदायभेद, भाषाभेद, लिंगभेद आदि के कोई व्यवधान आड़े नहीं आते। यों इस विज्ञान के अनेकानेक भेद–उपभेद हैं और उन्हें विभिन्न कार्यो के लिए विभिन्न प्रकार से प्रयुक्त किया जाता है, पर इन पंक्तियों में प्रांरभिक स्तर की वह प्रक्रिया ही वर्णित की गई है, जिसे सर्वसुलभ और सर्वजनीन कहा जा सके।
उस अभ्यास के लिए प्रातःकाल का समय सर्वोत्तम है, क्योंकि रात्रि के शांत समय में कोलाहल, प्रदुषण, अंधड़ की सभी अनुपयुक्तताएँ नीचे बैठे जाती हैं एवं जलाशयों-वृक्ष-वनस्पतियों द्वारा सोख ली जाती हैं। प्रभात के ब्रह्ममुहूर्त में प्रकृति अपेक्षाकृत अधिक सौम्य एवं शीतल रहती है। आध्यात्मिक साधनाओं के लिए वह समय इसी कारण सर्वोतम माना जाता है। यों अध्ययन, व्यायाम, आदि के लिए भी उस समय की अधिक अपयुक्तता है।
प्राणाकर्षण साधना खुली जगह में करनी चाहिए। शुध्दता जितनी अधिक रह सके, उतना उत्तम । आसन बिछाकर पुर्वाभिमुख बैठना चाहिए। समय सूर्योदय से एक घंटा पहले से लेकर एक घंटा बाद तक का रखा जा सकता है। मेरुदंड सीधा रहे। आँखे बंद। हाथ गोदी में। चित शांत। यह ध्यान मुद्रा है। प्राणायाम में भी इसी का प्रयोग किया जाता है।
भावना यह करनी चाहिए की सृष्टि में संव्याप्त वायु के साथ-साथ, जो प्राण-संपदा भरी हुई है, उसी को उभारना और खींचना अपना उद्देश्य है। तालाब में जिस प्रकार मछली रहती है, अपनी स्थति भी वैसी ही अनुभव करनी चाहिए कि प्राण-समुद्र चारों ओर लहलहा रहा है और अपनी स्थिति उसके मध्य मछली जैसी है। प्राण सब ओर से अपने भीतर प्रवेश कर रहा है। अपना चुंबकत्व उसे परिपूर्ण मात्रा में खींचकर अवशोषण कर रहा है। इसी मनःस्थिति में, भाव–धारणा में प्रायः दस मिनट रहा जाए।
इसके उपरांत प्राणायाम का क्रम चलता है। दोनों नथुनों से धीरे-धीरे साँस खींची जाए और उसे जितनी अधिक मात्रा में भरा जा सकता हो, भरा जाए। साथ ही यह संकल्प भी उभारना चाहिए कि साँस के साथ प्रचुर परिमाण में प्राणतत्त्व भी अंतराल में प्रवेश कर रहा है। इसी ऊर्जा अवतरण की अनुभूति किसी रूप में होती रहे, इसके लिए भावना-क्षेत्र को उद्यत एवं तत्पर करना चाहिए।
साँस खींच चुकने पर उसे भीतर रोका जाए। रोकने का समय खींचने से आधा रहे। इस समय भावना की जाए कि जो प्राण भीतर पहुँचा है, उसे जिवकोषों द्वारा खिंचा-चूसा जा रहा है और काया का प्रत्येक घटक उस ऊर्जा से अनुप्राणित हो रहा है।
अब साँस को छोड़ना आरंभ किया जाए। मान्यता अपनाई जाए की भीतर भरे अवांछनीय तत्त्वों का साँस के साथ बहिर्गमन हो रहा है और उस भार से पूरी तरह मुक्ति मिल रही है। हलकापन अनुभव हो रहा है।
पूरी साँस निकल जाने पर जितनी देर साँस भीतर रोकी गई थी, उतनी ही बाहर भी रोका जाए। अर्थात बिना साँस के रहा जाए और भावना की जाए कि संसार के बाहरी प्रभाव अपने स्थान पर रुक गए और अंतर्मुखी स्थिति सुरक्षति हो गई।
