• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • संपत्ति बनाम सदाशयता
    • निष्काम सेवा ही, सच्ची सेवा
    • धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की वास्तविकता—1
    • बादशाह ने नौकर को राज्य मंत्री बना दिया (कहानी)
    • श्रद्धा और विचारणा की शक्ति-सामर्थ्य!
    • सद्वाक्य
    • अपने मन को साधिए— सुसंस्कारी बनाइए
    • दीवार के कहीं कान हो तो वे मेरी बात सुनें (कहानी)
    • उसकी प्रार्थना में अलौकिक बल है !
    • डाॅ. नारमन बिन्सेंट पीले (कहानी)
    • पाने से पूर्व कुछ करना भी होता है!
    • सद्वाक्य
    • आस्तिकता-विवेकवानों को फलती है!
    • समाजसेवी कार्यों
    • धर्मधारणा का प्रथम लक्षण— धृति
    • सद्वाक्य
    • सिद्धि के चार आधार-अवलम्बन
    • सत्संग की शक्ति (कहानी)
    • शब्दार्थ में ना उलझें— भावार्थ समझें
    • संत तुकाराम (कहानी)
    • मरणकाल की व्यथा
    • सद्वाक्य
    • व्यक्तित्व को शालीनता से संजोएँ
    • भविष्य से पहले वर्तमान देखों (कहानी)
    • बहिर्मुखी ध्यान एवं उसका प्रयोग-व्यवहार
    • स्वभाव और चरित्र (कहानी)
    • काया की स्थूल परत एवं ध्वनि-प्रयोग
    • ईमानदारी और चौकीदारी (कहानी)
    • सूक्ष्मशरीर के उत्कर्ष की पृष्ठ भूमि !
    • समाजसेवी की योग्यता (कहानी)
    • प्राणाकर्षण प्रयोग से तेजस् का जागरण
    • रंगों का प्रभाव और ध्यान
    • सद् चिंतन (कहानी)
    • प्रसुप्त पड़ा अतीन्द्रिय सामर्थ्य का जखीरा
    • दरिद्र पंडित (कहानी)
    • अध्यात्म का प्राथमिक पाठ
    • प्रेतात्माओं का अस्तित्व कितना प्रामाणिक-1
    • संसार कल्पवृक्ष (कहानी)
    • साहस और भय की प्रतिक्रिया
    • साँप से न तो भयभीत हों, न उसके जैसा बनें
    • वनौषधियों से दिव्य शक्ति का अभिवर्ध्दन
    • आध्यात्मिक दृष्टिकोण (कहानी)
    • अगला समय गिरने का नहीं उठने का है !
    • आतुरता की आत्मघाती विडंबना
    • भगवान कृष्ण (कहानी)
    • यह अदूरदर्शिता मनुष्य जाति को ले डूबेगी
    • देवताओं का युग (कहानी)
    • बुढ़ापा प्रसन्न रहने का समय है!
    • शब्दशक्ति से होगी, अब रोगों की चिकित्सा
    • संगीत एक सूर्यकांत मणि (कहानी)
    • राष्ट्रीय एकता सम्मेलन— उनकी देव दक्षिणा
    • सद्वाक्य
    • अपनों से अपनी बात— गुरुतत्त्व की गरिमा जानें व जुड़ने का प्रयास करें।
    • गुरु-दर्शन
    • सद्वाक्य
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • संपत्ति बनाम सदाशयता
    • निष्काम सेवा ही, सच्ची सेवा
    • धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की वास्तविकता—1
    • बादशाह ने नौकर को राज्य मंत्री बना दिया (कहानी)
    • श्रद्धा और विचारणा की शक्ति-सामर्थ्य!
    • सद्वाक्य
    • अपने मन को साधिए— सुसंस्कारी बनाइए
    • दीवार के कहीं कान हो तो वे मेरी बात सुनें (कहानी)
    • उसकी प्रार्थना में अलौकिक बल है !
    • डाॅ. नारमन बिन्सेंट पीले (कहानी)
    • पाने से पूर्व कुछ करना भी होता है!
    • सद्वाक्य
    • आस्तिकता-विवेकवानों को फलती है!
    • समाजसेवी कार्यों
    • धर्मधारणा का प्रथम लक्षण— धृति
    • सद्वाक्य
    • सिद्धि के चार आधार-अवलम्बन
    • सत्संग की शक्ति (कहानी)
    • शब्दार्थ में ना उलझें— भावार्थ समझें
    • संत तुकाराम (कहानी)
    • मरणकाल की व्यथा
    • सद्वाक्य
    • व्यक्तित्व को शालीनता से संजोएँ
    • भविष्य से पहले वर्तमान देखों (कहानी)
    • बहिर्मुखी ध्यान एवं उसका प्रयोग-व्यवहार
    • स्वभाव और चरित्र (कहानी)
    • काया की स्थूल परत एवं ध्वनि-प्रयोग
    • ईमानदारी और चौकीदारी (कहानी)
    • सूक्ष्मशरीर के उत्कर्ष की पृष्ठ भूमि !
    • समाजसेवी की योग्यता (कहानी)
    • प्राणाकर्षण प्रयोग से तेजस् का जागरण
    • रंगों का प्रभाव और ध्यान
    • सद् चिंतन (कहानी)
    • प्रसुप्त पड़ा अतीन्द्रिय सामर्थ्य का जखीरा
    • दरिद्र पंडित (कहानी)
    • अध्यात्म का प्राथमिक पाठ
    • प्रेतात्माओं का अस्तित्व कितना प्रामाणिक-1
    • संसार कल्पवृक्ष (कहानी)
    • साहस और भय की प्रतिक्रिया
    • साँप से न तो भयभीत हों, न उसके जैसा बनें
    • वनौषधियों से दिव्य शक्ति का अभिवर्ध्दन
    • आध्यात्मिक दृष्टिकोण (कहानी)
    • अगला समय गिरने का नहीं उठने का है !
    • आतुरता की आत्मघाती विडंबना
    • भगवान कृष्ण (कहानी)
    • यह अदूरदर्शिता मनुष्य जाति को ले डूबेगी
    • देवताओं का युग (कहानी)
    • बुढ़ापा प्रसन्न रहने का समय है!
    • शब्दशक्ति से होगी, अब रोगों की चिकित्सा
    • संगीत एक सूर्यकांत मणि (कहानी)
    • राष्ट्रीय एकता सम्मेलन— उनकी देव दक्षिणा
    • सद्वाक्य
    • अपनों से अपनी बात— गुरुतत्त्व की गरिमा जानें व जुड़ने का प्रयास करें।
    • गुरु-दर्शन
    • सद्वाक्य
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1987 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


