Magazine - Year 1987 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रसुप्त पड़ा अतीन्द्रिय सामर्थ्य का जखीरा
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जहाँ तक दृश्य इंद्रियों का प्रश्न है, देखने को प्रतियोगिता में मनुष्य से कहीं अधिक आगे गिद्ध वर्ग के प्राणी है। उनकी आँखें ऐसी होती हैं कि वे सुदूर आकाश में उड़ते हुए भी अपने शिकार को देख लेती है व एक झपट्टे में वे अपने शिकार को उदरस्थ कर लेती हैं। कान भी मनुष्य को एक सीमित डेसीबल तक की सुनिश्चित फ्रीक्वेंसी व एम्प्लीट्यूड तक ही ध्वनि-तरंगों को सुन सकने भर की सुविधा देते हैं। इसके अतिरिक्त भी इस विशाल आकाश में असंख्य प्रकार की ध्वनियाँ गतिशील रहती है; जिनके आधार पर पर न केवल सुदूर क्षेत्रों का घटनाक्रम समझा जा सकता है; वरन भूत और भविष्य के संबंध में भी जो हो चुका है, जो होने वाला है, उसे जाना जा सके। परंतु प्रकृति ने उसे सीमित स्तर की इतनी ही क्षमता प्रदान की है, जिसके सहारे वह अपने निर्वाह के लिए आवश्यक साधनों भर की जानकारी प्राप्त कर सके। मनुष्य की आँखें सतेज मानी जाती हैं। वे रंगों को पहचान सकती हैं और बारीक अक्षरों वाली पुस्तक भी तेजी से पढ़ सकती हैं। इतने पर भी वे मछली की तरह गहरे पानी में खुली रहकर दूर-दूर के दृश्य नहीं देख सकती हैं। दूरबीन जैसी क्षमता भी उनमें नहीं हैं कि मीलों दूरी के दृश्यों को स्पष्टतया देख सकें। इस कारण जो दो इंद्रियाँ अधिक तीव्र है, उन्हें भी अकिंचन क्षमतासंपन्न ही कहा जा सकता है, इस सामर्थ्य को बढ़ाने के लिए इंद्रियाँशक्ति तो नहीं बढ़ सकी, पर रेडियो, टेलीविजन, दूरबीन जैसे उपकरण विनिर्मित कर लिए गए हैं, जिनकी सहायता से अपेक्षाकृत अधिक जानकारियाँ यह दोनों इंद्रियाँ दे सकती है। उनकी क्षमता अभी तो इतनी ही है, जिसे कि ज्ञान के महासागर में एक बूँद के समतुल्य समझा जा सके। आवश्यकता इनकी शक्ति-सामर्थ्य बढ़ाए जाने की भी है, यह वृद्धि मात्र इतनी ही नहीं चाहिए कि कुछ अधिक दूरी तक देखना या सुनना संभव हो सके; वरन यह विस्तार इतना आगे तक बढ़ना चाहिए कि प्रकृति के अंतराल में होने वाली हलचलों को भी देख एवं सुन सके। यह स्थिति तो अतींद्रिय क्षमताओं से उपलब्ध होती है। अतींद्रिय का अर्थ यह नहीं कि कोई अतिरिक्त शक्ति किसी अन्य माध्यम से उपलब्ध की या कराई जाती है; वरन यह है कि वर्तमान इंद्रियों का इतना अधिक उदात्तीकरण— निखार किया जाता है कि सामान्य ग्रहणशक्ति की तुलना में अधिक सूक्ष्मक्षेत्र में, अपनी पैठ पहुँचा सके।
आँखों का सूक्ष्मदर्शन-दूरदर्शन के रूप में प्रकट होता है। दूरबीनें तो कुछ ही दूर के क्षेत्र को देख पाती है, पर दिव्य चक्षु न केवल सारे भूलोक की स्थिति जान सकते हैं; वरन लोकांतरों की परिस्थितियों को भी जान सकते हैं। अपने भीतर भी जो महत्त्वपूर्ण शारीरिक, मानसिक क्रियाकलाप होते रहते हैं, उनका भी पता लगाया जा सकता है। यह चर्म-चक्षुओं की शक्ति का विस्तार नहीं है; वरन मस्तिष्क-रंध्र में विद्यमान आज्ञाचक्र का क्षमतासंपन्न होना है। इससे दूसरों के शरीर-मन को भी पढ़ा जा सकता है। इस आधार पर उन्हें भविष्य की तैयारी करने अथवा सावधान रहने, बचाव करने का परामर्श भी दिया जा सकता है। प्रकृतिगत हलचलों की पूर्ण संभावनाओं का ज्ञान रहने से तदनुरूप अपनी तैयारी कर सकना भी संभव हो सकता है।