यह एक प्रयोग हुआ। इसे आरंभिक दिनों में न्यूनतम दस बार किया जाए। हर सप्ताह एक-एक प्राणायाम बढाया जाए। अंततः उसकी संख्या 25 तक पहुँचाई जाए। संख्या भले ही सिमित हो, पर उसके साथ भावना का गहरा पूट लगा रहे। प्राणयोग की सफलता का यही रहस्य भरा तत्त्वज्ञान है।
प्राणतत्त्व शरीर में भी विद्यमान है और उसका विराट स्वरूप विश्व-ब्रह्मांड में संव्याप्त है। जड़-चेतन की एक मात्रा जब आपस से गुँथ जाती है तो उसे जीव संज्ञा दी जाती है, वह शरीरगत अवयवों को गति प्रदान करता है, साथ ही अहम् की ग्रंथी बनकर चिंतन-तंत्र के माध्यम से अपनी चेतना का परिचय देता है। चेतना का गुण है— चिंतर। चिंतर को ही सजीवता का चिह्न माना जाता है। आस्था, आकांक्षा, भावना कल्पना, विवेचना आदि उसी के भेद उपभेद है। प्राणवान को साहसी समझा जाता है। पराक्रमी, पुरुषार्थी और जीवट का धनी। महाप्राण प्रतिभावान होते हैं और अल्पप्राण कहकर दीन, दुर्बलों, कायरों, डरपोकों का तिरस्कार किया जाता हैं। वैभववान होने की तरह प्राणवान होना भी किसी के समर्थ सौभाग्यवान होने का चिह्न है। उसका वर्तमान सुव्यवस्थित होता है और भविष्य उज्ज्वल।
जिस प्रकार जमीन पर बिखरी हुई रेत बिना किसी अड़चन के अभीष्ट में बटोरी जा सकती है, जिस प्रकार विशाल जलाशय से अपनी आवश्यकता का पानी उपलब्ध पात्र में भरा जा सकता है, उसी प्रकार ब्रह्माण्डव्यापी महाप्राण में से अपनी सूक्ष्मसत्ता में प्राणतत्त्व को इच्छित मात्रा में धारण करके अपना चेतना-पक्ष बलिष्ठ बनाया जा सकता है। यह शरीर की शोभा-समर्थता बढ़ाने की भी निमित्त कारण बनता है।
सूक्ष्मशरीर किस स्थिति में रहरहा है, किस स्तर का है? इसका अनुमान इसी आधार पर लगाया जा सकता है कि उसमें प्राणतत्त्व कितना है? स्थूलशरीर में उसकी विद्यमानता को 'ओजस्' कहते है। सूक्ष्मशरीर में उसकी बहुलता “तेजस कहलाती है और उसका कारणशरीर को जब वह ऊर्जा प्रदान करने लगता है तब उसे 'वर्चस्' नाम मिलता है।
सूक्ष्मशरीर को लोक-व्यवहार के लिए कुशल बनाने के लिए चिंतन-क्षेत्र की परिधि बढ़ानी पड़ती है। शिक्षा का आश्रय लिया जाता है, अनुभव एकत्रित करते हैं, साथ ही मनन-चिंतन का उपक्रम अपनाने मंथन करते हुए दूरदर्शी विवेकशीलता की परिधि तक पहुँचा जाता है। प्रज्ञा का, मेधा का भूमा का उदय कारणशरीर में होता है, पर उसके पूर्व मानसिक संतुलन की, परिष्कृत दृष्टिकोण की पृष्ठभूमि बनती है।
विचारों की तीक्ष्णता किसी तथ्य की गहराई तक पहुँचती है, जबकि मंदता बनी रहने पर उथली प्रथा-परंपराओं को अपनाकर ही काम लिया जाता है। समीपवर्ती लोगों को जैसा सोचते-करते देखा जाता है, उसी का अनुकरण-अनुगमन साधारणजनों का भी चल पड़ता है। वे कोयले के ढेर में से हीरे नहीं बीन पाते। दोनों के बीच रहने वाला अंतर भी उनकी समझ में नहीं आता। ऐसी दशा में वे स्वतंत्र बुद्धि उत्कर्ष के लिए आवश्यकता-निर्धारण के लिए समर्थ नहीं होते। बस नर-पशुओं की तरह जिंदगी पूरी करते हैं। पेट-प्रजनन के अतिरिक्त और कुछ उन्हें सूझता ही नहीं। तृष्णा और अहंता उन्हें कठपुतली की तरह नचाती रहती है।