यह अदूरदर्शिता मनुष्य जाति को ले डूबेगी

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 46 48 Last
जिस वस्तु, व्यक्ति या समुदाय की उपेक्षा, अवज्ञा, अवहेलना होती है, वह सहज की घटता-मिटता चला जाता है। भारत का पशुधन और वनक्षेत्र इसीलिए सिकुड़ता जा रहा है कि उनकी उपस्थिति की तुलना में समाप्त होने की बात अत्यधिक लाभदायक समझी जाती है। वन कट गए तो क्या? उनसे खाली हुई जमीन, खेती के, मकान, कारखाने बनाने के काम आएगी। पशु समाप्त हो चले तो क्या? उनके लिए घिरने वाला स्थान और खपने वाला चारा दूसरे काम आएगा। यह तर्क तात्कालिक लाभ के प्रति अत्यधिक आतुरता प्रदर्शित करता है। यह भुला दिया जाता है कि बाद के परिणाम क्या होंगे? वन न रहने पर लकड़ी की जो कमी पड़ेगी, वायु-प्रदूषण अवशेषित न हो सकेगा, भूक्षरण होगा, बाढ़ आएगी, रेगिस्तान बढ़ेगा, बादल बरसने में हलकेंगे आदि हानियों को नजर अंदाज करके, लोग चोरी या सीनाजोरी से पेड़ काट डालने, नफा कमा लेने जैसा कुछ खोजते हैं। पशुओं को कसाई के हाथ सौंपकर रुपए गिनते हैं, पर यह नहीं देखते कि उनके घटने पर दूध, श्रम, गोबर आदि की जो कमी पड़ेगी, उसकी क्षतिपूर्ति कैसे संभव होगी। अदूरदर्शिता मानवी समझ पर छाया हुआ एक कलंक है। जिसके कारण उसे हर क्षेत्र में न पूरी हो सकने वाली हानि उठानी पड़ती है। खेत में बोए जाने वाले बीज को भूनकर चबैने की तरह स्वाद लेते हुए चबाया जा सकता है, पर इसके बाद खेत खाली पड़ा रहने पर फसल के दिनों खाली हाथ रहना पड़ेगा, इसको भुला दिया जाता है। पाठ्य-पुस्तकें बेचकर सिनेमा देखने वाले विद्यार्थी, शिक्षालाभ से वंचित रहते हैं और जीवन भर गई−गुजरी स्थिति में दिन काटते हैं।

