Magazine - Year 1987 - Version 2
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Language: HINDI
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उसकी प्रार्थना में अलौकिक बल है !
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मनुष्य कितना दीन-हीन, स्वल्प शक्ति वाला, कमजोर प्राणी है, यह प्रतिदिन के उसके जीवन से पता चलता है। उसे पग-पग पर परिस्थितियों के आश्रित होना पड़ता है। कितने ही समय तो ऐसे आते हैं, जब औरों से सहयोग न मिले तो उसकी मृत्यु तक हो सकती है। इस तरह विचार करने से तो मनुष्य की लघुता का ही आभास होता है; किंतु मनुष्य के पास ऐसी भी शक्ति है, जिसके सहारे वह लोक-परलोक की अनंत सिद्धियों-सामर्थ्यों का स्वामी बनता है। यह है— "प्रार्थना की शक्ति परमात्मा के प्रति अविचल श्रद्धा और अटूट विश्वास की शक्ति। मनुष्य प्रार्थना से अपने को बदलता है, शक्ति प्राप्त करता है और अपने भाग्य में परिवर्तन कर लेता है। विश्वासपूर्वक की गई प्रार्थना पर परमात्मा दौड़े चले आते हैं। सचमुच उसकी प्रार्थना में बड़ा बल है, अलौकिक शक्ति और अनंत सामर्थ्य हैं।"
प्रार्थना विश्वास की प्रतिध्वनि है। रथ के पहियों में जितना अधिक भार होता है, उतना ही तेज निशान वे धरती में बना देते हैं। प्रार्थना की रेखाएँ लक्ष्य तक दौड़ी जाती हैं और मनोवांछित सफलता खींच लाती हैं। विश्वास जितना उत्कट होगा, परिणाम भी उतने ही श्रेष्ठ और प्रभावशाली होंगे।
प्रार्थना आत्मा की आध्यात्मिक भूख है। शरीर की भूख अन्न से मिटती है, इससे शरीर को शक्ति मिलती है। उसी तरह आत्मा की आकुलता को मिटाने और उसमें बल भरने की सत्त-साधना परमात्मा की ध्यान-आराधना ही है। इससे अपनी आत्मा में परमात्मा का सूक्ष्म दिव्य तत्त्व झलकने लगता है और अपूर्व शक्ति की अनुभूति होती है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में प्रार्थना से प्राप्त शक्ति का सदुपयोग आत्मबलसंपन्न व्यक्ति कर सकते हैं। निश्चयपूर्वक की गई प्रार्थना कभी असफल नहीं हो सकती।
आत्मशुद्धि का आह्वान भी प्रार्थना ही है। इससे मनुष्य के अन्तःकरण में देवत्व का विकास होता है, विनम्रता आती है और सद्गुणों के प्रकाश में व्याकुल आत्मा का भय दूर होकर साहस बढ़ने लगता है। ऐसा महसूस होता है, जैसे कोई असाधारण शक्ति सदैव हमारे साथ रहती है। हम जब उससे अपनी रक्षा की याचना, दुखों से परित्राण और अभावों की पूर्ति के लिए अपनी विनय प्रकट करते हैं, तो सद्यः प्रभाव दिखलाई देता है और आत्मसंतोष का भाव पैदा होता है।
