
प्रायश्चित बिना जीवनमुक्ति नहीं
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कर्म का फल अनिवार्य है। यह सारी विश्व व्यवस्था कर्मफल की सुनिश्चितता के आधार पर खड़ी है। ईश्वर न्यायकारी कहा जाता है। अदालत का यही कर्तव्य है कि वह अपराधी को दंड दे और जिसकी क्षति हुई है उसकी पूर्ति कराये, ईश्वर भी यही करता। यदि वह पूजा-प्रार्थना करने वालों को बिना दंड के छोड़ दिया करे तो उसे न्यायशील कैसे कहा जायेगा? खुशामद करने वालों को छूट, न करने वालों को कैद-यह तो विशुद्ध पक्षपात हुआ। भाई भतीजावाद, यार दोस्तों का विशेष लाभ ऐसा अँधेर तो ओछे अधिकारी करते हैं। यदि ईश्वर भी वैसा ही करने लगे तो फिर न्याय का अस्तित्व ही क्या रह जायेगा। फिर कर्मफल का सिद्धान्त ही कहाँ रहा?
पापों को क्षमा कराने और कर्मफल के दंड से बच निकलने की तरकीबें ढूंढ़ने के हेर फेर में न पड़कर औचित्य, ईमानदारी और बहादुरी का रास्ता यही है कि प्रायश्चित के लिए तैयार हों, अगले जन्मों तक घोर कष्ट सहन और नरक की आग में बुरी तरह जलने की अपेक्षा-साहसपूर्वक प्रायश्चित करके स्वयं ही आगे बढ़ा जाय और स्वेच्छापूर्वक दंड भोगकर उस कर्मफल से इसी जन्म में निवृत्ति प्राप्त कर लें। ऐसी हिम्मत और ईमानदारी से अपना अन्तःकरण निर्मल होता है। चित्त पर चढ़ा हुआ भार हलका होता है। समाज में भी इस ईमानदारी की प्रशंसा होती है और खोया हुआ विश्वास तथा सम्मान करता है और दंड की कठोरता को हलकी कर देता है। न्यायालय में कोई अपराधी स्वयं उपस्थित होकर स्वेच्छापूर्वक अपनी गलतियाँ स्वीकार करे और क्षति पूर्ति करने एवं दंड पाने की सहमति प्रकट करे तो निश्चित ही न्यायाधीश उसकी बदली हुई भावना की कद्र करेगा और हलका दंड देकर उसका फैसला कर देगा। प्रायश्चित इसी प्रक्रिया का नाम है।
धर्म शास्त्रों ने पग-पग पर हर व्यक्ति को यह परामर्श दिया है कि वह अपने पाप कर्मों का फल प्राप्त करने के लिए साहस प्रदर्शित करे और भगवान से समाज के सामने अपने बदले हुए अन्तःकरण की वास्तविकता प्रमाणित करके अपना भविष्य अन्धकार में से निकाल कर उज्ज्वल बना लें। इस संदर्भ में शास्त्रों का पन्ना-पन्ना प्रमाणों से भरा पड़ा है:-
यावंतो जंतवः स्वर्गे तावंतो नरकौकसः।
पपकृघाति नरकं प्रायश्चित्तपराड़्मुख॥
गुरुणि गुरुभिश्चैव लघूनि लघुभ्स्तिया।
प्रायश्चित्तानि ह्यन्येच मनुः स्वायम्भुवोऽव्रवीत्।
-शिवपुराण
जो मनुष्य अपने किये हुए दुष्कर्मों का कोई भी प्रायश्चित शास्त्रानुसार नहीं किया करते हैं वे ही पापात्मा प्राणी नरक में जाया करते हैं। स्वायम्भुव मनु ने तथा अन्य महर्षियों ने भी बड़े पापों के बड़े प्रायश्चित और छोटे-छोटे पाप कर्मों के छोटे प्रायश्चित बतलाये हैं।
पश्चातापः पापकृताँ निष्कृतिःपरा।
सर्वेषाँ वर्णितं सद्भिः सर्वपापविशोधनम्॥
पश्चात्तापेनैव शुद्धिः प्रायश्चितं करोति सः।
यथोपदिष्टं सदृभर्हि सर्वपापविशोधनम्॥
प्रायश्चितमधीकृत्य विधिवन्निर्भयः पुमान्।