प्रचलन का सम्मोहन जिन्हें वशवर्त्ती बनाए रहता है, जो समुदाय से प्रभावित-परिचालित होते हैं, वे सामान्यजनों में ही गिने जाते हैं। उनसे न कुछ महत्त्वपूर्ण सोचते बनता है और न करते। आहार-निद्रा कही लहरों में डूबते गिरते किसी प्रकार जिंदगी पार करते हैं; जिन्हें आत्मबोध को प्रकाश में मिलता है, वे इतने भर से संतुष्ट नहीं रहते, उन्हें महानता की आकांक्षा कचोटती है, फलतः ऐसी दिशाधारा खोजते हैं, जो व्यक्तित्व में दैवी तत्त्वों का समावेश कर सके।
इस मार्ग पर चलने, इस प्रयास में लगने के लिए लौकिक प्रयत्न तो करने ही पड़ते हैं। स्वाध्याय-सत्संग का, चिंतन-मनन का आश्रय तो लेना पड़ता है, साथ ही एक कदम बढ़कर प्राणतत्त्व की अतिरिक्त मात्रा का भी संचय करना पड़ता है। सामान्यतया हर किसी को प्राणतत्त्व की एक समिति मात्रा ही उपलब्ध होती है। उस विभूति को अधिक मात्रा में हस्तगत करने के लिए प्राणाकर्षण की विशेष साधना करनी पड़ती है। प्राणाकर्षण का अर्थ है— ब्रह्मांडव्यापी महाप्राण में से खींचकर अपनी पात्रता को फुला-फैलाकर उसमें अभीष्ट वैभव को संचित-संकलित करना। इसी क्रिया विज्ञान को प्राणायाम भी कहते हैं।
जन्म से मरण पर्यंत हमें साँस लेने-छोड़ने का क्रम चलाना पड़ता है। वायु को नथुनों द्वारा लिया, फेफड़ों में भरा व अंग-प्रत्यंगों में फैलाया जाता है। अपनी पहुँच की परिधि में वह बुहारी लगाती है और कचरे को बाहर निकाल फेंकती हैं। इसी प्रकार सामान्य परिशोधन होता रहता है। वायु के साथ शरीर को पोषण देने वाला आक्सीजन तत्त्व भरा रहता है। यही ईंधन बनकर जलता और शरीर-संचालन के लिए आवश्यक ऊर्जा उत्पन्न करता है। इतनी जानकारी हर किसी को होती है; किंतु इसी रहस्य को अध्यात्म विज्ञानी ही जानते हैं कि आक्सीजन के अतिरिक्त आवश्यकता प्राणतत्त्व की भी रहती है। इसे आक्सीजन नहीं, उससे उच्चस्तरीय चेतना-मिश्रित धारा कह सकते हैं। यह अनायास ही नासिका मार्ग से भीतर घुसती-निकलती नहीं रहती; वरन उसे संकल्पशक्ति को उभरकर विशेष प्रयास द्वारा खींचने और धारण करने का अभ्यास करना पड़ता है। इस अभ्यास में जितनी अधिक पकड़ होती है, उतनी ही शक्ति लगाकर वह प्राणतत्त्व को उतनी ही मात्रा में आकर्षित करने पकड़ने धारण करने में समर्थ होती है। प्रयोक्ता इसे इच्छित मात्रा में प्रयत्नपूर्वक उपलब्ध कर सकते हैं और उसे जिस भी प्रयोजन में खर्च करना चाहें, खर्च कर सकते हैं। इसे प्राण विज्ञान कहा जाता है। अध्यात्म-क्षेत्र की इसे एक बडी उपलब्धि माना जाता है। इस अतिरिक्त प्राण का अनेक प्रयोजनों में उपयोग होता है। आक्सीजन तो श्वास प्रश्वास का प्रयोजन ही पूरा करती है, किंतु प्राण के द्वारा साधक अपने मानस तंत्र का स्तर भी बढ़ा सकता है और प्रभाव एवं कार्यक्षेत्र भी।