असंतोष और दुःख का भाव जीव को तब तक परेशान करता है, जब तक वह क्षुद्र और संकीर्णता में ग्रस्त है। भेदभाव की नीति ही संपूर्ण अनर्थों की जड़ है। प्रार्थना इन परेशानियों से बचने की रामबाण औषधि है। भगवान की प्रार्थना में सारे भेदों को भूल जाने का अभ्यास हो जाता है। सृष्टि के सारे जीवों के प्रति ममता आती है, इससे पाप की भावना का लोप होता है। जब अपनी असमर्थता समझ लेते हैं और अपने जीवन के अधिकार परमात्मा को सौंप देते हैं तो यही समर्पण का भाव प्रार्थना बन जाता है। दुर्गुणों का चिंतन और परमात्मा के उपकारों को स्मरण रखना ही मनुष्य की सच्ची प्रार्थना है। महात्मा गाँधी कहा करते थे ”मैं कोई काम बिना प्रार्थना के नहीं करता। मेरी आत्मा के लिए प्रार्थना उतनी ही अनिवार्य है, जितना शरीर के लिए भोजन।” मनुष्य के जीवन में अच्छी-बुरी दोनों तरह की वृत्तियाँ रहती हैं, आत्मा के गहन अंतराल में तो, सत् तत्त्व पाया जाता है। इस शुभ शिव और परम तत्त्व से एकाकार प्रार्थना से होता है, जिससे आसुरी वृत्तियों का लोप और दैवी गुणों का प्रादुर्भाव होता है। प्रार्थना से ही अंतरंग में प्रवेश मिलता है और बुद्धि की सूक्ष्मग्रहणशीलता उपजती है। इस परिवर्तनशील जगत के सारे रहस्य खुलने लगते हैं। मोह की दुरभिसंधि मिटकर सत्य प्रकाशित होने लगता है। प्रार्थना मानवी प्रयत्न और ईश्वरत्व का सुन्दर समन्वय है। मानवीय प्रयत्न अपने आप में अधूरे हैं। क्योंकि डडडड पुरुषार्थ के साथ संयोग भी अपेक्षित है। यदि संयोग-सिद्धि न हो तो कामनायें अपूर्ण ही रहती हैं। इसी तरह संयोग मिले और प्रयत्न न करें तो भी काम नहीं चलता। प्रार्थना से इन दोनों में मेल पैदा होता है। सुखी और समुन्नत जीवन का यही आधार है कि हम क्रियाशील भी रहें और दैवी विधान से सुसंबद्ध रहने का भी प्रयास करें। धन की आकांक्षा हो तो व्यवसाय और उद्यम करना होता है साथ ही उसके लिए अनुकूल परिस्थितियाँ भी चाहिए ही। जगह का मिलना, पूंजी लगाना, स्वामिभक्त और ईमानदार नौकर, कारोबार की सफलता के लिए भी चाहिए ही। यह सारी बातें संयोग पर अवलम्बित हैं। प्रयत्न और संयोग का जहाँ मिलाप हुआ, वहीं सुख होगा, वहीं सफलता भी होगी। यह अनिवार्य नहीं कि प्रार्थना पूर्णतया निष्काम हो। सकाम प्रार्थनाओं का भी विधान है, किंतु साँसारिक कामनाओं के लिए की गई प्रार्थना में वह तल्लीनता नहीं आ पाती, जो परमात्मा तक अपना संदेश ले जा सके। ऐसी प्रार्थनाएँ भोग के निविड़ में भटक कर रह जाती है। परिणामतः समय का अपव्यय और शक्ति का दुरुपयोग ही होता है। परोपकार, आत्मकल्याण और जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही प्रार्थना का सदुपयोग होना चाहिए। ऐसी प्रार्थनाओं में सजीवता होती है। चुंबकत्व होता है और परमात्मा को प्राप्त करने की प्रबल आकुलता होती है, वे कभी निष्फल नहीं जातीं। सदुद्देश्यों के लिए की गई हृदय-आत्मा की पुकार अनसुनी नहीं जाती। परमात्मा उसे जरूर पूरा करते हैं। अभी तक जो शक्तियँ मिलीं और जो मानव जीवन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, इसमें भी अपनी पूर्व भावनाओं की सौम्यता ही प्रतीत होती है। हमने उनका आश्रय छोड़ दिया होता तो अन्य जीवधारियों के समान हम भी कहीं भटक रहे होते, किंतु यह अभूतपूर्व संयोग