ऐसी ही एक अदूरदर्शिता जनसमुदाय पर यह छाई हुई है कि लड़की पराया घर बसाती है, अपने घर नहीं रहती। कमाई तो लड़का खिलाता है और इसलिए दूसरे के घर जाने वाले कचरे को पालने-पोसने में क्यों खर्च किया जाए? उसकी साज-संभाल में ध्यान देने का क्यों कष्ट किया जाए? जब विवाह में खर्चना ही पड़ेगा तो उसे पढ़ाने-लिखाने में क्यों खर्च किया जाए?  उसको स्वास्थ्य पर भी उतना ध्यान नहीं दिए जाता; क्योंकि मर जाने में नफा जो प्रतीत होता है। पालन-पोषण का, शिक्षा का, शादी का सारा खर्च जो बचता है, उसके लिए ध्यान देने का झंझट भी नहीं रहता। यही है, वह अदूरदर्शिता, जिसके कारण नारी की उपेक्षा-अवमानना होती रहती है। कन्याएँ तो आमतौर से इस अवहेलना की शिकार होती हैं।

अपने देश में लड़का जन्मने की खुशी मनाई जाती है। प्रीतिभोज होते और ढोल-दमागे बजते हैं; किंतु लड़की जन्मने पर लुट जाने जैसा सन्नाटा छा जाता है। उसकी जन्मदात्री तक को ताने-उलाहने सहने पड़ते हैं। उपेक्षा न केवल बालिका पर; वरन उसकी माता पर भी बरसती है। बड़े होने पर लड़की-लड़के के बीच हर बात में भेद-भाव किया जाता है। भोजन, वस्त्र, शिक्षा, विनोद, आदि सभी में अंतर प्रत्यक्ष-परिलक्षित होता है। विशेषतया उपेक्षित पक्ष को अपनी स्थिति पर मन-हीं-मन अंतर्व्यथा सताने लगती है। उसके मन में आत्महीनता की ग्रंथि बन जाती है। जिसके कारण सदा अपने आप को दुर्भाग्यग्रस्त, पददलित पक्ष का एक घटक अनुभव करती है। यह मान्यता आजीवन बनी रहती है और प्रतिभा निखरने की, कोई महत्त्वपूर्ण पुरुषार्थ करने का, साहस उससे बन ही नहीं पड़ता। वह अपने लिए, न परिवार के लिए न समाज के लिए उतनी उपयोगी नहीं हो पाती, जितनी कि समता और दुलार के वातावरण में पलकर हो सकती थी।

बात बढ़ते-बढ़ते बहुत आगे तक चली गई है। सामंतवादी युग में कन्या अपहरण का, उसी कारण लुटेरे के आक्रमण होने का अंदेशा निरंतर बना रहता था। यदि वैसा न हुआ तो विवाह में सामर्थ्य से बाहर खर्च करना पड़ता था। इन सब झंझटों से बचने के लिए यह उपाय अपनाया जाने लगा कि कन्या को जन्म लेते ही मार दिया जाए। यह कार्य सरल था। प्रसव कराने वाली दाइयाँ इस कला में प्रवीण होती थी। परिवार के दबाव पर उन्हें गला घोट देने जैसा कृत्य करने में हिचक नहीं होती थीं। इस निमित्त कुछ अतिरिक्त उपहार जो मिल जाता था। इस प्रयोजन के लिए अनेक क्षेत्रों में अनेक प्रकार के तरीके अपनाए जाते थे। दूध के साथ अफीम घोलकर पिलाने में भी यही काम बन जाता था। जन्मते ही मरने पर किसी को पता भी नहीं चलता था और चर्चा का विषय भी नहीं बनता था।