कर्णेंद्रियों के अतींद्रिय पक्ष को जगाने के लिए नादयोग से भी अधिक स्वरयोग सरल पड़ता है। कानों में बाहरी शब्दों को पूरी तरह रोक सकना कठिन पड़ता है। रुई, कार्क या मोम की पोटली कान के छिद्रों में लगाकर अक्सर नादयोग के अभ्यासी बाहरी शब्दों का भीतर प्रवेश करना रोकते हैं; पर उससे आंशिक सफलता ही मिलती है। शब्द-ध्वनियाँ पूरी तरह रुक नहीं पातीं। कर्ण इंद्रिय नेत्रों से भी अधिक स्थूल है, इस लिए उनमें विकृतियाँ भी अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में और अधिक जल्दी उत्पन्न हो जाती हैं। अक्सर शोर-गुल वाले स्थानों में रहने से धीमा बहरापन शुरू होता देखा जाता है। वृद्धावस्था में नेत्रों की ज्योति जाने से पूर्व कानों की क्षमता अपेक्षाकृत अधिक जल्दी और अधिक मात्रा में घटने लगती हैं। इन सब कारणों से सूक्ष्मकर्णेंद्रिय द्वारा की जाने वाली नाद-साधना कठिन पड़ती है। बाहर के शब्द रुक जाने पर भी भीतर शरीरगत हलचलों भी शब्द बनकर कानों के पर्दे से टकराने लगती हैं। रक्त-संचार, श्वास-प्रश्वास की क्रियाएँ रेलगाड़ी की धड़धड़ाहट या झरना-झरने, बादल गरजने जैसे आवाजें बन जाती हैं। वे होतीं तो समीपवर्ती क्षेत्र की ही हैं।, पर साधक अनुमान लगाने लगता है कि वह सूक्ष्मजगत के संकेत हैं। इस भ्रम में फँसे रहने पर शब्दमात्र सुनाई पड़ते रहते हैं। मस्तिष्क भी कर्ण माध्यम से प्रवेश हुए शब्दों को उतनी गंभीरता से नहीं पकड़ता। यही कारण है कि लोग बहुत सुनते रहने पर भी उसे देर तक स्मरण नहीं रख पाते। इस कान से सुना, उस कान से निकाला वाली उक्ति भी इसी कारण चरितार्थ होती रहती है। कर्णेंद्रिय माध्यम से नादयोग की साधना करते हुए दूर श्रवण की अतींद्रिय क्षमता भी कठिनाई से थोड़ी मात्रा में जगती है। फिर ब्रह्मम चेतना से संबंध जुड़ना, अनाहत नाद से संपर्क स्थापित करना कठिन हो जाता है। उसमें किन्हीं विरलों को ही अभीष्ट सफलता मिलती है। एकाग्रता का लाभ ही एक सीमा तक मिल पाता है।
नादयोग के लिए कर्णेंद्रियों संवेदनशीलता का सहारा लेने की अपेक्षा नासिका अधिक संवेदनशील भी मस्तिष्क के निकट भी और उस पर भीतरी या बाहरी शब्दों के आघात का कोई प्रभाव भी नहीं पड़ता। साथ ही 'सोऽहम्' साधना के माध्यम से नादयोग भी सध जाता है और इससे भी आगे शब्दब्रह्म के साथ संबंध जोड़ने का प्रयोजन भी पूरा हो सकता है।
'सोऽहम्' अजपा जप-साधना अपेक्षाकृत सरल भी है। कानों में बाहर के शब्दों का प्रवेश रोकने के लिए जिस प्रकार अवरोध लगाने पड़ते हैं, उस प्रकार की आवश्यकता नासिका मार्ग में नहीं पड़ती। शब्द के आवागमन से उसका कोई सीधा संबंध नहीं हैं। श्वास को गहरी खींचना और पूरी तरह उसे बाहर निकालने का उपक्रम श्वास विज्ञान की दृष्टि से भी शरीर के लिए लाभदायक सिद्ध होता है। फेफड़ों को पूरी हवा मिलने से वे सुदृढ़ होते हैं। रक्त या आक्सीजन की अधिक मात्रा मिलने लगाने पर रक्त-संचार एवं रक्तशोधन की प्रक्रिया तेज होती है। जीवनी शक्ति बढ़ती है। यह प्रत्यक्ष लाभ हुए। परोक्ष लाभों में श्वसन-क्रिया के साथ जो सूक्ष्म 'सोऽहम्' ध्वनि प्रवाह चलता है, उसकी पकड़ करने पर श्वास की सीढ़ी पर चढ़कर मस्तिष्क के विभिन्न शक्तिकेंद्रों में से जिस पर भी पहुँचना हो, उस तक आसानी से पहुँचा जा सकता है। इसके अतिरिक्त यह भी हो सकता है कि समस्त शरीर में दौड़ने वाली श्वास के साथ चेतना को जोड़कर जिस भी अवयव तक पहुँचना हो, उसमें सुधार-परिवर्तन करना हो, उसे किया जा सकता है। मेरुदंड षट्चक्र हैं। चौबीस नाड़ी गुच्छाओं के रूप में उपत्यिकाएँ शरीर के विभिन्न भागों में पाई जाती हैं। उनमें अपनी-अपनी दिव्य क्षमताएँ सन्निहित हैं। उन्हें कुरेदने, झकझोरने तथा गह्वर बनाने जैसे कितने ही वे कार्य किए जा सकते हैं, जो चमत्कारी सिध्दियों का उद्भव करते हैं। इस प्रकार 'सोऽहम्' साधना में नादयोग वाले सभी उद्देश्य पूरे हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त प्राणवायु पर सवारी गाँठ कर शरीर में अवस्थित सभी दिव्य केंद्रों तक पहुँचना और वहाँ से गोताखोरों की तरह बहुमूल्य मोती निकालना भी सरल होता है। 