मिलना निश्चय ही उनकी कृपा का फल है। प्राप्त परिस्थितियों का सदुपयोग तब है, जब इन साधनों का उपयोग आत्मविकास में कर सकें। इसके लिए हमारा संपूर्ण जीवन एक प्रार्थना हो। हम अनन्य भाव से अपने आपको उस परमात्मा के प्रति समर्पित किए रहें और उनकी दुनिया को सुंदर और सरस बनाने के लिए अपने कर्त्तव्यों का यथारीति पालन करते रहें। हृदयहीन मुखर प्रार्थना नहीं चाहिए। जिसमें केवल स्वर का महत्त्व प्रकट होता है, वह प्रार्थना नहीं, वह तो विडंबना हुई। प्रार्थना वह होती है, जो हृदय से निकल कर सारे आकाश को प्रभावित करती और परमात्मा के हृदय में भी उथल-पुथल मचाकर रख देती है। ऐसी प्रार्थना निष्काम, सच्ची और सजीव ही हो सकती है। वर्षा का जल गिरता है तो सारी धरती गीली हो जाती है। प्रार्थना के प्रभाव से परमात्मा का अंतःकरण द्रवित होता है और साधक की उपासना से अधिक परिणाम प्राप्त होता है। संत टेनीसन ने लिखा है। “जितना संसार समझता है, प्रार्थना से उससे अधिक कार्य होता है।” इसलिए अपनी प्रार्थना ऐसी हो “हे प्रभु! तेरी शरण हम आए हैं। तुझसे वह प्रकाश प्राप्त करना चाहते हैं, जिससे अंधकार में भटकते हुए मनुष्यों के दुःख और संताप दूर कर सकें। असहाय अवस्था में जब मनुष्य को चारों तरफ से निराशा ही दिखाई देती है, शक्तियाँ काम नहीं देतीं, भाग्य की कुटिलता पग-पग पर सताने लगती है, अपने भी पराए बन जाते हैं तब प्रार्थना ही उसका मित्र बनती है। प्रार्थना दुर्दिनों की सहारा, अंधियारे का पाथेय और दुःख की साथी है। जब किसी तरह मनुष्य के प्रयत्न काम नहीं देते तब प्रार्थना से ही उसे बल मिलता है। सच्ची करुणा प्रार्थना का उत्तर तत्काल ही मिलता है। दुष्ट दुर्भावनाओं को दूर करने में प्रार्थना एक अमोघ साधन है। कामुकता, क्रोध, मोह और अहंकार के मनोविकार प्रार्थना की आग में जल कर खाक हो जाते हैं। स्वार्थ की क्षुद्रता घटती है और आँतरिक विशालता बढ़ती है। जीवन-शोधन की यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रणाली है। प्रार्थना एक अभूतपूर्व शक्ति है, जिसे अपनी भावनाओं के द्वारा कोई भी उत्पन्न कर सकता है। आग का गुण है कि वह जहाँ रहती है, वहाँ उष्णता भी रहती है। प्रार्थना के ताप के पास पाप नहीं रह सकते। पापों का प्रायश्चित करना प्रार्थना का ही करुण स्वरूप है। जब हम अपने पापों को सच्चे हृदय से स्वीकार कर लेते हैं तो उनके कठोर परिणाम भोग लेने की क्षमता आ जाती है। इससे अगले जीवन का प्रकाश आँखों के आगे झलकने लगता है, आशा जागती है। जिससे कठिन परिस्थितियों में भी आत्मसंतोष और अलौकिक शांति बनी रहती है। इसलिए प्रत्येक धर्म में प्रार्थना को प्रमुखता दी गई है। आत्मविकास की प्रक्रियाओं में इसका सर्वप्रथम स्थान है। दूसरी योजनाओं के लिए इसी से बल मिलता है। इसलिए कोई भी शुभारंभ करने से पूर्व प्रार्थना अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होती