यह प्रचलन देखा-देखी सभी बिरादरियों में चल पड़ा। आरंभ में वह लड़ाकू उच्च वर्णों से चला था, पर पीछे सभी सोचने लगे कि कमाऊ लड़कों को ही बचाकर रखा जाए और लड़कियों का झंझट हटा दिया जाए। अंग्रेजी सरकार के जमाने में कन्या शिशुओं का वध एक आम बात हो गई थी। इसे रोकने के लिए समाज-सुधारकों ने प्रयत्न किया, शासकों ने सहयोग दिया। 'फलस्वरूप दुख्तरकुशी, निरोधक कानून' बना। तो भी छुपे-छुपे वह प्रसंग चलता ही रहा और जहाँ-तहाँ अब भी उसे निष्ठुर वर्गों में अपनाया जाता है।

सोचने योग्य बात यह है कि इस प्रचलन से किसने, क्या पाया? अपने घर-परिवार में वधुएँ आती हैं और  गृह-व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठाती हैं। पति के लिए वे अर्धांगिनी बनती हैं, गृह-लक्ष्मी की भूमिका निभाती हैं, नई पीढ़ी को जन्म देतीं और उन्हें समुन्नत बनाती हैं। यदि दूसरे परिवार अपनी लड़कियों को नष्ट करके या उपेक्षित रखें तो अपने घर में सुयोग्य गृह-लक्ष्मियाँ कहाँ से आएँ? जो पक्ष घटता जाएगा, उसका अकाल पड़ेगा और उस उपलब्धि के लाभ में लाभांवित हो सकना संभव न होगा।

नर की तुलना में नारी का संख्या अनुपात तेजी से घटता जा रहा है। इस तथ्य की जानकारी कुछ दिनों की गणना पर दृष्टिपात करने भर से सहज प्रकट हो जाती है। सन् 1901 में एक हजार लड़कों पीछे 972 लड़कियाँ थीं। 1911 की जनगणना में अनुपात और गिरा । वे हजार पीछे 964 रह गई। 1921 में वे हजार पीछे 955 ही रह गई। 1931 में 950, 1941 में 946, 1951 में 946, 1961 में 941, 1971 में 930 व 1981 में 931। उत्तर भारत में यह असंतुलन और भी अधिक बढ़ा-चढ़ा है। पंजाब 1170 लड़कों के पीछे 1000 लड़कियाँ हैं। तमिलनाडु में लड़कों की तुलना में 70, 80 लड़कियाँ कम हैं।

आवश्यकता अधिक और उत्पादन कम होने पर महँगाई और प्राप्त करने वालों की आपा-धापी बढ़ती है। वह दिन दूर नहीं, जब इसी प्रकार उपेक्षित पक्ष की कमी होते जाने पर लड़के वालों को घर बसाने के लिए लड़की वालों के सामने पल्ला पसारने और नाक रगड़ने की आवश्यकता पड़ेगी। हो सकता है कि उन्हें खाड़ी देशों की तरह लड़कियाँ प्राप्त करने के लिए उतनी ही बड़ी लंबी रकम देनी पड़े जैसी कि इन दिनों भारत में लड़के वाले कन्या पक्ष से बड़े नाज-नखरे और रौब-दौब के साथ वसूल करते हैं। जो उतनी भरपाई नहीं कर सकेंगे, जो रूप रंग कमाई की दृष्टि से हल्के पड़ते होंगे; उन्हें तो कुंवारे रहने के अतिरिक्त और कोई चारा ही न रहेगा।

प्रकृतिक्रम के अनुसार हर प्राणिवर्ग में नर की तुलना में मादा की उत्पत्ति अधिक होती है, क्योंकि उसे प्रजनन का दबाव सहने के कारण नर की तुलना में अधिक शक्ति खर्चनी पड़ती है। इस कारण उसकी मृत्यु भी अधिक होती है। आयु भी कम रहती है। इस संकट का सामना करने के लिए यह प्रबंध अनिवार्य हो गया कि क्या मादा की उत्पत्ति नर की संख्या से अधिक हो और समानता का संतुलन बना रहे।