प्राण के अधिकार पर सामान्य बुद्धि में वैसी तीक्ष्णता आती है जैसी कि दार्शनिकों, वैज्ञानिकों विशेषज्ञों में देखी जाती है। प्राण के द्वारा मनोविकारों को जलाया जा सकता है। चिंतन-क्षेत्र में आदर्शवादिता एवं विवेकशीलता को उछाला-उभारा जा सकता है। प्राण का मन पर नियंत्रण है। चित्तवृत्तियों के निरोध की, मनोनिग्रह की, एकाग्रता संपादन की, अध्यात्म उत्कर्ष के निमित्त पग-पग पर पल-पल में आवश्यकता पड़ती है। मनस्वी बनने के लिए प्राणतत्त्व की अधिक मात्रा संकलित करनी पड़ती है। इसके बिना ओछी चतुरता ही हाथ रह जाती है और वह कुशलता भरे छद्म-प्रपंच ही रचती रहती है। महामानवों जैसी विशेषताएँ उत्पन्न करने के लिए मनःक्षेत्र को प्राण-प्रेरणा के माध्यम से उभारना पड़ता है।
प्राण की शक्ति बिजली की तरह धावमान भी है और विद्युत उत्पादक यंत्र की तरह स्थिर भी। उससे आत्मविकास के हर पक्ष में अभिनव चेतना का संचार किया जा सकता है। साधक व्यक्तित्ववान, प्रतिभावान, विवेकवान और सामर्थ्यवान बन सकता है। इनकी कमी से जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, उससे उबरा जा सकता है। साथ ही यह भी संभव है कि इस उपार्जित चेतन संपदा का एक भाग किसी जरूरत मंद के लिए हस्तांतरित किया जा सके। इसे शक्तिपात भी कहते हैं और प्राण अनुदान-लाभदायक वरदान भी। जिस प्रकार आग की तपती भट्टी के निकट बैठने वाले शीत से मुक्ति पाते हैं। उस ऊर्जा का अनेकानेक कार्यों में उपयोग कर सकते हैं उसी प्रकार यह भी संभव है कि प्राण संपदा के धनी अपनी उस ऊर्जा को हस्तांतरित करते रह सकें। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद को चाणक्य ने चंद्रगुप्त को समर्थ ने शिवाजी को मात्र आशीष ही नहीं दिया था, इसके साथ ही इन शिष्यों को प्राण अनुदान भी प्रदान किया था। इसी आधार पर वे व्यक्तिगतसंपन्न बने और महान कार्यों का सूत्र-संचालन कर सके। ईसा अपनी प्राण-चेतना का रोगियों और पतितों में वितरित किया करते थे।
इस शक्ति का दुष्प्रयोजन के लिए भी प्रयोग हो सकता है। तांत्रिक, कापालिक, अघोरी इसी शक्ति के बलबूते प्रतिपक्षियों को त्रास देते हैं। मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तंभन आदि के प्रयोगों में दूसरों को हानि पहुँचाकर अपनी अहंता का पोषण किया जाता है। चाकू से फल काटने का काम भी लिया जा सकता है और किसी पर प्राणघातक आक्रमण करने का भी। यह प्रयोक्ता की मनःस्थिति पर निर्भर है कि शक्ति-साधनों को किसके लिए, किस प्रकार प्रयोग करे ?