है। इससे एक तरह का बल, विश्वास और आशा जागृत होती है, जो किसी भी काम की पूर्णता में सहायक होती है। आसुरी शक्तियों से आत्मरक्षा और सद्गुणों के विकास के लिए इस युग में प्रार्थना का महत्व और भी अधिक है। झगड़ने की आवश्यकता नहीं है कि अमुक प्रार्थना अच्छी और अमुक खराब है। सद्बुद्धि की प्रार्थना ही परमेश्वर की सच्ची उपासना है। जिसकी वाणी में संपूर्ण प्राणियों के कल्याण की भावना सन्निहित है, वही परमात्मा की सच्ची प्रार्थना है। स्वार्थपूर्ण कामनाएँ इस विशालता में बाधा उत्पन्न करती हैं, इसलिए इनसे ऊपर उठकर हमारी भावनाएँ ऐसी हों जो आत्मकल्याण और संसार की भलाई से प्रेरित हों। वही प्रार्थना सार्थक हो सकती हैं, “हे भगवान! हमें असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो।” जब इस तरह के उद्गार अंतःकरण से उठेंगे, तो जीवन में एक नया प्रकाश प्रस्फुटित होगा। उस परम पिता की प्रार्थना में वह शक्ति है, जो हमारे सारे कष्टों को दूर कर सकती है। हम उस परमात्मा को कभी न भूलें। हमारा जीवन सदैव प्रार्थनामय हो। हम उसके समक्ष याचक बनकर मनोकामना हेतु झोली न पसारें, सद्भावनाओं का अनुदान माँगे, इसी में हमारी गरिमा व उसका पुत्र,डडडडडड सृष्टि का सिरमौर कहे जाने की सार्थकता है।
असंतोष और दुःख का भाव जीव को तब तक परेशान करता है, जब तक वह क्षुद्र और संकीर्णता में ग्रस्त है। भेदभाव की नीति ही संपूर्ण अनर्थों की जड़ है। प्रार्थना इन परेशानियों से बचने की रामबाण औषधि है। भगवान की प्रार्थना में सारे भेदों को भूल जाने का अभ्यास हो जाता है। सृष्टि के सारे जीवों के प्रति ममता आती है, इससे पाप की भावना का लोप होता है। जब अपनी असमर्थता समझ लेते हैं और अपने जीवन के अधिकार परमात्मा को सौंप देते हैं तो यही समर्पण का भाव प्रार्थना बन जाता है। दुर्गुणों का चिंतन और परमात्मा के उपकारों को स्मरण रखना ही मनुष्य की सच्ची प्रार्थना है। महात्मा गाँधी कहा करते थे ”मैं कोई काम बिना प्रार्थना के नहीं करता। मेरी आत्मा के लिए प्रार्थना उतनी ही अनिवार्य है, जितना शरीर के लिए भोजन।” मनुष्य के जीवन में अच्छी-बुरी दोनों तरह की वृत्तियाँ रहती हैं, आत्मा के गहन अंतराल में तो, सत् तत्त्व पाया जाता है। इस शुभ शिव और परम तत्त्व से एकाकार प्रार्थना से होता है, जिससे आसुरी वृत्तियों का लोप और दैवी गुणों का प्रादुर्भाव होता है। प्रार्थना से ही अंतरंग में प्रवेश मिलता है और बुद्धि की सूक्ष्मग्रहणशीलता उपजती है। इस परिवर्तनशील जगत के सारे रहस्य खुलने लगते हैं। मोह की दुरभिसंधि मिटकर सत्य प्रकाशित होने लगता है। प्रार्थना मानवी प्रयत्न और ईश्वरत्व का सुन्दर समन्वय है। मानवीय प्रयत्न अपने आप में अधूरे हैं। क्योंकि डडडड पुरुषार्थ के साथ संयोग भी अपेक्षित है। यदि संयोग-सिद्धि न हो तो कामनायें अपूर्ण ही रहती हैं। इसी तरह संयोग मिले और प्रयत्न न करें तो भी काम नहीं