स याति सुगतिं प्रायः पश्चातापी न संशयः॥
-शिवपुराण
पश्चाताप ही पापों की परम निष्कृति है। विद्वज्जनों ने पश्चाताप से सब प्रकार के पापों की शुद्धि होना कथन किया है। पश्चाताप करने से जिसके पापों का शोधन न हो, उस प्रायश्चित करना चाहिए । विद्वानों ने इससे सब पापों का शोधन होना कहा है। विधिपूर्वक अनेक प्रकार के प्रायश्चित करने पर भी मनुष्य भय रहित नहीं हो पाता, परन्तु पश्चाताप करने वाले को सुगति की प्राप्ति होती है।
विकर्मणा तप्यमानः पापाद् विपरिमुच्यते।
न तत् कुर्या पुनरिति द्वितीयात् परिमुच्यते॥
कर्मणायेन तेनेह पापाद् द्विजवरोत्तम्।
एवं श्रुतिरियं ब्रह्मन् धर्मेषु प्रतिदृश्यते॥
-महाभारत वन पर्व
जो मनुष्य पापकर्म बन जाने पर सच्चे हृदय से पश्चाताप करता है, वह उस पाप से छूट जाता है, तथा ‘फिर कभी ऐसा कर्म नहीं करूंगा ‘ ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेने पर वह भविष्य में होने वाले दूसरे पाप से भी बच जाता है।
विप्रवर ! शास्त्र विहित (जप, तप, यज्ञ, दान आदि ) किसी भी कर्म का निष्काम भाव से आचरण करने पर पाप से छुटकारा मिल सकता है। ब्रह्मन्! धर्म के विषय में ऐसी श्रुति देखी जाती है।
शातातपस्मृति में प्रायश्चित की आवश्यकता एवं अनिवार्यता का प्रतिपादन इस प्रकार किया है
प्रायश्चित विहीनानाँ महापातकिनाँ नृणाम। नरकान्ते भवेज्जन्म चिन्हाकिंतशरीरिणाम्।
प्रति जन्म भवेत्तेषाँ कृते याति पश्चात्तापवताँ पुनः॥
महापातकजं चिन्हं सप्तजन्मनि जायते।
उपपापोदृभवं पंच त्रीणि पापसमुद्भवम्॥
दुर्ष्कमजा नृणाँ रोगा यान्ति चोपक्रमैःशमम्।
जपैः सुरार्चनेर्होमैर्दानैस्तेषाँ शमोभवेत्॥ पू
र्व जन्मकृतं पापं नरकस्य परिक्षये।
बाधते व्याधिरुपेण तस्य जप्यादिभिः शमः॥
कुष्ठंच राजयक्ष्मा च प्रमेहो ग्रहणा तथा।
मूत्रकृच्छ्राश्मरीकासा अतीसार भगन्दरौ॥
दुष्टब्रणंगण्डमाला पक्षाघातोऽक्षिनाशम्
इत्येवमादयो रोगा महापापोदूभवाः स्मृताः॥
किये हुये पापों के प्रायश्चित न करने वाले, चिन्ह विशेष से अंकित शरीर वाले, महान पातक करने वाले मनुष्यों का जन्म नरकान्त में होता है। महान पातक का सूचक वह चिन्ह उनको प्रत्येक जन्म में रहता है। किये हुए पाप का पश्चाताप करने वालों का प्रायश्चित कर लेने पर वह चला जाता है। महापातक के कारण होने वाला चिन्ह सात जन्म तक रहता है। उस पाप से होने वाला पाँच जन्म तक तथा साधारण पाप से समुत्पन्न चिन्ह तीन जन्म तक रहता है। मनुष्यों के दुष्कर्म से होने वाले रोग उपक्रमों के द्वारा शान्त होते हैं। ऐसे उन रोगों की शान्ति जप, देवार्चन, होम और दानों के द्वारा होती है। पूर्व जन्म में किया हुआ पाप नरक के परिक्षय हो जाने पर मनुष्यों को किसी व्याधि के रूप में उत्पन्न होकर सताता है और उसका उपशमन जपादि द्वारा होता है। कुष्ठ, राजयक्ष्मा, प्रमेह, संग्रहणी मून्नकृच्छ, पथरी, कास अतिसार, भगन्दर, दुष्ट व्रण गण्डमाला, पक्षाघात और नेत्रहीनता इत्यादि रोग महापातक के कारण ही उत्पन्न होते हैं। इसी का समर्थन शातातपवस्मृति में अन्यत्र भी किया गया है और कहा गया है कि कुष्ठ, राजयक्ष्मा, पक्षाघात, अन्धता जैसे भयंकर रोग महापातकों के फलस्वरूप होते हैं, पर प्रायश्चित विधान कर लेने पर वे काफी कुछ घट-मिट जाते हैं।
