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Magazine - Year 1987 - Version 2

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रंगों का प्रभाव और ध्यान

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यह संसार पंचतत्त्वों द्वारा विनिर्मित है। आधुनिक विज्ञान इन तत्त्वों की संख्या, बारीकियों में उतरते-उतरते 100 के लगभग गिनाता हैं। यह पदार्थअन्य भौतिक सृष्टि हुई। अध्यात्मिकता चेतना को इस विश्व-ब्रह्मांड का मूल कारण मानती हैं। प्रकृति और पुरुष के संयोग से बने पंचप्राणों का विवेचन करती है। इन्हें ही आलंकारिक रूप से पंचदेवता कहा गया हैं।

प्राण विज्ञान एक स्वतंत्र विषय है। उसकी चर्चा करना अप्रासंगिक भी होगा और अनावश्यक भी। तत्त्व-चर्चा की विवेचना भी नहीं की जा रही है; वरन एक विषय पर प्रकाश डाला जा रहा है। जिसके संबंध में सर्वजनीन जानकारी उतनी विस्तृत नहीं हुई है, जितनी की होनी चाहिए थीं।

सूर्य भगवान के रथ में जुते हुए सात अश्वों की प्रतिमाएँ एवं छवियाँ उपलब्ध है। इन सात अश्वों को सूर्य की सात किरणें समझा जाना चाहिए। भगवान भास्कर से निःसृत वाली किरण-तरंगों की संख्या अपरिमित है। फिर भी उनमें से सात प्रमुख हैं। सप्तरंगों के मिल जाने से श्वेतवर्ण बनता है, इसीलिए भूतल पर बिखरने वाली धूप श्वेतवर्ण पतीत होती है। सूर्य का गोलक भी श्वेतवर्ण का है। सप्तरंगों के मिल जाने से श्वेतवर्ण का है। यह धवलता वस्तुतः सप्तवर्णों का वर्णन ही है।

संगीत के सप्तस्वर, सप्तधातु, सप्तपर्वत, सप्तसमुद्र, सप्तलोक आदि प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार सौरमंडल में संव्याप्त सूर्य की सात-किरणें भी। इतने पर भी श्वेतवर्ण के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इस समन्वय को आवश्यकतानुसार वर्गीकृत भी किया जा सकता है। वर्षा और धूप के समन्वय से इन्द्रधनुष दिखता है।  जिसमें सातों रंग अलग-अलग और मिश्रित रूप से दृष्टिगोचर होते हैं, तिकोने काँच में भी सात रंगों को झलकता देखा जा सकता है।

किसी रंग के काँच में होकर यदि धूप पार की जाय तो उसका वही रंग दिख पड़ेगा,जो तो काँच का था। शेष रंग बाहर ही रह जाएँगे। इसी प्रकार यह संभव  हो सकता है कि सूर्य की उस रंग वाली किरणें नहीं ग्रहण की जाती हो जो अभीहट हो। पारदर्शी वस्तुएँ जिस भी रंग की होती हैं, उन्ही को नीचे उतरने देती है, शेष को ऊपर रोक लेती है। इस प्रकार जिस रंग को ग्रहण करना आवश्यक होता है, उसी को उपलब्ध करने की बात बन सकती है। पेड़ों के पत्ते हरे होते हैं, इसलिए वे उसी रंग को अपने भीतर प्रवेश करने देते हैं। इसी आधार पर उनमें आक्सीजन छोड़ने और कार्बनडाइ-आक्साइड सोखने की विशेषता उभरती है। जलाशय भी प्रायः हरा या नीला रग ही खींचते हैं। आकाश की नीलिमा भी विशाल ब्रह्मांड तथा नेत्रगोलकों का ऐसा ताल-मेल बिठाती है, जिससे नीला रंग संव्याप्त दिख पड़े।

सूर्य-किरण चिकित्सा इसी प्रकार पर विकसित हई है। रंगीन बोतलों में पानी भरकर धूप में रखा जाता हैं, बोतल वाले रंग के गुण पानी में आ जाते हैं। उसका अनुरूप सेवन करने से रोगों का निवारण संभव होता हैं। यह प्रभाव रंगे हुए कपड़े पहनने पर त्वचा माध्यम से शरीर के भीतर प्रवेश करता है। दीवारें, फर्नीचर आदि यदि किसी रंग विशेष से पूते हुए हो तो उनकाप्रतिविंब समीपवर्त्ती वातावरण पर पड़ता है। जँहा पारदर्शिता का अभाव है, वँहा रंगों से टकराकर किरणें छितराती और समीपवर्त्ती क्षेत्र को प्रभावित करती है। आँखों का आपरेशन होने पर हरे काँच का चश्मा पहनाया जाता है या उसी रंग के कपड़े का नकाब आँखों पर लगा दिया जाता है। तेज धूप में रंगीन चश्मा भी इसलिए पहना जाता है कि आँखों तक मात्र हलके रंग ही पहुँच पाए और प्रकाश का चकाचौंध न लगे।