पर यह उपक्रम अब मनुष्य जाति में क्रमशः उलटा होता चला जा रहा है। नर बढ़ रहे हैं और नारियाँ घट रही हैं। इसका कुप्रभाव परिवार-व्यवस्था, दांपत्य-जीवन, वंश-परंपरा आदि सभी क्षेत्रों में प्रतिकूल पड़ेगा। यह संकट नर ने जानबूझ कर खड़ा किया है। नारी के साथ उपेक्षा-अवज्ञा बरतकर उनको मनोदशा की इस स्थिति में पहुँचाया है कि वे निराश रहें, जीवन का महत्त्व न देखें। यह मनोदशा विकास पथ में अवरोध उत्पन्न करती है। दुःखी प्राणियों को त्रास से उबारने के लिए प्रकृति उनका अस्तित्व घटाना आरंभ कर देती है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव आँखों के सामने प्रस्तुत देखा जा सकता है। नारी की संख्या क्रमशः घटती चली जा रही है। विक्षुब्ध रहने की स्थिति बनी रहने पर वह और भी अधिक तेजी से घटने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं है।

कोढ़ में खाज की तरह नारी के अस्तित्व को इन्हीं वर्षों में एक नया संकट पैदा हुआ है। गर्भकाल में भ्रूण के लिंग का निर्धारण बना देने वाले उपकरणों का चिकित्सा-क्षेत्र में आविर्भाव हुआ है। इस “एम्नियोसेण्टेसिस” द्वारा गर्भकाल में ही यह पता लगाया जा सकता है कि भ्रूण लड़की है या लड़का। मध्यकालीन मान्यता अभी भी सर्वसाधारण के मन पर जमी हुई है कि लड़के का जन्म सौभाग्य है और लड़की का होना दुर्भाग्य। दुर्भाग्य से छुटकारा हर कोई चाहता है। कोई विरले ही अभिभावक चाहते हैं कि उनके घर लड़की जन्मे लाभरहित बोझा सिर पर लदे। दूसरा बचाव भी अब कानूनी गर्भपात के रूप में निकल आया है। अनिच्छित भ्रूण को गर्भपात द्वारा हटाया जा सकता है। इसके लिए कितने ही चिकित्सा संस्थान काम करते हैं। उपलब्ध जानकारियों के अनुसार अभिभावकों में से बहुसंख्यक कन्याभ्रूण का गर्भपात करा देते हैं। परीक्षण और गर्भपात में जो थोड़ा-सा धन लगता है, उसकी तुलना में कन्या जन्मने और उसके भरण-पोषण, शिक्षा-शादी आदि के झंझट से छुटकारा पाने जैसी बात सोची जाती है। इस प्रकार इन दिनों इस नए आधार पर कन्या से भ्रूणकाल में ही छुटकारा पा लेना अधिक सरल हो गया है।

बंबई में एक सर्वेक्षण के अनुसार 7000 भ्रूण, जो नष्ट किए गए उनमें मात्र एक लड़का था। एक अन्य आकलन के अनुसार सन् 1978 से 1985 तक अपने देश में 78000 कन्या भ्रूण नष्ट किये गये। यह एक नया अभिशाप है, जिसके दुष्परिणामों को देखते हुए इस संदर्भ में सरकारी रोकथाम का प्रावधान होने की बात सोची जा रही है। परिवार नियोजन एक अलग बात है। और चुन-चुनकर लड़कियों का ही सफाया किए जाने की बात सर्वथा दूसरी।