जलोदरं यकृत प्लीहा शूलरोगव्रणानि च।
सजीर्णज्वरच्छर्द्दिभ्रममोहगलग्रहासः।
रक्तार्वुद विसर्पाधा उपपापोदृभवा गदाः॥
दण्डापतानकश्चित्रवपुः कम्पविचर्चिकाः।
वल्मीकपवुण्डरीकाद्या रोगाः पापसमुद्भवाः ॥
अर्शआद्या नृणाँ रोगा अतिपापाद्भवन्ति हि।
अन्ये च बहवो रोगा जायन्ते वर्णसंकराः॥
उच्यन्ते च निदानानि प्रायश्चितानि वै क्रमात्।
-शातातपवस्मृति 1 से 10
प्रतिग्रह को भी पातकों की श्रेणी में गिना गया है। प्रतिग्रह का अर्थ है- मुफ्त का माल । जिसका बदला न चुकाया गया हो, ऐसे समस्त अनुदान प्रतिग्रह हैं। बाप-दादों के उत्तराधिकार से मिला धन-जुआ, सट्टा, लाटरी हरामखोरी, का उपार्जन इसी श्रेणी का है। चोरी , रिश्वत, मुनाफाखोरी, कर चोरी, बेईमानी आदि से कमाया हुआ भी प्रतिग्रह है। ईमानदारी, औचित्य और परिश्रम का समुचित समावेश करने पर जो कुछ मिलता है पुण्य बनकर वही फलता-फूलता है अन्यथा मुफ्त का पाप बनकर सिर पर छाया रहता है और व्यक्तित्व के परिष्कार एवं आत्मोत्कर्ष के मार्ग में भारी अवरोध उत्पन्न करता है। साधु ब्राह्मणों को मिलने वाली दान-दक्षिणा तभी उचित है जब वे लोग उसका प्रतिपादन लोकसेवा के रूप में-उपलब्धि की तुलना में अत्यधिक करते रहें । अन्यथा भजन करने के बहाने दान-दक्षिणा बटोरते रहना-मुफ्त में खाते रहना-पाप बनकर रहेगा और उस स्थिति में की गई साधना निष्फल चली जीयेगी। साथ ही अन्तरात्मा भी पाप भार से लदता, बोझिल होता चला जाएगा।
साधु-ब्राह्मणों में से किसी ने यदि मुफ्त का धन(प्रतिग्रह) लिया हो, बदले में समुचित सेवाश्रम न किया तो उसका भी प्रायश्चित किया जाना चाहिए।
प्रति ग्रहेण विप्राणाँ ब्रह्मतेजः प्रणस्यति।
अत’ प्रतिग्रहे कृत्वा प्रायश्चिते समाचरेत्॥
-अरुण स्मृति
प्रतिग्रह लेने वाले का ब्रह्मतेज नष्ट हो जाता है। ऐसा ग्रहण करने वाले को प्रायश्चित करना चाहिए।
सद्वृत्तात्कारणाद् विप्राः प्रायश्चित भयात् खग। प्रतिग्रहे कृते चैव प्रायश्चितं समाचरेत्॥
-अरुण स्मृति
सद्वृत्तियों के उपार्जन में लगा हुआ व्यक्ति भी इस भय से प्रतिग्रह न ले कि उसका प्रायश्चित करना पड़ेगा। यदि कभी ले ही लिया गया हो तो उसका प्रायश्चित करना चाहिए।
यह बात मात्र ब्राह्मण, साधु के दान-दक्षिणा लेने तक सीमित नहीं है, वरन् उन सब पर लागू होती है जो बिना परिश्रम का धन ग्रहण करते हैं। न्यायपूर्वक समुचित परिश्रम के साथ कमाये हुए धन के अतिरिक्त अन्य सभी उपार्जनों को प्रतिग्रह माना गया है, भले ही वे उत्तराधिकार रूप में ही प्राप्त क्यों न हुए हों उन्हें उनका जितना सम्भव हो उतना लोकहित के लिए वापस लौटाने से अपनी सदाशयता का परिचय देना चाहिए। यही बात दूसरों से मिले स्नेह सहयोग आदि के सम्बन्ध में भी है। यह धन भले ही न हो पर अनुदान तो है ही। हर अनुदान ऋण रूप में मिलता है और सृष्टि क्रम के अनुसार उसे वापस लौटाने का स्मरण रखा जाना चाहिए। यह स्मृति उपकारी के प्रति मन में सघन कृतज्ञता भरे रहने के रूप में तो होनी चाहिए। प्रतिदान चुकाने की बात सोचते रहना भी आवश्यक है। शास्त्रकारों ने भी इसी का निर्देश किया है-
