Magazine - Year 1987 - Version 2
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Language: HINDI
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आध्यात्मिक दृष्टिकोण (कहानी)
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उड़ीसा के दीवान कृष्णचंद्र सिंह बड़े विलासी थे। उनके जीवन का लक्ष्यमात्र इंद्रिय सुख में लिप्त रहना था। जब उनकी भौतिकता की अति हो गई तो पत्नी ने कहा भी “अभी अपना सारा पुण्य इस जन्म में ही समाप्त कर देंगे या अगले जन्म के लिए भी कुछ एकत्रित करेंगे। अगले जन्म में आप कुछ पा सकें इसके लिए अभी से परमार्थ-परायण बनिए, आध्यात्मिक दृष्टिकोण रखिए।”
पत्नी की बात से कृष्णचंद्र सिंह ऐसे ही हँसकर टाल दिया करते थे, परंतु एक घटना ने उनका जीवन ही बदल दिया। एक बार कृष्णचंद्र जंगल के रास्ते से आ रहे थे। रास्ते में किसी गरीब की कुटिया थी। लड़की अपने चारपाई में पड़े हुए रोगी पिता से कह रही थी— “बाबूजी, रात घिर आई, आपने अभी तक दीपक नहीं जलाया।”
वृद्ध ने उत्तर दिया— ’बेटी! जीवन की रात्रि भी निकट है। यदि मैंने सत्कर्मों का दीपक जलाया होता, समय रहते अपने जीवन का सदुपयोग किया होता तो आज मेरी यह स्थिति न होती। मैंने अपने जीवन को भोग-विलास में व्यर्थ गँवाया। उसी के परिणामस्वरूप मैं आज व्याधियों से घिरा हुआ मरणासन्न दयनीय स्थिति में पड़ा हूँ। लगता है कि मेरा अगले जन्म का खाता भी शून्य ही होगा।
यह कहकर, वह वृद्ध विलाप करने लगा। कृष्णचंद्र ने वृद्ध में अपना भविष्य प्रतिबिम्बित पाया। वे सोचने लगे कि यदि में भी समय रहते नहीं, चेता तो मेरी स्थिति भी इस वृद्ध जैसी ही दयनीय होगी।
इस विचारधारा ने कृष्णचन्द्र का जीवन ही बदल दिया। उन्होंने अपनी सारी संपत्ति दीन-दुःखियों और असहायों को दान दे दी और स्वयं तपोवन में जाकर साधना करने लगे।