चलता। प्रार्थना से इन दोनों में मेल पैदा होता है। सुखी और समुन्नत जीवन का यही आधार है कि हम क्रियाशील भी रहें और दैवी विधान से सुसंबद्ध रहने का भी प्रयास करें। धन की आकांक्षा हो तो व्यवसाय और उद्यम करना होता है साथ ही उसके लिए अनुकूल परिस्थितियाँ भी चाहिए ही। जगह का मिलना, पूंजी लगाना, स्वामिभक्त और ईमानदार नौकर, कारोबार की सफलता के लिए भी चाहिए ही। यह सारी बातें संयोग पर अवलम्बित हैं। प्रयत्न और संयोग का जहाँ मिलाप हुआ, वहीं सुख होगा, वहीं सफलता भी होगी। यह अनिवार्य नहीं कि प्रार्थना पूर्णतया निष्काम हो। सकाम प्रार्थनाओं का भी विधान है, किंतु साँसारिक कामनाओं के लिए की गई प्रार्थना में वह तल्लीनता नहीं आ पाती, जो परमात्मा तक अपना संदेश ले जा सके। ऐसी प्रार्थनाएँ भोग के निविड़ में भटक कर रह जाती है। परिणामतः समय का अपव्यय और शक्ति का दुरुपयोग ही होता है। परोपकार, आत्मकल्याण और जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही प्रार्थना का सदुपयोग होना चाहिए। ऐसी प्रार्थनाओं में सजीवता होती है। चुंबकत्व होता है और परमात्मा को प्राप्त करने की प्रबल आकुलता होती है, वे कभी निष्फल नहीं जातीं। सदुद्देश्यों के लिए की गई हृदय-आत्मा की पुकार अनसुनी नहीं जाती। परमात्मा उसे जरूर पूरा करते हैं। अभी तक जो शक्तियँ मिलीं और जो मानव जीवन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, इसमें भी अपनी पूर्व भावनाओं की सौम्यता ही प्रतीत होती है। हमने उनका आश्रय छोड़ दिया होता तो अन्य जीवधारियों के समान हम भी कहीं भटक रहे होते, किंतु यह अभूतपूर्व संयोग मिलना निश्चय ही उनकी कृपा का फल है। प्राप्त परिस्थितियों का सदुपयोग तब है, जब इन साधनों का उपयोग आत्मविकास में कर सकें। इसके लिए हमारा संपूर्ण जीवन एक प्रार्थना हो। हम अनन्य भाव से अपने आपको उस परमात्मा के प्रति समर्पित किए रहें और उनकी दुनिया को सुंदर और सरस बनाने के लिए अपने कर्त्तव्यों का यथारीति पालन करते रहें। हृदयहीन मुखर प्रार्थना नहीं चाहिए। जिसमें केवल स्वर का महत्त्व प्रकट होता है, वह प्रार्थना नहीं, वह तो विडंबना हुई। प्रार्थना वह होती है, जो हृदय से निकल कर सारे आकाश को प्रभावित करती और परमात्मा के हृदय में भी उथल-पुथल मचाकर रख देती है। ऐसी प्रार्थना निष्काम, सच्ची और सजीव ही हो सकती है। वर्षा का जल गिरता है तो सारी धरती गीली हो जाती है। प्रार्थना के प्रभाव से परमात्मा का अंतःकरण द्रवित होता है और साधक की उपासना से अधिक परिणाम प्राप्त होता है। संत टेनीसन ने लिखा है। “जितना संसार समझता है, प्रार्थना से उससे अधिक कार्य होता है।” इसलिए अपनी प्रार्थना ऐसी हो “हे प्रभु! तेरी शरण हम आए हैं। तुझसे वह प्रकाश प्राप्त करना चाहते हैं, जिससे अंधकार में भटकते हुए मनुष्यों के दुःख और संताप दूर कर सकें। असहाय अवस्था में जब मनुष्य को चारों तरफ से निराशा