तात्कालिक लाभ सोचने और भविष्य की परिस्थितियों को आँख से अलग कर देने की अदूरदर्शिता का ही यह परिणाम है, जो नर-मादा के मध्यवत्ती संतुलन को बिगाड़ता चल रहा है। यदि दृष्टिकोण बदला न गया तो प्रत्यक्ष कन्यावध के स्थान पर दूसरे बुरे तरीके पनपते रहेंगे। उपेक्षित कन्याएँ समुचित आहार और चिकित्सा की उपयुक्त सुविधा  प्राप्त न कर सकेंगी; फलतः उन्हें कुपोषण का शिकार होकर, बीमारियों से ग्रसित होकर अकाल में ही मृत्यु का ग्रास बनना पड़ेगा। जल्दी बला टालने की धुन में होने वाले बालविवाह भी नारी जीवन के लिए कम घातक नहीं है। वे किशोरावस्था में ही खोखली हो जाती हैं। बच्चे जनने के कारण बेमौत मरती हैं। जहाँ पिता अपनी बला छुड़ाता है, वहाँ ससुराल वाले भी मनौती मनाने और उस हेतु प्रोत्साहन देते देखे गए हैं। यह सभी प्रचलन, दृष्टिकोण ऐसे हैं, जो नारी वर्ग पर कुठाराघात करते हैं। कहना न होगा कि नारी का संख्यावत् घटना उसका अशक्त, रुग्ण स्थिति में रहना, नर के लिए भी कम त्रासदायक नहीं है। अच्छा हो, समय रहते स्थिति पर विचार किया जाए और अनौचित्य को अविलम्ब हटाया जाए।

First 46 48 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • संपत्ति बनाम सदाशयता
  • निष्काम सेवा ही, सच्ची सेवा
  • धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की वास्तविकता—1
  • बादशाह ने नौकर को राज्य मंत्री बना दिया (कहानी)
  • श्रद्धा और विचारणा की शक्ति-सामर्थ्य!
  • सद्वाक्य
  • अपने मन को साधिए— सुसंस्कारी बनाइए
  • दीवार के कहीं कान हो तो वे मेरी बात सुनें (कहानी)
  • उसकी प्रार्थना में अलौकिक बल है !
  • डाॅ. नारमन बिन्सेंट पीले (कहानी)
  • पाने से पूर्व कुछ करना भी होता है!
  • सद्वाक्य
  • आस्तिकता-विवेकवानों को फलती है!
  • समाजसेवी कार्यों
  • धर्मधारणा का प्रथम लक्षण— धृति
  • सद्वाक्य
  • सिद्धि के चार आधार-अवलम्बन
  • सत्संग की शक्ति (कहानी)
  • शब्दार्थ में ना उलझें— भावार्थ समझें
  • संत तुकाराम (कहानी)
  • मरणकाल की व्यथा
  • सद्वाक्य
  • व्यक्तित्व को शालीनता से संजोएँ
  • भविष्य से पहले वर्तमान देखों (कहानी)
  • बहिर्मुखी ध्यान एवं उसका प्रयोग-व्यवहार
  • स्वभाव और चरित्र (कहानी)
  • काया की स्थूल परत एवं ध्वनि-प्रयोग
  • ईमानदारी और चौकीदारी (कहानी)
  • सूक्ष्मशरीर के उत्कर्ष की पृष्ठ भूमि !
  • समाजसेवी की योग्यता (कहानी)
  • प्राणाकर्षण प्रयोग से तेजस् का जागरण
  • रंगों का प्रभाव और ध्यान
  • सद् चिंतन (कहानी)
  • प्रसुप्त पड़ा अतीन्द्रिय सामर्थ्य का जखीरा
  • दरिद्र पंडित (कहानी)
  • अध्यात्म का प्राथमिक पाठ
  • प्रेतात्माओं का अस्तित्व कितना प्रामाणिक-1
  • संसार कल्पवृक्ष (कहानी)
  • साहस और भय की प्रतिक्रिया
  • साँप से न तो भयभीत हों, न उसके जैसा बनें
  • वनौषधियों से दिव्य शक्ति का अभिवर्ध्दन
  • आध्यात्मिक दृष्टिकोण (कहानी)
  • अगला समय गिरने का नहीं उठने का है !
  • आतुरता की आत्मघाती विडंबना
  • भगवान कृष्ण (कहानी)
  • यह अदूरदर्शिता मनुष्य जाति को ले डूबेगी
  • देवताओं का युग (कहानी)
  • बुढ़ापा प्रसन्न रहने का समय है!
  • शब्दशक्ति से होगी, अब रोगों की चिकित्सा
  • संगीत एक सूर्यकांत मणि (कहानी)
  • राष्ट्रीय एकता सम्मेलन— उनकी देव दक्षिणा
  • सद्वाक्य
  • अपनों से अपनी बात— गुरुतत्त्व की गरिमा जानें व जुड़ने का प्रयास करें।
  • गुरु-दर्शन
  • सद्वाक्य
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj