Magazine - Year 1987 - Version 2
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Language: HINDI
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सूक्ष्मशरीर के उत्कर्ष की पृष्ठ भूमि !
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सूक्ष्मशरीर अर्थात चेतना-क्षेत्र का विचारतंत्र। इसे क्रियाशील शरीर से कहीं अधिक बढ़-चढ़कर माना गया है। काया सुडौल और सुगढ़ हो तो उससे परिश्रम परककार्य भी लिए जा सकते हैं। उसका उपार्जन भी श्रमिक स्तर का ही हो सकता है, पर यदि व्यक्तित्व प्रतिभावान है, मानसिक स्तर की शिक्षा, समझदारी, सुव्यवस्था और शालीनता की है तो उस आधार पर हर किसी की दृष्टि में बढ़-चढ़कर मूल्यांकन होता है। बहुमूल्य वस्तुएँ हर जगह सम्मान पाती हैं, संपर्क में आने वाले को अलंकृत करती हैं और अपने मूल्य के अनुरूप ऊँचे स्तर की उपलब्धि भी हस्तगत करती हैं। शरीरगत सुडौलता न होने पर भी मनस्वी व्यक्ति अपनी विशिष्टता के बल पर समुदाय की वरिष्ठता उपलब्ध करते हैं, सम्मान भी पाते हैं और सहयोग भी। संपन्नता के बल पर लोग अहंकार क प्रदर्शन करते देखे गए हैं; किंतु परिष्कृत मानसिकता के बलबूते अपने को संतुष्ट भी रखा जा सकता है और प्रसन्न भी। तृप्ति-तुष्टि और शांति प्राप्त करने के लिए एक ही उपाय-उपचार है कि अपनी मानसिकता को, आदर्शों को शालीनता से भरा-पूरा रखा जाए। चिंतन तंत्र को इतना सुसंस्कृत बनाया जाए कि प्रस्तुत समस्याओं का हल और आवश्यकताओं का सरंजाम जुटाने में उन्मुक्त दृष्टिकोण अपनाया जा सकना संभव हो सके। सूक्ष्मशरीर के मनन संस्थान को समुन्नत इसी प्रकार रखा जा सकता है।
व्यावहारिक जीवन भी एक साधना-क्षेत्र है। इतना ही मन बना लेना उपयुक्त नहीं कि किन्हीं विशेष साधना, उपचारों से ही स्थूलसूक्ष्म एवं कारणशरीरों को समर्थ सुव्यवस्थित बनाया जा सकता है। इनकी भी उपयोगिता है, पर यह संभव नहीं कि व्यावहारिक जीवन गया-गुजरा बना रहे और पूजा-उपचारों की सहायता भर से संपन्न उत्कर्ष के लक्ष्य तक पहुँचा जा सके।
अखाड़े में पहलवानी सीखी और सिखाई जाती है। सर्वसाधारण को मोटी दृष्टि से यही प्रतीत होता है कि अखाड़े के साथ संबंध जोड़ना वहाँ बताए जाने वाला क्रियाकलाप अपनाना, किसी को भी पहलवान बना सकता है। ऐसा ही कुछ साधनाओं के संबंध में सोचा जाता है और माना जाता है कि अमुक साधनाएँ करने से अमुक प्रतिफल प्राप्त हो जाता है, पर इस प्रकार का गणित फैलाने वालों से एक भूल रह जाती है कि वे यह नहीं सोचते कि साधना के अतिरिक्त और कुछ करना आवश्यक होता है क्या? समझा जाना चाहिए कि पहलवानी के शौकीनों को पौष्टिक खुराक बढ़ानी पड़ती है, ब्रह्मचर्य से ररना पड़ता है, थके अंगों को चैतन्य करने के लिए मालिश कराने जैसे उपचारों का आश्रय लेना पड़ता है। यदि यह सब न किया जाए तो मात्र दंड पेलने-बैठक करने भर से दंगल पछाड़ने की स्थिति प्राप्त कर लेना संभव नहीं। कई बार तो दुर्बलकाय व्यक्ति उस दबाव को असाधारण रूप से बढ़ा लेने पर व्यायाम का अतिरिक्त दबाव सहन नहीं कर पाते। उलटे शरीर में जोड़ों में दर्द उत्पन्न कर लेने जैसे संकटों में फँस जाते हैं।
स्थूल एवं सूक्ष्मशरीरों को असाधारण रूप से सशक्त बमाने वाली साधनाएँ तो है, पर उन्हें बताने-अपनाने से पूर्व अपनी स्थिति क पर्यवेक्षण करना चाहिए और विकास-परिष्कार के लिए जो मध्यवर्ती अनुबंध पालना होता है, उसकी तैयारी करनी चाहिए।
सूक्ष्मशरीर को मानसतंत्र को प्रगतिशील बनाने के लिए उस क्षेत्र की स्थिरता, एकाग्रता, समस्वरता सही बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। देखना चाहिए कि किस प्रकार मानसिक उद्वेगों से बचा जा सकता है। समुद्र में जोरदार ज्वार-भाटे उठ रहे हो तो नाव खेने वाले को डांड चलाते हुए असाधारण परिश्रम करना पड़ता है। कई बार तो किसी चट्टान से टकरा जाने पर उसके डूबने तक का खतरा सामने आ खड़ा होता है। हिलोरे लेते जलाशय में सूर्य, चंद्रमा की परछाई यथावत नहीं दीख सकती है। दौड़ते घोड़े पर सवारी बैठे रहना कोई साधारण काम नहीं है। उनमें सचार के गिर जाने और घोड़े के ठोकर खा जाने की आशंका बनी रहती है। दृश्य स्थिर रहे तो ही उसकी छवि ठीक से देख पड़ना आँखों के लिए संभव हो पाता है। धावक की दौड़ती छवि ठीक तरह देखते नहीं बन पड़ती है। अस्थिर-उद्विग्न मन सामयिक समस्याओं का समाधान तक ठीक तरह ढूँढ़ नहीं पाता। दूसरों के साथ उसका व्यवहार असंगत हो जाता है। वस्तुस्थिति को समझने एवं भविष्य की संभावनाओं का उतार-चढ़ावों का अनुमान लगाते नहीं बन पड़ता। ऐसी दशा में उसके निर्णय-निर्धारण भी सही स्तर के होंगे, इसकी आशा नहीं की जा सकती। जब लोक-व्यवहार में मन की अस्थिरता इतनी अधिक होती है तो आध्यात्मिक साधनाएँ ठीक प्रकार बन पड़ेंगी इसकी आशा कैसे की जाए? चित्तवृत्ति निरोध किए बिना मनोनिग्रह किए बिना साधना कर पाना शक्य नहीं है।
मन में उद्वेग अनायास ही नहीं उठते, उनका कुछ कारण होता है। जलाशयों में लहरें तब उठती हैं, जब कोई भारी वस्तु गिरे अथवा तेज हवा चले। गर्मियों में चक्रवात स्वेच्छापूर्वक उनका निमित्त कारण होता है। इसी प्रकार मानसिक उद्विग्नता भी किन्हीं अन्य कारणों के साथ जुड़ी हुई होती है।
सृष्टि-व्यवस्था के साथ जीवनक्रम की संगति सरलतापूर्वक बिठाई जा सकती है। सर्वथा संभव है कि बिना उत्तेजित हुए या दूसरों को उत्तेजित किए, पहिया अपने लकीर पर लुढ़कता रहे। न हम किसी से टकराएँ और न कोई हमसे टकराए, ऐसा सुयोग आसानी से बन सकता है। रोग को मारने और रोगी को बचा लेने की नीति चिकित्सक अपनाते हैं। यह विद्या न तो असाध्य है न असंभव। बच्चे कीचड़ में सन जाने पर कीचड़ धोई जाती है और बच्चे को किसी प्रकार कोई क्षति नहीं पहुँचने दी जाती है। यह कौशल ऐसा है कि जिसे तनिक-से अभ्यास द्वारा स्वभाव का अंग बनाया जा सकता है।
उत्तेजनाएँ परिस्थितियाँ उत्पन्न करती हैं या व्यक्ति ही उस हेतु आड़े आते हैं, ऐसी बात नहीं है। कई बार अपना मानस ही ऐसा दुर्बल होता है कि स्थिति का आँकलन करने में असाधारण रूप से चुक कर जाता है। आँखों पर रंगीन चश्मा पहन लेने पर वस्तुएँ उसी रंग में रंगी हुई दिखती हैं। यह भ्रांति है। वस्तुएँ अपने-अपने रंग की होती है; किंतु चश्मा रंगीन पहन लेने पर जो प्रतीत होता है, वह अवास्तविक होते हुए भी वास्तविक जैसा लगता है। जिसके बारे में हम जो सोचते हैं, जैसा उन्हें मान बैठते हैं वस्तुतः वे वैसे नहीं होते। आँकलन सही कर सकने की क्षमता रहने पर यहाँ सब कुछ सरल एवं स्वाभाविक प्रतीत होता है। इतना बन पड़ने पर वे उत्तेजनाएँ नहीं उभरती हैं, जो चढ़ दौड़ने पर मानसिकता को तनाव से भर देती है। आवेशग्रस्त करके ऐसा कुछ कर गुजरने के लिए बाधित करती है, जिसके लिए पीछे शर्म करने या पछताने की आवश्यकता अनुभव होती है।
मनोविकारों को शारीरिक रोगों से भी अधिक अनर्थकारी कहा गया है। शरीर में ताप बढ़ने, रक्तचाप ऊँचा होने पर जो स्थिति बनती है, उससे रोगी किसी काम-धाम के योग्य नहीं रह जाता है। ठीक यही बात मानसिक आवेशों के संबंध में भी है। इस उत्तेजना में विचारतंत्र बुरी तरह लड़खड़ा जाता है दूसरों पर दोषारोपण करता है। भविष्य को भयंकर देखता है और अपने दुर्भाग्य को कोसता है।
चूल्हें पर जब दूध उबलता है तो उसके उठते हुए झाग पहले की अपेक्षा बढ़े-चढ़े मालूम होते हैं, पर वस्तुतः वह जलने लगता है, चूल्हें में गिरता है, आग बुझाता है और उसमें दरार डालता है। ठंडा होते-होते उसकी परत पतीली की दीवारों से चिपक जाती है। इसी प्रकार उफान के बाद वह पहले की अपेक्षा कहीं कम मात्रा में रह जाता है। इस प्रकार मन में उफान आने से शरीर को हर दृष्टि से घाटा-ही घाटा रहता है। शरीर को चढ़ा हुआ बुखार जलाता है, मन संस्थान को सूक्ष्मशरीर की उत्तेजनाएँ जलाती रहती हैं। उसकी विशेषताएँ इसी उष्णता में जल जाती है। ऐसी दशा में सूक्ष्मशरीर के सशक्त होने पर प्रत्यक्ष और परोक्ष लाभ जो मिल सकते थे, उन सबका द्वार बंद हो जाता है। इसलिए अपनी दिव्य विशिष्टताओं को समुन्नत करने के लिए प्रथम चरण यह उठाना चाहिए कि मानसिक संतुलन किसी भी कारण गड़बड़ाने न पाए।
चर्मचक्षुओं से देखने पर शरीर की सुडौलता, सुंदरता, समर्थता आकर्षक लग सकती है, पर जहाँ तक व्यक्तित्व की वरिष्ठता और प्रतिभा की विशिष्टता का संबंध है, वहाँ मानसिकता का क्षेत्र ही मणि-माणिकों से भरा-पूरा सिद्ध होता है। जिसमें दूरदर्शिता-विवेकशीलता होती है, गुण-कर्म-स्वभाव की दृष्टि से जो गुणवत्ता, विभूतिमत्ता विकसित होती है, वह इसी आधार पर निर्भर है कि मनुष्य का मानसिक धरातल सुसंतुलित रहे।
मानसिक विक्षेपों से एक सीमा तक सांसारिक परिस्थितियाँ, प्रतिकूलताएँ भी कारण हो सकती है; किंतु उनका समाधान सरल और संभव है। अड़चनों से बचकर निकला जा सकता है। काँटे नहीं बीने जा सकते तो पैर में जूता पहना जा सकता है। अपना कार्यक्षेत्र-व्यवसाय भी टकराव से बचाते हुए नया निर्धारित किया जा सकता है। संभावित सशक्तता अर्जित करके विग्रहियों से संघर्ष भी किया जा सकता है। यह सामान्य व्यवहार कुशलता है, जिसके सहारे परिस्थितियों की प्रतिकूलता की अनुकूलता में बदलता जा सकता है; किंतु बड़ी कठिनाई तब उपस्थित होती है, जब अपना ही स्वभाव, अभ्यास, दृष्टिकोण, विसंगतियों से भर जाता है।
अहंता पग-पग पर बाधक होती है। वह आत्मविज्ञापन चाहती है। वाह-वाही लूटने मैं रस लेती है। दूसरों को पिछड़ी स्थिति में रखकर ही अपना बड़प्पन उभरता है। इसके लिए वे सभी उपाय अपनाने होते हैं जिसमें छल-छद्म अपनाने होते हैं, आक्रमण करने होते हैं, खर्चीले ठाट-बाट के सरंजाम जुटाने पड़ते हैं। अहंकार की तुष्टि तब होती है, जब दूसरों को अपने से हेय सिद्ध किया जाए। यह आक्रामक मार्ग है, जिसमें प्रतिस्पर्धा एवं प्रतिशोध का जोखिम भी सामने आता रहता है। अपने को विनम्र, सज्जन, उदार बनाने वाले के लिए यह पुरुषार्थ कतई असंभव नहीं। वस्तुतः लिप्सा, तृष्णा और विलासिता की ललक ऐसी है, जो सदा अपूर्ण ही रहती है और महत्त्वाकांक्षी को उद्विग्न, असंतुष्ट और आवेशग्रस्त बनाए रहती है। इन दुरितों को निरस्त एवं परास्त करने के उपरांत ही सूक्ष्मशरीर का उत्कर्ष संभव हो सकता है।