ही दिखाई देती है, शक्तियाँ काम नहीं देतीं, भाग्य की कुटिलता पग-पग पर सताने लगती है, अपने भी पराए बन जाते हैं तब प्रार्थना ही उसका मित्र बनती है। प्रार्थना दुर्दिनों की सहारा, अंधियारे का पाथेय और दुःख की साथी है। जब किसी तरह मनुष्य के प्रयत्न काम नहीं देते तब प्रार्थना से ही उसे बल मिलता है। सच्ची करुणा प्रार्थना का उत्तर तत्काल ही मिलता है। दुष्ट दुर्भावनाओं को दूर करने में प्रार्थना एक अमोघ साधन है। कामुकता, क्रोध, मोह और अहंकार के मनोविकार प्रार्थना की आग में जल कर खाक हो जाते हैं। स्वार्थ की क्षुद्रता घटती है और आँतरिक विशालता बढ़ती है। जीवन-शोधन की यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रणाली है। प्रार्थना एक अभूतपूर्व शक्ति है, जिसे अपनी भावनाओं के द्वारा कोई भी उत्पन्न कर सकता है। आग का गुण है कि वह जहाँ रहती है, वहाँ उष्णता भी रहती है। प्रार्थना के ताप के पास पाप नहीं रह सकते। पापों का प्रायश्चित करना प्रार्थना का ही करुण स्वरूप है। जब हम अपने पापों को सच्चे हृदय से स्वीकार कर लेते हैं तो उनके कठोर परिणाम भोग लेने की क्षमता आ जाती है। इससे अगले जीवन का प्रकाश आँखों के आगे झलकने लगता है, आशा जागती है। जिससे कठिन परिस्थितियों में भी आत्मसंतोष और अलौकिक शांति बनी रहती है। इसलिए प्रत्येक धर्म में प्रार्थना को प्रमुखता दी गई है। आत्मविकास की प्रक्रियाओं में इसका सर्वप्रथम स्थान है। दूसरी योजनाओं के लिए इसी से बल मिलता है। इसलिए कोई भी शुभारंभ करने से पूर्व प्रार्थना अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होती है। इससे एक तरह का बल, विश्वास और आशा जागृत होती है, जो किसी भी काम की पूर्णता में सहायक होती है। आसुरी शक्तियों से आत्मरक्षा और सद्गुणों के विकास के लिए इस युग में प्रार्थना का महत्व और भी अधिक है। झगड़ने की आवश्यकता नहीं है कि अमुक प्रार्थना अच्छी और अमुक खराब है। सद्बुद्धि की प्रार्थना ही परमेश्वर की सच्ची उपासना है। जिसकी वाणी में संपूर्ण प्राणियों के कल्याण की भावना सन्निहित है, वही परमात्मा की सच्ची प्रार्थना है। स्वार्थपूर्ण कामनाएँ इस विशालता में बाधा उत्पन्न करती हैं, इसलिए इनसे ऊपर उठकर हमारी भावनाएँ ऐसी हों जो आत्मकल्याण और संसार की भलाई से प्रेरित हों। वही प्रार्थना सार्थक हो सकती हैं, “हे भगवान! हमें असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो।” जब इस तरह के उद्गार अंतःकरण से उठेंगे, तो जीवन में एक नया प्रकाश प्रस्फुटित होगा। उस परम पिता की प्रार्थना में वह शक्ति है, जो हमारे सारे कष्टों को दूर कर सकती है। हम उस परमात्मा को कभी न भूलें। हमारा जीवन सदैव प्रार्थनामय हो। हम उसके समक्ष याचक बनकर मनोकामना हेतु झोली न पसारें, सद्भावनाओं का अनुदान माँगे, इसी में हमारी गरिमा व उसका पुत्र,डडडडडड सृष्टि का सिरमौर कहे जाने की सार्थकता है।