मौलिक रंग तीन है— लाल, नीला, पीला। इनके न्यूनाधिक सम्मिश्रण से उनकी संख्या सात हो जाती है। इन तीन में बेंगनी, आसमानी, हरा, नारंगी और जुड़ जाते हैं। इन सबका अपना-प्रभाव है। नीला शीतल— शांतिदायक। लाल गरम। पीला सौल्य— पाचक। सम्मिश्रण में जिसकी न्यूनाधिकता है, उसी अनुपात से उनके परिणाम भी बदलते और घटते-बढ़ते रहते हैं।

यदि पारदर्शी उपकरण न हो, उनमें होकर धूप पार करने का प्रबंध भी न हो, किसी ठोस चीज को उस रंग से पोतकर उसका प्रभाव-ग्रहण करने की व्यवस्था भी न हो तो एक सरल उपाय यह अपनाया जा सकता है कि आँखें बंद करके उस रंग का ध्यान किया जाए। अपने सामने या चारों ओर उस रंग का आकाश-आवरण छाया हुआ अनुभव करने का अभ्यास किया जाए। आरंभ में इस प्रकार का ध्यान इसी रीति से जमना कठिन पड़ता है, बार-बार चित उचटता है, इच्छित रंग हटता और अनिच्छित उसके स्थान पर आ धमकते दिखाई पड़ते हैं। पर यह उथल-पुथल अधिक दिनों नहीं रहती। इच्छित रंग पर ध्यान जमने और उसका आवरण सामने ही नहीं चारों ओर भी छाया दिखने लगता है। यह दृश्य मात्र मनोरंजन नहीं हैं, वरन इसका चमत्कारी प्रभाव भी उत्पन्न होते देखा  गया है। मस्तिष्क पर उसकी छाप पडती और प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है।

जिस समय गर्मी की अधिकता अनुभव होती हो, क्रोध चढ़ा हो, उत्तेजना छाई हों, तब नीले रंग का ध्यान करना उपयुक्त पड़ता है। यदि नीले पर्दे उपलब्ध हो तो दरवाजों और खिड़कियों पर उन्हें लटका देना चाहिए। ऐसी कल्पना भी की जा सकती है कि किसी सुविस्तृत जलाशय में नीला जल भरा है। हलकी-हलकी लहरें उठ रही हैं। उस पर तैरती नाव। नाव में लेटे, झपकी लेते, तैरते चले जा रहे हैं। यह ध्यान शीतलता और शांति प्रदान करता है। जिनकी प्रकृति उष्ण है, नकसीर फूटती है। रक्तचाप बढ़ा रहता हो, फोड़े-फुंसी निकलते हों, उनके लिए यह बिना दाम का उपचार सामान्य दवा-दारु की तुलना में कहीं अच्छा बैठता है। लाल रंग उष्णताप्रधान है। जिन्हें जुकाम, खाँसी, पसली का दर्द, गठिया जैसे अकड़न वाले रोग रहते हों, वे लाल रंग के ध्यान से उत्तेजना बढ़ती है और साहस उमंग देता है, आलसी प्रवृत्ति सक्रियता में बलती है। रक्ताल्पता में भी सुधार होता है।

अपचजन्य शिकायतों में पीला रंग उपयुक्त है। मन की चंचलता, उद्विग्नता, तनाव, वासनात्मक आवेश इस ध्यान से घटते हैं। यह प्रभातकाल के उदीयमान सूर्य का रंग है, उससे उत्साह उभरता है। संयम सधता है और मनःक्षेत्र में सात्विकता का अनुपात बढ़ता है।

यह तीन प्रमुख रंगों का विवेचन है। इनको हल्का गहरा कर देने पर तदनुसार उनका प्रभाव घट जाता है। जब इनमें से किन्हीं दो के मिलाने की आवश्यकता प्रतीत हो तो उनका सम्मिश्रित स्वरूप भी काम में लाया जा सकता है।

सामान्यतया श्वेत रंग के संपर्क में आना ही उचित है। यह सब आवश्यकताओं का संतुलन बनाए रहता है। सौर-ऊर्जा का परिपूर्ण लाभ तभी मिलता है, जब वह अपने साधारण स्वरूप में हो। पर जब शारीरिक-मानसिक स्थिति में विभिन्नता हो तो किसी विशेष रंग का उपयोग किया जा सकता है। आवश्यक नहीं कि इसके लिए पारदर्शी धूप में से रंग छानने वाली व्यवस्था जुटाना ही अनिवार्य है। आँखें बंद करके उस रंग के विस्तार का ध्यान करने से भी बहुत हद तक काम चल जाता है।

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