ग्रहीता हि गृहीतस्य दानाद्वै तपसा तथा।
पापसंशोधनं कुर्यादन्यथा रौरवं ब्रजेत॥
जो धन अनीति पूर्वक लिया है उसे दान द्वारा लौटा देना चाहिए और तपश्चर्या द्वारा उस कुकर्म का प्रायश्चित करना चाहिए। ऐसा न करने पर वह संचित पाप रौरव नरक में धकेलता है।
प्रायश्चित की आवश्यकता पर बल देते हुए तत्वदर्शियों ने कहा है-
अकृत्वा विहित कर्म्म कृत्वा निन्दितमेव च।
दोषमाप्नोतिः पुरुषः प्रायश्चितं विशोधनम् ॥
प्रायश्चित्तमकृत्वा तु न तिष्ठेद् ब्राह्मणः क्वचित्। यद्बयुर्ब्राह्मणाः शान्ताः विद्वाँसस्तत्समाचरेत्।
-कूर्मपुराण
निन्दित हेय कुकर्म करने मनुष्य को पाप लगता है। उसका शोधन प्रायश्चित द्वारा करना चाहिए।
आसम्बत्सरं प्रायश्चित्ताकरणे पापद्वैगुण्यम्।
(प्रायाश्चित्तेन्दु. शे.)
इनके अनुसार एक वर्ष तक पाप का प्रायश्चित्त न किया जाय तो पाप दुगुना हो जाता है। अतः पाप का प्रायश्चित यथा समय करना चाहिए।
तपसा कर्मणा चैव प्रदानेन भारत
पुनाति पापं पुरुषं पुनश्चेत्र प्रवर्तते।
-महाभारत शान्तिपर्व
भरतनन्दन ! मनुष्य तप से, यज्ञ आदि सत्कर्मों से, तथा दान के द्वारा पाप को धो बहाकर अपने आपको पवित्र कर लेता है।
पतकी च तदर्थेन शुध्यते वृत्तवान्यदि।
उपपातकिनः सर्वे तदर्थेनैव सुव्रता॥
-लिंग पुराण
पातकी पुरुष उसकी आधी प्रायश्चित की विधि से भी शुद्ध हो जाता है अगर वह पुरुष चरित्रवान होता है। हे सुव्रतो! जो उपपातक करने वाले हैं वे उसके भी आधे प्रायश्चित से शुद्ध हो जाया करते हैं।
श्रम के द्वारा प्रायश्चित करना हर किसी के लिए सम्भव है। सत्प्रवृत्ति संवर्धन में लगाया हुआ समय इस आवश्यकता की पूर्ति करता है। साथ ही धन के रूप में भी जो लौटाया जा सकना सम्भव है उसके लिए पूरी ईमानदारी से प्रयत्न करना चाहिए।
इस दृष्टि से धर्म-प्रचार के लिए की गई पदयात्रा, तीर्थयात्रा का उद्देश्य रहा है। उसे महत्व
भी इसलिए मिला और माहात्म्य भी इसी आधार पर बताया गया। आज की स्थिति में सर्वत्र सद्भावनाओं का ही दुर्भिक्ष पड़ा हुआ है। उसी अभाव के कारण सम्पदा और शिक्षा, कुशलता एवं अन्यान्य क्षमताएँ भी सुख-शान्ति बढ़ाने के स्थान पर विपत्ति बढ़ा रही हैं। सद्भाव विस्तार के लिए जनमानस का परिष्कार आवश्यक है। यह कार्य धर्म-प्रचार के लिए नियोजित की जाने वाली तीर्थयात्रा, पदयात्रा के लिए निकलने वाली टोलियाँ मण्डलियाँ जितनी अच्छी तरह कर सकती हैं उतना और किसी प्रकार सम्भव नहीं। प्रायश्चित के ऋण विमोचन चरण को पूरा करने के लिए अन्यान्य सत्प्रवृत्ति संवर्धन प्रयत्नों के साथ-साथ तीर्थयात्रा पर निकलने की बात भी ध्यान में रखी जानी चाहिए।