'सोऽहम्' साधना अति सरल है। श्वास खींचते समय ‘सो’ की ओर निकालते समय हेम् की धारणा करनी पड़ती है। कुछ दिन के अभ्यास से यह भावना अपेक्षाकृत अधिक सरल होती चली जाती है और अभीष्टशब्द स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ने लगते हैं। इसके अतिरिक्त ब्रह्मांड के प्रतीक प्रतिनिधि इस कायपिंड में जो शक्ति-संस्थान विद्यमान है, उनकी प्रसुप्ति दूर करके जागृति का उद्देश्य भी पूरा होता है। नादबरह्म और शब्दब्रह्म दोनों की ही साधना सध जाती है।
ज्ञानेंद्रिय वर्गीकरण में जिह्वा को द्विधा इंद्रिय माना गया है। रसना और वाणी। वह दूहरे प्रयोजन पूरे करती है। स्वाद भी चखती है। और बोलती भी है। ठीक उसी प्रकार नासिका को भी सूक्ष्म आध्यात्मिक विज्ञान में द्विधा माना गया है। उसका प्रत्यक्ष कार्य श्वास-प्रश्वास है। उससे जहाँ आक्सीजन की ऊर्जा शरीर को मिलती है, वहाँ थोड़ा अधिक प्रयत्न करने पर प्राणशक्ति से भंडार भरने वाले प्राणायामों को भी साधा जा सकता है। प्राणवान अर्थात जीवट वाला। ओजस्वी, तेजस्वी, साहसी पुरुषार्थी। यह इन प्रत्यक्ष विशेषताओं को अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में संचित करने के लिए प्राणायामों की अनेकानेक विधियाँ है। उनके माध्यम से शारीरिक और मानसिक रोगों का भी निराकरण किया जा सकता है।
नासिका का दूसरा कार्य कषेत्र है— गंध। सामान्य जीवन में उसका बहुत थोड़ा उपयोग रह गया है। दुर्गंध से बचने और सुगंधजन्य प्रसन्नता प्राप्त करने भर की सुविधा नासिका द्वारा प्राप्त की जाती है। नाक की बनावट चेहरे की सुंदरता और कुरूपता में भी अपना योगदान करती है। बस यही है— नासिका का सामान्य उपयोग, जो इन दिनों सर्वसाधारण द्वारा किया जाता है; किंतु यह तो उपेक्षित एवं अविज्ञात वह विशेषता है, जो एक प्रकार से तिरोहित ही हो गई और मनुष्य एक भारी लाभ से वंचित रह गया।
अन्याय जीव-जंतुओं की शारीरिक-मानसिक आवश्यकताएँ प्रायः गंध द्वारा ही पूरी होती हैं। शरीर संरचना की दृष्टि से वे मनुष्य की तुलना में पिछड़े होते हैं। मानसिक क्षमता भी दुर्बल होती है। इतने पर भी उनकी घ्राणेद्रियाँ इतनी तीव्र होती हैं कि आवश्यक वस्तुओं को तलाशने और संकटों से बचने के लिए सभी प्रयोजन वे गंध के सहारे पूरे कर लेते हैं। प्रणय निवेदन और प्रजनन से संबंधित सारी व्यवस्थाएँ गंध के आधार पर ही चलाते हैं, वे न केवल अपना शरीरगत सूत्र-संचालन ही नहीं करते; वरन प्रकृति के उन अदृश्य रहस्यों को भी जान लेते हैं, जो मनुष्य के लिए अभी अविज्ञात एवं आश्चर्यजनक बने हुए हैं। शहद की मक्खी चींटी, दीमक, आदि कीड़ों के जीवनक्रम पर नजर डालने से ऐसा बहुत कुछ प्रतीत होता है; जिसमें वे मनुष्य की तुलना में कहीं अधिक मात्रा में, कितने ही अतिरिक्त क्षेत्रों में आगे बढ़े-चढ़े हैं। छोटे कीड़े, जो छेद बना कर धरती में रहते हैं या पेड़-पौधों पर चिपके रहते हैं, उन्हें भी अपनी जीवनचर्या मात्र गंध के आधार पर निर्भर रखनी होती है। पारस्परिक पहचान अपने स्थान तक पहुँचने का बिना भटकाव वाला मार्ग, उन्हें गंध के ही आधार पर निर्धारित करना होता है।
मनुष्य की गंधशक्ति एक प्रकार से जीव-जंतुओं की तुलना में बहुत ही पिछड़ी हुई नगण्य स्तर की है। इसे यदि किसी प्रकार बढ़ाया जा सके और उसे महत्त्वपूर्ण प्रयोजनों में लगाया जा सके तो निश्चय ही मानवी क्षमता उसकी अपेक्षा कहीं अधिक विकसित स्तर की हो सकती है, जैसी कि आज है।