प्राणाकर्षण की विधा सार्वभौम है। इसमें संप्रदायभेद, भाषाभेद, लिंगभेद आदि के कोई व्यवधान आड़े नहीं आते। यों इस विज्ञान के अनेकानेक भेद–उपभेद हैं और उन्हें विभिन्न कार्यो के लिए विभिन्न प्रकार से प्रयुक्त किया जाता है, पर इन पंक्तियों में प्रांरभिक स्तर की वह प्रक्रिया ही वर्णित की गई है, जिसे सर्वसुलभ और सर्वजनीन कहा जा सके।
उस अभ्यास के लिए प्रातःकाल का समय सर्वोत्तम है, क्योंकि रात्रि के शांत समय में कोलाहल, प्रदुषण, अंधड़ की सभी अनुपयुक्तताएँ नीचे बैठे जाती हैं एवं जलाशयों-वृक्ष-वनस्पतियों द्वारा सोख ली जाती हैं। प्रभात के ब्रह्ममुहूर्त में प्रकृति अपेक्षाकृत अधिक सौम्य एवं शीतल रहती है। आध्यात्मिक साधनाओं के लिए वह समय इसी कारण सर्वोतम माना जाता है। यों अध्ययन, व्यायाम, आदि के लिए भी उस समय की अधिक अपयुक्तता है।
प्राणाकर्षण साधना खुली जगह में करनी चाहिए। शुध्दता जितनी अधिक रह सके, उतना उत्तम । आसन बिछाकर पुर्वाभिमुख बैठना चाहिए। समय सूर्योदय से एक घंटा पहले से लेकर एक घंटा बाद तक का रखा जा सकता है। मेरुदंड सीधा रहे। आँखे बंद। हाथ गोदी में। चित शांत। यह ध्यान मुद्रा है। प्राणायाम में भी इसी का प्रयोग किया जाता है।
भावना यह करनी चाहिए की सृष्टि में संव्याप्त वायु के साथ-साथ, जो प्राण-संपदा भरी हुई है, उसी को उभारना और खींचना अपना उद्देश्य है। तालाब में जिस प्रकार मछली रहती है, अपनी स्थति भी वैसी ही अनुभव करनी चाहिए कि प्राण-समुद्र चारों ओर लहलहा रहा है और अपनी स्थिति उसके मध्य मछली जैसी है। प्राण सब ओर से अपने भीतर प्रवेश कर रहा है। अपना चुंबकत्व उसे परिपूर्ण मात्रा में खींचकर अवशोषण कर रहा है। इसी मनःस्थिति में, भाव–धारणा में प्रायः दस मिनट रहा जाए।
इसके उपरांत प्राणायाम का क्रम चलता है। दोनों नथुनों से धीरे-धीरे साँस खींची जाए और उसे जितनी अधिक मात्रा में भरा जा सकता हो, भरा जाए। साथ ही यह संकल्प भी उभारना चाहिए कि साँस के साथ प्रचुर परिमाण में प्राणतत्त्व भी अंतराल में प्रवेश कर रहा है। इसी ऊर्जा अवतरण की अनुभूति किसी रूप में होती रहे, इसके लिए भावना-क्षेत्र को उद्यत एवं तत्पर करना चाहिए।
साँस खींच चुकने पर उसे भीतर रोका जाए। रोकने का समय खींचने से आधा रहे। इस समय भावना की जाए कि जो प्राण भीतर पहुँचा है, उसे जिवकोषों द्वारा खिंचा-चूसा जा रहा है और काया का प्रत्येक घटक उस ऊर्जा से अनुप्राणित हो रहा है।
अब साँस को छोड़ना आरंभ किया जाए। मान्यता अपनाई जाए की भीतर भरे अवांछनीय तत्त्वों का साँस के साथ बहिर्गमन हो रहा है और उस भार से पूरी तरह मुक्ति मिल रही है। हलकापन अनुभव हो रहा है।
पूरी साँस निकल जाने पर जितनी देर साँस भीतर रोकी गई थी, उतनी ही बाहर भी रोका जाए। अर्थात बिना साँस के रहा जाए और भावना की जाए कि संसार के बाहरी प्रभाव अपने स्थान पर रुक गए और अंतर्मुखी स्थिति सुरक्षति हो गई।
यह एक प्रयोग हुआ। इसे आरंभिक दिनों में न्यूनतम दस बार किया जाए। हर सप्ताह एक-एक प्राणायाम बढाया जाए। अंततः उसकी संख्या 25 तक पहुँचाई जाए। संख्या भले ही सिमित हो, पर उसके साथ भावना का गहरा पूट लगा रहे। प्राणयोग की सफलता का यही रहस्य भरा तत्त्वज्ञान है।